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________________ विषाद की खाई से ब्राह्मी स्थिति के शिखर तक 4 रहे हो? क्या तुम्हारा कुछ छूटा नहीं ? वह कहता है कि मैं जितना था, उतना यहां भी हूं। मेरा कुछ भी नहीं छूटा है। उस अशांत भीड़ में अकेला वही आदमी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। बाकी सब कुछ न कुछ बचाकर लाए हैं, फिर भी अशांत हैं। और वह आदमी कुछ भी बचाकर नहीं लाया और फिर भी शांत है। बात क्या है? युक्त पुरुष शांत हो जाता है, अयुक्त पुरुष अशांत होता है । ज्ञानी युक्त होकर शांति को उपलब्ध हो जाता है। इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। ६७ ।। तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६८ ।। क्योंकि, जल में वायु नाव को जैसे कंपित कर देता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की प्रज्ञा का हरण कर लेती है। इससे हे महाबाहो, जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है। जै से नाव चलती हो और हवा की आंधियों के झोंके उस नाव को डांवाडोल कर देते हैं; आंधियां तेज हों, तो नाव डूब भी जाती है; ऐसे ही कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जिसके चित्त की शक्ति विषयों की तरफ विक्षिप्त होकर भागती है, उसका मन आंधी बन जाता है, उसका मन तूफान बन जाता है। उस आंधी और तूफान में शांति की, समाधि की, स्वयं की नाव डूब जाती है। लेकिन अगर आंधियां न चलें, तो नाव डगमगाती भी नहीं। अगर आंधियां बिलकुल न चलें, तो नाव के डूबने का उपाय ही नहीं रह जाता। ठीक ऐसे ही मनुष्यं का चित्त जितने ही झंझावात से भर जाता है वासनाओं के, जितने ही जोर से चित्त की ऊर्जा और शक्ति विषयों की तरफ दौड़ने लगती है, वैसे ही जीवन की नाव डगमगाने लगती और डूबने लगती है। ज्ञानी पुरुष इस सत्य को देखकर, इस सत्य को पहचानकर यह चित्त की वासना की आंधियों को नहीं दौड़ाता। क्या मतलब है? रोक लेता है? लेकिन आंधियां अगर रोकी जाएंगी, तो भी आंधियां ही रहेंगी। और दौड़ रही आंधियां शायद कम संघातक हों, रोकी गई आंधियां शायद और भी संघातक हो जाएं। तो क्या ज्ञानी पुरुष आंधियों को रोक लेता है, रिस्ट्रेन करता है? अगर रोकेगा, तो भी आंधियां आंधियां ही रहेंगी और रुकी आंधियों का वेग और भी बढ़ जाएगा। तो क्या करता है ज्ञानी पुरुष ? यह बहुत मजे की और समझने की बात है कि आंधियां रोकनी नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। रोकनी नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। आप न चलाएं, तो रुक जाती हैं। क्योंकि आंधियां कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं, आपके ही सहयोग, कोआपरेशन से आ रही हैं। 289 मैं इस हाथ को हिला रहा हूं। इस हाथ को हिलने से मुझे रोकना नहीं पड़ता। जब रोकता हूं, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि अब नहीं हिलाता हूं। कोई हाथ अगर बाहर से हिलाया जा रहा हो, तो मुझे रोकना पड़े। मैं ही हिला रहा हूं, तो रोकने का क्या मतलब होता है ! शब्द में रोकना क्रिया बनती है, उससे भ्रांति पैदा होती है। यथार्थ में, वस्तुतः रोकना नहीं पड़ता, सिर्फ चलाता नहीं हूं कि हाथ रुक जाता है। एक झेन फकीर हुआ, उसका नाम था रिझाई। एक आदमी उसके पास गया और उसने कहा कि मैं कैसे रोकूं? उस फकीर ने कहा, | गलत सवाल मेरे पास पूछा तो ठीक नहीं होगा। यह डंडा देखा है ! रिझाई एक डंडा पास रखता था । और वह दुनिया बहुत कमजोर है, जहां फकीर के पास डंडा होता। कृष्ण कुछ कम डंडे की बात नहीं करते! एक मित्र कल मुझसे कह रहे थे कि मेरी हालत भी अर्जुन जैसी है । आप मुझे सम्हालना! मेरे मन में हुआ कि उनसे कहूं कि अगर कृष्ण जैसा एक दफा तुमसे कह दूं, महामूर्ख! तुम दुबारा लौटकर न आओगे। तुम आओगे ही नहीं । अर्जुन होना भी आसान नहीं है। वह कृष्ण उसको डंडे पर डंडे दिए चले जाते हैं। भागता नहीं है। संदेह है, लेकिन निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है। संदेह है, तो सवाल उठाता है। निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है, इसलिए भागता भी नहीं है। रिंझाई ने कहा कि देखा है यह डंडा ! झूठे गलत सवाल पूछेगा, सिर तोड़ दूंगा।
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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