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________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM बहुत मुश्किल है, दोबारा उतरना तो असंभव है। एक नदी में एक कौन होगा। पीड़ित कौन होगा! कौन जानेगा कि मैं मर गया! अगर बार भी उतरना मुश्किल है! क्योंकि जब पैर आपका नदी की सतह | मैं मर ही जाऊंगा, तो जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं मर को छूता है, तब नीचे नदी भागी जा रही है। जब पैर और थोड़ा नीचे । गया। जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं कभी था। जानने को जाता है, तब ऊपर नदी भागी जा रही है। जब पैर और नीचे जाता कोई नहीं बचेगा कि सुकरात जैसा कुछ था। इसलिए चिंता का कोई है, तब नदी भागी जा रही है। आपका पैर नदी में एक फीट उतरता कारण नहीं है। और अगर नहीं मरा, अगर नहीं मरा मरकर भी, तब है, उस बीच नदी का सारा पानी भागा जा रहा है। जब आप ऊपर | तो चिंता का कोई कारण ही नहीं है। और दो ही संभावनाएं छुए थे, तब नीचे का पानी भाग गया है। जब आप नीचे पहुंचे, तब हैं-सुकरात ने कहा—या तो मैं मर ही जाऊंगा और या फिर नहीं तक ऊपर का पानी नहीं है। ही मरूंगा। और तीसरी कोई भी संभावना नहीं है। इसलिए मैं आकृति तो नदी की तरह भाग रही है। लेकिन आकृति हमें थिर निश्चित हूं। दिखाई पड़ती है। समानता की वजह से तादात्म्य मालूम होता है। ___ कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो मरने वाला है, वह तेरे बचाने वही है जो कल देखा था, वही है जो सुबह देखा था, वही है। से नहीं बचेगा। और जो नहीं मरने वाला है, वह तेरे मारने से नहीं प्रतिपल आकृति बदली जा रही है। मर सकता है। इसलिए तू व्यर्थ की चिंता में पड़ रहा है। इस व्यर्थ यह आकृतियों का जो जगत, यह रूप का जो जगत है, अर्जुन | की चिंता को छोड़। इस रूप के जगत के प्रति चिंतित है बहुत। हम भी चिंतित हैं बहुत। ___ यह शायद रूप और अरूप के बीच जो जगत का फैलाव है, जो मर ही रहा है प्रतिपल, उसके लिए वह कह रहा है कि ये मर | अगर हम रूप की तरफ से पकड़ें, तब भी चिंता व्यर्थ है। क्योंकि जाएंगे तो क्या होगा? जो मर ही रहा है, जिसे बचाने का कोई उपाय | जो मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही जाएगा, नहीं है, उसके लिए वह चिंतित है; वह असंभव के लिए चिंतित | पानी पर खींची गई लकीर है। खिंच भी नहीं पाती और मिटनी शुरू है। और जो असंभव के लिए चिंतित है, वह चिंता से कभी मुक्त हो जाती है। हाथ उठ भी नहीं पाता और मिट गई होती है। अगर नहीं हो सकता। असंभव की चिंता ही विक्षिप्तता बन जाती है। हम अरूप से सोचें, तो जो नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, आकृति को सदा बचाना तो दूर, क्षणभर भी बचाना मुश्किल है। वह कभी मिटा नहीं है। लेकिन अरूप से हमारा कोई परिचय नहीं । एक आकृति का जगत है-रूप का, ध्वनि का, किरण का, तरंगों है, अर्जुन का भी कोई परिचय नहीं है। का–वह कंपित है पूरे समय। सब बदला जा रहा है। अभी हम यह भी समझ लेना जरूरी है कि अर्जुन की चिंता एक और दूसरी यहां इतने लोग बैठे हैं, हम सब बदले जा रहे हैं, सब कंपित हैं, सूचना भी देती है। अर्जुन कहता है, ये सब मर जाएंगे। इसका सब तरंगायित हैं, सब वेवरिंग हैं, सब बदल रहा है। इस बदलाहट मतलब है कि अर्जुन अपने को भी रूप ही समझता है। अन्यथा के जगत को, जो भी सोचता हो बचाने की आकांक्षा, वह असंभव | ऐसा नहीं कहेगा। हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारे आकांक्षा कर रहा है। असंभव आकांक्षाओं के किनारे टकराकर ही | संबंध में ही कहा गया होता है। जब मैं किसी को मरते देखकर मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है। | सोचता हूं कि मर गया, खो गया, मिट गया, तब मुझे जानना कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू जो कह रहा है कि ये मर चाहिए कि मुझे अपने भीतर भी उसका पता नहीं है, जो नहीं मिटता जाएंगे, तो मैं तुझे कहता हूं, ये पहले भी थे, ये बाद में भी होंगे। है, नहीं मरता है, नहीं खोता है। तू इनके मरने की चिंता छोड़ दे। क्यों? __ अर्जुन जब चिंता जाहिर कर रहा है कि ये मर जाएंगे, तो वह मुझे सुकरात की घटना याद आती है। सुकरात जब मर रहा था, अपनी मृत्यु की ही चिंता जाहिर कर रहा है। वह यह जानता नहीं तो उसके एक मित्र ने, केटो ने पूछा कि आप मर जाएंगे, लेकिन कि उसके भीतर भी कुछ है, जो नहीं मरता है। और जब कृष्ण कह आप चिंतित और परेशान नहीं दिखाई पड़ते! तो सुकरात ने कहा रहे हैं कि ये नहीं मरेंगे, तब कृष्ण अपने संबंध में ही कह रहे हैं, कि मैं इसलिए चिंतित और परेशान नहीं हूं, क्योंकि मैं सोचता हूं क्योंकि वे उसे जानते हैं, जो नहीं मरता है। .. कि यदि मरकर मर ही जाऊंगा, तब तो चिंता का कोई कारण ही हमारा बाहर का ज्ञान, हमारे भीतर के ज्ञान का ही विस्तार है। नहीं है। क्योंकि जब बचूंगा ही नहीं, तो चिंता कौन करेगा! दुखी हमारा जगत का ज्ञान, हमारे स्वयं के ज्ञान का ही विस्तार है, 90
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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