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+ अर्जुन का पलायन – अहंकार की ही दूसरी अति
जब आप किसी को दान देते हैं, तब आपके भीतर जो रस उपलब्ध होता है - देने वाले का, देने वाले की स्थिति में होने का - भिखारी को देखकर जो दया पैदा होती है; उस क्षण में अगर भीतर खोजेंगे, तो अहंकार का स्वर भी बजता होता है। करुणावान चाहेगा, पृथ्वी पर कोई भिखारी न रहे; दयावान चाहेगा, भिखारी रहे । अन्यथा दयावान को बड़ी कठिनाई होगी। दया पर खड़े हुए समाज भिखारी को नष्ट नहीं करते, पोषित करते हैं। करुणा पर कोई समाज खड़ा होगा, तो भिखारी को बरदाश्त नहीं कर सकेगा। नहीं होना चाहिए।
अर्जुन के मन में जो हुआ है, वह दया है। करुणा होती तो क्रांति हो जाती। इसे इसलिए ठीक से समझ लेना जरूरी है कि कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैं, वह ध्यान में रखने योग्य है। तत्काल कृष्ण उससे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ उसके अहंकार की बात कह रहे हैं। वह उससे कह रहे हैं, अनार्यों के योग्य। वह दूसरा सूत्र बताता है कि कृष्ण ने पकड़ी है बात।
अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें वह कह रहा है, मुझे दया आती है। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? कृत्य बुरा है, ऐसा नहीं। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? इतना बुरा मैं कहां हूं! इससे तो उचित होगा, कृष्ण से वह कहता है कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे मार डालें। वह ठीक होगा, बजाय इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं ।
अहंकार अपने स्वयं की बलि भी दे सकता है। अहंकार जो आखिरी कृत्य कर सकता है, वह शहीदी है; वह मार्टर भी हो सकता है। और अक्सर अहंकार शहीद होता है, लेकिन शहीद होने से और मजबूत होता है।
अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं मर जाऊं । मैं, अर्जुन, ऐसी स्थिति में कुकृत्य नहीं कर सकूंगा । दया आती है मुझे, यह सब क्या करने को लोग इकट्ठे हुए हैं! आश्चर्य होता है मुझे।
उसकी बात से ऐसा लगता है कि इस युद्ध के बनने में वह बिलकुल साथी - सहयोगी नहीं है। उसने कोआप्ट नहीं किया है। यह युद्ध जैसे आकस्मिक उसके सामने खड़ा हो गया है। उसे जैसे इसका कुछ पता ही नहीं है । यह जो परिस्थिति बनी है, इसमें वह जैसे पार्टिसिपेंट, भागीदार नहीं है। इस तरह दूर खड़े होकर बात कर रहा है, कि दया आती है मुझे। आंख में आंसू भर गए हैं उसके । नहीं, ऐसा मैं न कर सकूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं ही मर जाऊं, वही श्रेयस्कर है...।
इस स्वर को कृष्ण ने पकड़ा है। इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण इस पृथ्वी पर पहले मनोवैज्ञानिक हैं। क्योंकि दूसरा सूत्र कृष्ण का सिर्फ अर्जुन के अहंकार को और बढ़ावा देने वाला सूत्र है।
दूसरे सूत्र में कहते हैं, कैसे अनार्यों जैसी तू बात करता है? आर्य का अर्थ है श्रेष्ठजन, अनार्य का अर्थ है निकृष्टजन । आर्य का अर्थ है अहंकारीजन, अनार्य का अर्थ है दीन-हीन । तू कैसी अनार्यों जैसी बात करता है!
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अब सोचने जैसा है कि दया की बात अनार्यों जैसी बात है ! आंख में दया से भरे हुए आंसू अनार्यों जैसी बात है! और कृष्ण | कहते हैं, इस पृथ्वी पर अपयश का कारण बनेगा और परलोक में भी अकल्याणकारी है। दया!
शायद ही कभी आपको खयाल आया हो कि संजय कहता है, | दया से भरा अर्जुन, आंखों में आंसू लिए; और कृष्ण जो कहते हैं, | उसमें तालमेल नहीं दिखाई पड़ता । क्योंकि दया को हमने कभी ठीक से नहीं समझा कि दया भी अहंकार का भूषण है । दया भी अहंकार का कृत्य है । वह भी ईगो एक्ट है-अच्छे आदमी का । क्रूरता बुरे आदमी का ईगो एक्ट है।
ध्यान रहे, अहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता है, बुराइयों से भी अपने को भरता है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलती, तभी वह | बुराइयों से अपने को भरता है।
इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैं, उनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता, ओरिजनल भेद नहीं होता। सज्जन और दुर्जन, एक ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है। सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है। चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता ।
अर्जुन कह रहा है, इनको मैं मारूं, इससे तो बेहतर है मैं मर | जाऊं । दुर्जन- - अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में बोलें तो| सैडिस्ट होता है। और सज्जन जब अहंकार को भरता है, तो | मैसोचिस्ट होता है। मैसोच एक आदमी हुआ, जो अपने को ही
मारता था।
सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं। अगर मैं आपको भूखा मारूं, तो दुर्जन हो जाऊंगा। कानून, अदालत मुझे पकड़ेंगे। लेकिन मैं खुद अनशन करूं, तो कोई कानून, अदालत मुझे पकड़ेगा नहीं; आप ही मेरा जुलूस निकालेंगे।