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+ विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM
विवेकानंद को जितना आदर अमेरिका में मिलता था, उतना | | भूल जाता है। क्यों भूल जाता है? जब तक वह मैं को मजबूत करता कलकत्ता में कभी नहीं मिला। दो-चार-दस दिन कलकत्ता लौटकर | था, तब तक अपना था। और जब मैं को मजबूत नहीं करता, तब स्वागत-समारोह हुआ, फिर सब समाप्त हो गया। फिर कलकत्ता अपना नहीं रह जाता। में लोग कहेंगे कि अरे, वही न, कायस्थ का लड़का है, कितना ज्ञान | नहीं. अर्जन गलत कह रहा है। उसे पता नहीं है। उसे पता हो. हो जाएगा! .
तब तो बात और हो जाए। उसे पता पड़ेगा धीरे-धीरे। गलत कह रामतीर्थ को अमेरिका में भारी सम्मान मिला, काशी में नहीं | रहा है कि जिनके लिए हम राज्य चाहते हैं...। नहीं, उसे कहना मिला। काशी में एक पंडित ने खड़े होकर कहा कि संस्कृत का अ चाहिए कि जिनके बिना राज्य चाहने में मजा न रह जाएगा...। बस नहीं आता और ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हो? पहले संस्कृत चाहते तो अपने ही लिए हैं, लेकिन जिनकी आंखों के सामने चाहने सीखो! और बेचारे रामतीर्थ संस्कृत सीखने गए।
में मजा आएगा कि मिले, जब वे ही न होंगे, तो अपरिचित, रेंज है, एक सीमा, एक वर्तुल है। लेकिन शायद रामतीर्थ को भी | अनजान लोगों के बीच राज्य लेकर भी क्या करेंगे! अहंकार का इतना मजा न्यूयार्क में सम्मान मिलने से नहीं आ सकता था, जितना मजा भी क्या होगा उनके बीच, जो जानते ही नहीं कि तुम कौन हो! काशी में मिलता, तो आता। इसलिए रामतीर्थ भी कभी नाराज नहीं | | जो जानते हैं कि तुम कौन हो, उन्हीं के बीच आकाश छूने पर पता हुए, अमेरिका में जब तक थे। कभी दुखी और चिंतित नहीं हुए। चलेगा कि देखो! काशी में दुखी और चिंतित हो गए। निरंतर ब्रह्मज्ञान की बात करते | ___ ध्यान रहे, हम अपने दुश्मनों से ही प्रतियोगिता नहीं कर रहे हैं, थे, काशी में इतनी हिम्मत न जुटा पाए कि कह देते कि ब्रह्मज्ञान का | अपने मित्रों से हमारी और भी गहरी प्रतियोगिता है। अपरिचितों से संस्कृत से क्या लेना-देना! भाड़ में जाए तुम्हारी संस्कृत। इतनी | | हमारी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, परिचितों से हमारी असली प्रतिस्पर्धा हिम्मत न जुटा पाए। बल्कि एक टयूटर लगाकर संस्कृत सीखने है। इसलिए दो अपरिचित कभी इतने बड़े दुश्मन नहीं हो सकते, बैठ गए। यह पीड़ा समझते हैं?
| जितने दो सगे भाई हो सकते हैं। उन्हीं से हमारी प्रतिस्पर्धा है, उन्हीं वह जो अर्जुन कह रहा है निरंतर, सरासर झूठ कह रहा है। उसे के सामने सिद्ध करना है कि मैं कुछ हं। पता नहीं है। क्योंकि झूठ भी आदमी में ऐसा खून में मिला हुआ है | | वह अर्जुन गलत कह रहा है। लेकिन उसे साफ नहीं है स्वयं को, कि उसका पता भी मुश्किल से चलता है। असल में असली झूठ | वह जानकर नहीं कह रहा है। जानकर जो हम झूठ बोलते हैं, बहुत वे ही हैं, जो हमारे खून में मिल गए हैं। जिन झूठों का हमें पता ऊपरी हैं। न-जाने जो झूठ हमसे बोले जाते हैं, वे बहुत गहरे हैं। चलता है, उनकी बहुत गहराई नहीं है। जिन झूठों का हमें पता नहीं और जन्मों-जन्मों में हमने उन्हें अपने खून के साथ आत्मसात कर चलता, जिनके लिए हम कांशस भी नहीं होते, चेतन भी नहीं होते, लिया है, एक कर लिया है। वैसा ही एक झूठ अर्जुन बोल रहा है वे ही झूठ हमारी हड्डी-मांस-मज्जा बन गए हैं। अर्जुन वैसा ही झूठ कि जिनके लिए राज्य चाहा जाता है. वे ही न होंगे तो राज्य का क्या बोल रहा है, जो हम सब बोलते हैं।
करूंगा...। पति अपनी पत्नी से कहता है कि तेरे लिए ही सब कर रहा हूं। नहीं। उचित, सही तो यह है कि वह कहे, राज्य तो अपने लिए पत्नी अपने पति से कहती है कि तुम्हारे लिए ही सब कर रही हूं! । चाहा जाता है, लेकिन जिनकी आंखों को चकाचौंध करना चाहूंगा,
कोई किसी के लिए नहीं कर रहा है। हम सब अहंकार-केंद्रित | जब वे आंखें ही न होंगी, तो अपने लिए भी चाहकर क्या करूंगा! होकर जीते हैं। अहंकार की सीमा-रेखा में जो-जो अपने मालम | लेकिन वह अभी यह नहीं कह सकता। इतना ही वह कह सके, तो पड़ते हैं, उनके लिए भी हम उतना ही करते हैं, जितने से हमारा | जगह-जगह गीता का कृष्ण चुप होने को तैयार है। लेकिन वह जो अपना भरता है। वह जो अपनापन भरता है, जितना वे मेरे ईगो और | | भी कहता है, उससे पता चलता है कि वह बातें उलटी कह रहा है। मेरे अहंकार के हिस्से होते हैं, उतना ही हम उनके लिए करते हैं। | अगर वह एक जगह भी सीधी और सच्ची बात कह दे, एक भी वही पत्नी कल अपनी पत्नी न रह जाए, डाइवोर्स का विचार करने | | असर्शन उसका आथेंटिक हो, तो गीता का कृष्ण तत्काल चुप हो लगे, बस फिर सब करना बंद हो जाता है। जिस मित्र के लिए हम | | जाए। कहे, बात खतम हो गई। चलो, वापस लौटा लेते हैं रथ को। जान देने को तैयार थे, कल उसी की जान भी ले सकते हैं। सब | | लेकिन वह बात खतम नहीं होती, क्योंकि अर्जुन पूरे समय दोहरे
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