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+ गीता दर्शन भाग-1 4
पता नहीं चलता, लेकिन परमात्मा को पूरा पता चलता है। क्योंकि परमात्मा से हमारे संबंध भाव के हैं, कृत्य के नहीं करने के नहीं | हैं हमारे संबंध परमात्मा से, करने के संबंध जगत से हैं, समाज से हैं, बाहर से हैं। होने के संबंध हैं हमारे परमात्मा से - बीइंग के, डूइंग के नहीं।
और होने में क्या फर्क पड़ता है? मैंने चोरी की कल्पना की या मैंने चोरी की, इससे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता, चोर मैं हो गया। परमात्मा की तरफ तो चोरी की खबर पहुंच गई कि यह आदमी चोर है। हां, जगत तक खबर नहीं पहुंची। जगत तक खबर पहुंचने में देर लगेगी। जगत तक खबर पहुंचने में चोरी का विचार ही नहीं, चोरी को हाथ का भी सहयोग लेना होगा। जगत तक पहुंचने में भाव ही नहीं, पौदगलिक कृत्य, मैटीरियल एक्ट भी करना होगा। इससे चोरी बढ़ती नहीं, सिर्फ चोरी प्रकट होती है; अनमैनिफेस्ट चोरी मैनिफेस्ट होती है; अव्यक्त चोरी व्यक्त होती है। बस और कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अव्यक्त चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी व्यक्त चोरी है, जहां तक धर्म का संबंध है।
तो यह सवाल नहीं है कि आपके पास कितना बड़ा मकान है, कि मकान नहीं है, झोपड़ा है। यह सवाल नहीं है कि आपके पास करोड़ों रुपए हैं, कि कौड़ियां हैं। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आपके पास मेरा कहने का भाव है या नहीं है।
वही मेरे का भाव मोह की निशा है, मोह का अंधकार है। जब तक आप कह सकते हैं मेरा, चाहे यह मेरा किसी भी चीज से जुड़ता हो मेरा धर्म – फर्क नहीं पड़ता, मोह की निशा जारी है। आप कह सकते हैं: हिंदू, मुसलमान मेरा; कुरान, बाइबिल, गीता मेरी; मंदिर-मस्जिद मेरा ।
हम अजीब लोग हैं। सारी दुनिया के धर्म चिल्लाते हैं कि जिसे परमात्मा को पाना हो, उसे मेरे को छोड़ना पड़ेगा। और हम इतने कुशल हैं कि हम परमात्मा को भी मेरा बना लेते हैं कि मेरा ! वह परमात्मा तेरा, यह परमात्मा मेरा ।
मैंने सुना है कि किसी गांव में एक बहुत मजेदार घटना घटी। गणेशोत्सव था और गणेश का जुलूस निकल रहा था। लेकिन पूरे गांव के लोगों के हर मोहल्ले के गणेश होते थे। अब गणेश हर मोहल्ले के होते, कोई ब्राह्मणों का गणेश होता, कोई भंगियों का गणेश होता, कोई चमारों का गणेश होता, कोई लोहारों का, कोई तेलियों का। लेकिन नियम था, डिसिप्लिन थी गणेशों की भी एक । और वह यह थी कि ब्राह्मणों का गणेश पहले चलता, फिर उसके
बाद किसी का, फिर किसी का; ऐसी प्रोसेशन में व्यवस्था थी।
लेकिन एक वर्ष ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश जरा समय से देर से पहुंचे। ब्राह्मणों के गणेश थे; समय में जरा देर दिखानी ही चाहिए! आदमी के बड़े होने का पता ही चलता है कि वह समय से | जरा देर से पहुंचे। जितना बड़ा नेता, उतनी देर से पहुंचता है। जरा | देर से पहुंचे ब्राह्मणों के गणेश, और तेलियों के गणेश जरा पहले पहुंच गए। गरीब गणेश थे, वह जरा पहले पहुंच गए, समय से पहुंच गए कि कहीं जुलूस न निकल जाए। क्योंकि तेलियों के गणेश के लिए कोई जुलूस रुकेगा नहीं। उनको तो समय पर पहुंचना ही चाहिए, वे समय पर पहुंचे।
फिर समय से बहुत देर हो गई, जुलूस निकालना जरूरी था, रात हुई जाती थी, तो तेलियों के गणेश ही आगे हो गए। पीछे से आए | ब्राह्मणों के गणेश ! तो ब्राह्मणों ने कहा, हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों का गणेश और आगे? यह कभी नहीं हो सकता। बेचारे तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा।
हिंदू के भी देवता हैं, मुसलमान के भी। हिंदुओं में भी हिंदुओं हजार देवता हैं। एक देवता भी तेलियों और ब्राह्मणों का होकर, अलग हो जाता है। भगवान मेरे को छोड़ने से मिलता है। और हम इतने कुशल हैं कि भगवान को भी मेरे की सीमाओं में बांधकर खड़ा कर देते हैं। मंदिर जलता है, तो किसी मुसलमान को पीड़ा नहीं . होती; खुशी होती है। मस्जिद जलती है, तो किसी हिंदू को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। और हर हालत में भगवान ही जलता है। लेकिन मेरे की वजह से दिखाई नहीं पड़ता । मेरा अंधा कर जाता है। वह मेरा अंधकार है।
किसी भी तरह के मेरे का भाव मोह की निशा है। इसके प्रति जागना है, भागना नहीं है। भागे कि मैं की विपरीतता शुरू हुई, कि फिर मैं कहीं और निर्माण होगा। फिर वह वहां जाकर अपने को निर्मित कर लेगा ।
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मैं जो है, बड़ी क्रिएटिव फोर्स है, मैं जो है, बड़ी सृजनात्मक शक्ति है। वास्तविक नहीं, स्वप्न का सृजन करती है, ड्रीम क्रिएटिंग । स्वप्न का निर्माण करती है, लेकिन करती है। बहुत हिप्नोटिक है। | जहां भी खड़ी हो जाती है, वहां एक संसार बन जाता है।
सच तो यह है कि मेरे के कारण ही संसार है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन संसार कहीं भी नहीं है। मेरे के कारण ही गृह है, गृहस्थी है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन कहीं कोई गृह नहीं है, कहीं कोई गृहस्थी नहीं है। संन्यासी वह नहीं है, जो घर छोड़कर
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