________________
im गीता दर्शन भाग-1 AM
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। परलोक में, यहां जो थोड़ा छोड़ता है, बहुत पाता है। तो उस थोड़े वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२ ।। | को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। वह बार्गेन है, वह सौदा है। हम
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।। सभी छोड़ते हैं, पाने के लिए हम सभी छोड़ते हैं। पाने के लिए कुछ क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ।। ४३ ।। भी छोड़ा जा सकता है। हे अर्जुन, जो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने लेकिन पाने के लिए जो छोड़ना है, वह निष्काम नहीं है। वह
वाले, स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले, इससे बढ़कर | पाना चाहे परलोक में हो, वह पाना चाहे भविष्य में हो, वह पाना कुछ नहीं है-ऐसे कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन जन्मरूप | चाहे धर्म के सिक्कों में हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। पाने कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के । | की आकांक्षा को आधार बनाकर जो छोड़ना है, वही कामना है, लिए बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली इस प्रकार की । वही कामग्रस्त चित्त है। वैसा चित्त कर्मयोग को उपलब्ध नहीं होता। जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं। यहां कहा जाए पृथ्वी पर स्त्रियों को छोड़ दो, क्योंकि स्वर्ग में
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। अप्सराएं उपलब्ध हैं, यहां कहा जाए पृथ्वी पर शराब छोड़ दो, व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते । । ४४ ।। । | क्योंकि बहिश्त में शराब के चश्मे बह रहे हैं, तो इस छोड़ने में कोई उस वाणी द्वारा हरे हए चित्त वाले, तथा भोग और ऐश्वर्य में भी छोड़ना नहीं है। यह केवल कामना को नए रूप में, नए लोक आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अंतःकरण में निश्चयात्मक | में, नए आयाम में पुनः पकड़ लेना है। यह प्रलोभन ही है। . बुद्धि नहीं होती है।
इसलिए जो व्यक्ति भी, कहीं भी, किसी भी रूप में पाने की आकांक्षा से कुछ करता है, वह कर्मयोग को उपलब्ध नहीं हो
सकता है। क्योंकि कर्मयोग का मौलिक आधार, कामनारहित, फल क र्मयोग की बात करते हुए कृष्ण ने अर्जुन को कहा है की कामनारहित कर्म है। कठिन है बहुत। क्योंकि साधारणतः हम पा कि वे सारे लोग, जो सुख, कामना, विषय और | सोचेंगे कि फिर कर्म होगा ही कैसे? हम तो कर्म करते ही इसलिए
वासना से उत्प्रेरित हैं, जो स्वर्ग से ऊपर जगत में कुछ | हैं कि कुछ पाने को है, कोई लक्ष्य, कोई फल। हम तो चलते ही भी नहीं देख पाते हैं. जिनका धार्मिक चिंतन, मनन और अध्ययन भी विषय-प्रेरित ही होता है, जो संसार में तो सुख की मांग करते हैं कि पीछे कुछ होने को है। अगर पता चले कि नहीं, आगे की ही हैं, जो परलोक में भी सुख की ही मांग किए चले जाते हैं, जिनके | | कोई कामना नहीं, तब तो फिर हम हिलेंगे भी नहीं, करेंगे भी नहीं। परलोक की दृष्टि भी वासना का ही विस्तार है, ऐसे व्यक्ति | कर्म होगा कैसे? निष्काम-कर्म की गहराई को समझने में असमर्थ हैं।
गीता के संबंध में और कृष्ण के संदेश के संबंध में जिन लोगों कर्मयोग को अगर एक संक्षिप्त से गणित के सूत्र में कहें, तो ने भी चिंतन किया है, उनके लिए जो बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक कहना होगा, कर्म - कामना = कर्मयोग। जहां कर्म से कामना ऋण | सवाल है, उलझाव है, वह यही है कि कृष्ण कहते हैं, कर्म कर दी जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वही कर्मयोग है। लेकिन | वासनारहित, कामनारहित! तो कर्म होगा कैसे? क्योंकि कर्म का कामना को शेष करने का अर्थ केवल सांसारिक कामना को शेष | | मोटिवेशन, कर्म की प्रेरणा कहां से उत्पन्न होती है? कर्म की प्रेरणा • कर देना नहीं है, कामना मात्र को शेष कर देना है। इस बात को | तो कामना से ही उत्पन्न होती है। कुछ हम चाहते हैं, इसलिए कुछ थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी है।
हम करते हैं। चाह पहले, करना पीछे। विषय पहले, कर्म पीछे। संसार की कामना को शेष कर देना बहुत कठिन नहीं है, कामना | | आकांक्षा पहले, फिर छाया की तरह हमारा कर्म आता है। अगर मात्र को शेष करना असली तपश्चर्या है। संसार की कामना तो शेष | | हम छोड़ दें चाहना, डिजायर, इच्छा, विषय, तो कर्म आएगा कैसे? की जा सकती है। अगर परलोक की कामना का प्रलोभन दिया मोटिवेशन नहीं होगा। जाए, तो संसार की कामना छोड़ने में कोई भी कठिनाई नहीं है। अगर हम पश्चिम के मनोविज्ञान से भी पछे-जो कि मोटिवेशन अगर किसी से कहा जाए, इस पृथ्वी पर धन छोड़ो, क्योंकि पर बहुत काम कर रहा है—कर्म की प्रेरणा क्या है? तो पश्चिम के
तो श्वास
भाइसलिए लत