SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Im वासना की धूल, चेतना का दर्पण +m और विज्ञान को नाश करने वाले इस (काम) पापी को जाता है, तब अंकुर पैदा होता है और वृक्ष बनता है। निश्चयपूर्वक मार। इंद्रियों को मारना, दो पत्थरों के बीच में बीज को दबाकर मार डालने जैसी बात समझी है कुछ लोगों ने। और उसके कारण एक बहुत ही न्यूरोटिक एसेटिसिज्म, एक बहुत विक्षिप्त, पागल कष्ण कहते हैं, अर्जुन! इंद्रियां, मन, यही काम के, त्यागवाद पैदा हुआ; जो कहता है, तोड़ दो, मिटा दो! लेकिन जिसे पृ० वासना के मूल स्रोत हैं। इन्हीं के द्वारा वासना का | तुम मिटा रहे हो, उसमें कुछ छिपा है। उसे तो मुक्त कर लो। अगर - सम्मोहन उठता है और जीवात्मा को घेर लेता है। यही | वह मुक्त न हुआ, तो तुम भी मिट जाओगे। उसमें तुम भी मिटोगे, हैं स्रोत, जहां से विषाक्त झरने फैलते हैं और जीवन को भटका | | क्योंकि इंद्रियों में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन में कुछ छिपा है, जाते हैं। तू पहले इन पर वश को उपलब्ध हो, तू इन्हें मार डाल। | जो हमारा है। मन को तोड़ना है, लेकिन मन में जो ऊर्जा है, वह कृष्ण सख्त से सख्त शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, तू इन्हें आत्मा तक पहुंचा देनी है। इंद्रियों को तोड़ना है, लेकिन इंद्रियों में मार डाल, तू इन्हें समाप्त कर दे। जो छिपा है रस, वह आत्मा तक वापस लौटा देना है। इसलिए इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इंद्रियों को, मन को | | मारने का मतलब ट्रांसफार्मेशन है, मारने का मतलब रूपांतरण है। मार डाल-इससे अनेक लोगों को ऐसा लगा कि इंद्रियां काट | असल में रूपांतरण ही ठीक अर्थ में मृत्यु है। डालो, आंखें फोड़ डालो, टांगें तोड़ दो। न रहेंगे पैर, जब पैर ही न | अब यह बड़े मजे की बात है। अगर आप बीज को दो पत्थरों से रहेंगे, तो भागोगे कैसे वासना के लिए! | भी कुचल डालें, तब भी बीज होता है, कुचला हुआ होता है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि वासना बिना पैर के भागती है, वासना | लेकिन जब एक बीज टूटकर वृक्ष बनता है, तो कहीं भी नहीं होता। के लिए पैरों की कोई जरूरत नहीं है। लंगड़े भी वासना में उतनी ही | | कुचला हुआ भी नहीं होता। खयाल किया आपने! जब एक बीज तेजी से भागते हैं, जितने तेज से तेज भागने वाले भाग सकते हैं। | वृक्ष बनता है, तो फिर खोजने जाइए कि बीज कहां है, फिर कहीं फोड़ दो आंखों को, लेकिन अंधे भी वासना में उसी तरह देखते हैं, नहीं मिलेगा। लेकिन दो पत्थरों के बीच में दबाकर कुचल दिया, जैसे आंख वाले देखते हैं। बल्कि सच तो यह है, आंख बंद करके तो कुचला हुआ मिलेगा। और कुचली हुई इंद्रियां और भी कुरूप वासना जितनी सुंदर होकर दिखाई पड़ती है, खुली आंख से कभी | जीवन को पैदा कर देती हैं। बहुत परवर्टेड हो जाती हैं। दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए जो बहुत खुली आंख से देखता है, वह तीन शब्द आपको कहना चाहूंगा। एक शब्द है प्रकृति। अगर तो कभी वासना से ऊब भी जाता है। लेकिन जो आंख बंद करके | | प्रकृति को कुचला, तो जो पैदा होता है, उसका नाम है विकृति। ही देखता है, वह तो कभी नहीं ऊबता है। | और अगर प्रकृति को रूपांतरित किया, तो जो पैदा होता है, उसका __ इंद्रियों को मार डाल अर्जुन, इस वचन से बड़े ही गलत अर्थ | | नाम है संस्कृति। प्रकृति अगर कुरूप हो जाए, कुचल दी जाए, तो लिए गए हैं। क्योंकि मारने की बात नहीं समझी जा सकी। हम तो विकृत हो जाती है, परवर्ट हो जाती है। और प्रकृति अगर रूपांतरित मारने से एक ही मतलब समझते हैं कि किसी चीज को तोड़ डालो। हो जाए, ट्रांसफार्म हो जाए, सब्लिमेट हो जाए, तो संस्कृति पैदा जैसे कि एक बीज है। बीज को मारना दो तरह से हो सकता है। | होती है। एक, जैसा हम समझते हैं। बीज को मार डालो. तो हम कहेंगे. दो। तो इंद्रियों और मन को अर्जुन से जब वे कहते हैं, मार डाल। तो पत्थरों के बीच में दबाकर तोड़ दो, मर जाएगा। लेकिन यह बीज | | कृष्ण के मुंह में ये शब्द वह अर्थ नहीं रखते, जो अर्थ त्यागवादियों का मारना बहुत कुशलतापूर्ण न हुआ। क्योंकि उसमें तो वह भी मर के मुंह में हो जाता है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों के कहीं भी विरोधी नहीं गया, जो वृक्ष हो सकता था। बीज को मारने की कुशलता तो तब हैं। कृष्ण से, इंद्रियों का कम विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। है, कि बीज मरे और वृक्ष हो जाए। नहीं तो बीज को मारने से क्या | | कृष्ण रोते हुए, उदास, मुरदा आदमी नहीं हैं। फायदा होगा? निश्चित ही, जब वृक्ष पैदा होता है, तो बीज मरता | ___ कृष्ण से ज्यादा नाचता हुआ, कृष्ण से ज्यादा हंसता हुआ है। बीज न मरे, तो वृक्ष पैदा नहीं होता। बीज को मरना पड़ता है, व्यक्तित्व पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कृष्ण कहीं मिट जाना पड़ता है। राख, धूल हो जाता है, मिट्टी में मिलकर खो इंद्रियों को कुचलने के लिए कह रहे हों, यह तो असंभव है; यह |465
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy