Book Title: Adhyatma Barakhadi
Author(s): Daulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रचनाकार पण्डित दौलतराम कासलीवाल सम्पादक ज्ञानचन्द बिल्टीवाला 65 जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक व प्रकाशकीय अध्यात्म-प्रेमी पाठकों के हाथों में पण्डित दौलतराम कासलीवाल कृत 'अध्यात्म बारहखड़ी' समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। बसवा में जन्मे पण्डित दौलतराम कासलीवाल ढूँढारी भाषा के जाने-माने कवि हैं। इन्होंने 'अध्यात्म-बारहखड़ी' की रचना संवत् 1798 (सन् 1741) में उदयपुर में की थी। इसमें शुद्ध आत्मा परमात्मा/जिनेन्द्र की भक्ति में अ" से लेकर 'ह' तक को बारहखड़ी से बननेवाले पदों से रचना की गई है। अध्यात्म . रस से भरी इस रचना में कवि ने अविनाशी आनन्दमय आतमराम' को गाया है। कवि धर्म के क्षेत्र में ऊँच-नीच की मान्यता को स्वीकार नहीं करते । जो प्रभु को भजता है वह उनका हो जाता है । कवि साधर्मी उसे ही मानते हैं जो परमात्मा की भक्ति में लीन है तथा जो विमुख हैं वे विधर्मी हैं। आध्यात्मपरक इस ग्रन्थ में शान्त, वैराग्य, भक्तिरस के अतिरिक्त शृंगार, वीर, वीभत्स आदि सभी रसों को यथाअवसर स्थान प्राप्त हुआ है। अरिल, त्रिभंगी, इन्द्रवज्रा. मोतोदान, भुजंगीप्रवात, दोहा, चौपाई, छप्पय, सवैया, सोरठा आदि विविध छन्दों का कुशल प्रयोग कवि ने किया है। हमें लिखते हुए हर्ष है कि शास्त्र-मर्मज्ञ श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला ने इस ग्रन्थ का सम्पादन कर जैनविद्या संस्थान को प्रकाशित करने के लिए सौंपा, इसके लिए हम उनके आभारी हैं। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैनविद्या संस्थान' जैनधर्म दर्शन एवं संस्कृति ही बहुआयामी दृष्टि को सामान्यजन एवं विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु प्रयत्नशील है। इसका प्रकाशन इसी उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है। पुस्तक प्रकाशन के लिए जैनविद्या संस्थान के कार्यकर्ता एवं जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर धन्यवादाह हैं। नरेन्द्रकुमार पाटनी नरेशकुमार सेठी मंत्री अध्यक्ष प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री पहाघोरजी डॉ. कमस्तचन्द सोगाणी संयोजक जनविद्या संस्थान tihis Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....प्रस्तावना . ... ... ... : पं. दौलतराम कासलीवाल का जन्म जयपुर रियासत के बसवा कस्बे में हुआ था। आपके पिता का नाम आनन्दराम था। आप जयपुर के राजा जगतसिंह की सेवा में उदयपुर में थे तब वहाँ ही उनकी अध्यात्म सैली (स्हैली/मंडलों के साथी श्री पृथ्वीराज, चतुर्भुज, चीमा पंडित आदि की प्रेरणा से इस ग्रन्थ को रचना संवत् १७९८ में की गई थी। इस 'अध्यात्म रस की भरी' रचना में कवि ने 'अविनासी आनन्दमय आतमराम' को गाया है (३००/१०.११) । पं. दौलतराम कासलीवाल हूँढारी भाषा के जाने-माने जैन कवि हैं। आपके सरस भजन गायकों और श्रोताओं को भगवद्भक्ति और अध्यात्म का रस पिलाते रहे हैं। भजनों के अतिरिक्त आपकी अन्य कृतियाँ भी हैं। अब तक १८ रचनाओं की खोज की जा चुकी हैं। इन रचनाओं को हम निम्न तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं - (i) मौलिक रचनाएँ १. त्रेपन क्रियाकोश, २. जीवंधर चरित, ३. अध्यात्म बारहखड़ी, ४. विवेक विलास, ५. श्रेणिकचरित, ६. श्रीपालचरित, ७, चौबीस दण्डक, ८, सिद्ध पूजाष्टक। (ii) अनूदित रचनाएँ ( भाषा वचनिका) १. पुण्यास्त्रत्र कथाकोष, २. पद्मपुराण, ३. आदिपुराण, ४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, ५. हरिवंशपुराण, ६. परमात्मप्रकाश. ७. सारसमुच्चय । (iii) दब्या टीकाएँ १. तत्वार्धसूत्र टब्बा टीका, २. वसुनन्दि प्रावकाचार टब्बा टीका, ३. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा टब्बा टीका। १. महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प्रस्तावना. घ. ४१ - ४२, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, साहित्य शोध विभाग, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी. ई. सन् १९७३ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी आपकी एक श्रेष्ठ प्रौढ़ रचना है। इसके पारायण से कवि की भाषा-विशेषज्ञता के साथ भाषा के सम्बन्ध में ठनका तात्त्विक बोध भी उजागर होता हैं । चे भाषा को मात्र अर्थ संप्रेषण का साधन ही नहीं मानते, वरन् वे पुन:-पुनः शब्द-शब्द में प्रभु स्वरूप देखते हैं और कहते हैं 'सर्वाक्षर मूरति तू क्यो अक्कार में न होय' (१३१४८) । अध्यात्म बारहखड़ी रचना को कवि भक्त्याक्षर मालिका' कहते हैं। इसमें शुद्ध आत्मा परमात्मा जिनेन्द्र की भक्ति में पद रचना की गई है। यह उनकी चेतन देव और सुचेतना देवी की भक्ति में की गई रचना है। वे कहते हैं - नाम अनंत सुदेव के, देवी नाम अनंत । आपुन माह पाइए भगवति अर भगवंत। ..:::.:.....सत्व अपर प्राचादि, साल जेब मैं गया। ' देवी ह सब मैं लसैं विरला झै भेव ।। (२९८/४०-४१) अपने कर्मबद्ध संसारी रूप के प्रति कवि को बड़ा क्षोभ है। कर्मों ने उनके शुद्ध स्वरूप से अंतर कर दिया है और इस अंतर को मिटाने हेतु वे जिनेन्द्र से प्रार्थना करते हैं - हाती पारयौ नाथ, कर्म नैं मेरौ तो। हाथ पकरि अब देव, बैंचि लैं अपनैं पुर मैं।। (२८७/१२) कवि अच्छी तरह जानते हैं कि जिनेन्द्र स्वयं से अभिन्न हैं और उनसे तथा अन्य सभी ज्ञेयों से भिन्न हैं। तू हि अभिन्न व्यापको स्वामी, निजगुन पर्यय माहि। भिन्न व्यापको सकल ज्ञेय मैं, राग दोष मैं नांहि ।। (२९७२७) प्रभु रागो द्वेषो नहीं हैं कि भिन्न पदार्थों के प्रति उपकार में प्रवृत्त हों। ऐसे वीतरागी प्रभु जिनमें अन्य के उपकार करने की इच्छा भी उत्पन्न नहीं होती कैसे भक्त को हाथ पकड़ कर अपने 'पुर' में खींच लेंगे? पर कवि जानते हैं कि भक्त को अपने भावों का, परिणामों का फल मिल जाता है, उसके पाप कर्म गल जाते हैं, आवरण कर रहे कर्मों का क्षयोपशम हो जाता है और भक्त की आत्मा दीप्तिमान (vit Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो उठती है। प्रभु तो आलम्बन हैं, जगत के सभी पदार्थ आलम्बन हैं और उनके आलम्बनपूर्वक बनने वाले हमारं भावों/परिणामों से हमारी सुगति अथवा दुर्गति की रचना हो जाती है। कवि स्पष्ट जानते हैं कि आदेय स्वरूप एक केवल आत्मा है, अन्य कुछ नहीं - आतम विनु सब हेय, एक आदेय स्वरूपा । (२८९/२१) ग्रन्थ के आरंभ में परमात्मा को विविध नामों से अर्थ सहित स्तुति की गई है। आगे ओंकार के सम्बन्ध में कवि ने पद रचना की है और कहा है कि बिना प्रणव के कोई मन्त्र रचना नहीं होती, वह कार्यकारी नहीं होता। आगे श्री को लेकर कुछ पद रचना करने के बाद'अ' से लेकर 'ह'तक की बारहखड्डी से बनने वाले कतिपय - भदों से कवि ने सुद्ध आत्मा परमात्मा जिनेन्द्र की भक्ति की है। ये ही हरि हैं, हर हैं, बुद्ध हैं, सुगत हैं, रुद्र हैं, शिव हैं (परिशिष्ट में कतिपय अन्य नाम भी संकलित किये गये हैं) तथा राधा, भवानी, चण्डी आदि इनकी अपने से अभिन्ना स्वभावभूत शक्तियाँ हैं। अन्य जो शिव, हरि, माधव आदि हैं वे इन्हीं का ध्यान करते हैं (१०/११४) । वास्तव में जितने भी आस्तिक, आध्यात्मिक पुरुष हैं वे अपने ही चेतन- स्त्र के सत्-चित्-आनन्द लोक में मग्न होते हैं और कौन आज तक अपने चेतन - स्व को छोड़कर अन्य में प्रवेश कर पाया, अन्य को ग्रहण कर पाया। यह ही चेतन-स्व अपने शुद्ध परमात्मस्वरूप में, जिनेन्द्रस्वरूप में कवि को इष्ट है। मुनिजन गृह-परिवार त्याग कर रूखा-सूखा आहार देह को देकर एकान्त वन में इसी शुद्ध आत्मा परमात्मा की भक्ति करते हैं, ध्यान करते हैं । आत्मरसिक रुचि वाले गृहस्थ के लिये कवि कहते हैं कि वह घर में राहगीर, पाहुने की भाँति अलिप्त भाव से रहता हैं और परमात्मा की भक्ति का रसपान करता है। जो साधु होकर बाह्य धन्धे में पड़ जाते हैं उनके लिए कवि कहते हैं कि वे गृढ़ तत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाते । मुँह से जाप करना भी छोड़ अजपा जाप करने को प्रभुदर्शनः आत्मदर्शन का कवि प्रबल साधन मानते हैं (२९१६३१) । कवि बुरी- धनी दोनों कणियों ( कायों) को पाप-पुण्य की रचना करने वाली होने से आत्मोपलब्धि में बाधक मानते है (२०९/४९, १७२६५) । आत्मोपलब्धि इनसे परे है। (viil Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा सदा ही प्राणी के निकट हैं (१४६/९) । कवि कहते हैं कि हम में इडा, पिंगला, सुषुम्ना आदि नाड़ियों से निरन्तर सोहं-सीहं का नाद गूंज रहा है, पर विरले जन ही उसे सुन-समझ पाते हैं (४०/३३, ३४), अन्य जन उसे सुनते हुए भी अपने परमात्मस्वरूप से बेखबर हैं (९:१०६, १११ ) । जब भव्यों के घट में इस नाद की गर्जना होती है तो मोह भाग खड़ा होता है (४८/९१) । ____ कवि की परमात्मा की भक्ति में बड़ी श्रद्धा है । भक्ति भुक्ति एवं मुक्ति की माता है (५३/२२), वह गुणों की जननी होने से सुरमाता है (५६.८) । परमात्मा की भक्ति में बड़ी शक्ति है। कास, सास और अन्य रोग परमात्मा के नाम से, भक्ति से पलायन कर जाते हैं (७७:३८), सर्प घर में प्रवेश नहीं करता, क्रूर पशु आक्रमण नहीं करते, राजदण्ड से मानवे मुक्त रहता है। जिस प्रदेश में परमात्मा की भक्ति होती रहती है वहाँ अकाल नहीं पड़ता (७९/६३-६४) । परमात्मा का भक्त निर्भय होता है, ज्ञानी, वीर होता है। संसारी मिथ्यादृष्टिजन मृत्यु के आगे कातर हो जाते हैं (५९/३७), निरन्तर भयभीत रहते हैं। जो जन हिंसक होते हैं, दूसरं प्राणियों को कष्ट देते हैं, उन्हें परमात्मा की भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती (३६:५४-५५) । मांस-भक्षण तो प्रकट निंद्य है हो, शाकाहारी भोजन में भी बासा, द्विदल मिश्रित, कांजा, बहुबीजा आदि परमात्मा के भक्त ग्रहण नहीं करते। विशेष दयालु तो हरी मात्र का त्याग कर देते हैं । कवि कहते हैं भव- रोग मिटाने हेतु जिनवाणोरूप औषध के साथ अभक्ष्य के त्यागरूप पथ्य आवश्यक है। कवि धर्म के क्षेत्र में नीच-ऊँच की मान्यता को स्वीकार नहीं करते हैं। प्रभु को तजने पर ऊँचा नीचा हो जाता है और प्रभु को भजने पर नीचा ऊँचा हो जाता हैं। प्रभु तो शूद्रों का भी नाथ है ( २:१९) । प्रभु को जो भजता है वह उसका हो जाता है (७८/५५) । कवि साधमी उसे ही मानते हैं जो परमात्मा की भक्ति में लोन है तथा जो विमुख हैं वे निधर्मी हैं (२७४/५२) । मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में पृ. १३४.१०-११ पर कवि कहते हैं कि ज्ञानानन्दस्वरूप पुरुषाकार, निराकार, निराधार निजमूर्ति को पाने हेतु जिनेन्द्र को कृत्रिमअकृत्रिम मूर्तियों का भव्यजन दर्शन, पूजन करते हैं। lviiii Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ग्रन्थ अनेकान्तमय शब्द प्रयोग का अच्छा उदाहरण है (१:२) । जो पद एक अर्थ में परमात्मा के नास्ति पक्ष को प्रकट करता है, दूसरे अर्थ में अस्ति रूप में स्वीकार हो जाता है, यथा – आत्मा असम-महासम, अवरण-वरण वाला, रूपी-अरूपी, संन्यासी-गृहस्थ (निज घर में रहने से), प्रेमी-प्रेम वितीत, अभू ग्रन्थ में जिनेन्द्र भक्ति के अतिरिक्त जिनवाणी प्रणीत आचार्यों आदि के गुण, श्रावकों की क्रियायें, अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या, कर्म प्रकृति की व्युच्छित्ति आदि अनेक ही पक्षों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें विस्तार से समझने हेतु पाठक को अन्य ग्रन्थों का ज्ञान आवश्यक है। कवि जिनवाणी को भवकूप से निकालने वाली नेज (रस्सी) कहते हैं (२४६/३८)। ग्रन्थ की भाषा २५० वर्ष पूर्व को ढूँढारी भाषा है। कितने ही कठिन शब्दों का अर्थ तो कवि ने स्वयं ने ही दे दिया है । कतिपय शब्दों का अर्थ परिशिष्ट में हमने संग्रहीत किया है। समस्त ही कठिन शब्दों का अर्थ देना शक्य नहीं है । अत: सामान्य पाठकगण विद्वज्जनों का समझने में सहयोग लेंगे तो ग्रन्थ के हार्द को भली भाँति ग्रहण कर पायेंगे। ग्रन्थ में कवि के काव्य- कौशल का हमें अच्छा परिचय मिलता है। अध्यात्मपरक इस ग्रन्थ में शान्त, वैराग्य, भक्तिरस के अतिरिक्त श्रृंगार (१६१.१७, १५८४६१, ६३), वीर (१५९/६८, २००१८), वीभत्स (१४७/९) आदि सभी रसों को यथा अवसर स्थान प्राप्त हुआ है । अरिल, त्रिभंगी, इन्द्रवज्रा, मोतीदाम, भुजंगी प्रयात,दोहा, चौपई, छप्पय, सवैया, सोरठा आदि विविध छन्दों का कुशल प्रयोग कवि ने किया है। इस ग्रन्थ रचना में कवि की अध्यात्म सैली का उपकार है । अध्यात्म सैलियों के सम्बन्ध में कवि लिखते हैं यह भव वन में सेरी (सीढ़ी) है और इस सैली को प्राप्त करने पर बुद्धि मैली नहीं रहती, शैथिल्यभाव छोड़कर दृढ़ चित्त वीर मानव स्वरस को प्राप्त कर लेता है (२८१-८२:१८, २०) । उस काल में जयपुर में, एवं अन्यत्र भी, मन्दिर-मन्दिर में शास्त्र सभायें चलती थीं, शास्त्र पठन, अध्यात्म चर्चा होती थी और उसके परिणामस्वरूप जहाँ पं. टोडरमलजी, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदासुखदासजी, भूधरदासजी, बुधजनजी आदि अनेक कवि, विद्वानों द्वारा गद्यपन में ग्रन्थ रचना द्वारा सरस्वती के भण्डार में वृद्धि हुई थी, वहाँ ही समाज में सामान्यजन का रत्नत्रय निर्मल था. चारित्र उज्वल था, इतर जन राजा आदि तक उनकी चारित्रिक दृढ़ता के कायल थे, गाँव से लेकर नगर तक सर्वत्र वे सम्मान्य थे. प्रतिष्ठा प्राप्त थे। उनके प्रभाव से बिना उपदेश और प्रेरणा के ही इतर जन दयावान शाकाहारी थे। अध्यात्म बारहखड़ी उन ग्रंथ रत्नों में से एक है जो मुद्रण के इस युग में आज तक अमुद्रित, अप्रकाशित है। यह पहली बार जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व तपस्वी सम्राट १०८ आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज एवं आर्यिका माता विजयमतिजी जब चातुर्मास प्रवास में जयपुर में ससंघ विराजमान थे तब चौकड़ी मोदीखाना स्थित छोटे दीवानजी के मन्दिर में इसका चतुर्विध संघ की उपस्थिति में नित्य अपराह्न पारायण हुआ था। आचार्यश्री एवं विदुषी माताश्री अपने श्रीमुख से पद्यों का अर्थ स्पष्ट करते थे एवं परस्पर चर्चा से उपस्थित जनसमुदाय पदों के अर्थ गाम्भीर्य को हृदयंगम करता था। सभी की उस समय से यह इच्छा थी कि यह ग्रन्थ रल जिनवाणी के उपासक सभी जनसमुदाय के लाभार्थ प्रकाशित होना चाहिए । उस समय से चली आयो इस भावना को मैंने डॉ. कमलचन्दजी सोगानो, संयोजक जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी को व्यक्त किया तो उन्होंने तत्काल संस्थान द्वारा प्रकाशित करना स्वीकार किया और यह अब पाठकों के सामने हैं। इस ग्रन्थ की प्रति डॉ. बीरसागर जैन, प्राध्यापक, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, देहली से प्राप्त हुई थी और वह ही इस प्रकाशन का आधार बन रही है। अत: डॉ. जैन विशेषतः धन्यवाद के पात्र हैं। प्रति में दो पद्य अपूर्ण हैं उन्हें अपूर्ण हो मुद्रित किया गया है। विज्ञजनों को अन्यत्र किसी प्रति में वे पूरे मिलें तो हमें सूचित करें। जयपुर ज्ञानचन्द बिल्टीवाला ९ मार्च, २००२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी || ॐ नमः परमात्मने ॥ भोक ।। वंदे ज्ञानात्मक धीरे, वीर गंभीर शासनं। भक्तिदं भुक्तिमुक्तीशं, योगिनं कर्म दूरगं॥१॥ गुरून्महामुनीनत्वा, दृष्ट्वानेकांत पद्धति। नत्वा जिताहिपोव, वक्षे नामावली प्रभो ।। २ ।। __- दोहा - वंदा आदि अनादि को, जो युगादि जगदाश। कर्म दलन खलबल हरन, तारनतरन अधीश ॥१॥ केवल ज्ञानानंदमय, परमानंद स्वभाव । गुन अनंत अतिनाम जो, शक्ति अनंत प्रभाव॥२॥ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध जो, अति समृद्ध अवनीश। ऋद्धि सिद्धि धर वृद्धि कर, ईश्वर परम मुनीश।। ३॥ शक्ति व्यक्ति धर मुक्तिकर, सदा ज़प्तिधर संत। वीतराग सरवज्ञ जो, सो श्रीधर भगवंतः ॥ ४॥ केवलराम अनाम जो, रमि जो रह्यौ सब माहि। जैसी ठौर न देखिए, जहाँ देव वह नांहि ॥५॥ केवल रूप अनूपकौं, हर हरि गणप दिनेश। अतुत्न शक्ति मुनिवर कहै, सो विधि बुद्ध जिनेश॥६॥ वंधन हर हर नाम धर, हरी पराक्रम रूप । तमहर दिनकर देव जो, गणनायक जगभूप।।७।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति अनंतानंत जो, अतुलशक्ति गुणधाम | विधि कर्त्ता सु विरंचि जो, प्रतिबोधक बुधनाम ॥ ८ ॥ जिनवर जगत निधांन। ज्ञानवान भगवान ॥ ९ ॥ मदन जीत जगजीत जो, रम्यरमण अभिराम जो, परमाल्हादक चंद जो, नरपति अखिल प्रपाल जो, संत महंत अनंत जो, रमाकंत अरि रागादि निहंतको, मैं शुद्ध चिद्रूप मैं, कमला विमला जो रमा अध्यात्म बारहखड़ी ईश निरीश अनीश जो, जगत शिरोमणि सिद्ध जो, क्षेत्राधीश । सुरपति आदिपुरुष आदीश ॥ १० ॥ भगवंत । अरहंत ॥ ११ ॥ जोय । अंत रहित शुद्ध चेतना शक्ति प्रभू की सोय ॥ १२ ॥ धीश अधीश मुनीश । श्री जगपति अवनीश ॥ १३ ॥ आतमराम अकाम जो काम रूप निर्नाम । 3 रामदेव मनराम जो, सुंदर सरस विराम ॥ १४ ॥ अखिल वेद विद्वान जी, अति उज्जल परभाव । महाराज द्विजराज जो, शुक्ल रूप भव नाव ॥ १५ ॥ क्षिति पालक भय टालको, शरणागत प्रतिपाल । धनुरद्धर धरणीधरो, क्षत्री कहियत लाल ॥ १६ ॥ तुलाधार अविकार जो, ज्ञान तुला मैं तोलिया, सुवरण रूप प्रशस्त | लोकालोक समस्त ॥ १७ ॥ शर्मा वर्मा गुप्त जो, समिति गुप्ति धर धीर । दासनि को आधार जो, महाव्रती अतिवीर ॥ १८ ॥ सुश्रूषा प्रतिभास जो अखिल कर्म ज्ञातार । शूद्रनि हूं कौ नाथ जो, स्याम सकल दातार ।। १९ ।। शुक्ल रक्त अति पीत जो, सुवरण वरण विशाल । हरयो भस्यो घनस्याम जो, रहित स्यामता लाल ॥ २० ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अवरण वरण कृपाल जो, रूप अरूपी नाथ। मूरतिवंत अमूरती, जाकै निजगुण साथ ।। २१॥ व्रती ब्रह्मचारी सदा, कि घर : महि:. . अति गृहस्थ प्रभो स्वस्थ जो, यामैं संशय नाँहिं ।। २२ ।। वन विहार निरधार जो, वानप्रस्थ हू नाम। जिती जितेन्द्री धीर जो, महावीर गुणधाम ।। २३॥ पातक सकल निपातको, मायाचार निपात। अविनस्वर अनिपात जो, सो श्रीपति श्रीपात।। २४॥ दंडै मन इंद्री सबै, खंडै विषय विकार। मंडै ज्ञान विराग जो, सो दंडी अविकार ।। २५ ।। त्रिविध कर्म दंडें प्रभु, नाम त्रिदंडी सोइ। चंडी प्रकृति धरै महा, मायारूप न होइ॥ २६ ॥ हंसनि को आधार जो, परमहंस जग भूप। हिंसाकर्म निवारको, धर्म अहिंसा रूप॥२७॥ भयटारक भट्टारको, भवतारक भ्रम दूर। कारक परम समाधि को, सकल उपाधि प्रचूर।। २८॥ श्रीगुर सूरि अध्यापको, उपाध्याय गुनपूर। उपन्यास निज पास को, रागादिक चकचूर।।२९।। शमी दमी प्रभू संयमी, साधु अवाथ सुजांन । ऋषि मुनि यति श्री पूज्य जो, अणागार भगवान ।। ३० ।। आचारिज आरिज प्रभू, अति संविग्न कृपाल । संबेगी निर्वेद जो, जैन धर्म प्रतिपाल ॥३१॥ निराभर्ण जगभूषणो, दिगपट दीनदयाल। प्रभू दिगंधर देव जो, थिर चर को रछिपाल॥३२॥ योगी योगारूढ़ जो, जंगमथावर ईश। यती तपोधन श्रुतिधरौ, संन्यासी जुगदीश ॥३३॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यास कहावै धाप । संन्यासी निहपाप ।। ३४ ।। सं कहिये सम्यक दसा, सम्यक थापक शुद्ध जो, प्रेमी प्रेम प्रकाश जो, प्रेमाप्रेम वितीत । प्रेमलछिना भक्ति धरि, ध्यांवें जाहि अतीत ।। ३५ ।। अध्यात्म बारहखड़ी विरकत वैरागी महा, भौतिक भूति स्वरूप । अति विभूति अनुभूति जो रहित प्रसूति अरूप ॥ ३६ ॥ शंकर सुखकर वीर । करुणाकारण धीर ॥ ३७ ॥ तात्त कहा। परमेश्वर जिनराय ।। ३८ ।। गोरक्षक है नाथ जो, वीतराग परम्ब्रह्म जो दायक मंत्र कल्याण को शिव कल्याण स्वरूप जो, निर्गुण निरबंधन प्रभू, सगुण अगुण तैं दूर । व्यापक विश्रु अनिश्र जो , राम रमा भरपूर ॥ ३९ ॥ परम उपासन रूप | एकानेक स्वरूप ॥ ४० ॥ , सव देवनि कौ देव जो, सदा उभयनय भास जो, वैदिक तांत्रिक तत्त्व जो, सिद्धांती अतिसिद्धि । शुद्धि वृद्धिधर सिद्ध जो, धारक अतुल समृद्धि ॥ ४१ ॥ शिवमारग पारग प्रभु, जिनमारग कौ मूल । करुणासिंधु अगाधजो, पालक सूषिम धूल ।। ४२ ।। धर्मराय जिनराय जो देव धर्म गुर सोय । परमगुरू मर्म जु गुरू, कर्मगुरू हरि होय ॥ ४३ ॥ और न दूजाँ देवता, और न दूजौ पंथ । शिव विरंचि हरि बुद्ध सो, जो जिनवर निरग्रंथ ॥ ४४ ॥ सूत्री आगम धारको, श्रुति संमृति को मूल । पौराणिक परवीण जो, अध्यात्म अनुकूल ॥ ४५ ॥ जो स्वरूप व्यापी सदा, पर रूपी न कदापि । स्वस्थ समाहित स्वगत जो, सर्वातीत उदापि ॥ ४६ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी व्यापि रह्यो प्रभु ज्ञान करि, लोक अलोक हु महि। लोक शिखर राजै सदा, सर्वगतो सव पाहि ।। ४७॥ सव वामैं वह सवनि मैं, वह है सव” भिन्न । बातें सवही भिन्न हैं, वह भिन्नो हु अभिन्न ।। ४८ ।। नरहरि धर्म धुरंधरो, धरणीधर जगभूप। कर्मनाग निरदलन जो, अतिवीरज गुण रूप ॥४९॥ पर कहिये बलयान को, सिंह महाबलवांन। महाबली नरसिंह जो, पुरुषोत्तम भगवान ।। ५० ॥ स्वैतत्त्व स्त्रिष्टी सबै, विरचै अततनि त जु। वही विरंचि न दूसरों, सही वसैं शिव मैं जु।। ५१।। महाकाल हर कष्टहर, महादेव निज देव। सो प्रभु महा महेश्वरो, जिन वर देव अछेव ।। ५२॥ कर्ता आतम भाव को, धर्ता धृति को सोय। हर्ता सकल विभाव को, भर्ता जग को जोय ॥५३॥ गुन अनंत के जोगते, जोगी कहिये सोय। अतुलित परमानंद को, भोगनहारौ होय॥५४॥ जोगी भोगी हरि सही, और न जोगी जोग। और न भोगी भोग है, करि जन जिन संजोग॥५५॥ सर्वग सर्वज्ञो प्रभू, गुणधर गणधर साथ। जयकारी जगदीस जो, सो गणेश गणनाथ ।। ५६ ।। जो गुण गण को ईस है, जाकै ईश न कोय। परब्रह्म परमातमा, परिपूरण प्रभु सोइ ॥५७ ।। जगनायक शिवनायको, मुनि नायक मुनि भेस। विनुनायक परमेश्वरो, अखिल रूप अखिलेश ।। ५८ ।। देव विनायक और नहि, सोइ विनायक देव । नायक देव अदेव को, दायक सकल अछेव॥५९॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बुद्धि निवास कुबुद्धि हर, परणति शुद्ध धरेय । शति त दि जे., जा :-:: सारेय. ६ ।। शक्तिरूप सद्रूप जो, चिनमूरति चिद्रूप। कर्मशत्रु निरनासनो, महारुद्र तद्रूप॥६१।। दयावान देवांन जो, थिरचर को प्रतिपाल । परमदयाल कृपाल जो, जोगी जुगति विशाल ॥६२ ॥ सुगत सुगति दातार जो, सुमति कूमति से दूर। नागर नित्य निरंजनो, निरवाणी भरपूर ॥६३ ॥ भूधर गोधर गोप्य जो, प्रगट रहित गति च्यारि। जाकौं जग जंजाल की, लागै नांहि वयारि ॥६४॥ भुक्ति मुक्ति को मूल जौ, गोस्वामी गुणपान। जग जीवन जगनाथ जो, जग त्यागी जगभाल॥६५॥ केवलज्ञान प्रकाश मैं, सर्व प्रकाशै ज्ञेय । आकरर्षे निजभाव जो, सो निज चेतन धेय ।। ६६ ।। आकर्षण नै कृश्न सो, व्यापक विश्व असेस। जिज पूज्य जगदीश जो, त्रिश्ना रहित अलेश।।६७॥ आराधै आराध्य कौं, निज आराधन सोय। सब बाधातै रहित जो, परणति प्रभु की होय।। ६८।। निज सत्ता निजभूति जो, ज्ञान चेतना जोय। परमाह्लादनि शक्ति जो, रामा रूप न कोय ।। ६९॥ द्रव्य थकी नहिं दूसरी, द्रव्य हि की परजाय। सो राधा घरमेश्वरी, परमेश्वर की काय॥७०॥ सो तामैं प्रभु ताहि मैं, वस्तु अभेद विलास । ताते राधारमण सों, शक्ति व्यक्ति परकास॥७१ ।। गोपै निज मैं निज कला, प्रगटै आपुहि माहि। कला गोपिका जा विष, विष रूप सो नाहि॥७२॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बा गोपीनाथ अनाथ सो, नित्य विहारी सोय। अमित प्रदेश विहारवन, आपुहि मांहैं होय ।।७३ ।। विमलभाव नाटक नटै, नटवा अदभुत जोय। नटघरलाल रसाल सो, रंग विहारी होय ॥७४ ।। प्रभु त्रिभंगी लाल जो, सकल त्रिभंगी भास। सप्तभंग प्रतिभास जो, धारै अनुल विलास ।। ७५ ।। एकानेक स्वरूप जो, भेदाभेद प्ररूप। नित्यानित्य निरूपको, अस्तिनास्ति द्वय रूप॥७६ ।। हानिवृद्धि नै रहित जो, जाहि न ध्याथै काल। सदा एकरस देव जो, थिरचर को प्रतिपाल।।७७॥ गुण पर्याय स्वभाव जो, सर्व विभाव बितीत। अतुल्न प्रभा अगणित कला, जगनाथो जगजीत॥७८ ।। वहिरंगा संगा तजें, अमला कमला पासि। सो कमलापति ईस जो, कार्ट जग की पासि ।। ७९ ।। कमला नाम न और कौ, कमला निज अनुभूति। ह्रदै कमल राजै सदा, आत्मशक्ति प्रभूति ।। ८०॥ नाहि प्रदेश विभिन्न है, कमला अर प्रभु के जु। आप वस्तु सो वस्तुता, एक रूप अधिके जु।। ८१॥ आप ईश सो ईश्वरी, आप शांत सो शांति। आप पद्म पद्मा बहै, आप कांत सो कांति ।। ८२ ।। पद्मा परणति पद्म की, वसै पद्म के माहि। पद्मनाभ की छांडि कैं, जाय और कहुँ नाहि।। ८३॥ कमला क्रिया कृपाल की, करता तैं नहि भिन्न। कर्ता कर्म क्रिया विधा, एक हि वस्तु अभिन्न ।। ८४॥ विद्या विभा विशाल की, स्वाभाविक परजाय। कर्म कल्लंकहि नहि लिप, कमल समान रहाय॥८५॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी न्यारी होय न नाथ सौं, नाथ हि को बह रूप। • भाषा र सो :.., सन वा अनूप ॥