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________________ गीता दर्शन भाग - 14 सिखाने के बाद भी अभी तक आपको ऐसा नहीं लगा कि आप साधु हो जाएं, तो जिनको आपने सिखाया उनको लगा होगा? कैसे लगेगा? कभी नहीं लगने वाला है। अब भी कहता हूं, आपके कोटिचंडी यज्ञ नहीं कोई काम करेंगे, क्योंकि यज्ञ करने वाली चेतना नहीं है। वह होनी चाहिए। | वही है अर्थपूर्ण । और वह हो, तो पूरा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। और वह हो, तो ये यज्ञ जो आप करते हैं, ये भी सार्थक हो सकते हैं। मैं निरंतर इनके खिलाफ बोलता हूं। कई लोगों को भ्रम पैदा हो जाता है कि शायद मैं यज्ञ के खिलाफ हूं। मैं, और यज्ञ के खिलाफ कैसे हो सकता हूं? लेकिन जिसे आप यज्ञ कह रहे हैं, वह यज्ञ ही नहीं है। वह सिर्फ पाखंड है, दिखावा है, धोखा है, व्यर्थ का जाल है। कभी सार्थक रहा होगा। लेकिन जिन लोगों की वजह से वह सार्थक था, वे लोग अब नहीं हैं। उन लोगों को पैदा करें, फिर सार्थक हो सकता है। मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक घर में छोटे बच्चे थे। बाप बूढ़ा था। बच्चे छोटे ही थे, तभी बाप मर गया। लेकिन बच्चों ने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद, उठकर चौके में से, दीवार पर जाता था। दीवार पर एक आला था। उस आले में कुछ उठाता, कुछ करता था। बच्चे बड़े हुए, तो उन्होंने उस आले को सम्हालकर रखा। बाप कुछ करता नहीं था विशेष । आले में उसने एक सींक रख छोड़ी थी दांत साफ करने के लिए। लड़के बड़े हुए और उन्होंने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद रोज आले पर जाता था। अब बाप की याद में वे भी जाने लगे। उनको पता तो नहीं था कि सींक वहां रखी है, उससे दांत साफ करने। अभी उनके दांत भी इस योग्य न थे कि उन्हें साफ करने की जरूरत पड़े। तो उन्होंने सोचा, करना क्या वहां जाकर, तो वे नमस्कार कर लेते थे। फिर बड़े हुए। फिर उन्हें बड़ा ऐसा लगा कि नमस्कार तो करते हैं, आले में कुछ है तो नहीं, सिर्फ एक सींक रखी है। पर उन्होंने सोचा कि बाप गरीब था, पैसे लड़कों ने काफी कमाए, तो उन्होंने सोचा कि हटाओ इस सींक को । उन्होंने एक चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली। जब लकड़ी ही रखनी है, तो इस सींक को क्या रखना, चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली। फिर और पैसा कमाया, और बड़े हुए। फिर नया मकान बनाया, तो उन्होंने कहा, वह आला तो बनाना ही पड़ेगा। तो उन्होंने कहा, अब आला क्या बनाना, एक छोटा मंदिर ही बना लो। मंदिर बना लो। चंदन की लकड़ी छोटी पड़ी, मंदिर बड़ा हो गया, तो उन्होंने 366 कहा, एक बड़ा स्तंभ ही बना लो। तो उन्होंने एक सोने का स्तंभ मंदिर के बीच में बनाकर रख दिया। रोज खाना खाकर उसको नमस्कार करके अपने काम पर चले जाते। मैंने सुना है, अब भी उनके घर में वही हो रहा है। आपके घर में भी वही हो रहा है। सभी घरों में वही हो रहा है। कभी जो बातें सार्थक होती हैं, जब वे व्यक्तित्व खो जाते हैं और बोध खो जाते हैं उनके पीछे से, उनकी प्रक्रिया खो जाती है, तब कोरे रिचुअल, डेड रिचुअल, मरे हुए क्रियाकांड शेष रह जाते हैं। फिर हम उनको करते चले जाते हैं। और अगर उन क्रियाकांडों से कुछ नहीं होता, तो भी हम सजग नहीं होते। तो भी हम सजग नहीं होते कि बहुत | मूल बात व्यक्तित्व, मनुष्य की चेतना है। वह चेतना वापस हो, तो यज्ञ आज भी संभव है। लेकिन हम चेतना वापस लौटाने के लिए उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि चेतना को वापस लौटाना कठिन काम है। हम यज्ञ करने को | बिलकुल तैयार हैं कि ले जाओ दस रुपया कर डालो। इसमें कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है। बहुत से बहुत दस रुपए का नुकसान होगा, करो। यज्ञ करने में उत्सुक हैं, यज्ञ की चेतना में हम उत्सुक नहीं हैं। मेरा जोर इस पर है कि वह यज्ञ करने वाली चेतना हो, तो सारा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। फिर यह जो यज्ञ की वेदी बनती है, उस पर जो होता है, उसकी भी सार्थकता हो सकती है। वह हमेशा करने वाले आदमी पर निर्भर है, वह कभी भी की जाने वाली क्रिया पर निर्भर नहीं । कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माऽक्षर समुद्भवम् । तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।। १५ ।। तथा उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। इससे सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। से कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान कृष्ण अर्जु को कहते हैं, ऐसे कर्म को तूं वेद से उत्पन्न हुआ जान। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। वेद शब्द का अर्थ सिर्फ वेद के नाम से चलती हुई संहिताएं नहीं है। जिस दिन हमने यह नासमझी की कि हमने वेद को सीमित किया संहिताओं पर,
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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