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________________ जीवन की परम धन्यता - स्वधर्म की पूर्णता में 4 मेरे भीतर आती है, फिर दूसरी श्वास बाहर जाती है। ये दो श्वासें नहीं हैं, एक श्वास है। कोई पूछ सकता है कि मैं श्वास को बाहर निकालता हूं, इसलिए मुझे श्वास भीतर लेनी पड़ती है? या चूंकि मैं श्वास भीतर लेता हूं, इसलिए मुझे श्वास बाहर निकालनी पड़ती है? तो हम कहेंगे, भीतर आना और बाहर जाना एक ही श्वास के डोल का फर्क है। एक ही श्वास है; वही भीतर आती है, वही बाहर जाती है। असल में बाहर और भीतर भी दो चीजें नहीं हैं अव्यक्त में। बाहर और भीतर भी अव्यक्त में बाहर और भीतर भी अव्यक्त में एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन जहां हम जी रहे हैं, मैनिफेस्टेड जगत में, व्यक्त में, जहां सब अनेक हो गया है, वहां सब भिन्न है, वहां सब अलग है। फिर उस अलग से हमारे सब सवाल उठते हैं। बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया है। और बहुत सवाल पूछता है। बुद्ध ने कहा, ऐसा कर, तू सवालों के उत्तर ही चाहता है? उसने कहा, उत्तर ही चाहता हूं। बुद्ध ने कहा, और कितने लोगों से तूने पूछा है? उसने कहा, मैं बहुत लोगों से पूछकर थक चुका हूं, अब आपके पास आया हूं। बुद्ध ने कहा, इतने लोगों से पूछकर तुझे उत्तर नहीं मिला, तो तुझे यह खयाल नहीं आता कि पूछने से उत्तर मिलेगा ही नहीं! उसने कहा कि नहीं, यह खयाल नहीं आया। मुझे तो इतना ही खयाल आता है कि अब और किसी से पूछें, अब और किसी से पूछें, अब और किसी से पूछें। बुद्ध ने कहा, तो कब तक तू पूछता रहेगा? मैं भी तुझे उत्तर दे दूं उसी तरह, जैसे दूसरों ने तुझे दिए थे? या कि तुझे सच ही उत्तर चाहिए। उसने कहा, मुझे सच ही उत्तर चाहिए। तो बुद्ध ने कहा, फिर तू रुक जा; फिर तू सालभर पूछ ही मत । उसने कहा, बिना पूछे उत्तर कैसे मिलेगा ? बुद्ध ने कहा, तू प्रश्न छोड़। सालभर बाद पूछना। सालभर पूछ ही मत, सालभर सोच मत, सालभर बात ही मत कर, सालभर मौन ही हो जा। उसने कहा, लेकिन इससे क्या होगा? यह, बुद्ध ने कहा, सालभर बाद ठीक इसी दिन पूछ लेना। जब बुद्ध ने उससे यह कहा कि ठीक इसी दिन पूछ लेना, तो एक भिक्षु वृक्ष के नीचे बैठा था, खिलखिलाकर हंसने लगा। उस आदमी ने उस भिक्षु से पूछा, हंसते हैं आप, क्या बात है ? हंसने की क्या बात है ? उस भिक्षु ने कहा, पूछना हो तो अभी पूछ लेना, क्योंकि इसी धोखे में हम भी पड़े। हम साल बिता चुके हैं। | जब सालभर बाद खुद ही जान लेते हैं, तो पूछने को बचता नहीं है। पूछना हो तो अभी पूछ लेना, नहीं तो फिर पूछ ही न पाओगे। ये बुद्ध | बड़े धोखेबाज हैं। मैं भी इसी धोखे में पड़ा और पीछे मुझे पता चला कि और लोग भी इस धोखे में पड़े हैं। बुद्ध ने कहा, मैं अपने वचन पर अडिग रहूंगा। अगर सालभर बाद तू पूछेगा, तो मैं उत्तर दूंगा । साल बीत गया। फिर वही दिन आ गया। और बुद्ध ने उस आदमी को कहा कि मित्र, अब खड़े हो जाओ और प्रश्न पूछ लो ! वह हंसने लगा और उसने कहा कि जाने दें, बेकार की बात-चीत | में कोई सार नहीं है। पर बुद्ध ने कहा, वायदा था मेरा, तो मैं तुम्हें याद दिलाए देता हूं। पीछे मत कहना कि मैंने धोखा दिया। उसने कहा कि नहीं, आप उस दिन उत्तर देते तो ही धोखा होता । | क्योंकि जब मैं चुप हुआ, तब मैंने देखा कि सारे प्रश्न विचार से निर्मित थे, क्योंकि विचार ने अस्तित्व को खंड-खंड में तोड़ा हुआ था। और अस्तित्व था अखंड | अब जब मैं भीतर निर्विचार हुआ, तो मैंने पाया कि सारे प्रश्न झूठे थे; क्योंकि अस्तित्व को तोड़कर खड़े किए गए थे। उस अव्यक्त में, उस अखंड में सब प्रश्न गिर जाते हैं, लेकिन | व्यक्त में सब प्रश्न उठते हैं । तो या तो हम प्रश्न पूछते रहें, तो जिंदगी दर्शनशास्त्र बन जाती है। और या हम भीतर उतरें, तो जिंदगी धर्म बन जाती है। और अधर्म धर्म के खिलाफ उतना नहीं है, जितनी फिलासफी है, जितना दर्शन है धर्म के खिलाफ । क्योंकि वह विचार, और विचार, और विचार में ले जाता है। और हर विचार चीजों को तोड़ता चला जाता है। आखिर में सब चीजें टूट जाती हैं; प्रश्न ही प्रश्न रह जाते हैं; कोई उत्तर नहीं बचता । भीतर उतरें, वहां एक ही है, वहां दो नहीं हैं। और जहां दो नहीं हैं, वहां प्रश्न नहीं हो सकता। प्रश्न के लिए कम से कम दो का होना जरूरी है कम से कम । पूछा जा सके, इसलिए कम से कम दो का होना जरूरी है। 157 वह जो पहले था अव्यक्त, वह जो बाद में रह जाएगा अव्यक्त, वह अभी भी है। उसमें उतरना, उसमें डूबना ही मार्ग है। देही नित्यमध्योऽहं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।। ३० ।। स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धम्र्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। ३१ ।।
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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