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________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - शीघ्रता से...। पाप की आखिरी गहराई छ ली। और जब कृष्ण ऐसे कर सकता है-साहस है। आदमी से कहेंगे कि पाप वैरी है, तो वाल्मीकि जितना ठीक से हममें तो पापी होने का भी साहस नहीं होता, पुण्यात्मा होने का समझ सकता है, उतना अर्जुन नहीं समझ सकता। क्योंकि अर्जुन | | साहस तो जरा दूर की बात है। अगर हम पापी नहीं होते, तो उसका ने वासना को उस गहराई तक छुआ भी नहीं है, जहां उसका वैरीपन | | कारण यह नहीं होता कि हम पुण्यात्मा हैं; उसका कुल कारण इतना पूरा प्रकट हो जाए। वाल्मीकि जानता है अनुभव से, कृष्ण जो कहते | होता है कि पापी होने का भी साहस नहीं है। अगर आदमी चोरी नहीं हैं, वाल्मीकि जानता है अपनी पीड़ा से, वह कहेगा कि ठीक है। करता, तो उसकी वजह यह नहीं कि वह अचोर है, सौ में निन्यानबे वाल्मीकि के पूरे प्राण से निकलेगा, हां, यही है सच कि वासना | मौकों पर वजह इतनी ही होती है कि चोर के लिए जितनी हिम्मत दुख और पीड़ा और नरक है। और उसके नरक को वह जानता है, चाहिए, उतनी भी उसमें नहीं है। चोर तो वह है ही, सिर्फ हिम्मत नहीं उसका लौटना शीघ्रता से होता है। है, इसलिए एक्ट नहीं कर पाता; विचार ही करता रहता है। सोचता तो जब मैं कहता हूं कि दूरी पूर्ण है परमात्मा से, तभी छलांग का | ही रहता है, कर नहीं पाता। सोचता ही सोचता रहता है। क्षण भी है। वह मैं नहीं कह रहा है कि छलांग नहीं लग सकती। वाल्मीकि जैसे लोग हिम्मतवर हैं। और जब वे पाप में छलांग कोई आदमी इतनी वासना में नहीं हो सकता कि वहां से लौट न लगा सकते हैं बेशर्त, तो किसी दिन अगर उनको पता चल जाए कि सके, क्योंकि कोई आदमी किसी रास्ते पर इतना आगे नहीं जा पाप का रास्ता समाप्त हुआ, तो परमात्मा में वे छलांग नहीं लगा सकता कि उसी रास्ते से वापस न आ सके। हां, अगर | सकेंगे! इतनी ही बेशर्त छलांग परमात्मा में भी लगा देते हैं। छलांग कल-डि-सेक आ जाए, रास्ते का अंत आ जाए, वहां से रास्ता ही की हिम्मत जिसको पाप में भी है. उसको परमात्मा में न होगी। जो खत्म हो जाए, आगे खड़ हो अनंत और कोई रास्ता न हो. तो नर्क में कूद सकता है, उसके सामने स्वर्ग आ जाए, तो नहीं कूदेगा! लौटना ज्यादा तीव्रता से होता है कि व्यर्थ हो गया यह रास्ता। लेकिन हम, हम कोई हिम्मत नहीं जुटा पाते। इसलिए बीच के लेकिन बीच में जो लोग होते हैं, उन्हें आगे रास्ता दिखाई पड़ता | आदमियों की कठिनाई है; वे दोनों बातें मानते रहते हैं। इधर रोज है। उन्हें लगता है, अभी तो रास्ता शेष है। आप कहते हैं कि नर्क | गीता भी पढ़ लेते हैं और कहते हैं कि वासना वैरी है, और दिन-रात है, लेकिन हम आखिर तक जाकर तो देख लें। क्योंकि अब तक वासना को सोचकर सोचते भी हैं कि होता है। कहते तो हैं कष्ण. तो मन ने कहा कि स्वर्ग आगे है। आप कहते हैं, पीछे है! मन तो पता नहीं, चित्त तो यही कहता है कि वासना ही मित्र है। इसलिए कहता है, आगे है। वासना तो कहती है, और थोड़ा, और थोड़ा, फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं, फिर चौबीस घंटे वासना में जीते हैं, बस एक मील का पत्थर और पूरा करो। और वासना कभी भी पूरी फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं। फिर उनकी यह नियमित आदत हो बात नहीं कहती, हमेशा इंस्टालमेंट में कहती है। इतना और कर जाती है। वासना में भी जीते हैं, वासना के खिलाफ पढ़कर अपने • लो, बस इतने में तो देर नहीं, थोड़ी-सी तो बात रह गई है। मन को भी हलका कर लेते हैं। दस-पांच कदम और, और मंजिल आ रही है। अब यहां से लौट | यह बड़ी तरकीब है चालाक, कनिंग! इस भांति वे दोहरा काम रहे हो! पागल हो! कहते होंगे कृष्ण। पता नहीं, यह आदमी झूठ | करते हैं। इस भांति वे वासना में भी जीते रहते हैं और अपने मन कहता हो; पता नहीं, यह आदमी धोखा देता हो; पता नहीं; इस | को भी समझाते रहते हैं कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं, रोज गीता आदमी की बात कहां तक सच है! पढ़ता हूं, वासना वैरी है। आदमी तो अच्छा हूं, जरा समय नहीं अर्जुन को दिक्कत होती है समझने में, वाल्मीकि को दिक्कत | | आया; अभी प्रभु की कृपा नहीं है; अभी पिछले जन्मों के कर्म बाधा नहीं होगी। वाल्मीकि कहेगा, ठीक कहते हो! आगे रास्ता कहां है! | डाल रहे हैं; अभी स्थिति नहीं बनी, इस तरह समझाते। गीता तो अब तो सब मील के पत्थर खत्म हुए। तो वाल्मीकि जैसा आदमी | रोज पढ़ता ही है, इसलिए अपने अहंकार को भी भीतर बचाए रखते क्षण में, क्षण में, सडेन क्रांति से गुजर जाता है। अनेक लोग मुझसे | | हैं कि मैं जानता हूं कि वासना वैरी है। और अपने चित्त को भी पूछते हैं कि वाल्मीकि जैसे पापी, और इतने बड़े संत कैसे हो सकते चलाए रखते हैं वासना में। ऐसे वे दो नावों पर सवार होते हैं। कहीं है। तो मैं उनसे कहता हं कि जो आदमी इतना पापी होने की हिम्मत नहीं पहंचते। न पाप के अंत पर पहंचते, न पुण्य के अंत पर कर सकता है, वह आदमी उतनी ही मात्रा में संत होने की हिम्मत | | पहुंचते। सदा ही उनकी दो नावें बीच में ही भटकती रहती हैं। अनंत 14631
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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