८६॥ जल तरंग दुविधा नहीं, भानु रस्मि नहि भेद । तैसे कमला हरि विषै, श्रुति गावै जु अभेद ॥८७॥ रत्न रलद्युति भेद नहि, ससि अर जौन्ह न भेद। तैसे चेतन चेतना, एक हि रूप अभेद ।। ८८ ।। पुरुष न नारि कदापि जे, वस्तु अमूरत शुद्ध। चिनमूरत चैतन्य जे, देवी देव प्रबुद्ध ॥८९॥ सब घटमंदिर में प्रभु, सदा वसैं निज रूप। विरला दरसन पावई, सम्यग्दृष्टि अनूप ॥२०॥ रमैं सकल मैं धीर जो, महावीर गंभीर रमता राम विराम सो, रमा रमण वर वीर॥९१ ।। सुर नर असुर सुखेचरा, चारण चित्त हरेय । अति अभिराम सुधाम सो, राम नाम जग ध्येय ।। १२ ।। सब क्षेत्रनि मैं रमि रह्यौ, क्षेत्रपति भगवान। क्षेत्री क्षेत्रनिधान जो, अत्ति क्षेत्रज्ञ सुजांन॥९३॥ सिद्धक्षेत्र को नाथ जो, सव क्षेत्रनि को नाथ। क्षेत्र कहावै देह हू, जाकै देह न साथ ।। ९४॥ असंख्यात परदेस जो, वस्तु तनौं विस्तार। सो जिन को निजक्षेत्र है, नित्यानंद विहार ।। ९५ ।। परक्षेत्र जु परद्रव्य हैं, जड़ चेतन बहु रूप। मूरत और अमूरता, नित्य अनित्य स्वरूप ॥ १६॥ लोक मांहि सब पाइए, न हि अलोक मैं कोय। तहां अकेली गगन ही, क्षेत्र अनंती होय॥९७॥ लोकालोक समस्त ही, अवलोकै भगवान। राखै अवगम उदर मैं, ज्ञायक परम सुजांन॥९८ ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी स्वपरक्षेत्र पालक प्रभू, क्षेत्रपाल प्रतिपाल। क्षेत्र न पीरै कोय कौ, करुणासिंधु विशाल ।।९९॥ क्षेत्राधिप नहि दूसरी, जिन विन जगत मझार। सब क्षेत्रनि मैं सो वसै, लसै आप मैं सार ॥१०० ।। आप अकेलौ सर्वधर, सर्वेश्वर सव रूप। अनेकांत आगम प्रगट, अनुभव रूप अनूप ।।१०१।। और न दूजो देवता, एक देव अतिभेव। केवल भाव प्रभाव जो, परमानंद अछेव ।। १०२ ॥ क्षमाधार क्षम देव जो, निर्मल सलिल स्वभाव । पाप भस्म कर अनल सो, निस्संगी समवाय ।। १०३ ।। प्रभु अलिप्त आकाश सो, सोम समो अति शांत । अर्क समो अति भास जो, अतुल तेज अतिकांत ।। १०४।। यज्य यजन यजमान सो, अष्टमूरती देव। दिगाधीश दिगपाल जो, सुरनर धारहि सेव॥१०५ ।। सो कमलाधर जगप्रभू, वसै सदा मो मांहि । मैं मूरख न्यारो रहौं, मो सम मूरख नाहि ।।१०६ ॥ वाही के परसाद तैं, खोलू मिथ्या ग्रन्थि । तवं वासौं विछुरूं नहीं, ध्याऊँ हूँ निरग्रन्थ ।।१०७ ।। हृदै कमल पधरायकरि, केवलदास कहाय । पूर्जी अहनिसि भावकरि, चिंता सकल विहाय ।। १०८।। रहौं सदा हरि के निकट, तौँ न हरि को संग। जिन रं- रत्ता रहूं, तजिकै द्विविधा संग॥१०९।। नमो नमो वा देव कौं, द्रव्यभाव मन लाय। सत्र ते न्यारौ होय कैं, सेकं वाके पाय॥११०॥ सेवक सेव्य सुभाव इह, साधकता मैं होय । साध्य अवस्था आप ही, और न दूजौ कोय॥१११ ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १० अध्यात्म बारहखड़ी - छंद नाराच . प्रकृत्यभाव दूरगो, तू ही जिनो हरी हरी, प्रभु हिरण्यगर्भ जो, अगर्भ जो परापरी । महा स्वशक्ति पूरणो, पुराण जो रमापती, रमा जु नाम भाम नाहि, शक्तिरूप है छती॥११२॥ प्रभु विसेस है असेस, शक्ति को निवास है, सुचिद्विलास ज्ञान शक्ति, व्यक्तता विकास है। अवांतरो महा सुसत्त्व, तू जु है विधिकरो, शिवंकरो भयंहरो, तमंहरो दिनकरो॥११३॥ रमावरो उमावरो, जपै जु ताहि माधरो, सुधातरो मुधाहरो, कहै सुपंथ पाधरो! सुयोगिना नायको, महामुयोग हायको, . अनायको विनायको, अकायको अमायको ॥११४॥ अनंतभाव ज्ञायको, सवै जु वात लायको, महा विमोहघायको, धरै जु बोध सायको। शिवोभवो धवो सदा, शिवो सही रमा धरो, विभू प्रभू महाप्रभू, स्वभू अभू क्षमा धरो॥ ११५ ।। महा सुदेवदेव देव, है अनंत भेव जो, नरोत्तमो सुरोत्तमो, धुरोत्तमो अछेव जो। तुही तुही तुही सही, न तो समोन्य दूज ही, जहाँ तहाँ लखें सुसाधु, एक तोहि पूज ही॥११६ ॥ अणाधि को जु आथि को, प्रभु नराधिनाथ को, विभूतिनाथ नाथ है, सदा जु सर्व साथ को। परंपरो परापरी, पुरांण पूरणो प्रभू, सही जु तीरथंकरो हितंकरो महाविभू।। ११७।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी प्रभा प्रपूर केवाल, अनायस ज्ञः को, सुरासुरा सुपायको, दयाल देव नायको। जनोत्तमो जिनोत्तमो, जितोत्तमो जगोत्तमो, परोत्तमो पुरोत्तमो, गुरोत्तमो वरोत्तमो॥११८ ।। चिदात्म है सुखात्म है, अनंत भाव आत्म है, भयांत है अघांत है, तमांत है परात्म है। सुव्यापको अव्यापको, महामुनी अलिप्तजो, सदा समाधि रूप नाथ, धीरवीर त्रिप्त जो।। ११९ ॥ निरीह जो नृसीह जो, अवीह जो निरीश्वरो, मुनीश्वरो अनीश्वरो, प्रभास्वरो यतीश्वरो। सही जु राम नाम है, विराम हे अकांम है, अनाम है सुधांम है, अनंत नाम ठांम है।।१२० ॥ नहीं जु और काम को, वही जु एक काम को, प्रभु अनेक ग्रांम को, धनी अनंत दांम को। सुसिद्ध है प्रसिद्ध है, विरुद्ध को विनास है, सही जु अर्हदेव है, अनंतज्ञान भास है॥१२१ ।। सुसूरि है प्रभूरि है, दिष्या शिष्या प्रदायको, अध्यातमी अध्यापकों, अलोक लोक ज्ञायको । सुसाध है अगाध है, असाध को असाध्य है, सुसाध्य है अराध्य है, उपाधिनां अवाध्य है॥१२२ ।। प्रजापती सुगोपती, सदा सुगोरखोजती, तु ही अनंत बोध दे, सुदत्त है धरापती। अमूरती असूरती, अधूरतो निरंतरो, महा अनंतमूरतो, विभाव से अनंतरो। १२३ ॥ अद्वैत भाव मुक्त जो, सद्वैत भाव मुक्त जो, अनेक एक दोय रूप, है अरूप युक्त जो। निराकृति जु साकृति, विशेष भाव देव जो, स्वभाव भाव रूप जो, सुभूप है अछेव जो॥१२४ ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सदा सुबुद्धिराधिका, पती मुनीश ईश जो, सवै कुबुद्धि खंडनो, महाव्रती अतीश जो। सुविप्रवर्ण तारणो, जु क्षत्रि वंश धारणो, सुवैश्य वंसतारणो, त्रयी उधार कारणो॥ १२५ ॥ जु पुंस नारि औ नपुंस, शूद्र हू सुधारणो, सुरासुरा सुनारकी, पसुगणा उवारणो। सही अनादिनाथ है, मुनिंद आदिनाथ जो, प्रभु युगादि देव है, सदा जु सर्व साथ जो ।। १२६॥ महायती अजीत जो, असंभवो सुशंभवो, सदाभिनंदनो जिनो, मतीश नाथ ब्रभवो। सुपद्मनाभ पद्मजोनि, पद्मनाथ धीर जो, सही सुपास है प्रभु, रहै जु पास वीर जो॥१२७।। सुचन्द्रनाथ चन्द्रधार, चन्द्र कोटि ज्योतिसो, अनंत ज्योति बार जो, अनंत सूरि होकि हो। सुकुंद पुष्प तुल्य दंत, पुष्पदंत कंत सो, सुशीतलो श्रियंकरो, श्रियांसनाथ संत सो।।१२८ ।। सदा सुवास देव पूज्य, वासुपूज्य देव जो, सुनिर्मलो अनंत जो, सुधर्मनाथ सेव जो। प्रभू जु शांतिनाथ जो, प्रशांत सर्वकारनो, विभू जु कुंथवादि जीव, रासि कष्ट टारनो ॥ १२९ ।। सुकुंथनाथ कीटनाथ, चक्रनाथ देव जो, अरो अजो रजो हरो, हमैं जु देहु सेव जो। त्रिलोकनाथ मल्लनाथ, मोह मल्लजीत जो, अनंत जीत है अजीत, सुव्रतो अतीत जो।। १३० ।। मुनि सुब्रत्त दायको, प्रभू धनी सुब्रत्त को, नमैं सुरासुरानरा, नमीशनां अवत्त को। नही जु कृष्णभाव सो, सही जु कृष्णा रूप सो, सदा जु कृष्ण ध्येय है, सु नेमिनाथ भूप सो॥१३१ ।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सदा जु पासनाथ जो, रहै नजीक नाथ जो, महा सुवीरनाथ जो, अतिंत धीर नाथ जो। सदाजु बर्द्धमांन जो, नहीं जु हीयमांन जो, मतिकरो गतिंकरो, जु सन्मती अमांन जो॥१३२॥ इत्यादि अनंत नाम, देव वीतराग जो, पुनीत है. अनंत धांम, वाहि सौं जु लाग जो। महा विदेह खेतरी, अखेतरी अनेक जो, अनादि है अनंत रूप, तीर्थनाथ एक जो।।१३३। नमो नमो जु अर्ह सिद्ध केवली निरंजना, गणाधिपा श्रुताधिपा, व्रताधिपा अरंजना। सरंजना सबै ज लोक, भारती जिनोद्भवा, मुझे जु देहु शुद्ध तत्त्व, ईश्वरी मुखोद्भवा ॥१३४ ।। - दोहा - सर्वग के मुख से भई सदा सारदा देवि । वहै ईश्वरी भारती सुर नर मुनि जन सेवि।। १३५ ।। अक्षर जो न क्षरै कभी, प्रभू अक्षरातीत। सोई अक्षर वांवनी प्रकट करै जग जीत ।।१३६॥ तेतीसौं विंजन कहै, सुर चौदा सब होय । जिह्वा मूली पुलतअर, गज कुंभाकृति जोय ।। १३७।। अनुस्वारो जु विसर्ग है, ए सब बांवन अंक । संयोगी द्वित अक्षरा, सब को प्रगट शिवांक ।। १३८॥ सब अक्षर के आदि ही, राजै प्रणव स्वरूप । ॐकार अपार प्रभु, आपै आप अनूप ।। १३९॥ सो अक्षर नहि और है, अक्षर रूप सुआप । ताते ॐ आप है, हरै सकल संताप ।। १४० ।। देव शास्त्र गुरु की कृपा, तातें आनंद पूत । भाषै अक्षर बांवनी, नमि जिन मुनि जिन सूत ।। १४१॥ आगै प्रणव स्वरूप भगवान कौं नमस्कार करि, अध्यात्म बारखड़ी आरंभियै है॥६॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अध्यात्म बारहखड़ी - शोक - प्रणवं प्रथमं वंदे, यज्जिनेंद्रैक शाशनं । सर्वाक्षर प्रजा यस्य, राजते श्रुति वर्द्धिनी ॥ १ ॥ - दहा - वंदौ श्री भगवान कौं, श्रीवल्लभ जो देव। श्रीधर श्रीपरणति धरे, प्रणव रूप अतिभेव॥२॥ प्रणवो प्राण वहै प्रभु, राजै श्रुति की आदि। प्रणव समान न और है, भगवत रूप अनादि ।।३।। – चौपड़ी - ॐ कार परमरस रूप, ॐ कार सकल जगभूप। ॐ कार अखिल मत सार, ॐ कार निखिल ततधार ।।४।। ॐ कार सबै जपमूल, ॐ कार भवोदधि कूल। ॐ कार मयी जगदीश. ॐ कार सुअक्षर सीस॥५।। ॐ दरसी श्री भगवंत, ॐ परसी मुनिवर संत । ॐ ध्यायक श्रीपति स्वामी, ॐ ज्ञायक अंतरजांमी॥६॥ ॐ भासक श्री जिनदेव, ॐ विथरित गणधर देव। ॐ कार जिनागमसार, ॐ धारण मुनिवर धार ॥७।। ॐ कार महाअघनाश, ॐ कार सकल श्रुति भास। ॐ भेद न जानें मूढ, ॐ कार परमपद गूढ़ ।। ८॥ - छंद बेसरी - ॐ सम को मंत्र जु नाही, पंच परम पद याकै मांही। ॐ मंत्र जु भगवत रूपा, ॐ श्रुति संमृति को भूपा॥९॥ ॐ मृत्यु काल जे घ्यावे, ते उरध गति निश्चय पांर्वै। ॐ ध्यावत प्राण जु त्यागें, ते सदगति की मारग लागें ॥१०॥ ॐ अक्षर सीस विराजै, ॐ मय जिनवर धुनि गाजै। ॐ एकाक्षर मंत्र जु भाई, मेटि जु भवथिति शिवहँ मिलाई॥११ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १५ सकल त्यागी जे आसा पाशा, मोह त्यागि जे होहिं निरासा । ते साधु याक तत पांवें, या विनु जग जन जनम गुमांवें ॥ १२ ॥ प्रणवा सकल ग्रंथ के आदी, इह प्रणवा है तंत्र अनादी । महा मुनीश्वर यामैं लागें, याकौं पाय परम रस पागें ।। १३ ।। तीन वरण करि प्रणव कहाया, अवरण उवरण मम्मि लिभाया। पंच इष्ट हैं याके मांही, इष्ट मंत्र या सम को नांहीं ॥ १४ ॥ करि कुंभक जिन प्रणव जु ध्यायो, तित निर्वाण पुरी पथ पायो । प्राणायाम जु तीन स्वरूपा, पूरक कुंभक रेचक रूपा ॥ १५ ॥ ॐ स्वेत बर्ण जेध्यांवै, लबधरि चित्त न कहुँ वहांवें । ते पांवें निज शुद्ध स्वरूपा, ब्रह्म वीज हैं प्रणव अनूपा ॥ १६ ॥ सुवरण वर्ण प्रणव जेध्यांत्र, स्तंभन हेतु सवै श्रुति गांवें । पवन चित्त ए दोऊ थंभ, दोऊ थंभी जु शिव उपलं ॥ १७ ॥ रंग सुरंग सुॐ मंत्रा, ध्यायें होय वशीकृत तंत्रा । और न काहू क वसि पारै, मनहि वशी करि निज मैं धारें ।। १८ ।। स्याम रंग इह प्रणव जु ध्यांयाँ, शत्रु नाश कर जिनहि बतायो । जीव तणों अरि कोई न जीवा, रागादिक अरि हौहि सदीवा ॥ १९ ॥ रागादिक नाशन के हेतू, प्रणव स्याम कौं ध्याय सचेतू । स्वेत ध्याय है शुक्लजु भावा, शुक्ल जु ॐ शुक्ल उपावा ॥ २० ॥ ॐ कार निरंजन रूपा, ॐ कार सकल श्रुति भूपा । ॐ कार निधांन अनूपा ॐ कार प्रधान निरूपा ॥ २१ ॥ ॐ वर्जित तंत्र न सोहै, ॐ वर्जित मंत्र न मोहैं। ॐ विनु जंत्र न वल फोरें, ॐ विगरि न पातिग तौरें ॥ २२ ॥ ॐ विनु विद्या नहि आवै, ॐ विनु गुरु नांहि पढावै । ॐ विनु न वखान उचारें, ॐ विनु कछु धर्म न धरै ॥ २३ ॥ ॐ विनु वर्णाश्रम नांहीं, ॐ ध्यांन निराश्रम मांहीं । बिंदु युक्त ॐ कारो साधू, ध्यांवै मुनिवर तत्व अराधू ॥ २४ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी आगम सरवस ॐ कारा, ॐ कार करण भवपारा । ॐ अमृत और न कोई, इह जु सुधातर अदभुत होई।। २५ ।। महाभाग इह अमृत चाखे, महाभाग इह निधि दिढ राखे। ॐ कार सकल ऋषि साखै, ॐ नमि आनंदज भारवै॥२६॥ इति प्रणव स्तुति। आगे श्र अक्षर श्रीकार है ताकी द्वादस मात्रा कहै है। - थोक - श्रमणं श्राद्ध निस्तारं, श्रियोपेतं च श्रीधरं। श्रुतीशं श्रूयमाणं च, श्रेयं पुंजे यशस्करं ॥१॥ त्रैमतागम पारीणं, श्रोत्रीन्पारकर विभुं। श्रौत धर्म प्रणेतारं, श्यंकं श्रस्कारकं भजे ॥२॥ - दोहा - श्रमणाधिकतर श्रमणगुर, श्रमणधुरंधर देव । श्रमण कहैं मुनिराय कौं, श्रमण करें प्रभु सेव।।१।। श्रमहर भ्रमहर भ्रांतिहर, प्रभु श्रयणीय विशेस। जाकौं श्रम उप® नहीं, तारै भक्त असेश ॥२॥ श्रवण सु जाके गुननि कौ, कर भवोदधि पार। श्रवण रहित ते वधिर हैं, सुनें न प्रभु गुन सार ॥ ३ ॥ श्रद्धा द्रिढ धरि धीर धी, सेर्नै प्रभु कौं जेहि । श्रम विनु उधरै जगत तैं, पांव निजपुर तेहि ।।४।। श्रद्धा करि सेवै श्रमण, स्वगवनितादिक त्यागि। श्रद्धा करि पूर्जे हरी, गांवें गुन अनुरागि॥५॥ श्रय रे जन जगदीस कौं, श्रय श्रय वारंवार । अवरसकल भ्रमजार तजि, धरि भगवंत अधार ॥ ६ ॥ श्रगधरादि छंदनिकरी, थुतिकरि हरि की धीर। जिन करि तेरौ भ्रम मिटे, छुटै वंद्यतै वीर॥७॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - श्रगधरा छंद - श्रद्धादै श्राद्ध देवाश्रित जु करि प्रभू श्रीपती तू श्रुतीशा। श्रुयंते नाथ तेरे अगणित सुगुणा श्रेयरूपामतीशा ।। त्रैमसिद्धांत भासै सकल रस तु ही शुद्ध श्रोता मुनीशा । स्वामी तू श्रौत श्रृंगा श्रुति स्मृतिकरा ,यंक अंस्कार ईशा ।।८।। श्रयकै जिनकी भक्ति तू, श्रष्टा को धरि ध्यान । स्त्रज वनिता सव त्यागि कैं, करि विनती सज्ञान ॥९॥ श्रद्धा तेरी मोहि भक्त अनेकनि कौं दई। तैसी दै जगमौर दै, श्रद्धा सम नहि और॥१०॥ .. ..... . परः, हे * श्राद्ध महत। आराधैं तन मन करी, ते तौकौं हि लहंत॥११ ।। श्राद्ध होय तुव गुन ग्टैं, देहि न काहू श्राप। उणमणि मुद्रा जे गहैं, लहैं न ते त्रय ताप॥१२॥ श्राप दिय करुणा नसे, करुणा विनु नहि भक्ति। श्राप न तातें भक्त दे, हैं जिनमैं अति शक्ति ॥१३॥ श्रावक धर्म प्रकाश तू, मुनिमत धारक देव। जीव दया प्रतिपाल तू, करूणा सिंधु अछेव ।। १४॥ श्रांत भयो भव वन विषै, नहि पाई विश्रांति । = विश्राम दयाल तूं, शांतरूप अतिक्रांति ॥१५॥ श्रावण भाद्रपदादि मैं, चातुर्मासिक ब्रत्त। धारैं तेरे दास प्रभु, तो करि ब्रत्त-प्रवत्त ॥ १६ ॥ श्रियोपेत स्वामी परम, तूं हि श्रियंकर नाथ । स्त्रिष्टि तजै स्वष्टा भC, तब पां3 मुनि साथ ।। १७॥ श्रित जु अनेक उधारिया, श्रितवत्सल तृ देव। मोहू करि श्रित आपुनौं, देह निरंतर सेव ।। १८ ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अध्यात्म बारहखड़ी श्रीधर श्रीवर देव तू, श्रीनिवास श्रीपात । श्रीविलास श्रीराम तुं, श्री जिन श्रीपति ख्यात॥१९॥ श्रीश्रित पादांबुज प्रभू, श्रीप्रधान श्रीमान । श्री तेरी अनुभूति है, निजविभूति भगवान।।२०।। श्री नहि तोते भिन्न है, तू नहि श्री से भिन्न । श्री स्वभाव पर्याय है, तू है द्रव्य अभिन्न ।। २१॥ श्री अंतर भरपूर तू, बहिरंगा ते दूर। बहिरंगा है नश्वरी, जगमायाभकभूर ।। २२ ।। श्री तेरी अविनश्वरी, श्री नहि त्रिय की जात। तू पुरुषोत्तम पुरुष नहि, पूरण परम उदात्त ।। २३ ।। - छंद वेसरो - तू श्री पालक जगत प्रपाला, श्री विश्राम सकल भ्रमटाला। ते श्रीपाल उथारे केई, ते उधरै जे तोकौं लेई ।। २४ ।। श्री ही धृति कीरति बुधिराया, कमलादिक से तुव पाया। तू श्री वीजभूत भगवांना, भक्त उधारक भूप अमांनां ॥ २५ ॥ श्री गुरु कृपा होइ जब देवा, तब पावै जन तुम्हरी सेवा। श्रुणु देवाधिदेव भगवंता, तेरे गुन कौं नांहि जु अंता॥२६॥ तेरे श्रुत करि अगनित सीझे, भवभ्रम छांडि सु तोसौं रीझे। जब लग जन तोकौं नहि पांर्वे, तब लग आसादास कहावैं।। २७॥ तेरौ रहसि लहैं जब देवा, गहैं आपुनों रूप अभेवा । श्रुत परसाद सु केवल लैक, आवे तुव पुरि जग जल दैक ।। २८॥ श्रुतिधारक श्रुतिकारक देवा, श्रुतिपारग श्रुतिमारग सेवा। श्रुतिसागर श्रुतिआगर नांमी, श्रुतिनायक श्रुतिदायक स्वामी ॥२९॥ श्रुति उल्लंघक केवलरूपा, श्रुतिकेवलि गावँ जस भूपा। तू भावश्रुति द्रव्यश्रुती ना, ते द्रव्यश्रुति प्रगट जु कीनां ।। ३० ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी श्रुति सुनि जिन तू ध्यायो नाही, ते श्रुत वर्जित वधिर कहांहीं। श्रुति संमृति अर सकरन पुरांनां, प्रगट किये तू पुरुष पुरांनां ॥३१।। तेरौं श्रुत अमृत जगराया, पीढं ते हैं अमरन काया। अपनाग जस से स्वांभो, भय जल पार कर शिवधांमी ॥३२ ।। श्रूय जु माणा तुव जस जीवा, शुद्ध स्वरूप हौँहि जगदीवा। श्रेय नाम तेरौ ही एका, श्रेय करै दुख हरै अनेका॥ ३३ ।। तू श्रेयांसनाथ अति श्रेयो, श्रेष्ट सकल मैं सवौं प्रेयो। श्रेयकरण अघहरण जु तू ही, सरण गहँ मुनि गुन जु समूही॥ ३४॥ श्रेणि जु कहिये पंकति नामा, गुण पंकति तोमैं अभिरांमा। उपशम श्रेणी क्षपक जु श्रेणी, तू हि प्रकासे मुक्ति निसेणी॥३५॥ श्रेणिकनाथ श्रेणि सेयो तू, श्रेणि उलंघक मुनि ध्येयो तू। श्रेष्टी वहुत उधारे तैं ही, तोकौं अतिगति विरद फर्फे ही ॥३६ ।। श्रमत आगम तुम्हरौं स्वामी, तुम श्रीमत श्रीपत्ति गुण धामी। श्रमत अध्यात्म जे भांव, ते निज आतम राम हि पावै ।। ३७ ।। श्रोता तेरे तिरे अपारा, तू वक्ता तारै संसारा। श्रोत्रिय विप्र गणा वहु तारे, क्षत्रि गणा वहु सँहि उधारे।। ३८॥ श्रोणित आमिष अस्थि अलीना, इन हि भरवै ते होहि मलीना। श्रोणित रुधिर तनौं है नामा, तेरै रुधिर न अस्थि न चामा।। ३९॥ तू अप्राकृत आनंद रूपा, अंबर रहित दिगंबर भूपा। श्रीत समार्त्तक धर्म प्रकासा, तू पौराणिक सकल विकासा ॥४०॥ श्रौत धर्म से विमुख विमूढ़ा, श्रीताभास धरै मत रूढ़ा। तेरी भक्ति न उर मैं आंनँ, करुणा रहित कर्म वहु ठानें ।। ४१ ।। ते वू. भव सागर माहीं, तो बिनु धर्मरीति कहुँ नाहि । श्यक देव तु ही श्री अंका, तो विनु और सवै जग रंका ।। ४२ ।। शृंग जू गिर के चढि मुनि ध्यांनी, धेरै जे तेरौ ध्यान अमानी। ते जगभंग तत्त्व तुव पावै, लोक श्रृंग घढि तुव पुरि आवै॥४३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्य बारहखड़ी तूं शृंगार विवर्जित स्वामी, निज शृंगार मई अभिरामी। सव शृंगार तर्जे जे साधू, तेरे काजि हौंहि आराथू॥४४ ।। शृंखल भव की ते भवि तो, तर पुरि आवे तुव जोरें। तेरै श्रृंखल नाहि प्रभूजी, निरखंधन तू जगत विभूजी ।। ४५ ॥ उतशृंखल तोकौं नहि पावै, ते पां₹ जे भ्रांति नसावें। तेरी शृंखल मांहि सवै ही, तोतें कर्म कलंक दवै ही॥४६ ।। शृंगवेर आदिक बहु कंदा, तजि करि ध्यां पाप निकंदा। सब रस तजि तेरै रस लागैं, तव निश्चल है तोमहि पाग।। ४७॥ खंस नाम विध्वंस न ताकौ, होयै देव नाथ तू जाकौ । श्रः कहिये इह अंतिम मात्रा, तू सब मात्रा मांहि अगात्रा ।। ४८ ।। सुनिकै द्वादस मात्रिका, तजिकैं द्विदश अवत्त । तपिक द्वादश तप विधी, धरिक द्वादस व्रत ॥ ४९ ।। तोहि जमैं जग नाथ जी, ते उतरे भवपार। भुक्ति मुक्ति दाता तु ही, अविनासी अविकार ॥५०॥ अथ द्वादस मात्रा एक कवित्त मैं - प्रणव स्वरूप तू ही श्रमण उधारक है, श्राद्ध होहि तोहि भ6 वंस के उजागरा। तू तो श्रितवत्सल जू श्री निवास लायक है, श्रुणु एक बीनती सुतारि भवसागरा। श्रूयमाण तेरे जस श्रेय के समूह करें, श्रमत जो आगम है ऋद्धि सिद्धि आगरा। श्रोतांनि को तारक तू औतपंथ भासक है, लोक श्रृंग श्रः प्रकास नवल सुनागरा ॥५१॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी दोहा श्रीजु कहैं संपति कहैं, कमला कहैं निसंक । भाषा मैं दोलति कहैं. निज सत्ता जू अकंप ॥ ५२ ॥ " — इति श्री अक्षर संपूर्ण आगें अकार स्वर का व्याख्यान करै है । I - — लोक अनादि निधनं वंदे, स्वधनं धन दायकं । सुभक्षं लक्षणोपेत मम रांम रमीश्वरं ॥ १ ॥ — — सोरठा अ कहिये श्रुति मांहि, हरि हर कौ इह नांम है। तो बिनु दूजौ नांहि, हरि हर जिनवर देव तू ॥ २ ॥ - २१ छंद बेसरी अणीयांन अणु हू तैं स्वामी, महीयान नभ हू तैं अतिनांमी । अमल अनूपम प्रभु चिद्रूपा, अकल अरूप भूप सद्रूपा ॥ ३ ॥ = अचल अमूरत अमृत कृपा, अतुल अनंत सुमूरत रूपा । अध्यातम अति शुद्ध स्वरूपा, अनुभव रूपी तत्त्व प्ररूपा ॥ ४ ॥ अति अनंत गति देव अजीता, भव संतान अनंत विजीता । अर्द्ध मात्र नांही अर कोई, अति निरवैरी अति छति होई॥ ५ ॥ अर्द्ध जु नारीश्वर तू व्यक्ती, नांम नांम गुन गुन मैं शक्ती । अमित चक्षु तू ईश्वर स्त्रिष्टी अति सुपक्ष तू केवल दृष्टी ॥ ६ ॥ अतुल पराक्रम धारी राया, अमन अतिंद्री ज्ञान सुभाया । अति अनंत सुखपिंड अखंडा, अर अपिंड परचंड अदंडा ॥ ७ ॥ अपर प्रकाश अनंत विलोकी, लोकालोक लखे अवलोकी । अचल लब्धि को तू ही ईशा, प्रभू अयोनीसंभव (तू) धीशा || ८ || अकषाई तू अतिहि पुनीता, अनगारा ध्यांवें सुविनीता । दांन अनंत अनंत सुलाभा, भोग अनंत अनंत महाभा ॥ ९ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अति अनंत उपभोगा तैर, अति अनंत वीरज प्रभु नेंरें। असम महासम स्वामी तू ही, तेरी समता तूहि प्रभु ही॥ १० ॥ अति अनंत विकलप हरि मेरे, है अविकलप भजौँ पद तेरे। संकलपा अर सकल विकलपा, तैरै एक न तू हि अकलपा ।।११।। अवनीपति तू परम अतीता, अलख अलेसी देव प्रतीता। सुख जु अतिंद्री देहु सु मोकौं, धोकौं द्रव्य भाव करि तोकौं ।। १२ ।। अजर अमर अज अति थिर रूपा, अचर अचार अकर अतिभपा। अटल विहारी सकल विहारा, अविहारी कित हुन विहारा॥१३॥ अति जग भूषन दूषन दूरा, असरण सरण दयानिधि पूरा। अर अशेष अविशेष गुसांई, तूं हि अमृत्यु अकाल असांई।१४।। अति अचिंत्य अविनासी नामी, चित्तऊँ कैंसँ तोकौं स्वामी। अलं अलं पूरण अत्या , तेरै नांही एक अनर्था ॥१५॥ अर्थ न एक अनर्थी तूं ही, तू हि सुअर्थी अर्थ समूही। अर्थ सकल ए जग के झूठे, तेरै अर्थि जती जग रूठे॥ १६ ।। अदभूत देव तिहारी सोभा, तुम अधिके सव” विनुक्षोभा। अभू स्वभू परमेश्वर तू ही, विभू प्रभू तू सर्व समूही॥१७॥ अति अनंत दीपति भगवंता, अग्रअग्रणी श्री विलसंता। अरज विरज अरुजो तू नाथा, अच्युत देव अवस्थित साथा।। १८ ।। अनुभव देहु मोहि सुखरासी, तू अनुभूति स्वरूप विभासी। अति संगी तू देव असंगा, अतिरंगी तू नाथ अरंगा।।१९।। अति अधर्म नासैं तुव नांमैं, नसैं अकर्म वहुरि नहि जांमैं । अति धर्मी तू धर्म स्वरूपा, अवनी आधिक क्षमाधर भूपा॥२०॥ अप नैं अधिक अमल तू सया, अनुभव अमृत रूप सुभाया। अधिक अनल तें तेज अनंता, अनिल अधिक वल चिदधन संता ।। २१ ।। अर अकास तँ अधिक अलिप्ता, अस्छल अनूप अतुल्य प्रगिता। अहो अहिंस्य अहिंसक स्वामी, सदा अहिंसा रूप सुनामी ।। २२ ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अनृत अदत असील निवारा, अबलरहित अकिंचन धारा। अदयाभाव न तेरै होई, नहीं असत्य कहै तू कोई ।। २३ ।। अमरण अकरण थिरचर पाला, अक्षय अव्यय अति अघटाला। अजित महा अभिनंदन देवा, अमर अमरपति धारहि सेवा ।। २४॥ अप्राकृत्त असंस्कृत है त, संस्कृती प्राकृत्त कहै तू। अवधि अगम्य सुरम्य महा तू, अपर अपार कहूं न फहा तू॥ २५ ॥ .. अधिकाभिमा अभिलार न ही. तु ही अभीस मुनीश अदूही। अविज्ञेय अवितर्क अमोघा, तो विनु और सवै जग मोघा ।। २६॥ अधिपत्ति तू अहिपति को त्राता, अधिप तु ही अस्तिति को धाता। अरि रागादिक नासक है ही, असुर न इनसे और कवै ही॥२७॥ अणुब्रत अवर महाबत भास, तू हि विकासै पाप प्रनासै। अध्यातम विनु तू नहि लैये, अमरासुर पुजित तू कैये॥२८॥ अब्रतनासक वृत्त प्रकासा, शुभ न अशुभ तू शुद्ध विभासा। अक्षर तू अक्षर तैं न्यारा, प्रभू अक्षरातीत सुप्यारा ॥२९॥ अग्रज अग्रेश्वरो मुन्यौं को, धीर धनेश्वर धनी धन्यौं कौ। अरुचि असुचि काया तैं जाक्री, भक्ति रूप लै बुद्धि जु ताकी॥३०॥ अतिरस अपरस अरस अगंधा, अवरण अरिण सुअरण अबंधा। शब्दातीत अभीत अशब्दा, अति भवदाह बुझांवन अब्दा॥३१॥ अक्ष न पक्ष न कभी अघों की, रक्षा कर सदा सु सवौं की। अमन अतन तू अतनु प्रहारी, प्रभु अनंग अभंग विहारी॥३२॥ अक्रोधी अभिमान वितीता, अभव अनारज भाव अतीता। असत अमत अततनि तैं न्यारा, अति शुचि अति ही पवित्र सुप्यारा ॥३३॥ अपवित्र न पांवें प्रभु सेवा, नही असंयम रूप सुदेवा। अति तप अति त्यागी अति भागी, भजै अकिंचन साधु विसगी॥३४॥ अति सुशील अति ही सुखदाई, नही अनीति अरीति न भाई। अविनय अनय त6 ए जीवा, तब तोकौं पांचैं सुखपीवा ।। ३५ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अभयंकर अतिज्ञाता दाता, अति दुल्लभ अति वल्लभ त्राता। अतिशयधर अभिप्राय जु जाने, अति पावन अति ही सुख मान।। ३६ ।। अतिभावन तूं पाप नसावै, अज़ अपांवन तोहि न गावै। नादि अनंत अकर्तृम आपा, अत्युत्तम अनिधन निहपापा॥ ३७॥ अर्कपती अमरेस्वर गांवें, अहमिंद्रा पूऊँ मुनि ध्यावें। नहीं अविद्या तेरै काई, ब्रह्म सुविद्या दै सुखदाई।। ३८ ॥ अतिहि अमन केवल अववोधा, अखिल स्वभावमई प्रतिबोधा। अखिल सुचक्री अर्द्ध जु चक्री, तोहि जु पूर्जे तू अतिचक्री॥३९ ।। अभिधाता अभिधान अहेया, तू अभिध्येय स्वज्ञेय सुसेया। अमति अश्रुति अगतिन कौं तारे, अज़ानादिक अवगुण टारे ।। ४० ।। अतिगति देव अगति गति देवा, अतिपति नाथ न जाणूं भेवा। अति युगईश अतुल युग खेवा, अतिजित जीत न सकिहाँ सेवा।। ४१॥ अतिशय सागर अतिशयरूपा, अतिजस अपजस रहित स्वरूपा। अठविध योग प्रकाशक ईशा, अठविध कर्म रहित जगदीशा ।। ४२ ॥ दोष अठारा रहित विराजै, अवस अवास अनंवर गाजै। गुण अठविंसति धारै जोगी, तोते सीखे रीति अलोगी॥४३॥ अठतीसा हूँ जीव समांसा, सबकौं पालक प्रभू अनांसा। अठतालीस अधिक सौ सर्वा, प्रकृति नहि तेरै नहि गर्वा ॥ ४४ ।। अठावन उपरि हू सौ हैं, प्रकृतिन जीते अगणित जौ हैं। तेरै प्रकृती एक न पैए, प्रकृति रहित तू अजड़ वतैए। ४५ ।। अडसठि तीरथ भौतिक न्हावं, तो विनु शिवपुर पंथ न पांवें। अठहत्तरि के आधे देवा, ऊरध लोकनि के है भेवा ।। ४६ ।। नहि जाचौं जाचौं पद तेरे, दै निजपुर भरमण हरि मेरे। असी करौ मोसौं जिनराया, नई नई नहिं धारौं काया॥४७॥ अठयासी आधे चौंवाली, दोष ज्ञान के सब तौं टाली। अठमद त्रय मूढत्व निकिष्टा, घट जु अनायतना मल अष्टा ।। ४८ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सप्त विसन अर हरि भय सप्ता, अतीचार पांचौं अलिप्ता ए अठयासी आधे टारो, अनयांप्रस्व भेटनित .. तारों ।। ४९.!! .. अठ्यांणव हूँ जीव समासा, अठत्तीसनि के भेद प्रकासा । मूलभेद त्रस थावर प्रांनी, तिनके भेद सकल ए जांनी ॥५० ।। इनको रक्षक करि प्रभु मोकौं, अपनौं वास देह पद धोकौं। अट्ठोतर सौ ऊपरि स्वामी, मणियां माला के अभिरामी॥५१॥ तेरौ मंत्र जु पावै कोई, सो पावै शिव तोमय होई। तू अनेक अर एक असंख्या, प्रभू अनंतानंत अकंख्या ॥५२॥ वर्णन कौलग कीजै सांई, अव्यय पद दै अटल असाई। अनाकार अविगत सुअनाश्री, भक्त वच्छिलत है जनिजाश्री ।। ५३ ।। अवर अनर्ह अयोज़ अपूज्या, अर्ह योज्ञ तृ पूजा योज्ञा। अर्हन अरिहंता अरिजीता, श्री अरहंत अतित अजीता ॥५४ ।। अविवादी तृ स्याद जु वादी, द्वयवादी अध्यातमवादी। अस्ति नास्ति अर नित्य अनित्या, सव नय भासे ईश्वर नित्या ।। ५५ ।। अनाहार अनिहार अवस्त्रा, प्रभु अनायुध रहित जु शस्त्रा। अभू अभूषन विभृ अदूषा, अहो दिगंबर प्पास न भूषा ।। ५६ ।। - छंद - अगणित जीवा तारे तेंही, अगणित कर्मा टारे। अगणित भावा हैं तोमैं ही, अगणित परणति धारे॥५७।। अहो अरण्य वसैं मुनिराया, कैसैं बचन मन काया। राया तुझसों नेह लगाया, तूं ही अमाया काया॥५८ ।। अहोरात्रि ध्यानै जोगीसा, भोगीसा गुन गांवै। अमित अहोकर तेज अतीसा, महा निसाहर भावै॥५९।। अर्चित तेरी अर्चा अर्च, चरचा तेरी चरनै । अमर अपछरा सुर धरि सुरचैं, साधु परचि जग विर3 ॥ ६० ।। अकाल अनेहा हरइ जु देहा, सब जीवनि की देवा। काल रहित करि प्रभू विदेहा, दै साहिब निज सेवा॥६१ ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अध्यात्म बारहखड़ी अणुखंधा सव तृहिं प्रकास, तू न अणूं नहि खंधा । केवल दर्शन ज्ञान विकास, विभू विभूति प्रबंधा ॥ ६२ ॥ अन्न औषधी शास्त्र जु अभया, दोन अनेक बताबें । अति दांनी अति ज्ञांनी सदया, सकल सुरीति जतायें ॥ ६३ ॥ अन्न पान की छांण बीण विधि, सकल अचार बखांनैं । नहीं अहार बिहार महारिधि रहे अनंतर थानें ।। ६४ ।। अविधि न अवधि न अव्याबाधा विधि वुधि हू नहि पांवें । रहित अनात्तम भाव सुसाधा, बुद्धि परें जु वतांवें ॥ ६५ ॥ जोगीसा ॥ ६६ ॥ असुधि असुधता भाव न जांमैं, भजैं अवस्य मुनीशा । नहि भूलैं अवसांन दसा मैं पद पंकज अति सुगंध पद अब्ज तिहारे, तैसे नहि चरन सरोज महारसवारे, अलि हैं इंद अमर सबै कहिवे के अमरा, तू अमरा जो न मरा। अनुमति अमति वखांने कैसें, कहि न सर्के पति अमरा ॥ ६८ ॥ अटल अटंकित है जु अडंकित, असंक अकंप अपंका। अबध अबाधक अति हि निसंकित, सरल स्वभाव अवंका ॥ ६९ ॥ अरविंदा । — मुनिंदा ॥ ६७ ॥ छंद मोतोदांम अलेष अभेष अलक्ष अपक्ष अशेष विशेष अनक्ष प्रतक्ष । अशुन्य अपुन्य अपाप अताप सुशुन्य सुपुन्य अशाप अचाप ॥ ७० ॥ अरोप अकोप अजोग अभोग अनोप अलोप अरोग असोग | अदिक्ष अशिक्ष, अलेप अछेप, सुचक्ष सुलक्ष सुदक्ष अषेप ॥ ७१ ॥ अकांम अनांम अराग अदोष, अधांम सुधांम विराग विमोष । अमोह अदोह अनेह अगेह, अलोभ अषोभ अदेह विदेह ॥ ७२ ॥ अदीन अनीन नही जु अधीन, अच्छीन प्रवीन नही सुअलीन। अदंभ अचंभ अलोग अलिंग, सुवंभ विद्रुभ सजोग इकंग ॥ ७३ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अमांन सुजान अदेस अलेस, अगाध अवाध असंख्य प्रदेश। अपात्त अतात अमात अजात, अगात अधात अघात प्रभात ।।७४ ।। अधीश अनीश अफंद अछंद, अचिंत्य अत्यंत अमंद अनंद। अमाम अवाम अदाम सुरांम, अभांम अठाम अगाम सुदाम ।। ७५५ ।। - छंद भुजंगी प्रयात - अदूहो अजूही प्रभू है पुनीता, अपायो कभी नां उपायो प्रणीता। अद्वंदो निकंदो महामोहमाया, अवेदो अभेदो अछेदो अकाया।। ७६ ।। अबादी अनादी अनंतो अनोखो, अकोषो अरोषो असोषो अमोषो। अनापो अमापो अथापो सथापो, नहीं कोई दूजो प्रभू एक आपो।। ७७।। अभक्षा तर्जे जे भ® जे अलक्ष्या, सुपक्षा गर्दै जे दह मोह कक्षा। सुदक्षा लहै तेहि तोकौं प्रभूजी, तू ही है निपक्षो दुपक्षो विभूजी ।। ७८ ।। - छप्पय - अतिरांमो अभिराम देवपति देव प्रबुद्धा, अतिधामो अतिशांत नाथ जगनाथ बिशुद्धा। अतिनामो विनुनाम ईश जगदीश बिबुद्धा, अतिठामो विनुठांम भाव तोमैं न अशुद्धा। अति सुगूढ अनगार देवा है अगूढ अवधूत तू। अति अरूढ सुविभूति सेवा है अमूढ अविभूत तू ।। ७९ ।। अतित्राता अतित्रात छात अतिपात अपाता, अतिदाता सुउदात पार कर तू हि प्रमाता । अतिगाता विनुगात शुद्ध पर्याय स्वरूपा, अति धाता जु विधात शुद्ध गुण राशि अरूपा। अति सुरूप निजरूप भूपा, अति सुरम्य भगवान तू। यति सुरूप तू अति अनूपा, निरद्वंदी निरवान तू॥ ८० ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कस अध्यात्म बारहखड़ी अधिकारी अविकारनाथ अति पुण्य प्ररूपा, अपर द्रव्य को लेस नांहि जामैं जु निरूपा अन्य अज्ञताभाव, थकी वह अरुण जगत का, अज्ञ लहैं नाहि जाहि विज्ञ वह धनी भगत का अर्क अनंत सुज्योति धारा, समयसार अतिसार जो । नहीं अलीक अनीक कोई, अजडनाथ भवपार जो ॥ ८१ ॥ अतिक्रम वितीक्रम नांहि, नांहि अनुक्रम जु अविक्रम, अनाचार नहि कोई धीर तू अतिगति विक्रम | नहीं एक अन्याय एक नांही अपराधा, अनुचर एक न पासि, वीर तू प्रबल अबाधा । अतिसोधा अतिबोध तू ही अमला कमला पासि है । अनुचित वहिरंगा न कोई, चिदानंद सुखरासि है ॥ ८२ ॥ अनिरवाच्य अविचार चार तू जगत अधारा, अनुचर तेरे सर्व राव तू जीव सुधारा । नही अमात्य जु कोई अचल अदभुत अवनीपा, मंत्र न तंत्र न कोई मंत्र तूंही जगदीपा । अतुल अतुल अविगत गुंसाई, अवनीपति पूजैं चरन । अखिलोपम अर अति अनोपम, विश्वंभर अवरन वरन ॥ ८३ ॥ अहो अहो कर भास मोहि तिमर जु कौ हंता, ममता रजनी मेटि बोध दिवस ज् प्रगटंता | भव्य कमल प्रतिफुल्ल करन जो पंथ चलावै, विषय विनोद मिटाय नादि सूते हि जगावै । जीव सुचकवो सुमति चकई, विषम विरह तिनकी हरे । अभवि उलूक लहैं न दरसन अर्क अमितदूति तू धेरै ॥ ८४ ॥ अतुल अनंत प्रताप ताप नहि तेरे सब ही, मिथ्या भाव सुराह तोहि वेढे नहि कव ही । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी . तेरे प्राण अवोध शुद्ध चैतन्य नि तो विषै। रवि को नाम जु मित्र तू जु, है साची मित्रा, अर्क नहीं तो तुल्य में अति सि विव .. अवगम नाम सुज्ञान को अन्हि नाम दिन को सही। अन्हिकरण अवगम मई तू अरुण अहोकरा को तु ही।। ८५॥ असु प्राणनि को नाम तू हि प्रांणनि को त्राता, असुभ्रत प्रांणी जीव, पीव तू जीवनि दाता। तेरे प्रांण न कोई ज्ञान आनंद जु प्राणा, सुख सत्ता अवबोध शुद्ध चैतन्य सुजाणा। अवधि शुद्धता की जु तू ही अवधि न अवधि न तो विषै। हरऊ अविद्या दै सुविद्या अतिसुगमक तू श्रुति लिखे॥८६॥ अभष भर्फे जे जीव तोहि नहि पावै पापी, अगम गमैं जे नीच तोहि भावे न सतापी। अगम गमक फुनि साधु गम्य जिनकी जु अगम मैं, रमैं अपुन मैं धीर चलन जिनकौं न अमग मैं। उनी लहैं न लहैं मुनी ही, गुनी तोहि ध्याबैं सदा । भनी सुरिति श्रुतिनि माहैं, सुनी न अपकीरति कदा ।। ८७।। अप्रमत्त अविलीन प्रभू तू अभयजू, अविषय अगम अगोचरनाथ ज्ञान गोचर तू अतिशय । अश्वादिक चतुरंग सेन तजि होय असंगा भनँ तोहि अवनीश ईश तू धीश अभंगा। तु ही अनागस है अनालस, अलंकार वर्जित सदा। अलंकार सव जगत्त को तृ, नित्य अलंकृत विनु मदा।। ८८ ।। अति समरथ अविभाव, नाहि तेरै जु अभात्रा, सकल विभाव अभाव भाव तू धर्म प्रभावा। अतिदेवल मैं तू हि तू हि है केवल माही, लोकालोकनि मांहि नित्य निवसै निज पाही। सही अनाशक्तो जु तू ही, अतिक्षम क्षमकर हैं प्रभू । अतिशम दम यम नियम भासक अति अघहर हरि हर विभृ।। ८९ ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सोरठा अतिशर्मा तू नाथ अतिवर्मा तू देव है । अतिकर्मा वड हाथ हरे, धर्म तैं ही धरे ॥ ९० ॥ अति अलंघ्य गद्रीस अलंक तू कघनिको हौं असमर्थ अधीस, गुन वरनन कैसे करूँ ।। ११ ।। अति हि अलौकिक ईश, लोक न जांनैं तुव गुना । दोष अमंडित धीश अलपित अलप न तू सही ॥ ९२ ॥ अलपबहुत्व सधैँ हि तू भासै अति भास तू । तो कौं सर्व फर्वेहि, अति उज्जल तू देव है ॥ ९३ ॥ अति नागर जगदीस, अति हि उजागर तू सही । अति सागर अवनीश, अति आगर गुन रतन कौ ॥ ९४ ॥ अरिल छंद - — — अध्यात्म बारहखड़ी . नहीं अभव्य सुभाव भव्य भावहु नहीं, तू शुद्धत्व स्वभाव पारनामिक सही । अवलोकन गुनवांन अखिल दरसी तु ही, लहे अपावन नांहि भक्ति तेरी जु ही ॥ ९५ ॥ प्रभू अकर्त्ता तू हि तू हि अकरम सदा, अकरण करण स्वरूप भूप तु अति मुदा । तू हि असंपरदांन दोन दायक महा अपादांन अधिकरण एक तू ही कहा || १६ ॥ अति छायो जु अछाय अजड रूपी तू ही, अमित छाय जगराय पाय तेरे जु ही । से सुर नर नाग तू हि अविभाग हैं, भगवान परम वैराग हैं ॥ ९७ ॥ महाभाग — त्रोटक छंद अति 7 हि अनुद्धत देव वरो, अति तू हि अनुज्झित भाव थिरो । अति तू हि अनाव्रत ईश महा, अति तू हि अदुत्ती और कहा ।। ९८ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अति तू हि अनामय ईश सही, अति त हि अमै पददायक ही। अति तू हि चिदातम है सुखिया, हम ज्ञान विना अति हि दुखिया॥१९॥ हरि दुष्य सबै करि दास महा, प्रभु तू हि दयाल सुभावगहा। अति तृ हि अनंदी है परमो, अति तू हि अनाकूल है धरमो॥१००। नहि तू हि अनादर जोगि प्रभु, अति ध्येय तु ही जगदीस विभू। नहि भाव अनातम त हि धेरै, अति देव अवाधित भ्रांति हरै॥१०१॥ अवधारन जोगि गिरा तुमरी, अविनासिक भूति प्रसूतिकरी। अक्षयो अव्ययो गुनरासि जु ही, अतिभाव अपूरव वस्तु तु ही॥१०२ ।। - दोहा - अनुद्वेग तू अगुरलघु, अतिभारी जु अभूल। अनावास अनयास तु, अनौपम्य शिवमूल ॥१०३ ।। तू हि अनुत्कंठित प्र, तिरेसिआ जु अचूक। तेहि जेहि तोकौं भजे, करै करम कौ भूक ॥ १०४।। - छंद त्रिभंगी - जब लग्गि अतिंद्रिय बोध निरिंद्रिय इंद्रि अनिद्रिय रहित प्रभू। जीवो नहि पावत तोहि न तावत अखिल सुभावत लोक विभू॥ तही जु अवाच्यो मुनिजन जाच्यो कितहु न राच्यौ जगतगुरू। तू अखिल सुवाच्यौ नाथ अजाच्यौं निज मैं राच्या धर्म शुरू ।। १०५ ॥ जे साधु अतंद्रा वसहि जु कंद्रा मत मुनि चंद्रा दिढ जु धरैं। ते जपहि जु तोही है निरमोही छांड सबोही ध्यान करें ।। तू वर अनुभूति धरड़ विभूनी नांहि प्रसूती क्वापि करें। अतिरिक्त विभावो शुद्ध स्वभावो अमित प्रभावो काल हरै।। १०६ ।। अति ही अकलंको ईश चिदको नित्य अपंको कुमति हरो। तृ असम जु नाथो है अति साधो अति वड हाथो सुमति करो ।। तू ही अपरापर है जु मुधाहर पूजि सुधाकर लोकपती | प्रभुजी अतिपात्रो है अतिछात्रो ज्ञान हि मात्रो शुद्ध जती॥१०७ ।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अति रहै अनंतर नित्य निरंतर अदभुत तंतर रोग हरा। मुनि अनंत जु निवौं रात्रि जु दिवसैं तन मन विकसैं जोग धरा॥ तुवपद ध्यावे कौँ ( तुव) पुरपावे कौँ नहि जावे कौ फेरि कहूँ। अध्यातम धारा अनुभव धारा तू अनिवारा रहित अहं ॥१०८।। तू अति भूतेश्वर है जु महेश्वर देव जिनेश्वर अतिथि गुरो। अति अनत विधानो अमन अमांनो अतिगति जानो धर्म धुरो।। प्रभुजी अति चेता मुक्ति जनेता तत्त्व प्रणेता चित्त हरो। अति ही मद टारी साधु सुधारों अमृत धारी मृत्यु हरों ।। १०९॥ तू अविरति हारी विरति विहारी अरति प्रहारी अमति हो। तू है अतिकामो प्रभु अकामो राम विरामो सुगति करो। तू प्रभु अतिपूतो अति अवधूतो है जु अभूतो भूत महा। अतिकर्म विनासा पाप प्रनासा धर्म प्रकासा गुरनि कहा ॥११० ।। - दोहा - अतिहि अनातंको प्रभू, अभय अभव भावेस। विभू अनादेसो तू ही, सदादेस आदेस ।। १११।। तेरी निर्मापक नहीं, कर्ता जग मैं कोई। अनिर्मान भगवान तू, अति निरवांन जु होइ ।। ११२॥ - कविन - तू अतिक्रांति विश्रांति दयाला, अरिहंता अतिशांत मुनीश। तिर नर सुर खग मुनिवर को मन हरइ न चौरो, अति अवनीश ।। नित्यानित्य जु जगत प्रपंचा, जानें सव अर नहि रति रीस। जीव रषिक जो, नासक कर्मा निरग्रंथो अति कमलाधीस॥११३ ।। इह अदभुत गति देखहु तापैं, सो अध्यातमधार सुसार। अध्यातम धारिनि को तारक, असुधारिनि को है प्रति पार ।। आप अनघ अवसेस नाहि को कर्मनि को जा मांहि लगार। सब सेना ते रहित जु स्वामी, सेनाधर सेवै दरवार॥११४ ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी – सर्वया - असिमसि कृषि और वांनिज को, नाम कोऊ नाहि तेरे पुर मैं न शिल्प पशु पालनां। पठन न पाठन है शिक्ष गुरभेद नांहि, स्वामि अर सेवक को भेद न निहाल नां। तू तो प्रभु एक रूप ज्ञान रूप भाव तेरौ तेरौं पुर चैंन रूप जहां बस काल नां। मोह नाहि द्रोह नाहि नाहि जु विभाव कोऊ, जहां तू विराजे देव सवै भ्रम जाल नां॥११५॥ _ - सोरठा - अध्यातम को मूल, भजै तोहि अध्यातमी। मेट हमारी भूल, दै आतम अनुभव सही॥११६ ।। तू ही अकार स्वरूप, सकल वर्ण मात्रा तु ही। परमेश्वर जगभूप, दौलति करन जु तू उही॥११७ ।। इति अकार स्वर संपूर्ण । आ- आकार का व्याख्यान कर है ।। श्री ।। - भोक - आदि देवं युगाधारं, मात्माराम पितामहं। वंदे साकार रूपं च, निराकारं निरंजनं ।। ११८॥ - सारठा - आ कहिये श्रुति मांहि, नाम पितामह को सही । तो विनू दुजौ नाहि, तू ही लोक पिता महा ।।११९॥ आशु शीघ्र को नाम, शीघ्र उधारौ जगत हैं। आवस्यक दै राम, समता वंदन आदि सहु ।। १२० ॥ आलय घर को नाम, तेरै घर धरणी नहीं। सब घट तेरे धाम, तू आलय सबको सही॥१२१॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अध्यात्म बारहखड़ी आस्पद कहिये थान, तेरे थांन न आंन को । स्व स्वभाव भगवान, लोक सिखर राजै तु ही ॥ १२२ ॥ छंद - आदि धुरंधर आदि जगत गुर, आदि सकल की आदिनाथ आदीश्वर स्वामी आदि सुदेव - तू ही । प्रभू ही ॥ १२३॥ आदि आदि कर आप, आदि वर आदि परंपर आपा । आप आदि मुनि आप, सही मनु आदि रम्य निहपापा ।। १२४ ।। आसन अचल.. अटल प्रभु, सासन नहि आक्रोस कदापी । आ कहिये सामस्ति प्रकारें, शुद्ध सुबुद्ध उदापी ॥ १२५ ॥ आधि न व्याधि रोग रागादिक मोहादिक कछु नाही । हरें आपदा जीव रासि की, नहि आताप कहां हो ॥ १२६ ॥ आलस नहि आलंबन कोई, है आलंबन सबका । आप्त नांम आवरण वितीता आतम गुण धरढ बांका ॥ १२७ ॥ चौप तू आकार रहित जगदेव, तू आधार वितीत अछेव । सबकौ तू आधार दयाल, आश्रम सबकों त्रिभुवन पाल ॥ १२८ ॥ आदि पुरान पुरष परधान, तृ आहार रहित भगवान । तेरै नहि आगार कदापि, तू आधार प्रगट्ट उदापि ॥ १२९ ॥ आखंडल सेवैं तुव पाय, इंद्रनि कौ पति तू मुनिराय । प्रभु आदीस आदि जोगीस, आचारिज प्रणमै नमि सीस ॥ १३० ॥ आर्या भक्ति करें धरि भाव, आनंदी आनंद स्वभाव | आद्युपचारी रहित प्रचार, आदित आदि भजैं निरधार ॥ १३१ ॥ आदि महंत न तेरै दृजि, थिरचर कौ प्रतिपालक पूजि । आदि न अंत न तेरे कोय, तू अनादि अनिधन प्रभू होय ।। १३२ ।। आदि अविद्या भेर्दै तू हिं, आदि मनोहर रूप समूहि । आतम बोध प्रदायक देव घाटिकर्म (घातिकर्म) टॉर जु अछेव ।। १३३ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ३५ - गाथा छंद - आशापासि निकंदा, संतोषी तू महासुखी धीरा। आनंदा जिनचंदा, करि आनंदी महावीरा ॥ १३४॥ आसा पूरै सवकी, तेरे आसा न तू हि निहकामी। आस पिसाची कवकी, मोहि लगी टारिं जग स्वामी॥ १३५ ।। आसा राखौँ तेरी, धरौं न आसा कदापि घर घर की। करि जैसी बुधि मेरी, करुना पालौं हि थिरचर की॥१३६ ।। आसा मेटि हमारी, करौं ने आसा कदापि सुर नर की। सुनि के वानि तिहारी, परनति जानी हि निज पर की। १३७॥ आतमरस दै देवा, आसक संगा : हो जिन : : आतम ज्ञान सु सेवा, विनु नहि पायो किनी ईसा॥१३८ ।। आतम ज्ञान प्रकासी, तृ. ही ध्यानी सु आतमा रामा । आतम लोक विभासी, आतम गुण भर महा धामा ।। १३९ ।। आरति हरणा तू ही, आपद हरणा सुसंपदा दाता। संपति गुण जु समूही, भक्ति तेरी सुविख्याता ॥ १४०॥ आपद भुगतें सकला, सुर नर तिरजंच नारकी जीवा। तू ही श्रीधर कमला, अटला थारै अनंतीवा॥१४१ ।। आतम चित्त जु धारा, आंवरमाना अमानमाना तू। आरति रौद्र निवारा, भगवाना शुद्ध ज्ञाना तू।। १४२॥ आर्जव धर्म प्रकासा, आपा पर भासका तु ही नाथा। आज्ञा पालैं दासा, तेहि तिरै सीध्र भुव पाथा ।। १४३ ।। आज्ञा दायक शुद्धा, आगम प्रगटा सुआगमी नामी। अध्यातममय बुद्धा, आदेसक तत्त्व का स्वामी ।। १४४ ।। आदेस न काहू का, तोकौं तू ही स्वयं गुरु देवा। तू तारक साधू का, आगमधर धारइ सेवा।।१४५ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अध्यात्म बारहखड़ी आलापैं हरि रागा, तेरे जस का करेंहिं आकुल भाव न लागा, तोकौं तू देव आश्रव आश्रम भिन्ना, नहि आवासाहु कोइ प्रभु तेरे । तू निज आतम लिन्ना, आश्रय नहि तो विना मेरे ॥ १४७ ॥ वाखांना । भगवाना ॥ १४६ ॥ अनल वुझावै अंभा, आसानल नां वुझावई पाथा । तृष्ण दाह विज्रभा, तू ही मेटै महानाथा ।। १४८ ॥ तू आधीन न होई, ए सव तेरे हि लोक आतम गुणमय सोई, आरोज़ा तू हि आतापन जोगा जैं, धारें तौहू न तो विनां पांवैं शिव जोगा जे, तोही तैं योगिया हैं आरोज्ञ सरीरा, तेरे नांमैं कहि भव रोगा । आसेव्या असरोरा, तेरे माया न संयोगा ।। १५१ ।। आद्र नाम रस भीनां तू भीगा सुरस मांहि रस भोगी । क्रांती। शांती ॥ १५३ ॥ अन न तो विनु लीनां आरूढा हैं भजैं जोगी ॥ १५२ ॥ आदित्यादि असंख्या, देवा पांवें न तो समा आभ्यन्तर आकंष्या, मेटि हमारी हुदै आखेटक करमी जे, मारें जीवा करें हि पन भक्षा । हिंसक अघ करमी जे पावैं पापी न तब पक्षा ॥ ९५४ ॥ भक्ति न पांवें दुष्टा, शिष्टा पांवें हि रावरी तू करुणा रस पुष्टा, थिरचर प्रतिपाल आकासो जड़भावा, कैसें पावै जु ऊपमा तृ चिद्रूप स्वभावा, देवा हरि मूढ़ता आदेसा इह तेरा, जीवा सव आप तुल्य करि जांनौं । परधन पाहून ढेरा, पर नारी मात सम मांनीं ॥ १५७ ॥ आधीना । स्वाधीना ॥ १४९ ॥ सिद्धी । ऋद्धी ॥ १५० ॥ भक्ती । अतिशक्ती ॥ १५५ ॥ आभासा तेरी सी, नहि पावैं तीन लोक मैं दुरबुद्धि मेरी सी, नहि कोई मांहि प्रभु तेरी । मेरी ॥ १५६ ॥ कोई । होई ॥ १५८ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ३७ — भुजंगी प्रयात छंद कभी नांहि आलिप्त तू है अलेपा, चिदानंद चैतन्यरूपा अछेपा । तू आनंद रूपी सदानंद देवा, प्रभू है महानंद मूला अछेवा ॥ १५९ ॥ तु आनंद रामा प्रभा पुंज धारै, महा आधि व्याधी प्रभू तू प्रहारे । सु आराम करी प्रभू राम तू ही, गरीबांस आद्य गुरु है प्रभु हो ।। १६० ।। समाधान रूपा सुभावा सुआली, सुचिच्छक्ति रूपा सुरांनी अटाली । नहीं और रांनी नही और आली, विराजै तु ही एक रूपो अकाली ।। १६१ ॥ न आदी न अंता तु ही नादि वस्तु, सुअस्तित्व रूपा सही है प्रसस्त । नही आसना वासना नांहि तोमैं, हरौ आगसा लागिया नाथ मोमैं॥ १६२ ॥ कहें आगसा नांम जे पापकर्मा, न तेरै जु पापा नाही कोई भर्मा । भजैं योगरूढ़ा द्रिहासत्र धारे, समाधी सुरूपा महाभाव भारे ॥ १६३॥ तु ही आदरा और त्यागे सर्वेही, मुन्यौं नैं सर्वै सिद्धि पाई जवै ही । तुझे छांडि जे मूढ से विषै कौं, महा आतताई लहैं नांहि जै कौं ॥ १६४ ॥ नही कोई आवेस तेरे प्रवेसा, तु ही हैं अनादेस योगी अभेसा । प्रभू आदि व्यक्ता तु ही आदि वक्ता, तु ही आदि सांमी महाभूति भुक्ता ॥ १६५ ॥ गीता छंद. निरंजनं । प्रपूरणं ।। १६६ ।। आश्चर्यकारी लोकतारी आप आप आलोकपारी अतुलभारी, आस दास आदि आचारी युगादी आदि आसेव्यो महा । आचूल मूल अतूल स्वांमी अकथरूप कहें कहा ॥ १६७ ॥ आत्मीय भाव स्वभाव रूपा योग आध्यातम तुही । आधारभूत अभूत भूपा आदि धरमी तू सही ॥ १६८ ॥ आजि धन्य सुधन्य भागा, आसथा तेरी गही । आरक्तता पर भाव केरी, हरी देव भैहर तुही ॥ १६९ ॥ अस्ति नास्ति सवै जु भाएँ, आदि सासत योगत्वं । आक्रांत नांहि जु काल तैं तू न आक्रमण सुयोगित्वं ॥ १७० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी आदि दौलति रावर ही तोहि तैं दौलनि लहैं । भुक्ति मुक्ति सुमूल तू ही, चरन शरण तेरी गहैं ॥१७१ ॥ इति आकार अक्षर वर्णनं । आगैं इकार का व्याख्यान कर हैं। - शेक - इंद्र नागेंद्र चक्रीणा, मीश्वरं जगदीश्वरं । . . . वंदे सर्व विभूतिनां दायकं मुक्ति नायकं ॥१॥ - दोहा - इ है इकार सिधंत मैं, प्रगट काम को नाम | तुम जु काम हर कामपति, काम सुधारक राम ॥२॥ इंदीवर कहिये कमल, कमल कहा 'कमनीय । जैसे तेरे चरन हैं, तू अनंत रमनीय ।।३।। • इंदीवर न सुगंध है, तन तेरौ ही सुगंध । इंद्री प्रेरक मन इहै, तोहि न ध्यावं अंध।।४।। इंद्री प्रेरक चित्त सौं, भव्य कहै भजि नाथ । संग त्याग इंद्रीनि को, करि जिनघर को साथ।।५।। इंद्रीधर ए जीव हैं, पीब न इंद्री रूप। शुद्ध अतिंद्री देव है, भजि मन सो चिद्रूप ।। ६ ।। इंद्रपति अर इंदुपति, इंदु कहावै चंद । चंद चकोर जु है रहै, निरखत बदन मुनिंद।।७।। इभ हस्ती को नाम है, इभ न लहै वह चाल। हंस चाल गज चालते, जाकी चाल विशाल ॥८॥ कर्मरूप इभगनि कौं, इभ रिपु केहरि सोय । अमित पराक्रम नर हरी, सो भजि सुमनां होय॥९॥ इंद्र तीन हूँ लोक कौ, इंद्र हू को प्रभु इंद्र। इंद्राणी अर इंद्र कौं, जीवन मूल मुनिंद्र ॥१०॥ इषु इह नाम सुवांन कौं, जाकै बान न चाप। ज्ञान चाप ब्रत बांन धर, नासै अखिल जु पाप ।। ११ ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी इंद्रीजीत अभीत जो, इष्ट सर्वानि को वीर । इष्टानिष्ट न भाव धर, ताहि ध्याय मन धीर ॥ १२ ॥ इष्ट वस्तु दायक प्रभू, इंद्री विषय वितीत जो इला भूर्ति को न इला इंदिरा को धंनी, इष्टादिष्ट इलानाथ नांग इंदिराभूति । धेरै अनंत स्वभाव | भवनाव ॥ १३ ॥ विभूति ॥ १४ ॥ इंद्रीधर को ताकौ इंद्री पृथक मुनिंद सो, तारे इंद्र अनंत मन, तू करि इभ तारे इभतार जो, इभ रिपु तारक इन कहिये दिनकर सही, दिनकर धारें — नाथ । साथ ॥ १५ ॥ इ कहिये जैसें मनां तूं है चंचल तैसी चंचल और नहि, थिर न प्रभू सो इत्वरिका कुटिला त्रिया, तैसी कुमति जु तार्कों तू है मिलनियां, इह तौ भलें न देव | सेव ।। १६ ।। रूप | भूप ॥ १७ ॥ सोय । होय ॥ १८ ॥ ३९ चौंप रे मन तूं इंद्रिनि कौ नाथ, तजि विषया करि प्रभु को साथ | सर्वस दायक वह वरवीर, निजच्छति पड़ए जातैं धीर ॥ १९ ॥ इतर भाव तैं गम्य न कोई, केवल गम्य वह प्रभु होय । इतरेतर वह सव तैं भिन्न, परिपूरण निज रूप अभिन्न ॥ २० ॥ तास करि मन विनती एह, सुमन करे प्रभु निज मैं लेह । रे मन तू जिन सकि जिन सौं जु उलटि विषै सौं मिलि प्रभु सौं जु ॥ २१ ॥ सुलटि जगत गुर सौं भिलि वीर, कुटिलभाव राखै मति तीर । सरल सुभाव प्रभु गंभीर, तन धन आपौ वारि जु धीर ॥ २२ ॥ इत उत काँ फिरिको नहि भनौ, मेटि कलपनां प्रभू सौं मिलौं । इत्यादिक का तोकौं कहैं, धनि तू जो ता प्रभू गहुँ ॥ २३ ॥ रे मन तू मेरी परधान, जो तोतें भेटौं भगवांन । अनुचर की इह धर्म हि जांन, स्वामि कांम कौं त्याग प्रांन ॥ २४ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी मेरे कारिज तू मन मित्र, होहु सुमन मिलि थिरचर मित्र । तव तू साचौ मेरौं मंत्रि, मोहि मिलावै जगपति यंत्रि॥ २५ ।। इह विधि समुझायो जिय मनां, ले एकांत भव्य नैं घना। मन मान्यौ जिय को उपदेस, लग्यौ चित्त चरणां जगतेस ।। २६ ।। इज्या है पूजा कौँ नाम, पूज्य पुरिष प्रभु अतिगुण धाम । इंद्रीजित जै मुनिवर धीर, तिनको तारक है वर वीर ।। २७॥ इंद्रीपति मन मनसुत काम, कामजीत जगजीत सुरांम । इच्छा पूरन आप अनिच्छ, निहकामी जगदीस प्रतिच्छ ।। २८ ।। - त्रोटक छंद - इह इंद्रीपत्ती हर देवपती, इह इंद्रिय जीत कहै सुजती। इंही इंद्रिपती सुत मान हरै, प्रभु इंद्रिय धारक पार करै।।२९ । नहि आप जु इंद्रिय धारक वै, प्रभु एक अनेक अपार फवै। वह सर्व इच्छा परिपूरण है, परमेसुर पाप जु चूरण है॥३०॥ तप होइ जु इच्छ निरोध किये, तपभाव बिना नहि दास लिये। इह अंक इकार कहयो प्रगटा, प्रगटै सव तूहि प्रभू अघटा ।। ३३ ।। इभपत्ति प्रपूजित लोक गुरं, सर्वाक्षर रूप सुरं अमरें। अजरं अकरं सुवरं सुपर, निजरूप प्रभासुर सारतरं ॥३२॥ - दोहा - इडा पिंगला सुषमना, नारी तीन जु होय। रहै सुषमना लागि कौं, रटै तोहि सुख सोय॥३३ ।। सोहं सोहं शब्द इह, सव जीवनि के होइ। सास उसासा सहज ही, विरला बृझै कोय॥३४॥ संसय विभ्रम रूप जो, महामोह बलवान। पारै तोसौं आंतिरौ, उपजावें अज्ञांन ॥ ३५॥ लागौ नादि जु काल तें, समुझ न दे निजरूप । भ्रमण कराव जगत मैं, दुख दे महा विरूप॥