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________________ गीता दर्शन भाग-14 मरूं, ज्ञानी बांहें फैलाकर आलिंगन करता हुआ मरता है कि मृत्यु स्वाभाविक है। इसलिए अज्ञानी मरने की पीड़ा भोगता है; ज्ञानी मरने की कोई पीड़ा नहीं भोगता । अज्ञानी मरने से भयभीत, कांपता हुआ मरता है; ज्ञानी आनंद से पुलकित, नए द्वार से नए जीवन में प्रवेश करता है। दोनों मरते हैं। प्रकृति के क्रम के अनुसार, प्रकृति के गुण के अनुसार दोनों के जीवन में सब कुछ वही घटता है। अज्ञानी भी जवान होता है प्रकृति गुणों से; ज्ञानी भी जवान होता है। अज्ञानी समझ लेता है कि मैं जवान हूं और ज्ञानी समझता है कि जवानी एक फेज़ है, यात्रा का एक पड़ाव है, आया और गया। फिर अज्ञानी जवानी छूटती तो दुखी होता, पीड़ित होता, परेशान होता । ज्ञानी- - छूटती है, तो जैसे सांझ सूरज डूब जाता है, ऐसी जवानी डूब जाती है, वह आगे बढ़ जाता है। ज्ञानी और अज्ञानी में जो फर्क है, वह इतना ही है कि अज्ञानी जो होने ही वाला है, उससे भी व्यर्थ लड़कर परेशान होता है। ज्ञानी जो होने ही वाला है, उसे सहज स्वीकार करके परेशान नहीं होता है। प्रकृति के गुण दोनों पर एक-सा काम करते हैं; उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रकृति ज्ञानी और अज्ञानी को नहीं देखती, प्रकृति का अपना कर्म है, अपनी व्यवस्था है, अपने गुणधर्मों की यात्रा है। प्रकृति वैसी ही चलती रहती है। वह कभी नहीं देखती; देखने का कोई सवाल भी नहीं है। कृष्ण यह कह रहे हैं, इसलिए हठधर्मी व्यर्थ है। क्यों वे अर्जुन से कह रहे हैं? अर्जुन थोड़ी हठधर्मी पर उतारू है। वह कहता है। कि मैं यह क्षत्रिय - वत्रिय होना छोड़कर भागता हूं। मैं युद्ध बंद करता हूं। यह मैं नहीं करूंगा। वह कहता है कि मैं लोगों को नहीं। मारूंगा। कृष्ण यह कह रहे हैं कि मरना जिसे है, वह मरता है; तू नाहक हठधर्मी करता है कि तू नहीं मारेगा, या तू मारेगा; ये दोनों ही हठधर्मियां हैं। जो मरता है, वह मरता है; जो नहीं मरता, वह नहीं मरता है। कृष्ण का गणित बहुत साफ है । वे यह कह रहे हैं कि तू इसमें व्यर्थ हठधर्मी न कर । तू सिर्फ एक पात्र हो जा इस अभिनय का और जो परमात्मा से तेरे ऊपर गिरता है, उसे होने दे। और जो प्रकृति होता है, उसे होने दे। तू इसमें बीच में मत आ, तू अपने को मत ला । ज्ञानी और अज्ञानी में उतना ही फर्क है। घटनाएं वही घटती हैं, रुख अलग हो जाता है; कोण देखने का अलग हो जाता है। बीमारी आ जाती है, तो अज्ञानी छाती पीटकर रोता है कि बीमारी आ गई। 428 ज्ञानी स्वीकार कर लेता है कि बीमारी आ गई। शरीर का धर्म है कि वह बीमार होगा, नहीं तो मरेगा कैसे! नहीं तो वृद्ध कैसे होगा ! शरीर एक बड़ा संस्थान है, एक संघात है, उसमें करोड़ों जीवाणुओं का जोड़ है। उतनी बड़ी मशीनरी चलेगी, खराब भी होगी, ओवर ऑयलिंग की भी जरूरत होगी; रिपेयरिंग भी होगी; वह सब होगा। इतनी बड़ी मशीन अभी पृथ्वी पर दूसरी कोई नहीं | है, जितनी आदमी के पास है। इतनी कांप्लेक्स, इतनी जटिल मशीन भी कोई नहीं है, जितनी अभी आदमी है। आप कोई छोटी-मोटी घटना नहीं हैं। वह तो आपको कुछ करना नहीं पड़ता, इसलिए आपको कुछ पता नहीं चलता कि कितनी बड़ी मशीन काम कर रही है चौबीस घंटे, अहर्निश । मां के पेट में जिस दिन पहले दिन गर्भाधान हुआ था, उस दिन से काम शुरू हुआ; और जब तक लोग चिता पर न चढ़ा देंगे, तब तक जारी रहेगा । चिता पर इसलिए कह रहा हूं कि जिनको हम कब्र में गड़ाते हैं, तो गड़ाने के बाद भी बहुत दिन तक काम जारी रहता है मशीन का । आत्मा तो जा चुकी होती है। मुर्दों के भी नाखून बढ़ जाते हैं, बाल बढ़ जाते हैं कब्र में। मशीन काम ही करती रहती है, मोमेंटम पकड़ जाती है। जैसे कि कोई साइकिल चलाता है, तो घर आने के दस-बीस कदम पहले ही पैडल मारना बंद कर देता है, फिर भी साइकिल चली ही जाती है। यात्री उछलकर उतर भी जाए नीचे, तो साइकिल अकेली ही दस-बीस कदम चली जाती है। मोमेंटम, पुरानी चलने की गति पकड़ जाती है। मुरदे कब्र में अपने नाखून बढ़ा लेते हैं, बाल बढ़ा लेते हैं, वह मशीन काम करती चली जाती है। उन्हें पता ही नहीं लगता एकदम से मशीन को कि मालिक जा चुका है, पता लगते-लगते ही पता लगता है। इसलिए मैंने कहा, चिता तक। जब तक कि हम जला ही नहीं देते, मशीन काम करती चली जाती है, अहर्निश । बहुत आटोमेटिक है, स्वचालित है। फिर उसके अपने गुणधर्म हैं, वे आते रहेंगे। | अज्ञानी हर चीज से परेशान होता है, यह क्यों हो गया ? और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि न हो, तो भी परेशान होता है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ ? हो गया, तब तो ठीक ही है; नहीं हुआ, तो भी परेशान होता है। एक मेरे मित्र हैं। उनको दमा का दौर पड़ता है, तो परेशान होते हैं । और किसी दिन नहीं पड़ता, तो भी परेशान होते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि आज दौर नहीं पड़ा, क्या बात है? उन्हें इससे भी घबड़ाहट लगती है। यह भी एक जीवन का क्रम हो गया उनके कि
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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