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________________ 10 अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति -Am मनोविज्ञान कहता है, पहले मैं को एक करो। __यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे एक मैं हो तो समर्पण हो सकता है। पच्चीस स्वर हों तो समर्पण | शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। ७।। कैसे होगा! इसलिए भगवान के सामने एक मैं तो झुक जाता है चरणों इसलिए कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला में, दूसरा मैं अकड़कर खड़ा रहता है, वहीं मंदिर में। एक मैं तो चरणों और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूं, में सिर रखे पड़ा रहता है, दूसरा देखता रहता है कि मंदिर में कोई जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह देखने वाला आया कि नहीं आया। एक ही आदमी खड़ा है, पर दो | मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए मैं हैं। एक वहां चरणों में सिर रखे है, दूसरा झांककर देख रहा है कि आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए। लोग देख रहे हैं कि नहीं देख रहे हैं! अब समर्पण कर रहे हो, तो लोगों से, देखने वालों से क्या लेना-देना है! एक मैं नीचे चरणों में | पड़ा है, दूसरा मैं कह रहा है, कहां के खेल में पड़े हो! सब बेकार | 27 र्जुन अपनी ही बात कहे चला जाता है। पूछता मालूम है। कहीं कोई भगवान नहीं है। एक मैं इधर भगवान के चरण पकड़े OI पड़ता है कृष्ण से, लेकिन वस्तुतः कृष्ण को ही धर्म हुए है, दूसरा मैं दुकान पर बैठा हुआ काम में लगा है। क्या है, बताए चला जाता है। पूछ रहा है कि अविद्या मैं संश्लिष्ट होना चाहिए, तभी समर्पण हो सकता है। इसलिए मैं | से मेरा मन भर गया है। क्या उचित है, क्या अनुचित है, उसका इनमें विरोध नहीं देखता। मैं इनमें विकास देखता हूं। फ्रायड अंत नहीं | | मेरा बोध खो गया है। लेकिन साथ ही कहे चला जा रहा है कि है, लेकिन महत्वपूर्ण है और मैं संश्लिष्ट करने में उपयोगी है। कृष्ण | अपनों को मारकर तो जो अन्न भी खाऊंगा, वह रक्त से भरा हुआ अंत हैं। वहां एक सीमा पर जाकर मैं को समर्पित भी कर देना है। | होगा। अपनों को मारकर सम्राट बन जाने से तो बेहतर है कि मैं सड़क का भिखारी हो जाऊं। निर्णय दिए चला जा रहा है। निर्णय दिए चला जा रहा है और कह रहा है, अविद्या से मेरा मन भर गया गुरूनहत्वा हि महानुभावान् है। दोनों बातों में कोई संगति नहीं है। अविद्या से मन भर गया है. श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके । तो अर्जुन के पास कहने को कुछ भी नहीं होना चाहिए। इतना ही हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहव काफी है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है; मुझे मार्ग बताएं। मैं भुजीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ।। ५ ।। नहीं जानता, क्या ठीक है, क्या गलत है। नहीं, लेकिन साथ ही वह महानुभाव गुरुजनों को न मारकर, इस लोक में भिक्षा का | कहता है कि यह ठीक है और यह गलत है। अन्न भी भोगना कल्याणकारक समझता हूं, चित्त हमारा कितना ही कहे कि अविद्या से भर गया, अहंकार क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने मानने को राजी नहीं होता। अहंकार कहता है, मैं और अविद्या से हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा। | भर गया! मुझे पता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। न चैतद्विद्यः कतरनो गरीयो दूसरी बात यह भी देख लेने जैसी है कि अहंकार जहां भी होता यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। है, वहां सदा अतियों का चुनाव करता है, एक्सट्रीम इज़ दि यानेव हत्वा न जिजीविषाम च्वाइस। एक अति से ठीक दूसरी अति को चुनता है। अहंकार कभी स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। ६ ।। | मध्य में खड़ा नहीं होता; खड़ा नहीं हो सकता; क्योंकि ठीक मध्य हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना | में अहंकार की मृत्यु है। तो वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या होना बेहतर है। दो आखिरी पोलेरिटी चुनता है। वह कहता है, हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। अर्जुन या तो सम्राट हो वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं। सकता है या भिखारी हो सकता है, बीच में कहीं नहीं हो सकता। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः या तो उस छोर पर नंबर एक या इस छोर पर नंबर एक; लेकिन पृच्छामि त्वां धर्मसंमूळचेताः। नंबर एक ही हो सकता है। 79
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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