३६ ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ता विमोह के मारिवे, समरथ तेरे दास। मोह डारि निजरूप को, जानै परम प्रकास ॥३७॥ दास भाव इषुधा समो, इषुधा वान निवास । वांन जु शम दम यम नियम, धारक प्रभु के दास ।। ३८ ॥ ज्ञान चाप तैं इषु व्रता, दास चलावें धीर। मात्यो जाय जु मोह सठ, जाकै नहि पर पीर ॥३९॥ भक्ति मात सौं जीव कौं, मिलन न दे अति दुष्ट। कुमति सुता परनाय कैं, करै नाथ सौं भिष्ट ॥४०॥ हरै अनंत विभूति कौं, दे इंद्रिय रस रंच। वाट जु पारै सिद्ध की, मोह महा परपंच॥४१॥ मोह जीतिबे सक नहीं, सुर नर खेचर नाग। जीते तेरे दास ही, निहकामा वड़भाग॥ ४२ ॥ मोह जीति तजि कुमति तिय, सुमति धारि सुखदात। मिलि कैं भक्ति सुमात सौं, लहैं परम गुर तात ।। ४३ ॥ तात बतावै वस्तु निज, सत चित आनंद रूप । रूप लखें जर मरन की, नासै टेव विरूप॥ ४४ ॥ इंद्र धनुष जल बुदबुदा, तडित तुल्य संसार। यामैं सार लगार नहि, तात जगत मैं सार ॥ ४५ ॥ जाति तात अर पूत की, ज्ञान स्वरूप अरूप। वह केवल निज ज्ञानमय, इह अबिबेक बिरूप ।। ४६ ॥ वह तंदुल इह सालि है, इह दल वह निज धात। अंतर एतौ श्रुति कहै, सुत चंचल थिर तात।। ४७॥ मलिन नीर मिलि सिंधु सौं, निर्मल भाष धरेय । जीव ध्याय जगदीस कौं, कर्म कलंक हरेय ।। ४८ ।। निज दौलति पावै सही, चहुं गति आपद टारि। रमैं स्वरस सागर बिधें, अचल अतुल अविकारि ।। ४९ ॥ इति श्री इकाराक्षर संपूर्णं । आगैं ई अक्षर का व्याख्यान करै है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *२ अध्यात्म बारहखड़ी - शोक - ईकाराक्षर कर्तारं, मीश्वरं जगदीश्वरं। धीश्वरं धिषणाधीश, मीशं वंदे मुनीश्वरं ॥१॥ - दोहा - ई कहिये आगम वि: (थै), है लक्ष्मी को नाम। लक्ष्मी तेरी शक्ति है, चिद्रूपा गुण धांम।। २ ।। तू स्व द्रव्य पर्याय वह, स्वाभाविक निजरूप । वस्तुभेद श्रुति नहि कहै, एक स्वरूप अनूप ।। ३।। तू ईश्वर वह ईश्वरी, तू समरथ वह शक्ति। वह बिमला तू विमल है, तू सुव्यक्त वह व्यक्ति ॥ ४॥ - गाथा छंद - गम् ईस्वर : ईशा ईशेश्वर ईधरेश्वरो नाथा । इंहा रहित मुनीशा, ईश करै तू हि गुण साथा ।। ५ ।। इति हर हर देवा, भीति हरै तू हि देय निज सेवा। ईहा पूर अछेवा, वर्जित ईर्षा तु ही देवा ।।६।। ईशानेश्वर धीशा, इंधर श्रीधर धरें जु ईश्वरता। ईहित दाता श्रीशा, ईषां दोषादि को हरता॥७।। ईप्सित दायक वीरा, ईहित ईप्सित कहैं जु वांछित की। हरै सकल की पीरा, धीरा तू भासई हित कौं ॥ ८॥ ईन कहावै स्वामी, तूं स्वामी सर्व लोक को देवा । ईज्या जोगि सुनामी, ईन्या कहिये जु तुव सेवा ।। ९॥ इंडित सव करि तू ही, इंडित कहिये जु पूजनीकनि कौं। ईर्ष्यादि गुण समूही, समिति भाथै जु ज्ञानिनि कौं॥१०॥ निरखि निरखि करि चलना, उचित हि कहनांअजोगि सव तजिकैं। सोधि अहार जु करनां, धरना लेनां सु सर्व लखिकै ॥११॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म चारहखड़ी धारै दासा समिती, ईठ करें तोहि त्यागी परपंचा। जिनकै घट नहि कुमति, ईदा (र्ष्या) पीडा नही रंचा ॥ १२ ॥ दोहा ईट नांव है मित्र काँ, भाषा में एक नांहि । मित्र न तोसौ दूसरी, तीन लोक के मांहि ॥ १३ ॥ ईख रसादिक मिष्ट नहि, मिष्ट इष्ट तुव नांम । नांम रसायन जे पीवें, अमर होंहि अभिराम ॥ १४ ॥ ईस बल्लभा ईश अर, तोकौं ध्यावैं नाथ । तू ईशेश अलेश हैं, गुण अनंत तुव साथ ॥ १५ ॥ छंद मोती दांम नही जगि ईश्वर तो बिनु कोय, हितू सवकौ प्रभू तू इक होय । प्रभू परमेश्वर तू जु मुनीश, अनीश्वर श्रीश्वर तू अवनीश ।। १६ ।। तु ही शिवसागर नागर धीश, तु ही जु निरीश्वर ईश्वर धीश | तु ही प्रभु ईश्वरतापति नाथ, अनादि अनंत अछेव असाथ ॥ १७ ॥ तु ही जड़ता हर दोष वितीत, प्रभू निज ज्ञान स्वरूप अभीत। तु ही जगतात महा सुखदात, महा अघ घातक देव विख्यात ।। १८ ।। सोरठा ई लक्ष्मी कौ नांम, लक्ष्मी धर तू शिवपती । और न दौलति कांम, दौलति दै अविनश्वरी ॥ १९ ॥ — ४३ ― इति ईकाराक्षर संपूर्णं । आगे उकार का व्याख्यान करें हैं। शोक - उकाराक्षं वंदे सदा महादेवं शंकरं भुवन शिवाधीश, कहैं उकार सुपंडिता, शंकर सुर कौ नांम । सुखकारी आनंदकर, तू जितवर गुणधाम ॥ २ ॥ त्रये । नित्यभानंदमंदिरं ॥ १ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अध्यात्म बारहखड़ी उद्भध तेरौ जगत मैं, होय कभी न दयाल । उन्मूलित कर्मा तु ही, रहित उपद्रव लाल ॥ ३ ॥ उद्भट उद्भव तू सही, दोष उच्छिन्न उदार। उर्वी नाम जु भूमि कौ, तू उवीं मैं सार ॥४॥ उदयंकर प्रभु उर प्रवल, उदय अस्त तें दूर । उपलब्धातम देव तू, उपलब्धो भारपूर ॥५॥ उदित उधारक उपशमी, उद्धत बोध प्रचंड । उद्यत उद्यम रूप तू, उपसमीप गुणमंड ॥६॥ उपवासी उपशांत तूं, उपयोगी उपयोग। उपधि रहित उतपथि रहित, विनु उपाधि अतिभोग।।७॥ उपभोगा भोगा नही, जोगा एक मिलै न। उद्धरणो उद्धार तू, जडता मांहि भिलै न॥८॥ उचित उपेंद्र उपायमय, उज्जल परम उदात। उपकारी उपकारमय, उपमा अतुल सुतात ॥९॥ उपमारहित उपेय तू, नाम उपाय न भेट। भेट करें तन मन मुनी, उपदिष्टा जु अमेट ॥१०॥ उपदिश्यो उपदेश तू, उपरम रूप अनूप । तू उपमेय अमेय है, सकल उर्वराभूप॥११॥ उत्तम उर तेजस महा, आनंदी जु उदास । उरि वसि नाथ सुदासकै, अहनिसि सास उसास ।। १२ ।। उच्चिष्टा विषया सवै, इंद्रियनि के परपंच । भुगते जगवासीनि नैं, नहि चाहौं अघसंच ।। १३॥ उभय नाम है दोय की, राग दोष ए दोय । मेटि दोय दै दास कौं, दरसन ज्ञान सुजोय ॥१४॥ उपशम क्षपक जु, श्रेणी है, सव भासै तू देव। तू उत्तंग अभंग है, विनु उनमाद अछेव ॥१५ ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी उज्झित जग जंजाल तैं, उतकंठा तें दूर । उतकंठा मेरी हरौ, दै सेवा भरिपूर।। १६ ।। उच्छेदक जग फंद तू, हरि मेरे उदमाद । उणमणि मुद्रा दास कौ, दै जोगी अविवाद ।। १७ ।। उनमांन जु तेरौ नहीं, उनमतता नहि नाथ । तू उनमन स्वभाव मैं, रमैं रमा के साथ ।। १८॥ रमा शुद्ध सत्ता महा, द्रव्य गुणातम रूप। चिनमुद्रा निजशक्ति जो, गौरी अतुल अनूप ॥१९॥ उल्लालातम इह जगत, या सम और न सिंधु। उपरि जगत के तू सही, काटि हमारे बंधः ॥ २० ॥ उच्च महा उतकिष्ट तू, जर्षे उमापति तोहि । उपना सब दूरि है, तोते सत्र सुख होहि ।। २१॥ उत्सर्गी उत्सर्गमय, इहै त्याग को नाम। . तू त्यागी संसारको, उपशांती अभिराम ॥२२॥ - छंद पद्धरी :उपवास देहु निजवास देव, अति है सुउजागर अतुल भेव । उदितोदित तात उपाधि चूरि, मुनि उपाध्याय ध्यावे सुसूरि ।। २३॥ उदईक विभाव गहै न तोहि, उन्मीलित प्रगटित तू हि होहि । उतकिष्टा उतकिष्ट जु असाथ, तेरी सुउपासन देहु नाथ ॥ २४ ।। उल्हास विलास अपार देव, तू परम उपास्य अनंत भेव । तू है न उपासक शुद्ध तत्व, सब तोहि उपासै अतुल सत्व ।।२५।। उपहासन ते रहितू असंग, प्रभु उर अंतर भासै अभंग। उद्योतमांन अति उदयवान, उदवेग वितीत अनंत ज्ञान ॥२६॥ उतकों इतकौं न फिरहि तृहि, तू है सुउत्तारक भव समृहि । उतशृंखल भाव न एक पासि, तु उतशृंखल स्वामी अपासि।। २७॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अध्यात्म बारहखड़ी उल्लंघक है तू उदधि लोक, उपरोध नहीं तू है असोक । तर न उपाश्रय कोई नाथ, उत्साहमई जतिनाथ साथ॥२८॥ उत्तमता तो सम कौन धार, तू उग्रोग्न जु जगदेव सार। उर उग्रतपा मुनिराय धौर, उर अंतर धारहि तोहि वीर ।। २९ ।। उतपल दल लोचन अति विसाल, उपचारी तू अति ही रसाल। उपचार न तो सम और कोई, जर मरण जनम मेटै जु सोय॥३०॥ .. इला शुम आदि सबै जुर्ग लोही करि प्रगटहि तू अभर्म। प्रतिमा जु उपल अर धातु रूप, तेरी जु वनांवहि अति सुरूप ।।३१॥ उपकर्ण न तेरहि कोई होइ, उपयोग भाव उपकर्ण सोइ। उरहार तू हि उरझार दूर, तू नाहिं उपद्रित कर्म चूर॥ ३२॥ उपलभ्य तू हि उपलभ रूप, उपदेसी तू सव देस भूप । उद्यांनयास ऋषि करहि धीर, तोकौं इकंत ध्यावें सुवीर ।। ३३ ।। उदवास वास करि धरि उपास, अति रमहि तो महँ परमदास। उपवन वन गिरि सरिता सुगांम, पुर देस मांहि तू ही सुनाम ।। ३४ ।। उतपात सकल होबैं निपात, भूकंप उल्कपातादि जात। उदधी समान उर अति अथग्ग, तेरौ मुनि गांवहि सुमग लग्ग॥ ३५ ॥ उपजी सुबांनि ता मांहि देव, अमृत समान अदभुत अछेव । ताकौं सुपीय बहु जीव लोक, हुये अमृत्यु आनंद थोक ॥३६ ।। - छंद वेसरी ... तेरी वांनी अमृत अर्था, और सुधारस कहिये विर्था । अमरा नाम देवगति जीवा, मरण करें दुख लहै अतीव ।। ३७ ।। अमरा कहिवे के जु मुधा ही, तैसौ वन की पान सुधा ही। चलती कौं गाडी जन जानें, मरतौं कौं अमराकरि मां ।। ३८ ।। नहि अमरा न सुधा सो जांनी, तू अमरा अमृत तुब वानी। उर वसि हमरै उरहर देवा, करौं उरवसि तेरी सेवा ।। ३९॥ अवर उरवसी रंभा नामा, वहुरि तिलोतमादि अभिरांमा। नही अपछरा नहि सुर लोका, चाहौँ तेरी भक्ति अस्लोका ।। ४०।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी .. .. . . .... "...:. :.. ..:: : ४७ उदवासक तू इंद्रिय ग्रामा, सुवस वसावै अति गुणधामा । उदक कहा जैसौं तू सीता, अति निर्मल चिद्रूप अतीता ॥४१॥ उपादेय तू जग सव हेया, उत्कीर्णो न कदापि अमेया। उपादान अर निमित जु द्वैही, कारण भासै तू अति है हौ।। ४२ ।। सर्व उकीरि राखिया अर्था, तेरे ज्ञान माहि अत्यर्था। निज गुन की उग्र जु है सेना, तैरै दोष नही कछु लेना॥४३॥ शक्ति नहीं कर्मनि मैं जैसी, दासन हूं सौं करै वहसी। उत्तरदायक एक जु तू ही, प्रश्न करैया सर्व समूही॥ ४४ ।। उदभासक सु विभासक तू ही, तत्त्वज्ञान भासै जु प्रभू ही। . अति उद्दाम देव उदघाटा, सुखें चलावै निज पुर बाटा।। ४५ ।। उश्न गुणो अग्नि मैं जैसे, केवल ज्ञान आप मैं तैमैं। जिनकै घट उदयाचल मांही, उदितो तू दिनकर सक नाहीं ॥ ४६ ।। तिनकै भ्रांति निसा कित पैए, शुद्ध प्रकास विभास वत्तए। उजलाई उत्तमता तेरी, सो संपति आनंद घनेरी॥४७॥ - छंद गीता - उद्धरोधर उत्तरोत्तर उद्धतोद्धत शुद्धत्वं । उजलोजल उत्तमोत्तम, उत्कटोत्कट बुद्धत्वं ।। ४८ ।। उठि उठि जीव सम्हारि आपा, जड़ मैं तेरी रूप नां। असे बँन सुनाय स्वामी, तो सम और स्वरूप नां ॥४९ ।। उठि मैं तेरी भगति बल तै, उगिलि नांखों प्रकृतिजी। उलटि जग सौं सुलटि तोपैं, आंऊं अतिमति सुमति जी॥५०॥ - दोहा - प्रभु की जो उतकिष्टता, सोई कमला होइ। पदमा दौलति संपदा, श्री धन लक्ष्मी सोई॥५१ ।। आगें ऊकार का व्याख्यान करै है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी __ -- भोक . ऊकारं पदमं देवं, ज्ञानानंदमयं विभुं। परात्परतरं शुद्ध, वुद्धं वंदे स्वरूपिणं ॥१॥ - दोहा - ऊ कहिये सिद्धांत मैं प्रकट विश्नु को नाम । सर्व व्यापको विश्न है, परम ज्योति गुणधाम ॥ २ ॥ विश्नु सदाशिव हरि दरो, गणपति निन् पनि देव ! तमहर भयहर गुणधरो, तू जगदेव अछेव ।। ३ ।। ऊरध लोक प्रदायको, ऊरध सबकै तू हि। ऊर्जित जगमूरध तु ही, नहि काहू सौं दूहि॥४॥ उषा माहि जु ऊठि कैं, जमैं तिहारौ नाम। अहनिसि मंगल रूप ही, रहै महाविश्रांम ।।५।। उँघ नींद सब खोय कै, तजि विषयनि कौं साथ। भजै तोहि सोई जनम, सफल कर जगनाथ ॥६॥ भजन निरंतर जोग्य है, है आवस्य त्रिसंधि। भजन करै सोई लहै, केवल भक्ति असंधि ।।७।। अग्यो जिन घट तू प्रभू, जगरवि दीन दयाल। गयो ऊनता भाव सव, गई न्यूनता लाल ॥८॥ ऊठ्यो जब तू गाजि कैं, भविघटि नाद स्वरूप। मोह गयो तव भाजि कैं, विषय कषाय जु रूप ॥९॥ ऊपर दासनि को प्रभू, करें तो विनां कौंन । दास ते हि उर अंतरै, भऊँ तोहि गहि मौंन॥१०॥ अपरि नीचौं दिसि विदिसि, व्यापि रहयो तू देव। और न चाहैं नाथ जी, देहु रावरी सेव ॥११॥ ऊपरि सब के तू सही, सब से ऊंचौ ईस। तेरी ऊकस सौं मुनी, हरे मोह कौं धीस ॥१२॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ऊठि न सकहीं तू तिनें, ऊर्जित करै अनूप। ऊर्जित प्रबल सुवीर कौं, कहैं मुनी गुणरूप॥१३ ।। ऊहापोह वित्तीत तू, हा तर्क जु नाम। तू अधितक स्वरूप है, अतुः अर्क नि बाम ।।१४।। ऊर्मी नाम तरंग कौ, तोमैं अतुल तरंग। ऊर्मीपति जलनिधि कहा, तू गुणसिंधु अभंग ॥ १५ ।। ऊधिम तेरै कछु नहीं, तू ऊधिम तें दूरि। मेरै ऊधिम लागिया, सौ हरि करि भरिपूर ॥१६ ।। ऊर्णनाभि है मांकरी, उरत का तार। आपहि मैं खेलै तारसौं, बहुरि सकौचै सार॥१७।। तैसें तू निज परणती, आपहि माहि उपाय। आपहि मैं लय करि प्रभू, धूव राजै जिनराय॥१८॥ नाम उर्मिला नदिनि' कौं, नदी सुपरणति होय। तृ. चिद्रूप समुद्र है, अति गंभीर जु सोय ॥१९॥ ऊलर तोसौं जे रहैं, फसिया विषयनि माहि। ते निज निधि पांव नहीं, भव भरमैं सक नाहि ॥२०॥ ऊभौं द्वारै रावर, करौं वीनती देव। द्वारे द्वारै भटकिवौ, मेटि देहु निज सेव ॥२१॥ ऊग्यो ज्ञानांकुर जौ, उर क्षेत्रै जगदीस। कण स्वरूप तू जव लह्यो, योग रूप अवनीस ।। २२ ।। ऊक चूक करि मोह नैं, हरयौ हमारौ माल। चिदधन धन द्यावौ सही, ज्ञान स्वरूप विसाल ॥ २३ ॥ दाह लगायो मोह नैं, गुन मंदिर के माहि। दाह वुझै नहि अव लगैं, ऊपर करहु न कांहि ॥२४॥ दाह वुझावो स्वरस दै, त्रिशा हरौ अपार । पार देहु भव सिंधु कौ, तू तारक जग सार॥२५॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० कठि नहीं जु विमोह मैं, उकसि तुझ दासनि सौं लोकजित, दास करौ कघड्यो राजई, जांनैं सव नहीं, प्रभू मोह उदै ध्यांवैं ध्यांवें भखें अभख ऊमरादि जे निंद्य फल, तिनकै घटि भक्ती नहीं, भक्ति दया छंद गीता ऊर्द्ध गांमी ऊर्द्ध धांमी ऊर्द्ध लोकी तू हि ऊर्द्धादर्द्ध नाथा, वडहाथा दै " - — — — पार रारि । ऊर्द्ध लोक देव वितीत — अध्यात्म बारहखड़ी — अघदारि ॥ २६ ॥ ऊर्द्ध भाव स्वभाव पूरा, ऊर्द्ध शक्ती अतुल युक्ती, ऊंची दसा सव तैं जु तेरी, शक्ति व्यक्ति विभूति जो । संपति रमा पदमा सु दौलति, कमला और सुभूति जो ॥ ३१ ॥ इति ऊकार संपूर्ण आगे ऋ वर्ण का वर्णन करें है । श्रोक ऋकाराक्षर कर्त्तारं धातारं धर्म शुक्लयो । ज्ञातारं सर्वभावानां, वंदे त्रातारमीश्वरं ॥ १ ॥ संसार | निरहंकार ।। २७ ।। आहार । आधार ।। २८ । नाथत्वं । साधत्वं ।। २९ ।। प्रचारत्वं । विकारत्वं ॥ ३० ॥ दोहा ऋ वरण वर्ण जु सूत्र मैं देवमात कौ नांम , देव तु ही तेरे नहीं, तात मात धन धांम ॥ २ ॥ अर श्रुति देवासुर जाति जे, तेऊ गर्भज देव जनि सुर मात हैं, इह भाख्यो दासनि के निश्चै भयो, देवमात तुव दिक्षा सिक्षा विनां, तुव देवमात नहि नांहि । मांहि ॥ ३ ॥ भक्ति । व्यक्ति ॥ ४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रमैं चरन पंकज बिषै, ताः दासा देव । तिनकी रक्षक भक्ति ही, सुरमाता श्रुति एव ।।५॥ सतपुरषनि की मात विनु, और न है सुरमात। परम उदात्त अपात्त तू, दै स्वभक्ति जग तात ॥ ६ ॥ ऋषि गुर ऋषि वर देव तू, ऋषि तर ऋषि पर नाथ। परम धुरंधर ऋषिनि मैं, ऋषि लागे तुव साथ ॥ ७॥ ऋषिप ऋषीश्वर ऋषभ तू, वृषभदेव अविकार। ऋजु सुभाव अति सरल तू, ऋषिपति ऋषी अपार ॥ ८ ॥ ऋनुमति विपुलमती. ऋषी लोहि भज. परिभाव। केवलभाव प्रभात तू, प्रभो भवोदधि नाव॥९॥ ऋजुता भाव विना कभी, लहिये तू न ऋषीस । ऋत्विक होता कर्म को, तू मुनिराय अधीस॥१०॥ सामग्री प्रक्रति सवै, अनल निजातम ज्ञान। तू ऋत्विक होमैं महा, प्रवल प्रपंच अज्ञान॥११॥ ऋचा तिहारी बांनि है, ऋद्धि सिद्धि को मूल । ऋषिनायक सुखदायको, तू ऋषिगन को चूल ॥१२॥ - बरवै छंद - हौं विरवा सम हतमति जगजन मूढ, भव वन माहि बसेरा अबुध अगूढ। पात पात करि झारिउ मिथ्यावाय, मधु ऋतु मायापाय जु अति अधिकाय॥ १३ ॥ मधु ऋतु भलिय जु इह माया ते नाथ, पतझर करि विरखे कौं फुनि बहाथ। पात फूल्ल फल जुत करि अति अधिको जु, बिरवै कौं रमणीय जु करहि सुमौज ॥१४॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अध्यात्म बारहखड़ी इह माया दुखदाया भव भव देव, विरवै सौं भल करहि न कबहु अछेख । तपिउ ताप दुखया करि हौं अति ईस, तप ऋतु सम इह माया दाह करीस ।। १५ ।। झर लांवन अमृत की तू अति मेह, ज्ञानांकुर तो विनु को करई परम सनेह । भव्य सिखंडी हरषहि सुनि तुव गाज, तपति हरन तू प्रभुजी अधिक समाज ।। १६ ।। वरषा ऋतु जित सरस जु तुम्हरी सेव दै जिनराय अधांस अनादि अछेव । ऋतु जु सरदसम उज्जल केवल बोध, तुव किरपा तैं लहिये परम प्रबोध ॥ १७ ॥ ससिर समानो जडताभाव सुमोहि, लगिउजु चिरतें हरि प्रभु बुधिहर सोहि । दिनकर सम तू हरि प्रभु जडता भाव, दै निजबोध प्रबोध मिटाय विभाव ॥ १८ ॥ हिम ऋतु सम इह सठता मोतैं दारि, दें परवीन स्वभाव भवोदधि तारि । ऋतुषट भासक ऋतुरति जीतक देव, ऋतुराजो ऋषिराजो तू जु अछेव ॥ १९ ॥ ऋषि व मिलि करि लिखिया तू इकतत्त्व, ऋषि नरपतिया जतिया तू अति सत्व । ऋणनासक ऋणवीत तु ही रणजीत, ऋषिक न तोसौ जग मैं और अजीत ॥ २० ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्यात्म बारहखड़ी. - छप्पय - ऋद्धि प्रचंडी नाथ, तु जु है मनसुत खंडी, मनखंडी जु अखंड, तोहि ध्यांवें वनखंडी। ऋद्धि निरंतर पास, पूजि तू ऋद्धि परंपर, सकल ऋद्धि परकास, ऋद्धि कैवल्य धुरंधर । ऋद्धि सिद्धि संमृद्धि भरीया, अतुल वृद्धि परिवृद्ध तु, हांनि वृद्धि से रहित देवा, योगीश्वर परसिद्ध तु॥२१॥ ऋतु षट पूरण धोर, बीर तू रतिपति चूरण, ऋद्धि अवास विभास, शुद्ध गुणशक्ति प्रपूरण । ऋते ज्ञान नहिं मोक्ष, ज्ञान तो विनु नहि स्वामी, भुक्ति चहैं न विमुक्ति निष्पहा भक्त सुनामी । भुक्ति मुक्ति की मात भक्ती भक्त नाथ ऋषि नाथ तू, ऋषि राया भवपाज सांई, ऋण हर अनिवड हाथ तू।। २२॥ - दोहा - ऋते नांव वर्जित सही, वर्जित सकल विभाव। शुद्ध स्वभाव प्रभाव तु, राव भवोदधि नाव 1॥ २३ ॥ ऋते अर्थ वर्जित कहैं, विगरि कहैं जु वित्तीत। विना कहैं रहित जु कहैं, त्यक्त कहैं जु अतीत ।। २४।। ऋते कर्म नोकर्म तू, भाव विभाव वितीत। ऋते युक्ति संसार तू, मुक्त स्वरूप प्रतीत ।। २५ ।। - कुंडलिया छंद -- अनुभव रूप अकाय तू ऋ सही जु। रायांराय तू, विनु दायाद स्वभाव। विनु दायाद स्वभाव भाव जाके अतिगाढे। ऋते छाय अतिछाय कर्म सव भर्म जु बाड़े। जाके कछु न विकार नहीं जग जार नहीं भव। ऋते क्षोभ अर लोभ नाथ राजै धर अनुभव ।। २६ ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अनुभै मूल सचूल तू ऋते छद्म अर सद्म। ऋते परिग्रह भिन्नतें पद्मा रूप सुपद्य। पद्मा रूप सुपद्म खेद खिन्नो नहि कव ही। ऋते पुन्य अर पाप ताप जाकै नहि सव ही। जाकै नहीं उपाधि नहीं असमाधि नही भै। ऋते जु रामा राम नाथ राजै सुख अनुभै ॥२७ ।। टीको जग को रावर, सोहै देव ललाट । ऋते नाम अर गांम तू, धांम रूप उदघाट । धांम रूप उदघाट ठाट को नायक तू ही। पाट धार शिववाट एक परवर्त्त प्रभू ही। तर नहि गुनथांन नही परमाणु गनी। ऋते काल जगजाल धीर धारयां जग टीकौ ॥ २८॥ - दोहा - ऋवरण सुरमाता कही, तुब श्रुति अर तुव भक्ति। तू श्रीधर श्री रूप है, अति दौलति अति शक्ति॥२९।। इति ऋकार वर्णनं। आगै ऋ वर्ण का वर्णन करै है। - भोक - ऋकाराक्षर कर्तार, भेत्तारं कर्म भूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वंदे देवं सदोदयं ॥१॥ - दोहा - ऋकारो आगम विषै दैत्य पात को नाम । दैत्यां मोहादिक महा, रागादिक दुख धाम ।। २ ।। तिनकी माता भ्रांति है, महा अविद्या रूप। इह दैत्यां वा ए असुर, लागि रहे जु विरूप॥३॥ तुव प्रताप निज दास जे, हरै भ्रांति मोहादि। भ्रांति हरन मोहादि रिपु, तातें तुम जु अनादि॥४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बहुरि असुर तेऊ कहे, सुर्ग विनां जे विंतर भांवन ज्योतिषी, ए भवनत्रिक सुर असुरनि के जौनि ही, कहिये गर्भज नहि तातैं नहीं, तिनकै दैत्यांतक तुम देव हाँ, हमरी भ्रांति निवारि हो, उतपादक राज्या प्रभू, देव मात भी वह सही, देवासुर पदवी प्रभू, चाहँ तेरी भक्ति जो, निहकामा मोहादिक अति राक्षसा, भ्रांति जनित थिर यर कौं पीडै महा, मदमांते प्रभु हैं इति तिनकी मात भात सोई राक्षस मात । और न दूजी बात ॥ ७ ॥ चाहैं नांही दैत्य मात के सव जीवनि के ॠ असुरनि की मा कही, असुर मात है भ्रांति हरी दै दौलती, अविनासी S कहें लृकार देव कौंन सो गुर निज गुन उपवन मैं रमैं ता सम और न देव है, देव । भेव ॥ ५ ॥ दास । सुखरास ॥ ८ ॥ दुष्ट | पुष्ट ॥ ९ ॥ — सुतात ॥ ६॥ ॠ वर्णनं संपूर्ण । आगें लृ वर्ण का वर्णन करें है । लोक 1 लृकाराक्षर कर्त्तारं देवं देवाधिपं परं । पूर्णं पुरातनं शुद्धं, वुद्धं वंदे जगत्प्रियं ॥ १ ॥ प्रभू वह देव दोहा सिधंत मैं देव मात कौ नांम। कहै, सुनैं सिक्ष भ्रांति | विश्रांति ॥ ११ ॥ शत्रु | मित्र ॥ १० ॥ अखंड अभिराम ॥ २ ॥ बिहार । अविकार ॥ ३ ॥ ५५ न तात । गुरनि बतायौ देव तू, तेरे मात तू अनादि अनिधन प्रभू, सव कौ तात सुमात ॥ ४ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अध्यात्म बारहखड़ी करें क्रीड भय सिंधु मैं, ताते जीव हु देव। जीव सनातन तू कहै, एहु अनादि अछेव ॥५॥ कहवे के अमरा प्रभू, देव कहांई जेहु। तेऊ गर्भज नां कहे, आँपादिक हैं तेहु ॥ ६ ॥ देव मात सौ कौंन हैं, ताकी इह विचार। गुन देवा कीड़ा. करें, लिड स्वरूप मैं सार॥७॥ गुन जननि तुव भक्ति है, तातै इह सुरमात। अथवा दासा देव हैं, इह पालक विख्यात ।।८।। सुर अक्षर जननी प्रभू, तव वांनी मति रूप। सो श्रुति सुर जननी कही, और न कोई स्वरूप ॥९॥ सो श्रुति पइए भक्ति तें, भक्ति महा विश्राम । देव मात तुव भक्ति है, प्रथम कही अभिराम॥१०॥ __ - छंद मोती दाम – नही तुव भत्ति विना प्रभु और, सुदेवनि की जननी जग मौर। जनैं सुर अक्षर रूप सबै हि, सुराजननी तुव श्रुति फवै हि॥११॥ धेरै अति ज्योति सु तू लखिमीस, न तेरहि कामिनि कंचन धीस। सु तेरिहि भूति त्रिलोकन माय, कहैं निज दास तिसै सुर माय॥१२ ।। रमैं पद पंकज मांहि सदाहि, सुदेव कहांवहि दास महाहि। गर्ने निज मात सु ते तुव भत्ति, तु ही जगदेव अमात सुसत्ति ।। १३ ।। सु देहु प्रभु निज सेव रसाल, न यातहि और कछु सुविसाल। नहीं कछु चाहहि दास कदापि, लखें तुव मूरति नाथ उदापि ॥१४॥ - दोहा - सुर माता तुव भक्ति है, तू है संपति मूल । संपति तेरी परणती, सो दौलति अनुकूल ।। १५ ।। इति लकार संपूर्ण । आग लू का वर्णन कर है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - भोक - लकाराक्षर धातारं, दातारं सर्व संपदां। नेतारं मोक्षमार्गस्य, वंदे देवं सदोदयं ।।१।। - दोहा - ल कहिये अहि मात कौ, नाम सुग्रंथनि माहि। अहि दुर्जन ए कर्म हैं, विष भरिया सक नाहि ।। २ ।। इन नागनि की मात प्रभु, नागिनि माया होय । कहैं अविद्या मुनि गणा, जाको नाम जु सोय।। ३॥ हरै मुनी माया महा, हरै कर्म को दंड। हरै गहलता रूप विष, जपि तुब नाम सुअंक ॥ ४॥ मंत्र गारडु नाम इह, तेरौ दीन दयाल। सो हमकौं दै अमृता, हरि माया विष लाल ॥५॥ अहि नागा जे देवता, नागेंदर इत्यादि। देव दैत्य खेचर नरा, तिर नारक सव वादि ।।६।। जो सुर जोंनि सुमात है, सव देवनि की एह। नाग मात ही सो सही, हम न चहैं सुर देह ॥७॥ नाग नाम गज को सही, ताकी हथनी मात। हस्ति हस्तिनी आदि कछु, दास न चाहैं तात ।। ८ ।। नाग नाम है साप कौ, ताकी नागिनि मात । तातें अधिक सुदुष्टता, सो हरि जगत विख्यात ॥९॥ नागिनि मरन जु एकभव, करै अधिक नहि दोष। इह दुरजनता भव भवै, कर अधिक तन सोष ।। १०॥ जब तू आवै घट विषै, नागिनि को नहि वास । तू गरूडध्वज देव है, सर्व पिशुनता नास॥११ ।। नाग नाम सीसा सही, ताकी जननी खांनि। नागादिक सब धातु की, खानि न मांगौं दांनि ।।१२।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अध्यात्म बारहखड़ी हु । हु ॥ १३ ॥ खांनि एक जाच प्रभू, गुन रतननि की जो तेरी भक्ति महाप्रभू, देहू क्रिया करि सो नाग नांम मणिधर पुरुष, तू मणि धारी चिंतामणि चिद्रूपमणि, धारै तू जु सुलच्छि । तेरी शक्ति सुमणि सही, अतुल विभूति सो श्री संपत्ति धन रमा, दौलति है पतच्छि ॥ १५ ॥ इति लृ वर्णनं । आरौं एकार का व्याख्यान करै है । — श्लोक - देव । अछेव ॥ १४ ॥ एकं विशुद्धमत्यक्षं परमानंद परं परात्परं देवं वंदे स्वात्म , कारणं । विभूतिदं ॥ १ ॥ दोहा कौन । मौंन ॥ ३ ॥ ए कहिये सिद्धांत मैं, नांम महेश्वर ए कहिये फुनि विश्रु कौ, तुम ही देव ईश्वर समरथ नांम है, तोसौँ समरथ तातैं तू हि महेस है, भजैं मुनी गहिं एक एव जगदेव तू, व्यापक लोकालोक 1 तातें विश्रु अत्रिश्व तू, जिनवर नित्य असोक ॥ ४ ॥ एक महाज्ञानी तु ही, एक एक मुक्ति मारग तु ही, परमेश्वर एकीभाव अनेक तू एक तत्त्व सकल तत्व भासक तु ही, अति अविचल एकनाथ द्वै भेद तू, त्रिक भेदो चड पंच भेद धारक तू ही, परम स्वरूप देव । अछेव ॥ २ ॥ सुकेवल ज्ञान । भगवान ॥ ५ ॥ परधांन । सरधांन ॥ ६ ॥ रूप । अनूप ॥ ७ ॥ " एक धरम आकास इक एक अधर्म निरूप | एक अणूं मिलि वहुत अणु, खंद होय जड रूप ॥ ८ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी एक एक कालाणु वा, सकल असंखि जु होय । मिलै न कोई काहु सों, अमिल शक्ति है सोय ॥ ९ ॥ 1 एक जाति बहु भांति के पुदगल अमित अनंत है, जीव अनंत अनेक । तू भासै सर्वं जु एक मूरति पुदगलो, और जड स्वरूप पांचौं कहे, जीव रासि सुविबेक ॥ १० ॥ एक रासि संसार की, एक रासि हैं देह धरे जग जीव हैं, सिद्ध विदेह अरूप | चिद्रूप ॥ ११ ॥ — सिद्ध । प्रसिद्ध ।। १२ ।। ए संसारी सिद्ध ह्रौं, जे सुभव्य तुव रु अभवि संसार मैं, कभी न होवें ए तन सिद्धनि कै नही, तातैं भ्रमण न तन तैं ए संसारि के, भ्रमण करें दुख ए जु पदारथ सकल ही, नांहि विगारे मेरी कछु इह रिपु लग्यो, पुदगल मेरे ए जड़ इनके रूप मैं, मेरौ एक न दै स्वभाव निजभाव तू शुद्ध बुद्ध अविभाव ॥ १६ ॥ भाव । भक्त । मुक्त ॥ १३ ॥ होय । सोय ॥ १४ ॥ नाथ । साथ ॥ १५ ॥ ५९ छंद वेसरी ए जड़ है सब शुन्य स्वरूपा, अंक समान कह्यौ चिनूपा । तू है एक शुद्ध चिद्रूपा दै प्रबोध स्वांमी सद्रूपा ॥ १७ ॥ एक राय तू और न राया, एक स्वभाव अनंत अकाया । एक उपादेयो सब हेया, सकल सेय तू मैं नहि सेया ॥ १८ ॥ एकी भाव न ता पायो, दुविधा धरि निजरूप न भायो । एक महा अविवेकी मैं ही, जीव होय हारयौ जड पैं ही ॥ १९ ॥ एन कहावै पाप जु कर्मा, पाप पुन्य लागे द्वय भर्मा । पाप महापापी जग मांही, भक्ति ज्ञांन कौ रिपु सक नांही ॥ २० ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी एन नासिवे कारन पुन्या, धरै विवेकी दास जु धन्या। पुन्य पाप से रहित जु होई, आवै तुब पुरि भ्रांति जु खोई।।२१।। एन भे; सह मुख्य जु हिंसा, पु, मेद बहु मुख्य हिंसा। एण कहावै मृग पशु जीवा, मृग मारें तैं पाप अतीवा ॥ २२ ॥ एडक कहियै पुत्र अजा को, निरबल जाकौं बल नहि काको। तिनके हतें जु करुणा नासै, करुणा विनु नहि भक्ति प्रकास।। २३॥ ए मारै ते नरक जावें, मांस भक्षं ते अति दुख पावें। मद्य मांस सम और न निद्या, करुणा सम और न जग बंद्या ॥२४॥ एण नेत्र सम नारी नेत्रा, लखिकरि डिगैं न इंद्री जेत्रा। तेही द्रिढ भक्ती तुव पांवें, एन समस्त जु तेहि नसावै ।। २५ ॥ एणांक जु सेवै तुव पाया, नाम चन्द्रमा इहै बताया। तू त्रिभुवन कौ चंद अनंदा, चंदहु को तू चंद मुनिंदा ।।२६ ।। एक पक्ष धार नहीं कोई, नित्यानित्य कथक तू होई। प्रभु एकांतवास एकत्वा, सदा एकता रूप सुतत्वा ।। २७ ।। एक वाद नहि तेरै पैए, द्वय वादी अविवाद वतैए। तू एकत्व तंत्र नैकत्वा, अदभुत गति तेरी अतिसत्वा ।। २८ ॥ -. छंद पद्धडी - एकत्व गम्य एकत्त्व लीन, एकत्व सार शुद्धत्व चीन। एकांतवास धारै मुनिंद, ते तोहि एक ध्यावै जिनिंद ॥२९॥ एकिंद्रियादि जीवा अनंत, एको दयाल तू ही जु कंत। एतत्स्वरूप भवतारि मोहि, रुद्रा जु एकदस जपहि तोहि ॥ ३० ॥ एकादस जु पडिमा सुसार, श्रावक धर्म भासै अपार । एकाधिवीस लक्ष्या जु आदि, गुन सर्व तू हि भास अनादि ।।३१।। एकाधितीस उदधी सुआयु, नौग्रीव जाय पार्दै सुकाय। तप धारि वार केई जु जीव, सुर लोक मांहि पहुंचैं अतीव ॥३२॥ एको सुसिद्धि पथ तू हि देव, विनु सेव जन्म धारै अछेव । एकाधिचालिसा सहस वर्ष, कलपांत काल पीछे सहर्ष ।। ३३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी एनानिवारि मनु धीर धर्म, करि हैं प्रगट्ट तेरौं हि मर्म । एकांवना जु कोड़ी हि अष्ट लक्षा सहस चउरासि मिष्ट ॥३४॥ छसै जु सत्तवीसा सिलोक, ए एक ही जु पद के सथोक। एद एक सौ जु वाराह कोडि, लक्षा तियासि आधिक्य जोड़ि।। ३५ ।। ए अट्ठवन्न सहसा बहोरि, पंचाधिका जु सहु पद्द जोरि । भारी जु तूहि धारै मुनिंद, गांवें सुकित्ति नागिंद इंद ।। ३६ ॥ ए एकसट्ठि दूणा जु लेय, एक सौं जु बाइस हेय । प्रक्रति जु नाथ उदया सवै हि, मोते जु टारि तोते दवै हि॥३७॥ - सोरठा - एकहतरि परि एक, अधिक भयें वहतरि कला। सकल कला अविवेक, जौ तोकौं ध्यावै नही ॥३८ ।। एक्यासी चउरासी असी पच्यासी लगि रहै। तेरम ठाण अपासि, जरी जेवरी सी अवल ॥ ३९॥ ए सहु प्रक्रति चूरि, पावै तेरौ निज पुरा। तू है एक प्रभूरि, एकानव भी है सही।। ४० ।। एकोत्तर सौ पूत, ऋषभदेव के शिव भये । तोकौं जपि अवधूत, तू हैं शिव कारन सही॥४१॥ एक सहस परि अष्ट, लक्षन अर नामा प्रभू । तेरे जड़ें जु शिष्ट, अमित नाम गुण अमित तू। ४२ ।। एष एव परसिद्ध, सव मैं तू राजै सदा। प्रगट होहु गुणवृद्ध, शुद्ध दसा करि दास की॥ ४३ ।। ए ही तोते नाथ, मांगू और न एक है। तू छुड़ाय वडहाथ, कर्म पासि तैं मोहि हूं। ४४॥ एक एकता देव, तेरी सो कमला रमा। श्री पदमा जु अछेव, धन दौलति सोई सही॥ ४५ ।। इति एकार संपूर्ण । आर्गे ऐकार का व्याख्यान करै है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - शांक -- ऐकारं परमं देवं, सर्वाक्षर निरूपकं । वंदे देवेंद्र वृन्दाऱ्या, परमं पुरषोत्तमं ॥१॥ - दोहा -- ऐ कहिये सिद्धांत मैं, नाम महेश्वर देव । तुम ही ईश महेस हाँ, और न दजो भेद ।। २!! ऐक्य रूप ऐश्वर्य धर, ऐक्य सुभाव अनूप । ऐक्य नैक्य अव्यक्त तू, अति ऐश्वर्य स्वरूप॥३॥ ऐहिक फल मांगू नहीं, परभव भोग न चाहुँ। नि:कामा भक्ती चहूं, तुष भजि कर्म नसाहुं ।। ४॥ ___-- छंद पद्धडी -- ऐश्वर्य मूल ऐश्वर्य दाय, ऐरावताधिपत्ति परहि पाय। ऐश्वर्य मोह कौ सर्व नासि, भासे सुतत्व आनंद रासि ।।५।। ऐश्वर्यपार ऐश्वर्यसार, ऐश्वर्यभार आश्चर्य धार। परमैश्वरय्य परतक्ष देव, देवाधिदेव लोकेस एव॥६॥ ऐरावतादि भरतादि, सर्वक्षेत्राधिपो हि, तू विगत गर्व। ध्यावै जु ऐलविल तोहि श्रीस, देवो जु ऐलविरल द्रव्य ईश॥७॥ यक्षाधिपो जु कहिये कुवेर, देविंद्र कोसधारी घनेर । देवेंद्र एलविल सर्व तोहि, ध्यावें जु तारि भव जु मोहि ॥८॥ - छंद गौत! - ऐक्य रूपा नैक्य रूपा पर्म रूपा रूप तृ। धर्म रूपा है अनूपा अति निकूपा भूप तू ॥ ९ ॥ ऐश्वर्यभागी अति विरागी परम भागी नाथ तू। अति संग त्यागी वहिरभागी वस्तु लेय न साथ तू॥१०॥ ऐश्वर्यवासा अति उदासा कर्मनासा देव तू। हे आसवासा तारि दासा दै अनासा सेव तू ॥११॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी – मंदाक्रांत। छंद - ऐरावंतो गजपति महा इंद्र कै होय नामी, ताको स्वामी सुरपति सदा तोहि पूजै सुधांमी । इंद्राधीशो जिनपति तु ही मोक्ष मूलो अनांमी, नामी तू ही प्रगट पुर सो सर्व स्वामी अकांमी ॥१२॥ तेरे दासा सुरपति दसा, नांहि चाह प्रभूजी, ऐरावंतादिक गज घटा नांहि वांछै विभूजी । दासा तोकौं द्रिढ मन चहैं, पाय से स्वभूजी, निःकामा जे जग नहि रूलें, पांवइ शुद्ध भू जी ॥१३॥ कर्मा भर्मा दहति सुजनो नाथ तोर्को जु ध्यावे, पावै तोकौं तुत्र पद रतो, विरक्तो जु भावै। नागेंद्रो जो, तुव तजि कभी और कौं नाहि गावे, जिह्वानेका, करि तुव भजै, एक तोहि रिझावै॥१४॥ - सोरटा - ऐरावतपति इंद, तोहि निहारै, भक्ति करि। ध्या सकल मुनिदं चंद सूर गांवे सवै ।। १५ ।। सहस नेत्र करि रूप निरखें तो पनि त्रिप्त नां। सहस चर्ण करि भूप तो ढिग नांचें सुरपती॥१६॥ सहस हाथ करि नाथ, भाव वतावें इंद्र से। थाह न आवै हाथ, तेरे गुन अंभोधि कौ।। १७॥ सहस जीभ करि देव, देवपती गांवें तुझै। कोई न पावै छेव सेव देहु निज दास कौं। १८ ।। अति ऐश्वर्य स्वरूप तेरी जो ऐश्वर्यता। सो संपति जगभूप, भाषा मैं दौलत्ति कहैं।।१९।। इति ऐकार निरूपणं। आगें ओकार का व्याख्यान कर है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ क ओकारं परमं देवं सर्वजं सर्वदर्शिनं । नाथं सुगंधि नाथानां वंदे लोकेश्वरं विभुं ॥ १ ॥ — दोहा ओ कहिये आगम विषे ब्रह्मा को है 7 हरी, और न दूजौ ओज पूंज तू हि जु ब्रह्मा हर ओजस्वी अति तेजमय, तू है ओज नांम है तेज कौ, तेज ओक नांम घर को सही, तेरै घर लोकालोक विषै तुही, ओक तिहारी ज्ञान है, निज क्षेत्रो सर्व ज्ञेय हू ओक हैं, व्यवहारें जु अध्यात्म बारहखड़ी ओक तिहारै सर्व ही, ओक तिहारी लोक के सबके तुम ही मांधे हैं गुन तू नहि व्यापि रहयो विनु नाम । रांम ॥ २ ॥ स्वरूप । भूप ॥ ३ ॥ देह | नेह ॥ ४ ॥ चिद्रूप । प्ररूप ॥ ५॥ ओक । थोक ॥ ६ ॥ फेरि । जैसें सिकला अघ ओप चढावै ओपनी, ओप चढ़ावै जीव कौं, तैसें तू ओज अनंत अपार धर, ओजस्वी तोसौ न। दूजो है संसार मैं, प्रभु अति सठ मोसौ न ॥८॥ ओष्ठ कहांवें ओठ ए तोहि न जपें तातैं अधर कहांवही, जपिवौ तोहि घेरि ॥ ७ ॥ अयांन। सयांन ॥ ९ ॥ . ओठ न हालै कर फिरै मन फेरा मिटि जाहि । अजपा जप करि धीर धी, तो हि लहै सुखदाय ॥ १० ॥ ओहडि राख्यौ मोहि प्रभु, कर्म मिले जु वलिष्ट । तू ही छुड़ावै वंद्यतैं, तो सम और न इष्ट ॥ ११ ॥ ओहडियो मन पौंन कौं, तू हि बतावें ओहडि राखे ज्ञान में लोक अलोक देव । अछेव ॥ १२ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ओषद अन अभै महा, ज्ञान दांन ए च्यारि। इनकै गर्भित दान बहु, भासक तू भव तारि ॥१३॥ ओज नाम पंडित कहैं, विक्रम को हूँ ईस । तोसौ और पराक्रमी, नांहि जु कोई अधीश॥१४॥ ओस विदु सम जग विभव, सो नहि संपति कोय। शक्ति रावरी संपदा, सोई दौलति होय।।१५।। इति ओकार संपूर्ण। आज औंकार का व्याख्यान करै है। - भोक - औकाराक्षर कर्तारं, ज्ञानानंदैक लक्षणं। सर्वज्ञं सुगतं शुद्धं बुद्धं वंदे जगत्प्रियं॥१॥ - चौपड़ी - औ कहिये ग्रंथनि कै मांहि, नाम अनंत जु संसय नांहि। तुम ही देव अनंत सुज्ञान, एक अनंत तु ही भगवान ।। २ ।। औपासक श्रुति भासै तू हि, तू न उपासक देव प्रभू हिं। औदासीन्य स्वभाव सुधार, अति आनंद मई विसतार ।।३।। औषद रूप तु ही जगदेव, हरै व्याधि जर मरण अछेव। औषधीश है चन्द्र सुनाम, चंद सूर ध्याबैं तू हि राम ॥ ४ ।। औपाधिक नहि तोमैं भाव, औत्कंठिक एको न विभाव । लगे भाव औपाधिक मोहि, हरौ देव नहि कठिन जु तोहि ।। ५॥ औदार्यादि गुणा तो मांहि, ज्ञान महानिधि देहु न कांहि। प्रभु अनौपम्यो इक तू हि, सर्व उपमा योज्ञ समूहि॥६॥ - मंदाक्रांता छंद - औत्सुक्यादी तव नहि कभी, तू अनौत्सुक्य रूपो। औद्धत्यादी कछुहु न कभू, शांत रूपो अनूपो। औपाधी जे, लहहि न तौं, श्री गुरै यों कही जो। औदार्यादी गुण धर नरा, तोहि ध्यांवें सही जो॥७॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी औचित्यादी, अति गुण भरौ, औपशांती तु ही जो। औदैको जो, रहहि न नर्षे तू न कर्मी वही जो। तैर स्वामी, रहहि न सही औपशांती हु भावा । नाही तर, क्षय उपशमा, तू हि शुद्ध स्वभावा ॥८॥ तेरे नाथा, निज गुण मयो, ज्ञायको शुद्धभावो। पैए तेरै, प्रकृति रहितो, पारिणामो स्वभावो। औदारीकादि तन सबै नाहि, तेरै प्रभू जी। अप्राकृतो, सतचितमयो, तू विदेहो विभूजी ॥९॥ - गीता छंद - औदईको औपशांती, नाहि क्षय उपशम कभू। क्षायको प्रकृत्यक्ष यो जो, पारिणांमीक है प्रभू ।। १० ।। राग दोषा मोहभाषा, ए जु औपाधिक सही। तू न औपाधी कदापी, है उदापी गुर कहीं ॥११॥ रमा न औपाधी तिहारी, स्वाभाविक परपति सही। गौरी सुलच्छि स्यामा जु शक्ती सोइ दौलति हू कही ।। १२॥ इति औकार कथनं संपूर्ण । आगै अं का व्याख्यान कर है। - थोक - अंकारं परम देवं, शिवं शुद्धं सनातनं । योगिनं भोगिनं नाथं, वंदे लोकेश्वरं विभु ।।१।। - दोहा - अं कहिये आगम विषै, परब्रह्म को नाम। परब्रह्म परमातमा, तुम ही देव सुधांम ॥२॥ अंक नांव है चिन्ह कौ, तेरै चिन्ह न कोय। ज्ञानानंद जु चिन्ह है, तू चिद्रूप जु होय ।। ३ ।। अंक नाम अक्षर सही, तू अक्षर अविनासि। अंहि चरन को नाम है, से0 सुर नर रासि ॥ ४ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी.::. .. ... . ... ..:. . अहिप कहिये वृक्ष कौं, अदभुत तरू सुखदाय। तो सम सुरतरु और नहि, अति अनंत फल छाय ॥५॥ अंशु किरण को नाम है, किरण अनंत जु धार। तू अनंत दुति देव है, भानुपति अविकार ।। ६ ।। अंशुक कहिये वस्त्र कौं, तू हि दिगंबर देव। पीताबर पूजित तु ही, निराभर्ण अति भेव ॥ ७॥ अंतर तेरै कछु नहीं, नित्य निरंतर ईस। अंतर बाहिर एक रस, अति रसिया अवनीस॥८॥ अंतर उर मेरै सदा, वसि जगजीवन नाथ । अंतर मेटि दयाल तू, देहु आपुनौं साथ ॥९॥ अंदर उर के आयकैं, हरौ कुबुद्धि अपार । 4 स्वभक्ति भव तारि तू, निरधारां आधार ।। १० ।। - मालिनी छंद - यतिपति सु चंद को, अंक जाकै न कोई। जग प्रभु जु अवंको, वक्रता नाहि होई। जग जित जु अपंको, शंक लेसो न जामैं । भजहु भजहु भव्या, नाहि रागादि तामैं ।।११।। प्रभु तजि जग मैं जे, राचिया मूढ जीवा। नहि लहहि शिव ते, जन्म धारै अतीवा । हरि भजि जग जीते, ते लहे स्वात्म तत्वा। जिन सम नहि कोऊ, और दूजो सुसत्वा ॥१२ ।। प्रभु भजिहि सुभाजै, अंधको मोह नांमा। प्रभु भजहि सभागा, त्यागि संसार रामा। प्रभु तजहि अभागा, तेहि अंधा न और। प्रभु सम नहि कोई, वीर बैठौ जु चौरै ।।१३।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - इंद्रबज्रा छंद - अंभोज तेरे चरणारविंदा, सेबैं नरिंदा अमरिंद चंदा। हरै संतापा प्रभु तू हि अंभा, धरै सुधामा नहि कोई दंभा ॥१४॥ अंभोधि तू ही गुन रत्न धारा, अंभोद तू ही वरष सुधारा। ज्ञानामृतांभो रस धार वृष्टी, तो वाहिरा धर्म मई न स्त्रिष्टी ।। १५ ।। नाही जु अंभोनिधि और दूजो, तू ही गुनांभोधि विभू प्रभू जो। नाही जु अंत:पुर तू हि एको, शुद्धत्व शक्ती परमो विवेको ।। १६॥ अंसा विभागा गन भाव रूपा, अत्यंत तेरै परम स्वरूपा। अंसी जु तू ही अति अंसधारी, अंतो न तेरो कबहू विहारी ।। १७11 - छंद वेसरो - अंजन रहित निरंजन देवा, अंतर रहित देहु निज सेवा । अंजन धोय निरंजन कीनें, वहुत भक्त तारे रस भीनें ॥१८॥ अंध अंधता धारक प्रांनी, किये सचक्षु दास करि जानी। इहै अंधता तोहि न देखें, अंध तेहि तोकौं नहि पेखै॥१९॥ अंबुज घरन तिहारे से₹, तेहि सचक्षु तोहि प्रभु लेवें। अंतक कहिये काल गुसांई, तू अंतक को अंत जु सांई॥२० ।। अंत न आदि न तेरी कोई, तू अनादि अनिधन प्रभु होई। अंतरभेदी अंतरजांमी, अंतरवेदी अंतर स्वामी॥२१॥ अंतरातम तोहि जु ध्यावै, बहिरातम तुव भेद न पांचैं। अंतरनाथ अंतरनाथा, अंतर मेटि देहु निज साथा ॥२२॥ अंतराय हरि विधन निवारा, करि जु निरंतराय भवतारा। अंतरंग दै भाव सुभक्ती, वहिरंगा बुधि मेटि अयुक्ती ।। २३ ।। अंतरमुख मोकौं करि देवा, जनमि जनमि दै अपनी सेवा। अंतरआतम करि जगनाथा, बहिरातमता मेटि अनाथा॥२४ ।। अंबुधि अमृत रस कौ तू ही, अंवुद जित ध्वनि करन प्रभू ही। . अंवर रहित निरंवर देवा, मुनि दिगंवर धारै सेवा ॥२५॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अंवर जड तू है चिद्रूपा, अंबर को अंवर सद्रूपा। अंबर सर्व सभायो पो.”, जन १५ तू रस्य नहि. गो. ॥ २६ ॥ अंवरमान अमानो तू ही, ज्ञान प्रमाणो सर्व समूही। अंभ अंषु ए जल के नामा, जल चंदन आदिक करि रांमा ।। २७॥ पूर्य तोहि पुनीत पुमाना, अंग विवर्जित तू हि प्रमाना। अंग उपंग न तेरै कर्मा, कर्म जनित सामग्रि न भर्मा ॥२८॥ अंग अनूपम अप्राक्रत्ता, पुरुषाकार जु अव्याक्रता। अंग नाम शास्त्रनि को स्वामी, सर्व अंग भासक तू नामी ॥२९॥ अंग अनंत गुनातम तेरे, तू सरवंग शुद्धता प्रेरै । अंगीकृत पालक तू नाथा, नित्य अनंगा अगणित साथा॥३०॥ अंगी अंग धरै ए जीवा, तू जीवनि को पीव सदीवा । अंग तिहारों जे जु निहारें, अंतर वाहिर ते अघ टारें ॥३१॥ अंग विना जो काम अनंगा, ताहि निवारक तुम जु असंगा। अंशुक अंतहकरण स्वरूपा, ताकै अंचलि रतन अनूपा ।। ३२॥ वंधि अबंध अरूप गुसाई, बलिहारी तेरी जग सांई। अंहि तिहार अंतर मेरे, अंतर मेरौं अंहि जु तेरे।। ३३ ।। सदा वसौ इह भांति जु मेरै, परयौ रहूं दरवार जु तेरै। अंतकाल भूलौं नहि राया, जनम जनम पांऊं तुव पाया॥३४॥ अंत मेटि करि हमैं अनंता, जनमजरा मेटौ भगवंता। अंतकाल कवहू नहि आवै, सो पुर दै कछु और न भावै ।। ३५॥ - सार्दूल विक्रीडित छंद - तेरौ देव गहैं अनन्य शरणा, ते पांवई तोहि जी। अंतर्भूतिमयी तुही गुणयुतो तोसौ तुही होहि जी। वाह्याभूति न तोहि सेय जु सकै, तू त्याग को सोहि जी। अंतर्भेद महा प्रपूरि जु रह्यो, तू तारि लै मोहि जी ।। ३६ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06. अध्यात्म बारहखड़ी अंतर्भूति विशेष तोहि जु गहैं, नां बाहिरी से सकै । जो त्यागे वहिरंग भूति जु सबै तार्कों न कर्मा तकै । अंतः मध्य वसै जु तू हि तव ही रागादि भर्मा रूकै । तू ही देव सहाय और न परो तोतैं जु मो हो सकै ॥ ३७ ॥ अंधा तोहि जु छांडि और हि भजैं, ते पांवई दुर्गती । मोहांधासुर नासको जु परमो तू दायको सद्गती । अंधा आंखि लहँ जु तोहि सुथकी, तू ज्ञानचक्षु यती । अंसा हू नहि बुद्धि मो महि प्रभू क्यौं वर्णऊं श्रीपती ।। ३८ ।। ਕੈ ३१ अंबुधि ते ऊपनी जु लक्षमी वखांनें लोक, तेरे गुन अंबुधि में ऊपनी अनादि की । वह गुन रूपिनी सु रावरी अनंत शुद्ध निज सत्ता एक दूसरी न आदि की ॥ वह जग अंवा अर अंबिका कहावै नाथ, ओर नांहि अंबा नहि अंबिका जुवादि की। जीवनि की घातिनी सुपापिनी कहावै देव, अविका भवांनी तेरी शक्ति करुणादि की ॥ ३९ ॥ अथ साधकी अवस्था - - अंवर ही अंबर है घोढिवे के काज जाकै धरा सी सुसेजु जाकै वडी है अमीरी । दिसा परधांन परधांन निज भावभाई, ज्ञानादि अनंत जाकै भले हैं स्वसीरीतें ॥ गुहा गिरि गेह अर नेह सव जीवनि तैं, प्रज्ञा सी सुगेहिनी महेसिनी उजीरी तैं। रीरी नाहि भाखियों न जाचिवों जु काहू पैंहि, कोटिक अमीरी वारि डारूं या फकीरी पैं ॥ ४० ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी । श्रगधग छंद - ज्ञांनी तू एक स्वामी परम पद धरो अंबिका नाथ संतो। अंवा शक्ती हि तेरी अवर नहि कभी तू जु है श्रीरमंतो। पद्मा माया सुलक्ष्मी प्रगट निज गुणा अंतरा भूतिकंतो। तू ही तू ही प्रभूजी अतिपति अतुलो एक शुद्धो अनंतो॥४१॥ मो कौं भक्ती हि देहो अवर नहि चहूं, एक तो ही जु सेऊं । तेरे पादांबुजा जे मधुर मधु भसढे अस्लीवास लेऊ। अंवा ताता सुभ्राता सकल तजि प्रभू एक तोही जु वेऊ। सेकं सेऊ हि तोही तुव मय हि भयो धर्म नावा जु खेऊ ।। ४२॥ ... वसंत तिलका छंद ..तोकौं नमोस्तु जग देव विशाल मूर्ति, ज्ञान स्वरूप अनिरूप रसाल मूर्ती। ध्यान प्ररूप जगभूप अनंतमूर्ती, शुद्ध स्वभाव परिभाव प्रभू अमूर्ती ॥४३॥ शुद्धात्म लब्धि उपलब्धि मई जु तू ही, लोकाधिनाथ जगदीस सदा प्रभू ही। योगाधिरूढ अवनीश विभू अभू ही, सर्वस्व रूप नहि रूप महाप्रभू ही॥ ४४ ।। - दोहा - तुव गुन अंबुधि मैं प्रभू, रसकल्लोल प्रतच्छि। सो विभूति चंडी महा, रमा सुदौलति लच्छि।। ४५ ।। इति अंकार वर्णनं। आरौं अः अक्षर का व्याख्यान करै है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1135 लोक अःकाराक्षर कर्त्तारं देवं देवाधिपं विभुं । सर्वाधारं निराधारं वंदे वंद्यं सुराधिपैः ॥ १ ॥ दोहा अ: कहिये ग्रंथन विषै कृष्ण नांम कृष्ण जु आकर्षण करै, गुण पर्यय .. व्यवहारें सब ज्ञेय कौ, सुरनर मुनिवर मन हरे अध्यात्म बारहखड़ी आकर्षण जु कृष्ण सुनांम कृष्णभाव नहि प्रभु तुम ही कृष्न जु महा, कृष्ण पूज्य परमात्तमा, तुम परमेश्वर अ: कहिये फुनि श्रुति विषै, नांम महेश्वर तुम ही ईश महेश हौ, और न दूजौं — मैं मति हीन जु राचि परतक्ष । अत्यक्ष ॥ २ ॥ अ आदी अः परजंताक्षर करेय । धरेय ॥ ३ ॥ कोय | वर छंद अ: काराक्षर जिनवर तू जगनाथ, सव अक्षर भासइ तू अति गुण साथ । हमरी भूल मिटाय जु करि निजरूप, अवर न चाहहि अति जित जगपति भूप ॥ ६ ॥ सव जीवनि की आस तु ही सव पास, पासि हरन सुख रासि करहु निजदास । भुकति मुकति दायक तू सरवसदाय, होय ॥ ४ ॥ देव | भेव ॥५॥ अवर न चहहि राय भजहि तुव पाय ॥ ७ ॥ सोल, सकल विभास देव सु तू हि अडोल । विषयनि मांहि, तोहि विसारिउ नाथ चितारिज नाहि ॥ ८ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रूलिउ जु भव मैं जन्म गहे जु अनेक, अव तारि जु भव जल तैं देहु विवेक। तो धनु काम उतारइ भवजल नाथ, इकतारक तू सुनिउ जु अति वडहाथ ।। ९ ।। - दोहा - रमा शक्ति चिद्रूपता, निज सत्ता है सोय। विद्या भूति सुसंपदा, संपति दौलति होय ॥१०॥ इति अः वर्णनं । आमैं एक कवित्त मैं षोडसाक्षर का निरूपण करै है। - सवैया - ३१ - अमल अनादि देव आदिनाथ इष्ट सेव ईश्वर उधारक है ऊरध निवास तू, ऋषि गण ध्याबैं तोहि ऋ ल ल विभासक तू एक सरवज्ञ सव एन को विनास तू, ऐश्वरतापूर तू ही ऐरावतपति ईश, ओज पुंज ज्ञान कुंज औषधी प्रकाश तू, औपाधिक भावनि मैं एक नाहि तेरै कोऊ __ अंगना न अंग संग अ: प्रभु विलास तू॥६॥ इति श्री भक्त्याक्षर माला बावनी स्तवन अध्यातम बारह खड़ी नाम ध्येय उपासना तंत्रे सहस्त्रनाम एकाक्षरी नाम मालाद्यनेक ग्रंथानुसारेण भगवद्भ जनानंदाधिकारे आनंदोद्भव दौलतिरामेन अल्पबुद्धिना उपायनी कृतेसुर निरूपणो नाम प्रथम परिच्छेद ॥१॥ अथानंतर ककार का व्याख्यान करै है॥६॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - लोक - कलानिधिं कलातीतं. कामटं कामघातक। ...... किंनाकघ्नं शिवाधारं, कीट कुंथ्वादि रक्षकं ॥१॥ कुमार्ग परिहंतारं, कूट पाखंड वर्जितं । केवल कैतवातीतं, कोप कौटिल्य नाशकं ॥२॥ कंकारं कर्म भेत्तारं, कंप कांक्षादि वर्जितं । वंदे लोकेश्वरं देवं, का स्वष्टारमतीश्वरं ॥३॥ __- त्रोटक छंद - करमामय भैषज रूप तु ही, तम झूठ विनासक भानु सही। दुख नाहि जु पांवहि जेहि भनँ, करमा वहु वांधहि जेहि त ।।४।। कलपा अति वीति गये अतुला, कलपा पति नाथ तु ही अचला। कबहू नहि तू हि विभाव गहै, जु कदापि न नाथ अभाघ लहै।।५।। भगता कलकंठ जु तू हि मधु, कल है जु कलाधर तू रज धू। भगता जु कलायर तू जलदो, भवि हैं कमला रवि तू फलदो ॥६॥ भगता जु कमोदिनि तू हि ससी, तुव जोति महा उर मांहि वसी। कहु कौंन प्रकार मिले प्रभु तू, वह भासह भेद महाप्रभु तू ॥७॥ करुणाकर कोप विदारक तू, कमलासन आसन धारक तू। कलपित्त लपै नहि तू हि प्रभू, नहि धारहि दोस कदाचि स्वभू॥८॥ नहि हैं जु कलाप अभावनि के, प्रभु है जु प्रताप स्वभावनि के। तुव है जु कल्याण स्वरूप प्रभु, परमा जु कल्याणक धार विभू।।९।। - छंद पद्धडी - कल्याणदेव कल्यापाराय, कल्याण सर्व लागे जु पाय । कल्याण नाम तेरौ न और, धारै जु दास हूँ लोक मोर ॥१०॥ इह कलिय काल माहे जु मूढ, तुव तत्त्व त्यागि सेवैहि रूढ़। कण रूप तूहि तुष मिलित और, कण गहहि साधु करि कर्म चौर।। ११॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहरबड़ी कलकंठ तू हि और न कोई, कल नाम मिष्ट भाषा जु होड़। मेटौ जु सर्व मेरे कलंक, कलरहित तू हि स्वामी निसंक॥१२॥ कदली समान है जग असार, इकसार तू हि सरवस्व धार । करुणा निधान क्रम कंज तुल्य, तेरे जु तू हि स्वामी अतुल्य ।। १३ ॥ • मानीत ज्ञाः तो नंग. हा हल्ल मोहि जगत कंत्त । कर्ता जु तू हि स्वभावि कर्म, करणो जु तू हि तर न भर्म॥१४।। है संप्रदांन तू ही अनादि, है अपादांन स्वामी जु आदि। अधिकर्ण तू हि निश्शे स्वरूप, जितकर्ण साध मन जीत भूप॥१५॥ - छंद बेसरी - करण कहावें इंद्रिय नामा, तू हि अतिद्रिय अकरण रामा। कृपानाथ कृतकर्म निवारा, तू कृतकृत्य कृतारथ भारा ।। १६ ।। कृपण तजक त परम उदारा, कवह कृपणता भाव न धारा। कृती कृपानिधि कसर न कोई, कमी कजी कषहू नहि होई।। १७॥ कलिल पाप को नाम कहावै, कलिल नासकर तू हि सुहावै। कर्मठ कर्मण्यः कठिनो तू, परम कृपाल अपठ पठनो तू॥ १८॥ कवी काव्यकर रहित कलेसा, कर्मबंध निरबंध अलेसा । कटुक कठोर वचन नहि वोलैं, दास तिहारे रहैं अडोलैं ।। १९॥ करकस न कतरणी हीये, तिनकै भक्ति जु नाहि सुनीये । चित कठोरता त्याग संता, तव तोकौं पांवै भगवंता ।। २०॥ कहैं करक सरीर जु नामा, तजें प्रीति तनसौं निहकामा । कदरजता सव तजिकरि ध्या, तव तेरौ निज रूप जु पावै।। २१ ॥ कटकादिक तजि हौंहि इकता, कष्ट गिनैं न भजन मैं संता। कलकलाट कछुहू न सुहावै, कचकचाट को ना मन भावे ।। २२।। कबहु नोसौं मन न चुरा, तनमन धन कछु नाहि दुरावें। तब तोकौं भावै निज दासा, तसें कदाग्रह जगत उदासा ।। २३ ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अध्यात्म बारहखड़ी पर दुख देखि न कसके हीयो, पर सुख हरत सकै नहि जीयो। तिन दुष्टनि कै तेरी भक्ती, कहां पाइए नाथ सुयुक्ती॥ २४॥ शाह कारद्ध कलिंग कमेट, गंधयो भान जु राति बसेरू। कटहल कमरख अर कचनारा, त0 कठूमर दास तिहारा ॥२५॥ कच नख वृद्धि न तेरै होई, महामनोहर रूप जु सोई। कषा दुखनि को तू जिनराया, जीव रषिक तू रहित कषाया ॥२६ ।। कलमष हरन करन विधि तू ही, कलह कलभ की सिंह प्रभू ही। करि तारक तू कपि जु उधारा, तू कृतज्ञ कृतघनता हारा ॥ २७॥ कृतघन सम नहि पापी कोई, लहै नही निज भक्ति जु सोई। कृती महामुनि तेरे दासा, कनक कामिनी त्यागी उदासा ॥२८॥ करण दंडि करणी सब त्यागें, तव तेरे गुन माहि जु लाग। कनक कामिनी तेरे नाही, तू विरकत जोगी जगमाही॥२९॥ कमलापति तू परगट नाथा, कमला भामा रूप न साथा। कमला तेरी परणती स्वामी, तू. परिणामी द्रव्य सुनामी ।। ३० ।। तो सम कमरलाधर नहि कोऊ, सर्वसुदायक तू हरि होऊ। तेरी कमला भिन्न न कोई, एक रूप एकातम होई ।। ३१ ।। - छंद सालिनी - कालातीता कालहारी जु तू ही, कामातीता काल भासै समूही। विधा तोपैं वंचणी काल की है, शक्ति तेरै रासि जो माल की है ॥ ३२॥ सोई काली तत्व कल्लोलरूपा, तू है अब्धी ज्ञान वारि स्वरूपा। काली कोई वस्तु दूजी न और, शक्ती तेरी नाथ राजै जु चोर॥३३॥ काली हिंसा, रूप नाही जु होई, प्रांनी रक्षा भासका भूति सोई। काल कौलें, नाम काली सु जाते, क्रांती रूपा, सोई गौरी जु ता ।। ३४॥ तोकौं ध्यावें, कालकंठा सदा ही, तेरे नामै, काल कूटा सुधा ही। काई दूरा, तृहि है कास्यपीशा, नाथ पासा, तू हि तारै तपीशा ।। ३५॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ७७ कार्यों तू ही, कारणो तू हि स्वामी, काहू मैं तू, नाहि कीनां सुनामी। कारूण्यो तू, जीव रासी जु पालै, काठिन्यो तू, काम क्रोधादि टालै।।३६ ॥ कायोत्सर्गा साधु ध्यांवै जु तो ही, कामी क्रोधी मैं महा तारि मोही। काया माया सर्व झूठि हि स्वामी, काया काष्ठा तो विनां है अकांमी।। ३७॥ लागे काटा जीव के नादि नै जी, काटै काटा तू हि आदेस ते जी। कास स्वासा आदि रोगा सवै ही, तेरे नामैं आधि व्याधी दवै ही।।३८ ।। __ - छंद वेसरों - कारण कारिज तू हि दिखावै, कारण सिवपुर सकरन सिखावै। कारण कारिज रहित जु तू ही, अद्वितीय आनंद समूही ।। ३९ ।। कांखवांधि जे मोह पछारें, काट जीव के सर्वजु टारें। कांन मुंदि विकथाः दूरा, ते तोकौं पार्दै गुण पूरा॥४० ।। कातर जन तोकौं नहि पावै, कापुरषा तुव जस नहि गां। काच खंड सम इंद्री भोगा, जे न त0 ते भक्ति न जोगा॥४१ ।। कारमाण अर तैजस देहा, इनतें छूटै होय विदेहा। सव जीवनि के ए द्वय लागे, इनः छू जे तुव पागे॥ ४२ ।। कारिज अर्थ तोहि जे ध्या, ते ते तोहि कारिज पावै । कांक्षा मेटि करै जे सेवा, ते दासा तोही कौं लेवा ॥ ४३ ।। काढि जगत के दुखते देवा, सकल काहिली दूरि करेवा। दासा कालिम कामिनी त्यागैं, काज वीज गनि तोमैं लागें।। ४४।। काहल संखादिक बहु वाजा, तेरै वाऊँ तू जगराजा। सिद्धि करौ प्रभु कारिज मेरा, कांत रूप है रूप जु तेरा ।। ४५ ।। काय रहित तू है अतिकाया, सव कायनि की रक्षक राया। किरण अनंत अखंडित धामा, तू किनाक नासक अतिनामा ।। ४६ ।। सहसकिरणि है तेरौ दासा, क्रिया रूप तू जगत उदासा। निज किरिया पूरण तू स्वामी, पर किरिया तैं रहित अनांमी ॥ ४७।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अध्यात्म बारहखड़ी किरिया तेरी परणति नाथा, क्रियावंत तू अति गुण साथा। तू हि किसोर सदैव जिनेसा, दिन दूलह जगपति जति भेसा ।। ४८ ।। तू किसोर वय कवहू नाही, अति जूनौं जोगी जगमाही । किलविष कलमष तँ त न्यारा, तू कित हू नहि रक्त जु प्यारा ।। ४९ ।। किल कहिये निश्चै करि देवा, देहु आपुनी पूरन सेवा । किन हूं नैं तू कीनां नाही, देव अकर्तृम है सव माही॥५०॥ कियो किराव (मैं इह स्वामी, विषयनि राचि भज्यौ नहि नामी! धन्य किरात हु जो गुन गांवें, धिग विप्रा जो लव नहि लावै॥५१॥ कीट पतंगादिक जे जीवा, सव को रक्षक तू जगदीवा। कीट कालिमा तेरै नाही, कीरति तेरी सब जग माही॥५२ ।। तू हो कीमिया रूप भुनिंदा, संसारी कौं सिद्ध करंदा । गुण कीर्तन तेरौउ धारै, कीच रूप भवतै निज तारें ।। ५३ ।। कील रूप जो माया सल्ली, सो तेरे नाही भव वल्ली। ते जग मांहि वालमति कीका, जिनहि विसारयौ तू जगटीका ।।५४।। कीर जु सुवा कीर जु कीरा, तोहि जु ध्या ते जग धीरा। नीच ऊंच अंतर नहि कोई, तोकौं भजे सु, तेरा होई ।। ५५ ॥ कुसलमती तू त्रिभुवन पीवा, कुकथा खंडन तू जगदीवा । कुनय विहंडन सुनय प्रकासा, तू कुकर्म टार विधि भासा ॥५६॥ कुत्सित मारग दूरि करेवा, कुगति कुमति नासै तू देवा । तू कुवेरपति कुसल करंदा, कुमदचंद्र तेरौ जगचंदा ।। ५७।। कुसमायुध नासक तू सूरा, कुटिलभाव कुटिलाई दूरा। कुरजांगल आदिक वहु देसा, सब देसनि को नाथ महेसा ।। ५८ ॥ कुगुर कुदेव कुधर्म निवारा, कुलकर पूजित अतिकुल तारा। कुचलन धार कुपात्र न पावै, मूढ कुभेष धारि नहि भावें ।। ५९॥ कुलाचार ते तू प्रभु न्यारा, तू कुकीर्ति रहिता जग प्यारा । कुल कोडि जु जीवनि के देवा, तु ही प्रकास अकुल अभेवा ॥६०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ७९ तू कुदाल सम कर्म निकंदा, तू कुधात तें धात करंदा । मिथ्या परणति सोइ कुधाता, तू कुसूत्र नासक जगत्राता ।। ६१॥ तू हि कुलाचलादि परकासा, कुर उत्तरकुर देव विभासा। कुकला कुमत सेय नहि पावै, तेरे मत करि तोमैं आवै।। ६२ ।। कुसमय काल पड़े नहि देवा, जहां होइ तेरी नित सेवा। तू कुसंग ते न्यारा स्वामी, तू कुद्रिष्टि नासक गुण धांमी॥६३ ॥ कुष्ट व्याधि नासँ तुव नामें, नसे कुकर्म बहुरि नहि जांमैं । कुलटासम इह कुथुधि कुनारी, सो हम ते न्यारी करि भारी ।। ६४॥ ... .. .. - ::-.. : . ... .. ... कुक्कहिये आगम बिषै, पृथ्वी नाम प्रसिद्ध। तुम पृथ्वी धर अखिलपति, कृत्य कृत्य प्रभु सिद्ध ॥६५॥ कुक्कहिये सिद्धांत मैं, कुत्सित वस्तु जु नाम । तुम सव कुत्सित रहित हो, परमेसुर अति धांम॥६६ ।। - छंद बेसरी - कूट जगत कै तेरौं ठांमा, कूट कपट के हम जन धामा। हमरौ कूड निवार गुसांई, कूट लोक को दै जग सांई ।। ६७॥ क्रूर भाव तेरै नहि देवा, तू अक्रूर क्रूर नहि लेवा। . कूडी साखि भरै जे जीवा, ते तोकौं न लहैं जग पीवा ।। ६८॥ कूट कुलेष क्रिया जे कारें, ते मूढा तुव भक्ति न धारें। कृषमांड आदिक फल निंद्या, तजै दास तेरै जगवंद्या॥१९॥ कूट रहित तू देव अकूटा, जगत कृट को तृ ही कूटा। कूर लोक तोकौं नहि जानें, कूरभाव हिरदै मैं आंनें ।। ७० ॥ कूल जगत को तू जगनाथा, मेरी कूक सुनौं वड़ हाथा। कृखि मात की मेटौ स्वामी, करि अजरामर अज अभिरांमी ।।७१ ॥ केवल रूप अनूप अकेला, केवल ज्ञानानंद जु भेला। केवल लब्धि मूल जग स्वामी, केवल सम्यक रूप अनामी ।। ७२ ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी केवल दायक तेरी सेवा, केचित करि हैं जगत अलेवा। केतु धार तू केवल रामा, केम दरिद्र रहितो श्री थामा॥७३॥ केलि कुतूहल सब ही त्यागै, तेरी केलि मांहि मुनि लागे। केलि रूप जो है सुर लोका, ताहि न चाहैं तेरे लोका॥७॥ केन प्रकारे तू प्रभू पैंए, सो प्रकार मोकौं हु बतए । केर केर कीयो मुहि नाथा कर्म मिले जड रूप जु साथा।। ७५ ॥ केई तो करि उतरे पारा, केहरि तू नरकेहरि भारा। केसरि चंदन घसि घसि देवा, करै दास तेरी नित सेवा॥७६ ॥ केशव प्रतिकेशव हलि चक्री, तोहि जु पूर्जे होय अवक्री। केयूरादिक तजि आभर्णा, वस्त्रादिक तजि सर्विणा ।। ७७ ।। भजै दास है जगत उदासा, निरमोही निरदोष अनासा। केका राव करें निजभक्ता, जव तू गरज घनपति व्यक्ता ॥७८ ।। तू कैवल्य प्रकास विभासा, कैतव हारी सरल सुभासा। कैतव नाम कपट कौं कैये, कैतव तै कैवल्य न लैए।॥७९ ।। तू कैलाशनाथ जगनाथा, तू कैवल्य निवास असाथा । कैवदिक जे नर नीचा, तोकौं ध्याय भए जु अनीचा॥८॥ कोविद तू कोदंड वितीता, कोप निवारक क्रोध अतीता। कोष त● जे गुणगण कोषा, तुव पद ध्याय होहि भव मोषा।। ८१॥ को न लहै भक्ती करि तोकौं, भक्ति देहु तेरे पद धोकौं। कोईक जन तेरी मत जां., सब ही जन तोकौं न पिछां ।। ८२ ।। कोक समान जु है संसारी, नादि कालि को विरही भारी। मेरी कोक नारि सी शक्ती, सो मैं लखी न केवल व्यक्ती ।। ८३ ।। मिथ्या रैंनि अनादि अनंती, भव्यापेक्षा नादि सुसांती। सो अव तक बीती नहि ईसा, दरसन दिवस न प्रगट्यो धीसा ।। ८४ ।। कोक वधू सी शक्ति न जोई, तातें न लयो नहि कोई। अटक्यो कनक कामिनी मांही, अटक्यो भव बन मैं सक नाही।। ८५ ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अब तुम सरिज शुद्ध प्रकासौ, मेरी सत्ता मोहि विकासौं । कोर कसर मेटौ सब मेरी, पांऊ परणति दीन्ही तेरी ।। ८६॥ कोटि अनंत चंद अर सूरा, तोपरि वारूं मुनिवर पूरा। कोडां कोडि जु काल अनंता, वीत्यौ मोकौं जगत वसंता ।। ८७ ।। अव निज वास देहु जगराया, मेटि भरमना मूल जु माया। कोढ रूप इह काम विकारा, सो मेरौ मेटौ भवतारा॥८८॥ संवर कोट देहु मम दुर्गा, मोहि न चहिये तोते सुर्गा। कौतूहल कौतुक नहि तैरै, कोटिल्यादिक भाव सु मेरै ।। ८९॥ तू आतम कौतूहल धामा, कौतुक कारी निज विश्रामा। कोटिल्यादि तजै नहिं जौलौं, जीव न पावै तोहि जु तोलौं ।। ९०॥ कौलक कापालिक इत्यादी, तो विनु खोवै जनम जु वादी। कंद निकंदक कर्मनि केरी, दीसै अतुलित शक्ति जु तेरी॥९१॥ तू कंदर्प निवारक देवा, कंचन काई विनु अति भेवा। कंज समान जु तेरे पाघा, मुनिभौंर से करहि जु रावा ॥१२॥ कंत जगत को तू जग देवा, कंप वितीत अजीत अछेवा । कंधै तेरै मुनिमत भारा, मोहू दै प्रभु भव जल पारा ।। ९३॥ कांत अधिक तू कांता त्यागी, कांक्षा मेटि जर्षे वड़भागी। कंठ सुकंठ करे गुन गांवें, सकल कामना दूरि वहां८।।९४॥ किंचित मात्र विभूति न राखें, तेरी भक्ति महारस चाखें। किंकर तेरे जे हि कहांवें, ते तेरो निज रूपहि पां३ ।। ९५ ॥ जम किंकर को मैं कछु नाही, तेरौं शरण गहें उर मांहि। कुंद पहूप हू 6 सित चित्ता, करिक ध्यां दास पवित्ता।।९६ ।। कुंद कुंद हैं तेरे दासा, अति निर्मल निजरूप प्रकासा। कुंठ समाना ले जग जीवा, जे तोकौं गां3 नहि पीवा ॥९७ ।। कुंतादिक सव त्यागि जु शस्त्रा, भऊँ भूप तोकौं जु अवस्त्रा। कंठीरव सम तु जग दीसा, कर्म जु कुंजर जीत अधीशा॥९८ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी कंठाभरण जु तेरी बांनी, कंठी मोतिन की न वखांनी। कंडू सम इह मदन विकारा, मेरौ मेटि जु जगत उधारा।। ९९ ।। कुंथ्वादिक कीटादिक प्रांनी, सय को दयापाल तू ज्ञानी । कूची मोक्षतनी तुव हाथा, माकों भक्ति दहु जिननाथा॥१०॥ __ .- दोहा - कं कहिये आगम विषै, नाम सीस को स्वामि। सीस नाय वंदै तुमैं, सुर नर मुनिवर नांमि ॥१०१॥ कं कहिये सिद्धांत मैं, नांव जु सुख को ईस। तुम सुखदायक सिद्धिकर, शुद्ध महा जगदीस। १०२ ।। कं लिखियो पुस्तक विर्ष, नांव तोय को नाथ। तुम सीतल निरमल प्रभू, तपति हरण जितपाथ ॥ १०३॥ कः कहिये श्रुति के विषै, नांव प्रजापति देव। तुम ही देव प्रजापती और न दूजौ भेव ॥ १०४ ।। कः भाष्यो ग्रंथनि विर्षे, नांव वायु को नाथ। वायु हुती अगणित गुणौँ, तुम मैं वल अति साथ ।। १०५ ॥ क; गायो प्रभु सूत्र मैं, नांव सुर्ग को ईस। सुर्ग नाथ सेवें तुमैं, जगतनाथ जगदीस ॥१०६ ।। कः भास्यो वांणी विषै, नांव आतमाराम । तुम परमात्म ब्रह्मपर, जीव सकल विश्राम ।। १०७॥ कः कथियो भारति विषै, नांव जु सुख को वीर। तुम सुखदायक जगतप्रभु, महा सुखी अतिधीर ।। १०८॥ कः लिखीयो अंगनि विर्षे, नांव प्रकास विख्यात । तुम अनंत परकासमय, आनंदी साख्यात ।। १०९।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं। - सवैया - ३१ - करि मोहि आपुनौं जु कारिज तु ही जु एक कितहू न जाऊं देव कीरति रट्यो करुं। कुटिल कुभाव मेदि कूरता निवारि मेरी केवल दै चक्षु नाथ नांहि कबहू मरूं। कैतव न भाव तोमैं कोप को न लेस कभी कौतुक न मोहि और सोहि उरमैं धरूं । कंठ जो सुकंठ करि तेरौ ही जु गांन करि कः प्रकास आप रूप ध्याय भौदधी तरूं ॥११०॥ - दोहा - कमला कंज निवासिनी, चरन कमल मैं वास। शक्ति रावरी है रमा, सोई दौलति भास ।।१११ ।। इति ककार संपूर्ण । आगैं कवर्गी खकार का व्याख्यान करै है। . . भोक - खला रागादयो सर्वे, येन ज्ञानासिना हता। ख्याति कांक्षा विनिर्मुक्ता, यं भजति तपश्विनः ।।१।। खिन्नो न क्वापि कालेपि, खी प्रकाशी महावल । है खुरी खडग धाराभि, विना सर्वाजिता धरा ॥२॥ खु निश्चयो स एवासो, खू सुमात्रा विभासकः । खेचरैरर्चितो वारैरलभ्यो खैरतिद्रियः॥३॥ मूर्यो न पंडितो विज्ञो, सर्वज्ञो सर्वदर्शिकः। खौघा लभ्यंति ये नाही, खं समानोपि पूर्ण धी॥४॥ खः प्रकाशी चिदाकाशी, यस्य दासी रमा महा। यं जपंति सदाधीरा, स्तं वंदे परमेश्वरं ॥५॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अध्यात्म बारहखड़ी - दोहा -- ख कहिये आकास कौं, तू आकास स्वरूप। शुद्ध चिदाकासा प्रभू, आनंदी सद्रूप।।६।। ख कहिये इंद्रीनि कौं, तू इंद्रिनि से दूर। मन वच बुद्धि सुधि के पर, निज स्वरूप भरपूर ।।७।। खर तीक्षण को नाम है, खर किरण जु है भान। भान चंद इंद्रादि हु, लोहि भा. गांग ।।४ . खर कठोर को नाम हैं, तजै कठोर स्वभाव । तव तोकौं पार्दै प्रभू, तू दयाल भवनांच॥९॥ खर समान ते नर कहे, जे नहि ध्यानै तोहि। खर कै पीठि जु भार है, इनकै परिगह होहि ।। १०॥ - चौपड़ी - खल भावनि को त्यागि नाथ, मैं खल करयौ न तेरौ साथ। तू ख जीत भवभाव अतीत, खगपति पूजहि तोहि अजीत॥११॥ खरतर वात जु तोहि सुहाय, कपट न भावै तोहि जु राय। तोहि खगेंद्र नरेंद्र सुरेंद्र, जपहि फणिंद्र सुचंद्र मुनिंद्र ॥१२ ।। खग कहिये नभ मांहि विहार, जिनको अथवा इंद्रिय प्रचार। खग जु नाम चारन मुनि होय, खग सुर असुर विद्याधर जोय ॥१३ ।। सेवै सर्व खगा जग जीव, इंद्रिनि मैं विचरै जु सदीव। पक्षनि हूं को है ख़ग नाम, तू सव कौं सुखदायक राम ।।१४।। खग अनंत कीने निसतार, खगतारक तू खगपति सार। खडगादिक सहु त्यागि जु शस्त्र, भनँ दिगंबर रहित जु वस्त्र ॥१५॥ वस्तु खटाय जाय तजि स्वाद, सो तेरौ श्रुति कहइ अखाद । सर्व अभक्ष तमैं तुव दास, श्रुति आज्ञापाल गुन रास॥१६॥ ख्यात रूप तू ख्याति वितीत, ख्याति त्याग घ्यांवें जु अतीत । ख्यात किये 6 आतम धर्म, है विख्यात महा तू मर्म ॥१७॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात पर खड़ी .. . . . . . . . . खात दियो घट घर के नाथ, चोर मिले मोहादिक साथ। हरे रतन दरसन अर ज्ञान, चरन तपश्चरन जु निज ध्यान ॥१८॥ ख्यात चोर ए अति बलवान, मोहिनि किण कीयो भगवान। राज तिहारे मोघ रखात, पर देव इह कौन जु वात॥१९॥ ख्यात देव विख्यात सुराव, झाव हमारौ माल सुभाव। नहि खातिका पौलि जु कोट, नहि अटकाव नही जिय खोट ॥२०॥ अदभुत देव तिहारौ राज, काज न एक बडे महाराज। खिन्न खेद कवह नहि होय, निहकंटिक एकल भड सोय ॥२१॥ - गाथा छंद - खिन्न कियो भुहि नाथा, साथै लागे विभाव परिणामा। सांति करौ वडहाथा, शुद्धा बुद्धा महाधामा ॥२२॥ तू है खीण विमोहा, खीणकसाया सुखीण दोसा है। खीण जु राग अखोहा, माया माणा न रोसा हू॥२३॥ खी इंद्रीधर जीवा, ख कहिये नाथ नाम इंद्रिनि को। तू है खी पति पीवा, दीवा तू तीन लोकनि कौ॥२४॥ खुक्कहिये निश्चै सौं, गुण गुणि भेदो न दीसई कोई। प्रभु तेरी ही नै सौं, निज गुण जानैं जती सोई॥२५॥ गुण ज्ञानादि अनंता, द्रव्य गुणी शुद्ध आतमारामा। तू भासै भगवंता, संता सिद्धा महाधामा। २६ 11 - छंद भुजंगी प्रयात – खुभ्यो नाहि मेरे हिये तू जु स्वामी, खुभे इंद्रियादी विकारा विकांमी। रुल्यो हौं जु तातें अनंतौ अनादी, वह्यौं भौंर जालैं तुझे त्यागि वादी ॥२७॥ खुस्यो हूं लुट्यो हूं भयो हूं विहाला, अवै लोकनाथा करों मैं निहाला। खुटै नांहि मोर्षे कषाया बलिष्टा, कुर्दै नांहि स्वामी विभावा जु दुष्टा ॥२८॥ तिनौं नैं मुझे लूटि लीयो जु चौर, सुदौस प्रसिद्धा त्रिलोकी हि दौरे। अवै लेय भक्ती मदत्ती स्वरूपा, करौं चौर चौपट्ट चौरा विरूपा।।२९।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी खुरो श्रृंग धीस पिहोरा समे, तुझे नहे, व्याय आंत्रया भर जे। .. तु ही है जु खूटा तिहार हि जोरै, मुनी वीतरागा विभावा जु तौर।। ३० ।। रहैं खूट सा नाध कूटस्थ साधू, समाधि स्थिता एक तोही अराधू। करौ खूट सा मोहि ध्याता अकंपा, इहै तोकना नाथ मांौं अचंपा ।।३१। तु ही खेचरा खेचरी मुद्रा धार, सवै खेचरा एक तोही निहारे। किये खेचरा पार तँ ही घनें ही, हमों पैं कहां नाथ जावै गर्ने ही॥३२ ।। जु देवा सुधारे सुदैत्या सुधारे, सुविद्याधरा नाथ से ही उधारे। सुपक्षी उधारे मुनी तैं उधारे, तु ही खेचरो खेचरानंत तारे॥ ३३ ।। कहे खेचरा ते चलें जे अकासे, गने भूचरा भू पर जे विकासैं। रमैं इंद्रियो मैं जु संसार जीवा, सु ते हू कहे खेचरा इंद्रि पीवा ।।३४॥ तु ही जीव नाथा तु ही जीव तारा, तु ही है दयापाल जैनी अपारा । असंख्यात खेटा असंख्यात ग्रामा, जु तेरै तु ही राव दीसै अकामा।। ३५ ।। असी औ मसी नाथ वाणिज्य खेती, सवै धंध भावा तजै चित्त सेती। तबैं तोहि पांव तजे सर्व खेदा, तु ही है अखेदा अभेदा अछेदा ॥३६॥ – चौपड़ी - खेडापति तू खेल न कोय, खेवट तो सम और न होय। भवसागर अति गहर अथाह, पार करैया तू जु अमाह ।। ३७।। खैर लभ्य तू इंद्रि अगम्य, ज्ञानगम्य तू केवलरम्य । खोदि करम क्षोणी ते देव, काढे स्तन सुगुन अतिभेव ।। ३८ ॥ खोट न तेरै घट मैं कोई, घट पटादि ज्ञायक तू होई। खोसि न सकही तिनकों कोय, जिनके सिर परि तू प्रभु होय॥३९॥ खौध कहावै इंद्रिय साथ, तोहि न पाय सबै जगनाथ। खौरि न तिलक न तेरै सीस, त्रिभुवन तिलक तु ही जगदीस ।। ४० ।। खौटे मिथ्यादिक जु विभाव, तैं सूधे कीये जगराव । खं इंद्री तू इंद्रिय दूर, खं आकास समो भरपूर ।। ४१॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी खं सुर लोक तुझै सुरनाथ, से तन मन करि सुर साथ। खं खडग जु ज्ञानातम होइ, मोहादिक नासै अरि सोई।। ४२ ।। खं कहिये फुनि सुन्य जु नाम, रागादिक त शुन्य सुसंम् । खंभ लोक की तू हि जु एक, खंड खंड व्यापी सविवेक।। ४३ ।। आरिज खंड मलेछ जु खंड, तू हि विभासै देव अखंड। खंडित भाव न तेरे कोई, नित्य अखंडित अचलित होइ ।। ४४।। - सोरठा - खखा पासि दु शुन्य, खः कहिये मात्रांतिकी। तू सव माहि अशुन्य, पुन्य पाप तैं रहित तू ।। ४५ ।। अथ बारा मात्रा एक कवित्त मैं। - सवैया ३१ - खल तोहि पावै नांहि ख्यात तेरी लोक माहि, खिन्न नाहि होत कभी खीण मोह तू जिना। खुक्कहँ जु निश्चय कौं निश्चय स्वरूप आप, खूट भव्य लोकनि को खेचर तु ही दिना। खेद नांहि भेद नांहि खैरलभ्य ज्ञान गम्य खोदि नाखे कर्म भर्म नाथ तैं यथा तिनां। खौध नांहि पांवे तोहि खंड खंड नायक तू ___खं समान तेरौ रूप खः प्रकाश तू गिना ।। ४६ ।। - सोरठा - ख्यात विख्यात जु नाथ, तेरी सत्ता शक्ति जो। संपति सो निज साथ, दौलति नित्य स्व संपदा ।। ४७ ।। इति खकार संपूर्ण । आगें गकार का व्याख्यान करै है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - श्रीक - गणाधारं गताधारं, गात्रातीतं सुगात्रकं । गेशती च गावाण, सविंत गुणरूपिणं॥१॥ गूढ रूपं जगद्गुहं, ग्रेहातीतं जगत्गुरुं । ग्रैवेयकादिदातारं, ज्ञानमूलं च गोपति ॥२॥ न गौणं सर्वथा मुख्यं, गंधरूपादि वर्जितं । सुगंधं शुद्धरूपं च, गः प्रकाशं नमाम्यहं ॥३॥ – चौपड़ी - गणनायक तू गणपति देव, गणधर आदि करें प्रभु सेव। गति आगत्य रहित निरद्वंद, गतिदायक अतिसुगत अफंद ।।४॥ गमनागमन सुतजि मुनिराय, निश्चल तोहि भनँ ऋषिराय। गद कहियै रोगनि को नाम, रागादिक सम रोग न रांम॥५॥ सर्वरोग हर तेरौं ध्यान, गदातीत तू पूरण ज्ञान। गणना तेरे गुण की नाहि, तू गणेस अतिगण तो माहि॥६॥ तू गरिष्ट अतिसिष्ट प्रसिद्ध, गरिमा सागर अतुलित सिद्ध। गरहारी तू गरल प्रहार, निरविष अमृत रूप अपार ।।७।। गरडध्वज पूजित गणभूप, अतिगलतां न गमक निजरूप। हैं गलतां न मुनी तुहि ध्याय, तू गतमोह विगत अतिन्याय॥ ८॥ गगन रूप तू गगन सुपार, गच्छ वितीत अनिच्छ अपार। गर्भ निवास रहित वरवीर, तू हिरण्यगर्भ जु धरधीर ।। ९ ।। गर्भ तिहारे मैं सव लोक, गजपतिपति को पति गुण थोक। गर्व प्रहारी गर्व वितीत, गणी गणाधिप देव अतीत॥१०॥ गहर गती अगतिनिको तार, तू गणाग्रणी भव दधि पार। गणातीत सवगण करि पूजि, ज्ञानिनि सौं तेरे नहि दूजि ।। ११॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बसंततिलका छंद गात्रा न कोय निज ज्ञान अनंद गात्रा, पात्रा न कोई गुणपात्र प्रभू सुपात्रा । पांवें न गाध मुनिराय तु ही अगाधा, गांना न मांन नहि तांन तु ही अवाधा ॥ १२ ॥ गाह्यो न जाय न हि गार स्वरूप तु ही, नांही जु गारव मदा तुझ मैं कभू ही । ज्ञांनी महा जु सवज्ञायक ज्ञान गया, जानें न ग्राम्य जन तोहि तु ही अगम्या ॥ १३ ॥ ग्रामा असंखि गुण ग्राम जपैं मुनीसा, ज्ञान प्रमाण जग भानु तु ही अनीशा । गावै तु ही जु जग अनूप राजा, राजे प्रभू जु जगदीस असंखि बाजा ॥ १४ ॥ ग्यास हि रुद्र जिनराय तु ही जु ध्यांवें, होवें जु गाफिल जिके नहि तोहि पावैं । खोलें जु गांठ हिय की प्रभु सम्यकी जे, राखेँ जु तोहि जिय मैं इक तोहि श्रीजे ॥ १५ ॥ गात्री जु जीव जग के प्रभृ तू अगात्री, सुर्गापवर्ग सुख सर्व तु ही सुदात्री | गारी ह खांहि जग की नहि दास छांडें, हु — तोकौँ न ध्याय बहिरातम जन्म भांडें ॥ १६ ॥ • मंदाक्रांता छंद -- - गाजा बाजा, करि सुरनरा, तोहि पूजैं प्रभूजी, तेरे बाजा, अगणित वर्जे, ग्रामणी तू विभूजी । धोक तोक, अगिनति गुना, तू गिरातीत स्वामी, तेरी भाषी, दिदधरि गिरा, दास होखेँ सुधांमी ॥ १७ ॥ ८९ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी तेरी तुल्या, गिरपत्ति नही, सो जडो तू सुनानी, साधू शांता, गिरसिर तपैं, तोहि ध्या सुध्यांनी। काया माया, गिनति न धरै, तोहि सौं लौं लगांवें, तू ही नाथा, गिरपति प्रभु, है गिरानाथ शा।। १८ ॥ - चौपड़ी - गिलै काल जीवनि कौं नित्य, तू जु कालगिल जगत अनित्य। गिरधारी से तुव पाय, तू धरधारी देव अमाय ॥ १९॥ गिलती रहै काल जगदेव, तिनकौं जे तुव धारै सेव। गीर्वाणाधिप तेरे दास, तू गीर्वाण पूजि सुखरास ।।२०।। गीत गांन करि इंद नरिदं, तोहि भजै तू परम मुनिंद। गीधादिक पक्षी बहुजीच, तुव भजि पायो सौख्य अतीव ।। २१ ।। गी कहिये वांनी को नाम, तेरी वांनि सही गुन धाम। देवनि कौं गीर्वाण जु कहैं, सो तू ही मुनि दिन करि गहैं।। २२।। गुणी गुणाकर तू गुण रूप, गुणनिधि गुणअंभोधि निरूप। गुणनायक गुणग्राम अपार, गुण निधान गुणवांन जु सार।। २३ ।। गुपत सुप्रगट महागुणवंत, गुणि गुण रूप गणिक भगवंत। गुह्य गुसांई गुरतर गुरू, गुणाधार निरधार जु थुरू ॥२४॥ गुणछेदी निरगुण है तू हि, रहित विभाव स्वभाव समूहि। निज गुण रूप सुरूप अनूप, मायक गुण तँ रहिता अरूप ॥२५॥ गुण वंधन हूं को गुर कहैं, तू निरबंध गुरू सरदहैं। गुणा शमुद्र तू अगम अपार, मांन गुमान रहित ततसार ॥ २६ ॥ गुफावास करि धरि द्रिढ जोग, जोगी तोहि भ® रसभोग। गुप्त वारता जां. सर्व, तेरे दास अनास अगर्व ।। २७ ।। जीव समास गुनीस जु होय, 'सव को रक्षक तू प्रभू सोय। रतनत्रय भेद जु गुणतीस, तू हि प्रकास विभू जगदीस ।। २८॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी गुणतालीस ऊरधा लोक, दास न चाहैं अति सुख थोक। चाहै तेरी भक्ति रसाल, भुक्ति मुक्ति की मात विसाल॥२९॥ नरक पाथड़े हैं गुनचास, सातनि के अति ही दुखत्रास। तेरी भक्ति विनां जिय लहैं, दास न दूरगति कबहू गहैं ।। ३० ।। पदवी थर सठि नर होइ, या कलक् गुनसठि ही सोय। इह हुण्डावसर्पणी काल, कबहुक आवै दोष विशाल ।। ३१ ॥ असे हू जग मैं निजदास, तोहि न भूलहि जगत उदास । गुणहत्तरि ऊपरि सौ नरा, वडे पुरिष अति गुणगण भरा॥३२॥ तूहि प्रकार सर्व प्रकास, गुणियासीह मदन करि त्रास। तूहि अगुरत्नघु अति गुरतरू, अतिशय सागर सुर नर गुरू ।। ३३॥ - अरिल छंद - गृढ स्वभाव अनंत महा तू गूढ है, महिमा तेरी गूढ अरूढ अमूढ है। तेरी भक्ति न ईश मूढ ए नहि करै, गूगल नेयर तुच्छ देव पूजत फिरै ।।३४ ।। गूंधे सकल जु अंग तू हि वक्ता महा, सुनि तेरी धुनि दिव्य दास नैं रस लहा। गेह देह नहि नेह तुही जु विदेह है, तनैं गेह तुव ध्यायवेहि विधि एह है।। ३५ ।। गेह मांहि धन नेह कुटंब सनेह है, तो सौं लगै न नेह चित्तप्रति एक है। कैयक दिन जौ दास गेह हू मैं रहैं, पही पाहुनां तुल्य सोच मैं नहि वहै॥३६॥ ज्ञेय रूप तू ज्ञेयभूप अति रूप है, ज्ञेयाकार जु ज्ञान अलेप अरूप है। ज्ञाता ज्ञान जु ज्ञेय वायी की एकता, तो विनु भासें कौनं जु तत्व अनेकता ।। ३७॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी गैल तिहारी सुगुन अनंतानंत है, अति अनंत पर्याय स्वभाव अनंत है। गैल तिहारै लोक अलोका सब लग, त्यागि कलपना जाल साध तोमैं पगे॥ ३८ ॥ ग्रैवेयक लौ जीव गये बहुवार जी, तो विनु नाथ कदापि भये नहि पार जी। पार पहुंचैं जोहि भाव भक्ती धरै, । तू गोपति गोपाल तोहि लच्छमी वरै।। ३९ ।। गो इंद्री तू देव अतिंद्री नाथ है. गो कहिये जल नाम तू हि आंत पाथ है। तपति हरन सुख करन दाह हरन जु तु ही, गो बांनी तू बांनि प्रकासै सहज ही ।। ४० ।। गो कहिये सुर लोक तू हि सुर लोक दे, सुरपति से0 पाय तू हि गुन थोक दे । गो है वज्र सुनाम तू ही बत्रांग है, वजी तेरे दास तू ही ज्ञानांग है॥४१ ।। गो कहिये खग नाम तू हि खगपति प्रभू, गो है छंद हु नाम तू हि भासै विभू। छंद रहित तू छंद भासकर देव है, गो पृथ्वी को नाम करै भू सेव है॥४२॥ गोधर श्रीधर तूहि तुही गोनाथ है, गो किरणनि को नाम तेहि तुव साथ है। गो आकास को नाम तु ही आकास सौं, चिदाकास अतिभास तु ही प्रतिभास सौ ॥ ४३ ।। गो कहिये तरु नाम तू हि सुरतरू महा, फल छाया दे ईश तो विनां है कहा। गो रक्षक तू गोप्प अगोचर गो परें, गोचर केवल मांहि नहीं को तो परें ।। ४४॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी तू गोव्यंदपती सुपूज्य जगदीस है, गोत न गात न धात तात अवनीस हैं। गौ कहिये जग मोहि गाय का नाम है, . गौसुत सम हम मूढ भन्यो नहि राम है॥४५॥ गौ कहिये फुनि देवि सरसुती है महा, सो प्रभु तेरी बांनि और गो ना लहा। गौसुतता प्रभु मेटि देहु गौ रावरी, प्रभु छुडावो भ्रांति लगी इह बावरी ।। ४६ ।। गौण मुख्य सब भेद तू हि परगट कर, तू नहि गौण स्वरूप मुख्यता तू धेरै। गौतमादि ऋषिराय भ6 तोकौं सदा, तू हैं ग्रंथि वितीत ग्रंथ धर नहि कदा।। ४७।। ग्रंथ परिग्रह नाम तू न परिगह गहै, ग्रंथि गांठि को नाम ग्रंथि भेदी लहै। ग्रंथ सूत्र सिद्धांत प्रकासै तू सही, अति सुगंध अतिरूप भूप धारै तू ही ।। ४८ ।। गंध न रूप न शब्द सपर्शन रस धेरै, । तू अविकार अनंत सकल मल परिहरै। गंज गुननि को धरै तूहि पदमा वरै, तोहि न गंजै कोय पराक्रम अति धेरै । गंगा जल सम चित्त शुद्ध करि भवि भजे, गंगादिक देवी जु सेव कवहु न तजै ।। ४९ ॥ करि गुंजार सुशब्द तोहि जे पूज ही, काम क्रोध मद मोह तिनहि नहि पूज हीं। गंतव्यं जिनधाम नित्य प्रति गुर कहै, तेरी प्रतिमा पूजि भव्य इह दिढ गहै ॥५०॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी चरन कमल को भमर गुंजरव जो करै, सो पावै निजवास परम रस जो धेरै। गंधपूति इह देह महा दुरगंध है, . दै . जान . मी घरमांच है । गंधहस्ति सम देह सुगंध जु जे धरै, ते सब देव जु आय पाय तेरे पर। गः कहिये स्वर नाम धारि स्वर गांवहि, सुर नर नाग मुनिंद तोहि प्रभु ध्यावहि ।। ५२ ।। गः कहिये फुनि गाय समूहो लोक मैं, गायपुत्र से लोक लगे त्रिण थोक मैं। कण रूपा तुव भक्ति गहै न रहै उही, ग: कहिये गंधर्व सर्व गांवें तू ही ।। ५३ ।। गः कहिये गाथांनि कौह प्रभु नाम है, सव गाथादिक छंद कहै तू राम है। नाथा तो सौ तू हि नही को दूसरौ, तो विनु सव संसार लगै मुहि धूसरौ ।। ५४ ।। अथ वारा मात्रा एक सवैया मैं। - सवैया - ३१ – गरव को हारी तूज गाध नांहि लहै, __ पूज गिनती जु नाहि तेरे विभव की नाथ जी। गीर्वाण नायक तू गुरनि को गुर सदा, गूंथे द्वादशांग देव गूढ़ अति साथ जी। गेह नाहि देह नांहि गैल तेरी लोक सघ, गोपती जु गोधर तू ईस वड़हाथ जी। गौण मुख्य सर्व भास ग्रंथि भेद गः प्रकाश, भवदुख पावक वुझायवे कौ पाथ जी ।। ५५ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्य बारहखड़ी - दोहा ... गर्व हरै सव की प्रभू, जैसी तेरी शक्ति । सोई कमला लच्छिमी, भाषा दौलति व्यक्ति ।। ५६ ।। इति गकार संपूर्णं । आगैं घकार का व्याख्यान करै है। - भोक - घटस्थमघट देवं, घाति चायाति वर्जितं । सर्व मात्रा मयं धीर, वीरं वंदे महोदयं ।।१॥ - दोहा - घर घर की सेवा करत, उपज्यो अति गतिखेद। अव तू अपनी टहल दै, लै निज मांहि अभेद ।।२।। घर घरणी मैं हम लगे, धन धरणी की चाहि। चाहि हमारी मेटि सब, बहु भरमावै काहि ।। ३ ।। घटि बधि तेरै कछु नही, तू घटि वधि तैं दूर। घट घट अंतर जामि तू, घटभेदी घटपूर ।। ४ ।। घन सम चिदधन तू सही, घन है बज्र सु नाम। कर्म पहार प्रभंज तू, अति कठिन जु अति धाम ॥५॥ घन भार्थं जन मेह की, तू है मेघ स्वरूप। अमृत झर लावै सदा, तपति हरन सुख रूप॥६॥ घरी घरी इह जाय है, बृथा जु मेरी आय । तेरी भक्ति विना विफल, भक्ति देहु जगराय ।।७।। घस्मर सूरिज नाम है, तू है त्रिभुवन सूर। भ्रांति निसाहर वोधकर, किरण अनंत प्रपूर ॥८॥ घटातीत घनपाल तू, घटरक्षक घनजीत । घट घट नायक अघट तू, घन प्रदेश जगजीत ।।९।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अध्यात्म बारहखड़ी J घट पट ज्ञायक गुन सुतन, है घनस्याम अधीस | तू घट भिन्न अभिन्न है, घन स्वामी अवनीस ॥ १० ॥ घर घरनीं तजि मुनिवरा, जपैं तोहि निज रूप । घर घर को मरमी तुही, अघट अघाट अनूप ॥ ११ ॥ घातरहित तू घाति हर रहित अघाति अछेव । अरिउट मैं ति करै तुम सेव ॥ १२ ॥ कालवसू या जगत मैं, हम जु हैं रहे घांघ । घांघपणों प्रभु दूरि करि तू अति सुख की थांघ ॥ १३ ॥ घा कहिये सिद्धांत मैं, नांव किंकणी ख्यात । किंकणि सम वाचालता, मेदि मन दे तात ॥ १४ ॥ घायल हैं हम मोह के, घाव लगे अति जोर। निज औषद दै घावभरि तूहि मोह मद मोर ।। १५ ।। घास फूस सम जग विभव, हम नहि चाहें याहि । कण रूपा निज भक्ति दें, और नहि कछु घां तेरी चोघै प्रभो, वह द्रिष्टि दै औरें घां को चौधिवाँ, तू छूडाय घित्यौ भरम के घेर हूं, तू छूडाय जगदेव । छूटि भरम तैं मैं सही, करि हौं तेरी सेव ॥ १८ ॥ घिण घिणावण इह जु तन, यांमैं वास न इष्ट । तन धरिवौ हमरौ जु हरि, र्दै निजवास प्रतिष्ट ॥ १९ ॥ चाहि ॥ १६ ॥ नाथ । वडहाथ ॥ १७ ॥ ति दधि खीर सु ईखरस, लवण आदि बहु स्वाद । तेरी भक्ति समान रस, और नहीं अति स्वाद ॥ २० ॥ चर्म पतित नहि लीन। भखें न दास अलीन ॥ २९ ॥ घी जल तेल इत्यादि ए, भाषै तेरौ श्रुति इहै, घीया तेला आदि दे, जे वहु बीजा तेन भाखेँ दासा कभी, श्रुति वर्जित अप्रशस्त ।। २२ ।। बस्तु | Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी वंदि अचेतन के परयौ, मैं घीघांऊं नाथ। मेरी कूक सुनौं प्रभू, लेहु आफ्नै साथ ।। २३ ।। घीस्यो मोकौं जगत मैं, कर्म मिले अतिभेद। अध ऊरध मधि लोक मैं, दियो बहुत इन खेद ॥२४ ।। धुण है मोकौँ विधि लगे, कियो सुनिकौँ स्वामि। इनौं मोहि छुपाय प्रभु, तू है अंडा ॥ २५ ॥ घुग्ध होय कूडे रम्यों, कियो मोहमद पांन। अव तू दै निज भक्ति प्रभु, करि सचेत भगवान ।। २६ ।। घूक समान जु हौं प्रभू, नहि लखियो तू भांन। हमरी चक्षु उघारि प्रभु, तू अनंत गुनवांन ।। २७ ।। धूक पणौं हरि देहु जू, चकवे को हि स्वभाव । चकवौ चाहै दिवस कौं, मैं चाहौँ तुव पाव॥२८॥ घूनडता मुझ मेटि तू, दै निहकपट स्वभाव। घूनड लौकिक भाष मैं, कपटी कुटिल कुभाव ।। २९ ।। घूमत घूमत हौं फिस्यौ, महामोहमद पीय। हमरी घूम मिटाय प्रभु, तू तारक अदुतीय ।। ३० ।। धू कहिये आगम विषै, पीडा नाम प्रसिद्ध । हमरी पीर मिटाय प्रभु, तू दयाल अति सिद्ध ।। ३१।। घूर्यमाण इन अघनितें, हौं दुखिया जगजीव । सुखदाई संसार को, दुख हरि नाथ अतीव ॥३२॥ घेरा मांहि जु हौ पस्यौ, तू घेरा तैं कादि। र्दै निज भाव सुलक्षणां, पासि हमारी वाढि॥३३॥ घेवर बैनी आदि दै, तजि कैं जिह्वा स्वाद । रूखाटूका पाय कैं, करिहैं तोकौं याद ॥३४॥ धैं तेरी चोधैं प्रभू, सुर नर मुनिवर ईश। तो सौ देव न दूसरौ, तू हि सही जगदीस ।। ३५॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अध्यात्म बारहखड़ी - सोरठा - घोर वीर तप भास, घोर भाव वर्जित तू ही। तू प्रभु रोर विनास, आस भविनि की तू सही॥३६ ।। घोष सवद को नाम, तेरै घोष न रूप जी। तू घोष निज धांम, महा घोर वीरो तु ही ।। ३७॥ घोटकादि चतुरंग, सेना तजि नरपति महा। तो सौं लाईं रंग, तेई तोकौं पांव ही ।। ३८ ।। - छंद भुजंगी प्रयात - तु ही घोर तपिश ईशो अतापी, नहीं घोर कर्मा तु ही है निपापी। प्रभू घोर संसार तारी तु ही है, तु धोरे उभै धर्म धर्मी सही है॥३९॥ तु ही जो निषेदै वडे घोल कांजी, अभक्षा वतावै दघि द्वेदलां जी। तु ही सत्य घोष सदाचार गावै, भ● धर्म घोषा सुरा सीस नावै ॥ ४०॥ तजे घोष सर्वे भये साधु मौंनी, जु संसार माया सुलग्गी अलौनी। सलौंनी तिहारी सुसेवा हि जांनी, महा ध्यान रूढा भ6 तोहि ज्ञानी ।। ४१ ।। ___ - सोरठा . . घोर भयंकर नाम, तू नहि देव भयंकरा। कर्मनि कौं अति धांम, दीसै तू ही भयंकरा ॥४२ ।। - अरिल छंद - घोणा विवर नु नाम नासिका छिद्र को, धरि नासाग्र जु ध्यान सोच तजि उद्र को। एक चित्त करि तोहि जर्षे योगी महा, है निरगंथ स्वरूप शुद्ध भक्ती लहा॥४३॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी घो कहिये श्रुति मांहि घंट का नांम है, तू घंटाधर देव धुजाधर रांम है। घौरक तेरी मांनि करम सव नासिया, घौरक जग की त्यागि दास गुन भासिया ॥ ४४ ॥ घंटा तेरै द्वार सवद अति ही करै, घंटा कौ सुनि नाद सकल पातिग डरै । घंटा राज के कं हि कौ घंटा तेरै द्वार छजै नहि आंन कौ ॥ ४५ ॥ घः कहिये श्रुति मांहि मेघ का नांम है, तू है मेघ स्वरूप परम रस जीवनि विश्रांम तापत्रय मेटई, तो सौ तू ही मेघ सिखी मुनि भेटई ॥ ४६ ॥ धांम है। जंग अथ बारा मात्रा एक कवित्त मैं । सवैया ३१ — घट घट नायक तू घात तैं रहित देव धिरयो हूं अनादि को सु तू छुडाय मोहि जी । घस्यो मोहि करमनि फेरयो तीन लोक मांहि, घुण होय लागे वै जु कहाँ कहा तोहि जी । घूमता मिटाय मेरी घेरा तैं निकासि देव, मैं जु चौधैं रावरी, सुद्रिष्टि तेरी होहि जी । घोष तेरौ सुनि कैं जु धौरक अघनि कीन घंटाघर घः स्वरूप देख्यौ इकटोहि जी ॥ ४७ ॥ दोहा सही तेरी क्रांति सुलच्छि । " तू धस्मर जग को कमला पदमा श्रीरमा सो दौलति परतच्छि ॥ ४८ ॥ इति घकार संपूर्ण | आरौं ङकार का व्याख्यान करें हैं। — १९ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भोक डकाराक्षर कर्त्तारं भेत्तारं कर्म भूभ्रतां । ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वंदे लोकाधिपं विभुं ॥ १ ॥ , दोहा — - अध्यात्म बारहखड़ी — ङ कहिये आगम बिषै, भैरव नांम विख्यात । भैरवादि यक्षा सर्वे तेरे दास कहात ॥ २ ॥ क ! सोय ॥ ३ ॥ तू अशांत काय भाव न भैरव नांम भयंकरा, तू भयहारी भय काँ तू हि भयंकरा, काल हु कौं भय रूप । मोहादिक कौ रिपु तुही, तातैं भैरव रूप ॥ ४ ॥ ङ कहिये सिद्धांत मैं, नांम व्यसन कौ देव । व्यसन जु कहिये कष्ट कौं, कष्ट हरें तुव सेव ॥ ५ ॥ ङ कहिये ग्रंथनि विषै स्वर कौ नांम अनादि । सप्त स्वरादिक भेद जे परकासक तू आदि ॥ ६ ॥ P स्वर धरि तोकौं गांव ही, इंद फनिंद नरेस | चंद सूर सुर असुर नर खेचर आदि असेस ॥ ७ ॥ स्वर धरि तेरौ जस कहैं, नारद सकल प्रवीन । रुद्रादिक तोकौं भजैं, भजें चक्रि लवलीन ॥ ८ ॥ अर्द्ध चक्रि तोकौं र, रटें काम देवादि । हलधर तेरौ जस कहैं, गांवें तोहि अनादि ॥ ९ ॥ मनु गांवै मुनि ध्यांवहीं, गांव सव अहमिंद। लौकांतिक गांवें सदा, तू सव पूज्य मुनिंद ॥ १० ॥ स्वर धरि तोहि जु गांवही, तात मात जगदेव । तू सवकौ त्राता प्रभु, दै अपनी निज सेव ॥ ११ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १०१ स्वर धरि तोहि न गाइयो, मैं मूरिख मति हीन। तातै रुलियो जगत मैं, अव दै भक्ति प्रवीन ॥१२॥ ङ कहिये फुनि नाध जी, तसकर नाम प्रसिद्ध। तसकर इंद्री मन मदन, हरै ज्ञान अनिरुद्ध ॥१३ ।। इनतै मोहि वचाय तू, तू है राय सुन्याय। वास देहु निज नन कौ, जहां न एक अन्याय ।। १४॥ चोर न तोकौं पांव ही, नहि पाबैं चमचोर। तू सुमनोहर देव है, हरै रोग अर रोर॥ १५ ॥ - सवैया ३१ – भैरव न तू सुदेव, भैरव करै जु सेव, व्यसन को नाम नांहि तेरी छत्र छाय मैं । स्वर धरि गांवँ तोहि, सुर नर नाग मुनि, सवै लोक माय रहे तेरे गुन काय मैं। चोर नांहि पार्वं वास, चोरी नांहि वास मांहि, वासना न तेरै देव, तू न कभी माय मैं। नमो नमो नाथ तोहि, दै जू निज भाव मोहि, और कहा जाचौं ईस आवै नांहि दाय मैं ॥ १६ ।। - दोहा - डेभ्यांभ्यस असिभ्यांभ्यसो, अर इसिवोस जु आम । डीवोस जु सुप शब्द ए, तूं भासै सव राम ।।१७।। तू अति - व्याकरणी प्रभू, शब्दागम प्रतिभास। शब्दातीत अतीत तू, अति अदभुत अविनास ।। १८ ॥ भैरवता तेरी महा, करै करम को नास । सो चंडी परमेश्वरी, भाषा दौलतिभास ॥१९॥ इति डकार संपूर्ण। आगै चकार का व्याख्यान कर है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - भाकचतुर्वक्त्र १ चारित्री. चिच्चिमत्कार चिन्मयः । अचीवरों निराभरो, न च्युतो जन्म मृत्युहा ॥१॥ चूडामणिस्त्रिलोकेशो, चेतनाधिष्टितो सदा। चैतन्यादि गुणाधीशो, चोत्तमोसिद्धिदायकः॥२॥ मनश्चौरो जगच्चंद्रो, चंचकांचन वर्णभः। सर्वाक्षर मयो धीरो, सर्व मात्रा मयो विभुः ॥ ३ ।। चः प्रकाशो चिदाकाशो, सर्व लोकेश्वरो प्रभुः। मदीयां चित्त भूमौ सासदा तिष्टतु निश्चलः॥४॥ . दोह। - चतुरानन चतुरास्य तू, चतुर्वक्त्र तू देव । सव को अर्थ चतुर्मुखा, तु हि अनंत अभेव ॥५॥ चर थिर को गुरुदेव तू, चतुः शरण चउ रूप। चउ मंगल उत्तम तु ही, तू है चतुर अनूप ।।६।। च कहिये प्रभु चंद्रमा, तु है चंद्र सुनाथ। च कहिये सोभा सही, तू सोभित अति साथ ।।७।। च कहिये फुनि चोर कौं, चोर न पावै तोहि । तू हि मनोहर देव है, निज सेवा दै मोहि ॥ ८॥ च कहिये जु पुनह पुनह, वारंवार दयाल। तेरौ नाम जु लीजिये, तू अतिनाम विशाल ॥९॥ चउगति तैं प्रभु तारि तू, चउदह 6 जु निकाश। सूक्ष्म बादर त्रय विकल समन अमन जिय रास ।।१०।। ए पर्यापत इतर गुन, चउदह जीव समास । दंडक चउवीसांनित, कादि राखि निज पास।।११।। चउतीसौं अतिशय प्रभू, तू हि धरै जिननाथ । अमित अनंत जु अतिशया, तेरे तू अति साथ ।। १२ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी चउचालीस जु दोष प्रभु, दारि करौं निजदास । मद मूढत्व अनायतन, हरौ सकल मल रास ।। १३ ।। व्यसन हरौ सब भय हरौं, अतिचार हरि पंच। ए चउचालीसा अघा, दारि महा दुःख संच ॥१४॥ चउपन दूनें नाथजी, मनिका फेरै लोक। पन का मनिका नौ फिर, तो लो.. सुख थोक ॥१५ ।। घउसठि चमर जु ढारही, सुरपति करि करि भक्ति। तेरौं पार न पांवई, तू दयाल अतिशक्ति॥१६॥ चउहत्तरि दूना सवै प्रक्रिति टार क्रिपाल। दै अपनी निज वास जो, अविनश्वर गुनपाल ।।१७।। चउरासी मैं हूं रुल्यो, विना भक्ति जगदीस । अव अपुनौं निज दास करि, हरि अविवेक मुनीस ।। १८ ।। चक्रवा सम भवि जीय हैं, तू दिनकर सम देव । भव्य चकोर समान हैं, तू ससि सम अतिभेव ।।१९।। चमत्कार कारण तु ही, ज्ञानानंद शरीर। चर्म रोम मल अस्थि मय, देह न तेरौ धीर।। २० ।। चढि जग सीस जु तुव पुरै, आवै तुव मत पाय। चटक मटक रहितो तु ही, रहित विभाव सुराय ॥२१॥ चणकादिक द्विदला प्रभू, दही मही भेला न। लेबै तेरे दास कछु, वस्तु चर्म मेला न॥२२ ।। चरन कमल तेरे भनें, चलन चलें अति शुद्ध। तेरे चरित जु उर धरै, ते दासा प्रतिबुद्ध ॥ २३॥ चलबिचल जुता त्यागि कैं, निश्चल है तुव ध्यान। करें तेहि पांवें प्रभू, केवल दरसन ज्ञान ।। २४ ।। चर्म रंध्र नारीनि की, तामैं राचे मृढ़।. चर्मचोर न गांव तु., तृ सुशील अतिगूढ ।। २५ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अध्यात्म बारहखड़ी चक्षु हिये की खोलि कैं, लखें रावरों रूप । ते हि सचक्षु सुजांन हैं, और न बुद्धि चमर छत्र सिंहासन तोहि फवैं चमरादिक सब त्यागि कैं, चक्री सेवें स्वरूप ॥ २६ ॥ जगराय । चर तू थिर तुव मृरती, तू हि चराचर चलें निरखि मुनिवर महा, ते धारें तुव पाय ।। २७ ।। देव | सेव ॥ २८ ॥ अपार । चक्र रूप संसार है, खेबट तृहि तुव भजि उतरे पार बहु, हमहि तारि जगतार ।। २९ ।। चरचा कौं नहि अंत। आतम देव अनंत ॥ ३० ॥ काल पाय जिनराय । चरचा करत जु करत ही जाय ध्याय तुव पाय ॥ ३१ ॥ चरचा तेरी नित्य है, देहादिक काँ अंत है, देह जायगा अवसिह, इह मांगी और न चहूँ, देहु कृपा करि ईस । अंत काल विसरों नहीं, चरन कमल जगदीस ॥ ३२ ॥ चर्मकार के गेह सम, देह हमारी निंद्य । तुव भजियां सु पुनीत है, तू त्रिभुवन करि वंद्य ।। ३३ ।। सवैया २३ + चाहि न और सुचाहि इहै इक नित्य निरंतर तोहि निहारै । चार तुही अति सुंदर रूप जु नांहि कछू पर तुल्य तिहारें । चारु चरित्र धरा जु मुनीसर, शुद्ध अहार जु शुद्ध विहारें । तोहि भजें सु तजैं जग जाल, रटैं जगजीवन राति दिहारें ।। ३४ ।। चारण ऋद्धि धरा जु जतीसुर, अंवरचारण चारु चरित्रा । तोहि जपें सुतपैं तपभेद, तु ही जगदीसर देव पवित्रा | चातक भाव धेरै भवि जीव, तु ही प्रभु अंबुद रूप सुमित्रा | चाकर देव अदेव सुखेचर, भूचर ठाकर तू हि विचित्रा ।। ३५ ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १०५ ..- भुजंगी प्रयात छंद - नहीं नाथ चामीकरा तुल्य ते, नही कोइ काई तिहारै जु नरै। तु ही चारु चारित्र धारी अनूपा, तु ही चारचारी निषेदै निकूपा ।। ३६॥ तु ही चाहि वीता अतीता अजीता, सवै चाहि पूरी करें तू प्रतीता। सवै संयमाचार तू ही बतावै, स्वरूपा चरित्रा विधी तू जतावै ।। ३७ ॥ करें चाकरी एक तेरी हि देवा, धरै कौंन की नाथ तो टारि सेवा। तु आनंद चाखा रहे नित्य चाखा, धेरै ज्ञानं धापा क्रिया बाण राखा ॥ ३८ ।। नहीं चार तेरै सवै तू हि जानें, सदाचार तू ही अनाचार भां । निषेधै तु ही सर्व चामादि बस्तु, दया चाल तेरी तु ही है प्रशस्तू॥३९॥ नही चाल तेरी चले हंस हस्ती, तु ही शुद्ध चाला अकाला सुवस्ती। नही चाव दूजा करै ज्ञानवांना, इकै चाव तेरे दरस्का सुजांनां ।। ४० ।। नहीं चांट चूंटा जहां तू वसे हैं, नहीं चांदनी घांम तू ही लस है। चिदानंद देवा सुचिद्रुष तृ. ही, चिदाकास चिन्मुद्रधारी प्रभू ही॥ ४१ ।। विभू चिच्चिमत्कार चिंता वितीता, जु चिंतामणी चिंत्यदाता अतीता। तु ही चिद्विलासा सु, चिन्मात्र तु ही, तु ही चित्प्रकासा चिदीशा विभू ही।। ४२ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अध्यात्म बारहखड़ी महाचिनदंती मु रोक जितेंद्री, तुझै ध्यायवे कौं तु ही है अतिंद्री। विना चित्त जीतें नहीं होय भक्ती, . नहीं चित्तवाक्काय तेरै असक्ती ॥ ४३ ।। .- दोहा :चिदघन चिनमय देव नू, चिनमूरति चिर रूप। चिरंजीव जगपीव तू, शुद्ध चिदातम भूप ।। ४४ ॥ चिदाकार चितदूर तू, चिदाधार अतिचित्र । अति विचित्र परतक्ष तू, जगजीवन जगमित्र ॥ ४५ ॥ देव चिदंकित नित्य त, टारि सकल भ्रम जार। हौं जु रुल्यौ चिरकाल तैं, अव उधारि भवतार ।। ४६ ।। चिग रूपा विभ्रांति जो, साकी वोट अधीस। तू न लख्यो प्रभु पास ही, परमेश्वर अवनीस॥४७॥ - सोरटा - चीन्हीं मैं नहि तोहि, चीन्हें विषय जु जगत के। अव तू दै शिव मोहि, न्यारौ करि भव भ्रांति 6 ।। ४८ ।। चीर रहित तू देव, निराभर्ण भासुर तु ही। देहु दिगंवर वेस, तु ही अछेत्र अभेव है॥४९॥ चील तेरै चालि, लहैं तत्व जोगीसुरा। चीलै तर घालि, मैं मारग भूलौ फिरूं ॥५०॥ चार पटंबर त्यागि, त्यागै सर्व जु कामना। ते मारग लागि, मुनि निवृत्त है पद भ6 ।। ५१ ।। चीतादिक अति दुष्ट, हिंसा कारण जीव हैं। तिन हि न पालें शिष्ट, तेरी आज्ञा जिन सुनी॥५२ ।। चुणक वत्ति करि तोहि, लहैं ऋषीश्वर ब्रत धरा। निज सेवा दै मोहि, और न चाहिये नाथ जी॥५३॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी चुणक ब्रति दें मोहि, जाकरि तोहि मुणौं प्रभू। देखों सब मैं तोहि, वह द्रिष्टि दौ सांइयां ॥ ५४ ॥ चुगली है अति पाप, मैं निंदी सव चुगल लड़ेंगे ताप, तोहि न पावैं ग्रंथ मैं । ते सठा ।। ५५ ।। च्युत व्रत लहूँ न तोहि, तू अच्युत जगदीस है। तेरी टहल जु मोहि दें और न कछु १०७ चाहिये ॥ ५६ ॥ जी । करें ॥ ५७ ॥ नांही नाथ चुर चुराट की टेब तेरे तू है शांत सुदेव, सेव देहु किरपा सवैया २३ चूरामनि लोक कौं, अलोक परकासी तू हि, चूक मेरी माफ करि, तोहि नहि ध्याये की । चूप नांहि तेरे सव चूप तैं रहित ईश, चूप एक तेरै, सर्व जीव सुख दाये की । चूल सव जगत की सुमूल मोख मारग को, तेरी सेव करें साध ज्ञान सुख भाये की । चूर गिर करम कौ करिवे कों बज्र तू ह्नि, यहाँ दीनानाथ लाज सरन जु आये की ॥ ५८ ॥ चूहे सम हौं जु जीव कायर अनंत देव, रहौं तन विल मांहि मूरिख अनादि काँ। मेरी घात लागि रहे पाप पुन्य वायस जु. काल मारजार मोकों तकत है आदि को । मिथ्याभाव स्वान मोहि मारि कौ संग लागे, इन्तैं छुडाय राय, करे भव दाहि कौं । नू तौ दयानाथ तेरे साथ सव शुद्ध भाव, P तो छतां हुं पीडित रहौं जु महा वादि कौ ॥ ५९ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अध्यात्य बारहखड़ी चूत वृक्ष आंब को है नाम, जग मांहि ख्यात __ तू है प्रभू आंव तैं अधिक सुरसाल जी। सूकै नांहि कवहू सजल धन जो सदीव, सम्यकदरस मूल अति हि विसाल जी। ज्ञान पेड ब्रत डाल संजम ही साखा अति शुद्ध भाव दल अति विमल प्रवाल जी। गुन ही सुफूल अर गंध निज परनति, केवल प्रभाव फल रूप जगपाल जी।। ६०॥ - सोरठा - चूरण दै सुविवेक, कर्म रोग लागे महा। तैं प्रभू जीव अनेक, चूरण दै निरज्जर कर॥६१॥ चूर कियो अति कूटि, लूटि लियो मोहादिकां। गयो नाथ अति टूटि, अव तौ प्रभु किरपा करौ ।। ६२ ।। चूंट चांद हरि देव, सेव देहु निहकांम जो । चेतन अतुल अछेव, तु ही चेतना निधि प्रभू।। ६३ ।। चेतनता दै ईश, चेतनता को पुंज तू। चेतन रूप अधीश, तू निधान भगवान है।। ६४ ॥ है सचेत मुनिराय, पाय रावरं उर धरै । ज्ञान चेतना काय, तु ही अकाय अमाय है।। ६५ ।। कर्म चेतना ईस, वहुरि कर्मफल चेतना। रूपभये जु अधीस, दै अव ज्ञान सुचेतना ।। ६६ ।। चेरा करि जगराय, पाय सेव द ईसरा। चेला करि सुखदाय, भ्रम घेरा काढिजी ।। ६७ ॥ चेला नहि तू नाथ, चेला सब तेरे प्रभू। तृ अचेल गुण साथ, चेल न देह न दिगपटा।। ६८ ॥ चेटक नाटक नाहि, अदभूत योगी नाथ तू। सव चेटक तो मांहि, चिमतकार कारण गुरू।। ६९॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सवैया बेरी सब तेरी नाथ इंद धरनिंद भूति, चेरी तेरी देव अहमिंद्रनि की भूति है। चकि भूति चेरी अर चेरी असुरिद भूति चेरिनि की चेरी खग चक्रि परसूति है । राज ऋद्धि चेरी अर खेरी भोग भूमि सबै, - जो ३१ - चेरी चंद सूर भूति जहां लौं विभूति है। अखिल हैं चेरी तेरी मैं हूं जव भयो चेरा, — चेरों चेरी व्याहै यामैं कौन करतूति है ॥ ७० ॥ तू चेरा जानि ज्ञान चेतना बिवाह नाथ, दोऊ पक्ष शुद्ध व बेटी सु वडेनिकी । सम्यक है वाप जाकौ दया हैं सुमात ताकी, भाव हैं अनंत भाई लाडिली घनेनिकी । जती मत पीहर ननेरा गुरसंग जाकौं, जांमैं नांहि विसन जु आगरी गुनेनिकी । औंसी प्यारी परनौं तौ गिनौं उपगार तेरौ, — और भांति अरज गुदारों नांहि लेन की ॥ ७१ ॥ सोरठा प्रश्न करे ह्यां कोय, चेरौ उत्तम कुल सुता । कैसे पर सोय, इह विनती नहि जोग्य है ॥ ७२ ॥ ताकौ उत्तर एह, इह चेरा नहि कुल वुरा । प्रभु की न्याति गनेह, और न चेरा १०९ न्याति है ॥ ७३ ॥ 2 फुनि उत्तर हैं एक जौं चेरा तौ राव कौ । इह धारौ जु विवेक, औरनि को सिरताज है || ७४ ॥ वड घर कौ चेरा जु, सो व्याह हू कुल सुता । तातैं इह हेरा जु, ज्ञान चेतना दुलही ॥ ७५ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अध्यात्म बारहखड़ी अथ जीव संवोधन। .- सवैया - ३१ ... चेति रे अचेत चेत चेतन को ध्यान करि मूरिख है राच्यो कहा विषयनि के ठाट मैं! विप नौ अनंत काल सेये से अनादि ही के, नीच ऊंच दसा तेरी भई भव वाट मैं। लेय लेय डारे से ही तेरे हैं उलाक सम, जगत के भोग भया पग्यो कहा काट मैं। लाज नाहि आवै तोकौं छाद की अहार कर वूड्यो कहा वावरे तनक आव घाट मैं ।। ७६ ।। अथ जीव भगवान स्तुति। . - भुगी प्रथात ६. तु ही चैत्य चैत्यालयो द्वार मूला, तु ही शुद्ध चैतन्य रूपी सथूला। तु ही नाथ चैतन्यता पुंज पूरा, नहीं भाव तेरे जु चैतन्य दूरा।।७७॥ तु ही चैत्यभासी अचैतन्य नासी, सदानंद तू ही महानंद रासी। तु ही चैत्य मांही तु ही सर्व माही, ___ करै चैन तू ही जु संदेह नाही ॥७८ ।। ___ - छंद त्रिभंगी - मन इंद्री चोरा हैं अति जोरा करहि जु भोरा ज्ञान हरैं। क्रोधादिक चोरा हैं अति घोरा, भवजल बोरा भ्रांति करें। ए विषच जु चोरा करहि जु जोरा अति सुख तोरा कष्ट धरै। मिथ्यात सजोरा, है अति चोरा, अनत चोरा, भोर करें ।। ७९ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी हैं चोर विमोहा, चोर जु द्रोहा, चोर जु छोहा, सर्वहरा । हैं परमत चोरा, करन जु ढोरा, चोर न थोरा, गर्व धरा । लागे प्रभु संगा, सर्व इकंगा, मोह प्रसंगा, शुद्धि हरा । दारे सव चोरा, तू अति जोरा, हरइ जु रोरा ऋद्धि करा ॥ ८० ॥ स्वोरछा चोखी तेरी देव, चोख गहौ जगनाथ जी । प्रभु ॥ ८१ ॥ जो । लूट्यो मोहि अछेव, तेरे राजस मांहि मेरौ द्याय सुमाल, ज्ञानानंद स्वरूप चोर पकरि जग भाल, लाल राव तू जगत कौ ॥ ८२ ॥ चोट लगाई नाथ खोट कियो मुझ सौं इनां । करि कै मेरो साथ, पारयो तोसौं आंतिरौ ॥ ८३ ॥ लग्या चोल उतारि कियो निलज्ज महा मुझौं । कूं को तेरै द्वारि ऊपर करि अव ईसरा ॥ ८४ ॥ — -- — १११ छंद भुजंगी कियो चौर चौपट्ट चौरा जु दुष्टा मिली चौकरी पाप रूपा सपष्टा । तु ही चौर दंडा महासाधु तारी, सवै भ्रांतिहारी तु ही हैं बिहारी ॥ ८५ ॥ अचौकी कचारी तु ही लोकतारी, तु ही लोक चंद्रो मुनिंद्रो अपारी । कहा चंदनो जू कहा है सुचंद्रो, सुजैसौ तु ही सीतलो हैं मुनिंद्रो ॥ ८६ ॥ कहा चंद्र ज्योती यथा कित्ति तेरी, तु ही ज्योति रूपो धेरै ज्योति नेरी । सु चचत्प्रकाशा चमत्कार तू ही, सुचंड प्रचंडा तु ही है समूही ॥ ८७ ॥ सुचंडी न और रमा सोइ चंडी, जु ज्योती तिहारी, सुलक्ष्मी प्रचंडी । नही और चंडी सर्वे और मुंडी, सुचिच्छक्ति चंडी दयाला अखंडी ॥ ८८ ॥ नही चंचलाई नही कोतताई, तु ही निश्चलो निर्मलो लोकराई । तुझे कोय चंपै नही तू अचंपा, प्रभू नित्य चंगा अनंगा निकंपा ॥ ८९ ॥ नहीं चिंतयो देव तोकौं कटे ही, सु तारौं रुल्यौ नंत धारी जु देही । अव चंद्रनाथा सुधापांन देहो, अमृत्यू करौ देव तू है विदेहो ॥ ९० ॥ — Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अध्यात्म बारहखड़ी जु चंपा कही औ कहा कंचनाजी, सुरूपा तु ही ना धेरै अंजनाजी। नहीं चंक्रमैं, तोही कोई हि देवा, तु ही है अनंत पवीर्यो अछेवा ।। ९१।। - दोहा - . . चंद्रायण तप आदि बहु, तप भास तू देव। च; प्रकास जगभास तू, दै स्वामी निज सेव ।। ९२ ॥ चः कहिये प्रभु चंद्रमा, तू चंद्रप्रभु देव । सर्व देव सेवा करें, दै नाथा निज सेव ।। ९३ ।। अथ बारा मात्रा एक सवैया मैं - - सवैया - ३१ --- चरन सरोज तेरे चारन मुनी द्विरेफ सेर्दै, चिनमूरति तू परम प्रकास है। चीर विनु सुंदर जू च्युत व्रत लहैं नाहि, ___अच्युत तू चूरामनि लोक को विकास है। चेतना निधान तू ही चैतनिता भाव तेरौ तोमई भये सुदास तू हि जिन पास है। तेरे वास माहि नाथ नाहि चोरी चौर साथ चंदपति देव तू ही चः स्वरूप भास है॥