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30- गीता दर्शन भाग-14
जो भी दिखाए, वह चुनौती जहां भी ले जाए, उसकी स्वीकृति है। युद्ध को केवल परमात्मा की तरफ से डाले गए,दायित्व से ज्यादा इस स्वीकृति को थोड़ा समझना उपयोगी है।
मानने को तैयार नहीं हैं। परमात्मा की तरफ से आई हुई पुकार के जीवन प्रतिपल चुनौती है। और जो उसे स्वीकार नहीं करता, वह | | लिए वे तैयार हैं। वे केवल परमात्मा के साधन भर होकर लड़ने के जीते जी ही मर जाता है। बहुत लोग जीते जी ही मर जाते हैं। बर्नार्ड | | लिए तैयार हैं। इसलिए यह जो प्रत्युत्तर है युद्ध की स्वीकृति का, शा कहा करता था कि लोग मरते तो हैं बहुत पहले, दफनाए बहुत वह कृष्ण से दिलवाया गया है। बाद में जाते हैं। मरने और दफनाने में कोई चालीस साल का उचित है। उचित है, परमात्मा के साथ लड़कर हारना भी उचित अक्सर फर्क हो जाता है। जिस क्षण से व्यक्ति जीवन की चुनौती है; और परमात्मा के खिलाफ लड़कर जीतना भी उचित नहीं है। का स्वीकार बंद करता है, उसी क्षण से मर जाता है। जीवन है, अब हार भी आनंद होगी। अब हार भी आनंद हो सकती है। क्योंकि प्रतिपल चुनौती की स्वीकृति।
यह लड़ाई अब पांडवों की अपनी नहीं है; अगर है तो परमात्मा लेकिन चुनौती की स्वीकृति भी दो तरह की हो सकती है। चुनौती | की है। लेकिन यह रिएक्शन नहीं है, रिस्पांस है। इसमें कोई क्रोध की स्वीकृति भी क्रोधजन्य हो सकती है; और तब प्रतिक्रिया हो नहीं है। जाती है, रिएक्शन हो जाती है। और चुनौती की स्वीकृति भी | अगर भीम इसको बजाता, तो रिएक्शन हो सकता था। अगर प्रसन्नता, उत्फुल्लता से मुदितापूर्ण हो सकती है; और तब | भीम इसका उत्तर देता, तो वह क्रोध में ही दिया गया होता। अगर प्रतिसंवेदन हो जाती है।
कृष्ण की तरफ से यह उत्तर आया है, तो यह बड़ी आनंद की ध्यान देने योग्य है कि भीष्म ने जब शंख बजाया तो वचन है कि | स्वीकृति है, कि ठीक है। अगर जीवन वहां ले आया है, जहां युद्ध प्रसन्नता से और वीरों को प्रसन्नचित हुए...। आह्लाद फैल गया । ही फलित हो, तो हम परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ते हैं। उनके शंखनाद से। उस शंखनामको प्रसन्नता फैल गई। वह एक स्वीकार है। जीवन जो दिखा रहा है, अगर युद्ध भी, तो युद्ध का भी स्वीकार है। जीवन जहां ले जा रहा है, अगर युद्ध में भी, तो इस युद्ध काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। का भी स्वीकार है। निश्चित ही इसे प्रत्युत्तर मिलना चाहिए। और धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७ ।।। पीछे कष्ण और पांडव अपने-अपने शंखनाद करते हैं।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । यहां भी सोचने जैसी बात है कि पहला शंखनाद कौरवों की तरफ सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ।। १८।। से होता है। युद्ध के प्रारंभ का दायित्व कौरवों का है; कृष्ण सिर्फ स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। प्रत्युत्तर दे रहे हैं। पांडवों की तरफ से प्रतिसंवेदन है, रिस्पांस है। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ।। १९।। अगर युद्ध ही है, तो उसके उत्तर के लिए वे तैयार हैं। ऐसे युद्ध की श्रेष्ठ धनुष वाला काशिराज और महारथी शिखंडी और वृत्ति नहीं है। पांडव भी पहले बजा सकते हैं। नहीं लेकिन इतना | धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद दायित्व-युद्ध में घसीटने का दायित्व-कौरव ही लेंगे।
और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा धाला सुभद्रापुत्र युद्ध का यह प्रारंभ बड़ा प्रतीकात्मक है। इसमें एक बात और अभिमन्यु इन सबने, हे राजन्! अलग-अलग शंख बजाए। ध्यान देने जैसी है कि प्रत्युत्तर कृष्ण शुरू करते हैं। अगर भीष्म ने | और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शुरू किया था, तो कृष्ण को उत्तर देने के लिए तैयार करना उचित
शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों के नहीं है। उचित तो है कि जो युद्ध के लिए तत्पर योद्धा हैं... । कृष्ण ___हृदय विदीर्ण कर दिए। तो केवल सारथी की तरह वहां मौजूद हैं; वे योद्धा भी नहीं हैं, वे अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः । युद्ध करने भी नहीं आए हैं। लड़ने की कोई बात ही नहीं है। पांडवों प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः ।। २० ।। की तरफ से जो सेनापति है, उसे शंखनाद करके उत्तर देना चाहिए।
हषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । लेकिन नहीं, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि शंखनाद का उत्तर कृष्ण से |
अर्जुन उवाच शुरू करवाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि पांडव इस सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।। २१ ।।
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