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गीता दर्शन भाग-14
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।। २२ ।। यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। २३ ।। उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ।। २४ ।। इसलिए हे अर्जुन, यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं। क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कर्म में न बर्त, तो हे अर्जुन, सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तने लग जाएं। तथा यदि मैं
कर्म न करूं, तो ये सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात इनको मारने वाला बनूं।
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नाई के पर्वत पर मोजेज को परमात्मा का दर्शन हुआ और उस दर्शन में परमात्मा के दस आदेश, टेन कमांडमेंट्स भी मिले। फिर मोजेज सनाई के पर्वत से नीचे उतरे। लेकिन जब वे पर्वत पर गए थे, तो मोजेज थे; और जब पर्वत से नीचे उतरे, तो परमात्मा हो गए। पर्वत से नीचे आकर उन्होंने अपने लोगों से जो वचन कहा, यहूदी इतिहास में वह सदा ही विचारणीय बना रहा। मोजेज ने नीचे उतरकर लोगों से कहा कि नाउ आई गिव यू दि ला, मैं तुम्हें धर्म देता हूं। परमात्मा और मूसा एक हो गए, मोजेज एक हो गए। जिसने भी परमात्मा को जाना, वह परमात्मा से एक हो जाता है। मोजेज कहना चाहिए था, परमात्मा के मुझे दर्शन हुए; उन्होंने मुझे धर्म का नियम दिया, वह मैं परमात्मा की तरफ से तुम्हें देता हूं। लेकिन मोजेज ने कहा, मैं तुम्हें धर्म देता हूं।
एक हसीद फकीर से उसके शिष्य पूछ रहे थे कि मोजेज का ऐसा कहना अनुचित नहीं है क्या? क्या यह अनधिकारपूर्ण नहीं है? क्या मोजेज का इस तरह का वक्तव्य अहंकार से भरा हुआ नहीं है ? तो उस हसीद फकीर ने एक छोटी-सी कहानी कही, वह आपसे कहना चाहूं ।
उस हसीद फकीर ने कहा, एक बहुत बड़ा व्यापारी, एक बहुत बड़ा व्यवसायी तीर्थयात्रा को जाना चाहता था। दूर था उसका तीर्थ,
संभावना वर्षों के लग जाने की थी। अकेला था घर में। उसके बड़े व्यवसाय को संभालने वाला कोई भी न था। उसने एक आदमी को नौकर की तरह नियुक्त किया। नौकर के हाथ में सारा कारोबार सौंप दिया और खुद दुकान के पीछे के कमरे में बैठने लगा ।
एक वर्ष बीत गया, लेकिन उसे ऐसा नहीं लगा कि अभी | तीर्थयात्रा पर जाने का समय परिपक्व हुआ है। अनेक बार वह पीछे के कमरे में से बैठा हुआ नौकर की बातचीत ग्राहकों से सुनता। नौकर अक्सर कहता, दि मास्टर विल नाट गिव यू दिस थिंग एट | दिस प्राइस, मालिक इस कीमत पर चीज नहीं देगा। दूसरा वर्ष शुरू हो गया। वह पीछे के कमरे में ही रहता और फिर नौकर को सुनता रहता। लेकिन दूसरे वर्ष उसे थोड़ी आशा बंधी। नौकर ने ग्राहकों से कहना शुरू कर दिया, वी विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, हम इस कीमत पर चीज नहीं दे सकते। लेकिन तब भी मालिक ने सोचा कि अभी ठीक समय नहीं आया कि मैं यात्रा पर निकल जाऊं। तीसरा वर्ष लग गया। और एक दिन मालिक को | लगा कि ठीक समय आ गया, क्योंकि नौकर ने ग्राहकों से कहा, आई विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, मैं तुम्हें इस | कीमत पर चीज नहीं दूंगा। मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि अब | बेफिक्र रहो । अब मैं यात्रा पर जा सकता हूं। अब नौकर में और मुझमें कोई फासला नहीं रहा। अब हमारे बीच की दीवाल टूट गई है। अब नौकर मेरी वाणी बोल रहा है। अब मैं ही बोल रहा हूं। अब बेफिक्र हुआ जा सकता है।
उस हसीद फकीर ने यह छोटी-सी कहानी कही थी, यह आपसे मैं कहता हूं, इस सूत्र को समझाने के पहले।
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कृष्ण जब ऐसा कहते हैं कि मुझे अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो पाने योग्य हो, क्योंकि मैंने सब पा लिया; अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिए करने योग्य हो, क्योंकि सब किया जा चुका; जो पाना था, वह पा लिया गया; जो करना था, वह कर लिया गया; अब कर्म मेरे लिए कर्तव्य नहीं है; तो यहां कृष्ण नहीं बोल रहे हैं, परमात्मा ही बोल रहा है। और इतने साहस से सिर्फ वही बोल सकता है, जो परमात्मा के साथ बिलकुल एक हो गया है।
राम इतने साहस से नहीं बोलते। इसलिए राम को हम पूर्ण अवतार नहीं कह सके । कृष्ण ही इस साहस से बोलते हैं। और इतना बड़ा साहस सिर्फ निरहंकारी को ही उपलब्ध होता है। अहंकारी तो सदा भयभीत रहता है। सच तो यह है कि भय को हम अपने अहंकार से छिपाए रखते हैं। अहंकारी सदा डांवाडोल रहता