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________________ - निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया - लगा ले, फिर ही तुझे खयाल में आ सकता है कि पहुंचा। बिना और कहा, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान चले तू स्वयं तक भी नहीं पहुंच सकता है। करते हैं भिक्षु। ले गया जगह-जगह। सम्राट थकने लगा। उसने झेन कहता है कि जिसे हम खोज रहे हैं, वह वहीं है जहां हम हैं; कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी-छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो इंचभर का फासला नहीं है। इसलिए जाओगे कहां? खोजोगे कैसे? | बीच में स्वर्ण-शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां श्रम क्या करोगे? असल में श्रम करके हम पराए को पा सकते हैं, | ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं। स्वयं को नहीं। स्वयं तो सब श्रम के पहले उपलब्ध है। लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे तो झेन और सांख्य का जो साम्य मैंने कहा, वह इसलिए कहा | | शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह कि सांख्य भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं है कर्म का। | सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल झेन भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं कर्म का। क्योंकि | | में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम जिसे जानना है, वह सब कर्मों के पहले ही मिला हुआ है, ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह आलरेडी एचीव्ड। भोजनालय देखने में नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? तो जो अड़चन है, जो कठिनाई है, जो समझ में हमें नहीं आती, | लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने वह इस तरह की है कि कोई चीज जो हमें मिली हुई नहीं है, उसे | लगा-यहां यह होता है, यहां यह होता है। पाना है, यह एक बात है। और कोई चीज जो हमें मिली ही है, उसे आखिर वापस द्वार पर लौट आए, उस बीच के मंदिर में बांकेई सिर्फ जानना है, यह बिलकुल दूसरी बात है। यदि आत्मा भीतर है नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं ही, तो कहां खोजना है? और अगर मैं ब्रह्म हूं ही, तो क्या करना पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने है? करने से क्या संबंध है? करने से क्या होगा? | दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार-बार कहता है कि . नहीं; न-करने में उतरना होगा, नान-एक्शन में उतरना होगा, उस मंदिर में ले चलो, वहां क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते अकर्म में उतरना होगा। छोड़ देना होगा करना-वरना और थोड़ी देर हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो! रुककर उसे देखना होगा, जो करने के पीछे खड़ा है, जो सब करने बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने का आधार है, फिर भी करने के बाहर है। कहा, वहां-वहां ले चलो, जहां-जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं एक और झेन कहानी मुझे याद आती है कि झेन में कोई पांच सौ | | वहां-वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी वर्ष पहले, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, बांकेई। जापान का नहीं करते। वहां सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर सम्राट उसके दर्शन को गया। बड़ी चर्चा सुनी, बड़ी प्रशंसा सुनी, है, मेडिटेशन सेंटर है। वहां हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहां तो गया। सुना उसने कि दूर-दूर पहाड़ पर फैली हुई मोनेस्ट्री है, | डूइंग नहीं है, वहां बीइंग है। वहां करने का मामला नहीं है। वहां आश्रम है। कोई पांच सौ भिक्षु वहां साधना में रत हैं। तो गया। | | जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते बांकेई से उसने कहा, एक-एक जगह मुझे दिखाओ तुम्हारे आश्रम | | हैं, तो हम वहां भीतर जाते हैं। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा की, मैं काफी समय लेकर आया हूं। मुझे बताओ कि तुम | था, क्या करते हैं, वहां ले चलो। कहां-कहां क्या-क्या करते हो? मैं सब जानना चाहता हूं। अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या __ आश्रम के दूर-दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, | करते हैं, तो मैं क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, अध्ययन करते हैं-कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में, आश्रम के सारे | तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण-शिखरों से मंडित एक | एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती मंदिर है। होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई एक्ट बांकेई ने कहा, भिक्षु जहां-जहां जो-जो करते हैं, वह मैं आपको नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में | | में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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