९४ ।। - दाह] - तब चंद्र जु की चंद्रिका, सोई कमला लच्छि। शक्ति भवांनी चंडिका, सो दौलति परतच्छि॥ १५ ॥ इति चकार संपूर्णं । आगै छकार का व्याख्यान कर है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी : . . . . . . . - श्योक - छल छद्म विनिर्मुक्तं, सच्छास्त्रस्य निरूपकं । सच्छिवास्पद धातारं, सच्छीलनायकं वि ॥ १॥ सच्छुक्ल ध्यान दातारं, अचिच्छून्यं चिदीस्वरं। प्रज्ञाछेत्री विधातारं, स्वच्छ!ध युतैर्नुतं ।।२।। न तच्छोकान्वितै भावै, र्युक्तं शक्ति धरं परं। स्वच्छौं दृग्वोधको भावौ, लभ्येते यदनुग्रहात्।। ३ ।। वंदे तं परमंदेव, छदवंधादि दूरगं। छः प्रकाशं चिदाकाशं सर्वाधारं सदोदयं ॥ ४ ॥ - दोहा - छद्मस्थ न तू देव है, पाबैं नहि छद्मस्थ। तू कैवल्य सुरूप है, प्रभु स्वच्छंद मध्यस्थ ।। ५ ।। - मालिनी छंद - छलवल नहि कोई, छा तेरै न होई, अति छतिपति जोई, शुद्ध चैतन्य सोई। अति दलवल रूपा, रागा दोषादि नाही, छकि जु रहिउ देवा, ज्ञान आनंद माही।।६।। छह जु प्रवल उर्मी, नांहि तेरै जु कोई, छविधर छविकारी, तू छवीलौ जु होई। छवि जु निरखि तेरी, मात हैं सर्व देवा, छविमय शुभ मूर्ती, नाथ दै मोहि सेवा ॥७॥ - सवैया ३१ – छत्रधारी छत्रधनी छत्रपती पति तू ही, परम प्रवीन स्वामी थिर चर पति है। छत्र छाय तेरी तलि वसैं सब लोक नाथ भव जल तारक तू नायक सुजति है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अध्यात्म बारहखड़ी छक नांहि तेरे कोऊ, छक्यो तू स्वछति मांहि केवल ही मांहि तेरी महिमा वसति है। छल तैं चाय देव दें जू भवतार सेव, अगनित गुन तू ही अगनित छति है ॥ ८ ॥ छति तेरी सत्ता निज अतुल अनंत रूप छति कौ निवास तू अछति को निवारका । छती छिटकाय तू जु है रह्यौ दिगंबर हैं, अंवर को अंवर तू जीव को सुधारका । छन्न नांहि काहू काल उघड्यो जगतपाल छजै तोकौं लोकभार भविनि कौ तारका । छह भेद कारक तू धारक परमतत दास को उधारक तू मोह कौ प्रहारका ॥ ९ ॥ छह द्रव्य भासक तू, छह काय पीहर है, छह दस कारण कौ कारण अनादि का । छहवीस मोह भेद नाहि तोमैं तू अमोह, छहतीस गुन धार सूरि भजैं आदि का । छह चालीसा जु दोष टारि मुनि भोजन लें, तेरे ही उदेस रीति गहँ स्यादवादिका । छह चालीसा जु गुन आदि हैं अनंत तोमैं मुनिनि कौ तारक तू देनहार दादिका ॥ १० ॥ छहपन देवि जे कुमारिका कहां नाथ, भजैं तोहि भावकरि देव सिर नांवही । छह परि शून्य एक साठि जे कहा ठीक, साठि ही हजार सुत सगर के ध्यांवहीं । छहसठि आध सिंधु थिति सुर नारक की भासै उतकिष्ट तूहि मुनि गुन गांवही । छह सत्तरी जु लाख देवल तिहारे नाथ, छह भेद भवन निवासिनि मैं पांवही ॥ ११ ॥ * काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ११५ - दोहा - छह अस्सी जु छियासिया, ताके आधे खंध। हाँहि तियालीसा प्रभू चौथे ठांणी अबंध ॥ १२॥ छह निवै जु हजार ही, चक्रवर्ति तजि नारि। तोहि भनँ छहखंड को, राज त्यागि ब्रत धारि।।१३।। छह निवै लक्षा प्रभू, तेरे देवल पौंन । कुमरदेव धारै सदा, मुनी भ6 गहि मौन ।। १४ ॥ __ - मालिनी छंद - छाया माया, नाहि तेरे जु काया, छायाकारी, सर्व को तूहि राया। छांनी नाही, देव विख्यात तू ही, छांनौं नाथा, नांहि पार्वै समूही ।। १५ ।। छात्रा नाही, छाक नाही जु तैर, त्राता तू ही, भ्रांति आवै न नेरै। छागा बोका, जे हत घोर पापी, नर्का जावै, कष्ट पार्दै सत्तापी ॥१६॥ छाया तेरी, नां लहें हिंसका जे, पावै दुख्या, जीव विध्वंसका जे। तू है रक्षा, कारणो सर्व जीवा, पापा चारी नाहि पावै कुजीवा ।।१७।। – चौपड़ी -.. छागलि को जल है अति निंद्य, गावै तेरौ श्रुति जगवंद्य । छाज चालनी चर्म अलीन, बिना चर्म धारै जु प्रवीन ।। १८ ॥ छाछि दही ए विदल जु जुक्ता, तेरे दास गि. हि अजुक्ता। छाछि दही वसु पहर वितीत, तू हि निषेदै देव अजीत ॥१९॥ छाछि दही पानी इत्यादि, कुल किरिया विनु लेवौ वादि। छाछि समान सकल संसार, घृत रूपी तू जग मैं सार॥२०॥ छाज ममान गुनग्रह होय, तब पांव तोकौं प्रभु कोय । छांटि छांटि सब जग परपंच, एक तोहि ध्यां सुख संच॥२१॥ छानि मूल कूपल फलपात, वीजांकुर रक्षक तू तात। छांडि विषय इंद्रिनि के साथ, तोहि भ6 तू देव अबाध।। २२ ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी छांण जल अर अन्न जु वीण, तेरे दास गृहस्थ प्रवीण। छात जगत को तू भवतार, तेरी छाप गहैं गणधार ।। २३॥ छाद समान जगत के भोग, अभिलाएं अज्ञांनी लोग। छाके रहैं मोहमद पीय, जन्म विगारें मूढ स्वकीय ।। २४ ।। तो विनु मूढ भमैं भव मांहि, भगति माल गूंथें सठ नाहि । छाव भगति माला की दास, तो ढिग मे लैं धरि तुब आस।। २५ ।। - सवैया - ३१ - छिपानाथ नाथ तू ही, छिपासम माया दूर भ्रांति को हरन हार जगत को भान है। छिन छिन ध्यान तेरौं करें ध्यांनी आतमज्ञ, तू ही ज्ञाननाथ लोकालोक को सुजान है। छिक छाक तेरे श्रुति माहि नाहि देखिये जू ___ आदि अंत एक शुद्ध सत्ता को बखान है। छिनक प्रवादी कौ उथापक है तू ही प्रभु स्यादवाद आगम को धारक प्रवान है ।। २६ ।। छिद्र ते रहित ईस, छिप न छिपायौ धीस, छिद्र त्यागि तेरौ जस अहनिसि गायए। छिमा को पहार तू ही, छिप शिव दाता देव, कोटिक छिपाकरा जु नख मैं वतायए। तेरे ध्यान विन छिन जाय जोई वादि गनि, छिन छिन ध्यान नाथ, तेरौं उर लाइए । छीनमोह छीनदोष, छीनराग छीनरोग, छीजै नाहि काहू काल गुरनि नैं पायए ॥ २७ ॥ छींक न जंभाई नाथ, छीति नाहि भीति कोऊ, छीतल न पावें भेद सीतल तृ नाथ है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी छींट अर पांटवर अंबर सकल त्यागि होय दिगंबर सुदास करैं साथ है। तू ही छीनकाम सब छीनता हरन राम, :. .मलपुरा . तुझाचे सौ. पाथ है। छीनता हरनदेव अतुल अनंत भेष, तारि भव सागर से तू हि बडहाथ है।। २८ ।। छीला के जु पात सम तेरै ढिग चंद सूर, छुट्यो तू न बंधै कभी अमल अबंध है। छुरिका न पासि अर पासि सब काटै तूहि छुट्टै तोहि ध्यायें छुट काल मांहि बंध है। मेरी देह पूतिगंध छुऊं केसैं तोहि ईस, तू तो अति सुंदर सुमूरति सुगंध है। छूटि मेरी करौं देव छूटि करि करौं सेव तोहि नांहि सेवें सोई हिरदै को अंध है ।। २९ ॥ छुछि सम जग भोग, कणरूप भक्ति तेरी, छुवै नांहि तोकौं कभी रागादिक रोगिया। छेद भेद खेद नाहि, छेव नांहि तेरौं कभी छेदक तू पासि को मुनिंद है अरोगिया। छेक नांहि तेरी सेवरूप नाव के जु भूप, खेवट अगाध तू हि, जनम को जोगिया। छेल्लादिक जीवनि की रक्षक दयाल तू हि, छेह नांहि पांवें मुनि निज रस भोंगिया।॥३०॥ छेदन औं भेदन सुवंधन सुबध और अतिभाररोपण जु अन्नपान रोकनां। दया के विनासक ए भक्ति कौं न आंवन दें, करें जैसे काम सठ नाथ तेरे लोक नां। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अध्यात्म बारहखड़ी छैल तोसौ दूसरौं न दीसै जग मांहि और आनंद स्वरूप महा जाहि कछू सोक नां । रमा को रमन हार आपद हरन हार, सकति अपार एक तू ही है विलोकनां ॥३१ ।। छोटे मोटे जीवनि को रक्षक है तू ही नाथ, छोटे मोटे दोषनि कौ तू ही हर देखिए। तेरी सेवा विनु छोछि करंनी न आवें कामि, करनी को मूल तेरी भक्ति जु खिसेखिये। छोहर है तेरे सव सुर नर नाग मुनि तू है तात सबको, प्रसिद्ध इह लेखिये। तातें सब त्याग जोग तू ही एक लैंन जोग सबै जग त्यागि एक तोहि कौं जु पेखिये ।। ३२।। - सोरठा - छोति हरै मल रूप विमल रूप तू देव है। छोप नाहि जग भूप तू अछोप परमेसुरा॥३३॥ छोभ न छोह न देव, तो सम सोभ न जगत मैं। छोड़े दोष अछेव गुन निवास तू राजई ।। ३४ ॥ तू नहि आवै हाथ, छोच्छ पोल वातांनि तैं। तू मुनि गन को नाथ, योग धारि योगी भ6।।३५॥ छौंना नहि तू नाथ, तात मात सब जगत को। सुरनर मुनिवर साथ, तोहि भ6 पुरखा तुही ।। ३६ ॥ छौटिक अर सव छंद तू हि प्रकासै शब्द सहु। तू आनंद सुकंद, छोगा पाय न अर्वरा ॥३७॥ छ कहिये श्रुति माहि, निरमलता को नाम है। तो विनु निर्मल नाहि, समल सबै ही जगत के॥३८॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी छं भाषै मुनिराय, नाम तटस्थ हु वस्तु कौ । तू तटस्थ सुखदाय और सवै वृद्धि जु रहे ॥ ३९ ॥ छंद न बंध न कंद, छंद सवै परगट तू हैं त्रिभुवन चंद, तिमरहरन अमृत छेदन को है नांम, छ: कहिये आगम तू छेदें प्रभु कांम, क्रोध आदि दोषा छः संवर कौ नांम, भाषै संवरधर तू जिनवर विश्राम, संवर रूप अनूप अथ एक कवित मैं बारा मात्रा । — करै । झरन ॥ ४० ॥ विषै । घनें ॥ ४१ ॥ संवैधा - ३९ छल रूप लोक इहै, छार समभूति इहै, असौ जांनि छिन हूं न भूलें तोहि जोगिया । छीजें नांहि खीजें कभी छुटै जग जालतें जु कुर्दै नांहि काल पैंसु छूटैं भव रोगिया । छेदन और भेदन कौ नांम हैं न रावरै जु छैल तोसौ दूसरों न आनंद कौ भोगीया । छोड़े तैं विभाव भाव छोटिक न छंद राव - मुनि । — तू ॥ ४२ ॥ छः प्रकास है अभास परम असोगिया ॥ ४३ ॥ ११९ दोहा छटा तुल्य जगभूति है, तु विभूति है नित्य । छति तेरी सत्ता रमा, संपति दौलति सत्य ॥ ४४ ॥ इति छकार संपूर्ण । आगें जकार का व्याख्यान करे है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अध्यात्म बारहखड़ी .- श्रीक - जगन्नाथं जनाधीश, जातरूपाभमीश्वरं । जिनं जीवाधिपं धीरे, जुटितं च न मायया॥१॥ जटाजूटात्मकं देवं, जेतारं जैन भासकं । रजोहरं महावीर, मिलितं न हि कर्मणा ॥२॥ ज्योति रूपं सदा शांतं, यन्त्रमाब्जौ सुराधिपैः। पूजितं तं नमस्यामि, जंभितं ज: प्रकाशकं ॥३॥ - छाप्यय - जगजीवन जगभांन, नाथ तू जगत प्रकासी, जगनायक जगदेव, शुद्ध तू तत्त्व विकासी। जगत सिरोमणि धीर, तू हि जगमान अमाना, जगत उधारक ईस, तू हि जगदीस सुजांना । जग त्यागी जग भाल सांई, जगतजीत अघजीत तू। जडता रहित सुग्यांन रूपी, अजड अरूप अतीत तू॥ ४॥ जलजित निर्मलभाव, जलजजित तेरे पावा, जलजबासिनी नाथ, जलधि जित तेरे भावा। जलद नांहि अति ऊच, ऊच तू अमृतवर्षा, जनक सकल को तू हि, जनक तारक अति हर्षा । जक न परै जो लग्ग दरसन, होय नहि प्रभु रावरौ । दरस देहु परसन्न होई, किये दोष सहु छावरौ ॥५॥ जड चेतन सब भास, तू हि चैतन्य सुरूपा, जस तेरौ नर नाग, देव गांवें जु अनूपा । जनम जरा अर मरन मेटि हमरे अविनासी, जघनि मध्य उतकिष्ट, भेदभासक सुखरासी। तू न जधन्य न मध्य देवा, उतकिष्टा उतकिष्ट तू। जलथल उपन्न सव कष्ट हर, जठरागनि हर इष्ट तू ॥६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १२१ जनपति जय जय देव, दास पां8 जय तोते, जहैं मूढताभाव, रावरौं अनुग्रह हो । विनु अनुग्रह तप करें, तोहु पांवें नहि पारा, मासमास उपवास, धरै जलविनु तप भारा। एक बूंद जल पारनौं करि, बहुत काल असे तपा। करहि तदपि तो विनु गुसांई, कर्मभर्म कबहु न खपा ।। ७ ।। जव कहिये प्रभु तेज, वहुरि इह सीघ्र जु नांमा, सीम्र तारि करि पार, तू हि अति तेज सुनांमा। जव मात्र हि अब खाभ, पूंद एका मा पोय, तौ पनि तो विनु पार जगत जलको नहि छीवै। शंकर जु जटाधर चरन रज, सेबें नाथ सुसवरी। जटाजूट अतिभाव, स्वामी हरौ भ्रांति अति बावरी ।। ८ ।। - दोहा - जगत जेष्ट जग पाल तू, जगन्नाथ जग बंधु। जगत ज्योति, जग योनि तू, जगत गर्भ निरबंध।।९।। जगत हितैषी जग प्रभू, जगदग्रज जगमित्र । वलत चलन प्रभ जगत गुर, जगतभिषक अतिचित्र॥१०॥ जग सुंदर जग सय तू, जगत धात जग पीव । जगत तात जग छात त, जनपालक जगदीव ।। ११ ।। - मंदाक्रांता छंद - जानैं सारी, तन मन तनी, जातरूप स्वरूपा, ___जातब्रतो अति गुण तु ही, जाग्रतो तू अनूपा। प्रीत्यप्रीती, कबहु न धेरै, जातजात्यादि वीता, जाला काटै कलिमल हैर, जाल जंजाल जीता ।। १२॥ जाच्यो देवा, भवभय हरौ, तू हि है जान राया, जाचें काकों, नुवतजि प्रभू, तू अवाची अकाया। जाया माया, कछुहु न धरै, जाय आवै न स्वामी, जाकी जोगी, जगतजि रटें, सो तु ही है विरामी॥१३॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अध्यात्य बारहखड़ी - दोहा - जाति जरा मरणादि जे, जाग्रत सुपन सुषुप्ति । तेरै एक न जातुचित, तू अजात धर गुप्ति ।।१४।। जाकै काहु काल ही, आलजाल नहि कोय। नागर तू हि सुजागरू, परम उजागर सोय ।।१५।। जाडौ लोक अनंत ते, जामैं सर्व समाय । परमाणू ते पातरौ, मुनि हु नु देखें राय ॥१६॥ जार चोर जाहि न लहैं, लहैं सुशील सदीव । जाल रूप भव जाल तें, जा भजि निकसैं जीव ।। १७॥ जावा की जेती वसत, ते सव मद्य समांन । जाही मैं निंदी स₹, त्या- दास अखांन ।।१८।। जाप जपैं तेरे मुनी, जपैं देव नर नाग। जालिम तू मोहादि हर, भक्ति धेरै बड़भाग।१९।। जिननायक जिननाथ त, जिनपति तू जिनराय। जिन मारग भासी तु ही, तू जिनदेव अमाय ॥२०॥ जिती जितेंद्री जित गुरू, जित मनजित बुधि धीर। जित विमोह जित काम तू, जिताजीत अतिवीर ।। २१ ।। जित जित देखें नाशजी, जिहां जिहां तू ईश। जिम जिम तोकौं ध्याइए, तिम तिम शुद्धि अधीस॥ २२ ॥ जिय की भ्रांति सवै मिटैं, हिय की सल्य पलाय। जव तू आवै घट विषै, जितजीतक अधिकाय ।। २३ ।। तू जितजेय जितीसरो, है जिनिंद्र प्रभु जिशू । परम जिताक्ष जितीश तू, तु ही जितांतक विश्व ।। २४ ।। जिगजिगाट तेरी छवी, जितविभाव जग जीत । जिलाहिये जेता प्रभू, तू जेता अघजीत ।। २५ ।। जिक्कहिये जय नाम है, तू जयरूप अनूप। जितकर्मा अतिधर्म तू, जित मनमथ व्रत रूप॥२६ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ अध्यात्म बारहखड़ी - सवैया तेईसा २३ – जीव अजीव तने सवभेद कहै जगपीव, तु ही अतिभासा। जीव दया प्रतिपालक तूहि सुजीवनि को पति जीव प्रकासा। जीरण नाहि न जोवनवांन सुबाल न लाल अजीरण नासा। जीति स्वरूप अजीत अपार सुजीवनि की रछि पाल अनासा।। २७॥ जीभ अपार करे पति नाग ज वडभाग सुपार न पावै। जिनु अनेक जु नैंननि तें निरखै तुध रूप सुनिप्ति न आवै। जे अहमिंद्र अनुत्तरवासिसु नित्य निरंतर कीरति गांवें । काल असंखित तेहु न पार लहैं गणधार न तोहि जु भावें ॥२८॥ जीभ जु एक न शक्ति सुवाच्य महामतिहीन न आगम धारी। नाहि अध्यातम को कछु लेस न धर्म गृहस्थ न साधु अचारी। व्रत न जोग नहीं प्रभु ज्ञान सु कैसाहि गांवहि कीरति भारी। डेडर या भव कूप जु के हम तू गुनसिंधु अवंध अपारी ।। २९॥ दोहा - जीव जगत के हम प्रभू, गुन वरनन नहि होय। भक्ति भाव भासै गुणा, और न कारन कोय ।। ३० ।। जुदौ मोहमद द्रोह तँ, जुदौ जगत ते राव। माया काया से जुदौ, तोते जुदे विभाव ।। ३१॥ जुदौ नहीं गुन ग्यान तैं, न हि सत्ता से भिन्न । जुदौ नहीं आनंद लें, आतम देव अभिन्न ।। ३२ ।। जुगपत तेरौ ज्ञान है, व्यापि रहयो सव माहि। जु को दिवस तो विनु गमैं, धृक सो दिन सक नांहि ।। ३३ ।। जुरै न तो सौं कर्म ए, भिरै न तो सौं भर्म । परै परै फिरते फिरें, तू अतिबल अतिधर्म ॥३४ ।। जुरघो न तोसौं जीव इह, तातें रुल्यो अपार । जुरै चित्त करि तोहि सौं, ते पांवें भवपार ।। ३५ ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ , जुटें न तोसौं जड सवै कदैं न मोतें पासि ए, काटि भर्म दें — सवैया ३१ जूवो सब दोषनितें गुननि को नाथ महा जूवा मांस मदिरा को निंदक महाप्रभू । गनिका को निंदक औ निंदक अहेरा हू कौ चोरी चारी जारी तजि संतनि गहा विभू । परदारा संगम निषेद्यो जांनैं पाप महा हु विसन सेय कैं न काहू नैं लहा स्वभू । वह प्राणिनाथ प्राणि प्राणनि को रछिपाल, उपज्यो न काहू काल सूत्र मैं कहा अभू ॥ ३७ ॥ टूटैं तोहि सौं कर्म । धर्म ॥ ३६ ॥ -- अध्यात्म बारहखड़ी — सोरठा जून तू अतिनाथ, काल अनंतानंत कौ। नित्य नवल गुन साथ, जूनौं तू नहि देखिये ।। ३८ ।। - देकै जग सौं पूठि जेता जग कौ तू हि तू औसौ जु प्रभूहि, जेते जीव अजीव तू त्रिभुवन को पीव, अंतरजांमी सवनि कौ ॥ ४१ ॥ विषै भोग जग जूठि सो दासा चाहें नहीं । निह्कामा है गुन रटैं ॥ ३१ ॥ जेठा सब मैं तू सही । जे जन हीं तारै तुरत ॥ ४० ॥ तेते सव तुव ज्ञांन मैं । लहैं जेहली नांहि, तू जेहलता दूर कर । परे जेलि के मांहि, जीव तुही काठै प्रभू ॥ ४२ ॥ तो सव हैं जेर, जेरज अंडज उदभवा । तू मरजादा मेर, सब कौ रक्षक ईसरा ॥ ४३ ॥ जेठमास गिरसीस, तापतपै तौंपनि प्रभू । तुव भजिया विनु ईस, कटै कर्म की पासि नां ॥ ४४ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी जैत्र शस्त्र को धार, कर्म निपातक तू प्रभू। जीव दया प्रतिपार, जैनी जैन प्रकास तू॥ ४५ ।। जैत लहैं जगजीव, तुत्र भजियां परमेसुरा। ज्योति रूप त पीव, ज्योती सर जोगीसुरा ।। ४६ ।। ज्योति लहैं तुव ध्याय, जगत ज्योति तू जोगिया। जोलजाल नहि राय, पार उतारै बेगि हो। ४७ ।। जोरावर अति मोह, पारै तौलें आंतिरौ। मे तू निरमोह, मोहतनी जोरावरी ।।४८ ।। जोम धेरै जगनाथ, हम लोगनि सौं कर्म ए। जोम चलें नहि नाथ, तो आरौं सर्व कर्म की॥४९॥ जो है वेग जु नाम, एकाक्षर माला विषै। वेगि उतारौ राम, भवसागर गंभीर" ।।५० ।। जो तेजस्वी नांम, तू तेजस्वी प्राक्रमी। जो जो कहिये रांम, सो सो तोहि फवै विरद ।। ५१॥ जौ है जन को नाम, जन तेरे तू जनपती। तेरी कीरति रांम, जौन्ह सोइ और नं को ।।५२ ॥ जंतुनि को रछिपाल, जंगम थावर नाथ तू। दया धर्म प्रतिपाल, जंतु तिरै तुव भजन तैं ।। ५३ ।। जंघाचरण साध, जे अकास गमन जु करें। तोहि भ6 जु अबाध, तू अगाध परमातमा ।।५४ ।। जंबू आदिक दीप, लवणोदधि प्रमुखा जलधि। तू भासै अवनीप, सर्व दीप कौ नाथ तू॥५५।। जंबू फल नहि भक्ष, साधारण वर्जित सवै। थारहि तेरी पक्ष, ते न अभक्षा आदरें ।। ५६ ॥ - दोहा - जः कहिये सिद्धांत मैं, है जन को ही नाम । जन उधरै भव जलधि तैं, तू तारक गुण धाम ॥५७॥ * तेरी जाग्नत चेतना, ज्ञान चेतना लच्छि। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अध्यात्म बारहखड़ी अथ बारा मात्रा एक सवैया मैं। ___ .- साया - ३१. .-. .. .. . . . जगत की तारक तू जाग्रत सुरूप देव जिननाथ जीति रूप वीतराग है सही। जुरै नांहि तो सौं कोऊ जूनौं तू न नौतन है, जेलि से निकासै तू हि लोकनाथ है तू ही। जैन को प्रकासक तू ज्योति को निवास सदा जौन्ह तेरी कीरति सी चंद मांहि है नहीं। जंगम सुथावर को एक रछिपाल तू ही, जः प्रकास सर्वभास चिद्विलास है वही ।। ५८ ॥ - दोहा - तेरी जाग्रत चेतना, ज्ञान चेतना लच्छि। रमा भगौती शंकरी, दौलति है परतच्छि । ५९ ॥ इति जकार संपूर्ण । आरौं झकार का व्याख्यान करै है। - भोक · ... झषध्वज रिपुं धीरं, सर्व प्राणि हितं परं। सर्व मात्रामयं धीरं, बंदे देवेंद्र वंदितं ॥१॥ - दोहा - झ कहिये भैरव प्रभू, तृ भैरव को नाथ। शांत देव परतक्ष तू, कर्मदलन वडहाथ ।। २ ।। झ कहिये फुनि बंध कौं, तेरे बंध न कोय। झ महिये घर्घर स्वरा, तु सुस्वर प्रभु होय॥३।। झलक झलक तेरी छवी, झलझलाट तू देव । झमझमाद करि सुरनरा, करहि नृत्य धरि सेव ॥ ४॥ झलमलाट वहिरंग ए, तोहि लहैं नहि नाथ । तृ चैतन्य प्रकास है, अति विलास गुन साथ।। ५ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ अध्यात्म बारहखड़ी झकझोल जु तेरै नहीं, तू अविवाद स्वरूप। झरहर से तुष ग्राहका, लहै न तेरौ रूप॥६॥ – इन्द्र बज्रा छंद - झषध्वजो नाम सुकाम मपी, करै जु पीरा अति ही सतापी। तु ही जु देवा झषकेतु नासा, सुशील रूपी परम प्रकासा॥७॥ झषा कहांई प्रभु मीन जीवा, वसँ जु स्वामी जल मैं सदीवा । तु ही सवर्षों की करुणा जु धारे, तु ही मुन्यों को भवसिंधु तारे।।८॥ झरे अर्मी नाथ तु ही सुमेधा, तो सौ तु ही देव कहा जु मेघा। लावै झरा तू हि अखंड धारा, त्रिश्ना झला तू हि कर प्रहारा॥९॥ नहीं झलक्कै प्रभू तू कभू ही, भरा जु पूरा गुन का समूही। झल स्वरूपा भ्रम भस्पकारी, निधूम देवा न लघू न भारी॥१०॥ कर हि मूढा झगरा जु झांटा, हिये जु मैला जिय मैं जुआंटा। नहीं जु पार्दै निज भक्ति तेरी, लहैं सु ते लेंहि न भ्रांति नेरी।।११।। - गाथा छंद ..झगरा तेरे नाही, तू द्वयवादी अनेकवादी है। अति गुण तेरै मांही, सतिवादी स्यादवादी है।। १२ ।। झालरि को झुणकारा, तरै वार्भा अनेक वाजित्रा । झांझि मजीरा सारा, तू राया लोक को मित्रा॥१३॥ झांण सुगम्मा तूं ही, तू ही झायार झांण रूपा। झांणी पांण समूही, असरीरा तू अरूपा है॥१४॥ झाल जु त्रिशा रूपा, तो विनु सांता न होइ काहू से। कर्म जुझार सुरूपा, दूरिदि नासै जु साहू तें॥१५॥ झिगति झिटति ए नामा, शीन तेनें पंडिता जु भार्से ही। वेगि उधारि सुरांमा, तुव भजियां पाप नासै ही।।१६।। हम हि झिकाय मुनिंदा, पाय जु तेरी सु अमृतावांणी। तो तै देव जिनिंदा, झीणी चरचा लखें प्राणी ॥ १७ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अध्यामबारहखड़ी झीणां तू अति पुष्टा, झोलि नहीं रावरी धरा माही। तू अति उच्च सपष्टा, कर्दम करिमा कभि नाही॥ १८ ॥ झुणकारा अति हो, वाजै वाजा अनेक भांतिनि का। तुब भजि कलिमल खोवे, कर्म प्रहारी झुझारनि का॥१९॥ झुकै जीव जो कोई, तेरी या तीन लोक के नाथा । सकल कल्याण जु होई, सौई पावै जु तुष साथा ।। २० ।। झुकै न तू अध मांही, तो मांही धर्म देखिये अतुला। तू अधरम मैं नाही, नाही भाव धरै समला ।। २१ ।। - सवैया - ३१ - झूठी है इकंतवाद जामैं नाहि स्यादवाद, क्षणिक प्रवाद जाकौं वोध मत कहिये। झूठौ विपरीत महा जामैं जीव घात कहा, झूठौ संसथाप जाको भूलि हू न गहिये। झूठी नास्तीकवाक जाको कहैं चारवाक, झूठे कौल कापालिक करुणा न लहिये। झूठौ विनै मिथ्या जामैं पूजिये जु सवै देव, झूठी है अग्यांन जातें भ्रांति माहि वहिये ।। २२ ।। - सोरठा - झूठ समान न पाप, तेरै झूठी वात ना। झूठे पावै ताप, भक्ति लहैं साचे नरा ॥२३॥ साच हु झूठ विसेस, जामैं जीव दया नहीं। करुणामई असेस, सत्यादिक भासे तु ही ॥२४॥ झूठे सब ही देव, काल जीतिवे सक नहीं। तेरी करहि जु सेव, ते ही काल जीते प्रभू ॥२५॥ झूठे मिथ्या पंथ, तिन मैं तेरी भक्ति नहि। झूठे मिथ्या ग्रंथ, जिन मैं तुब घरचा नहीं ।। २६ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी झूप त्यागि नर नाथ, वन उपवन गिरि सिर बसें । करें राबरी प्राथ, हाथ करें निरतांन ते ॥ २७ ॥ झूलै निज रस मांहि, सव छति है तुव पांहि सुरझेरा करि देव, उरझेरा हरि जग प्रभू । दै स्वांमी निज सेव, झेलि हमारी वीनती ॥ २९ ॥ तू । स्वरस विहारी देव भव झेरा तैं काहि प्रभु ॥ २८ ॥ झेरा मैं रस नांहि, नीरस झेरा जग सब रस तेरै मांहि निज गुन वेढि निकासि उरझै तो विनुजी, सुरझे तो करि जीव वृझे तोकौं पीव, तब आपौ जांनै झैं मात्रा मैं तू हि, झोल झाल तेरे झोक न गुन जु समूहि, जाग्रत रूप सदा तु ही ॥ ३२ ॥ नहीं । — १२९ इहै । — तू ॥ ३० ॥ छंद मोती दाम नहीं कछु झोर न ही झकझोर, तु ही अति जोर हरै सब रोर । कहै प्रभु झोर पल्लंम जु नांम, नहीं जु पल्लम तु ही अभिराम ॥ ३३ ॥ नही कछु झौर तु ही अति दौर, हरै झकझौर तु ही जगमौर । तुझे तजि मूदि विषै सुख मांहि, रमैं नरकांपुर तात हि जाहि ॥ ३४ ॥ करै सठ झंपपात जु देव, तुझे तजि धारहि आंन जु सेव । नहीं प्रभु झंझह पौन जहां जु, नहीं कछु सीत न घांम तहा जु ॥ ३५ ॥ नहीं जलदान जहां तुव थान, नहीं वन ग्रांम नहीं ससि भांन । नहीं दिन रैनि जहां अति चैन, न नीच न ऊच नही जहाँ मैंन ॥ ३६ ॥ सर्व तुव झिंडह मांहि दयाल, जु लोक अलोक अनंत विसाल । तु ही जु रसाल सबै जगभाल, करै जु निहाल तु ही इक लाल ॥ ३७ ॥ - दोहा - झः कहिये सिद्धांत मैं, नष्ट वस्तु कौ नांम । नष्ट जेहि तोहि न भजें, तू सपष्ट अभिराम ॥ ३८ ॥ इह । सही ॥ ३१ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . . ... . अध्यात्म बारहखड़ी अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । - सवैया - ३१ – झर लावै अमृत कौ जगत की जीवनि तृ, झाल माल नांहि लाल काल हर देव तू। झिगति तू पार करै झीणी चरचा जु धेरै, झुकै नांहि झूठ मांहि अतुल अभेव तू। झेरा नै निकासै ईस झै विभास तू अधीस झोलझाल नांहि तेरै, अचल अछेव तू। झौरझार नाहि कोऊ झिंडा मांहि सर्व होऊ झः करै जु राग दोष, देहु निज सेव तू॥३९॥ - दोहा - नष्ट वस्तु को झः कहै, नष्ट कर रागादि। जैसी तेरी सेव दै, सरव गुननि की आदि ।। ४० ।। झगर समा झगरामई, भूति समा भवभूति । तेरी दौलति सासती, सत्ता अतुल विभूति ।। ४१ ।। इति झकार संपूर्ण । आगै अकार का व्याख्यान करै हैं। - शोक - अकाराक्षर कर्तार, सर्वज्ञं सर्वकामदं। शिवं सनातनं शुद्ध, बुद्धं वंदे जगत्प्रियं ।।१।। - छंद मोती दाम - अकार सुअक्षर मूढ जु नाम, नहीं हम से सठ और जु राम। तुझै जु विसारि रचे भव मांहि, कछू सुधि आतम की प्रभु नाहि॥२॥ अकार जु नाम विषै परसिद्ध, सुइंद्रिनि के रस मांहि जु गिद्ध। लहैं नहि भक्ति जु ते मतिहीन, विधै सम पाप न और जु लीन ।।३।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अकार जु नाम कहैं श्रुति माहि, जु गावहि ता कउ संसय नांहि। तु ही सव गावइ धर्म जु रीति, तु ही जु निवारइ पाप अनीति ॥ ४॥ प्रभू सुर सप्त जु भासइ तूहि, तुझै प्रभु गांवहि देव समूहि। नहीं कछु राग तु ही जु विराग, महा बड़भाग, सदा अविभाग॥५॥ अकार जु नाम जु जर्जर 3न, तु ही मधु बैन सुकेवल नैंन । जर्फे सुर जर्जर, वृद्ध महान, तथा सुर जर्जर क्रोध जुवान ।। ६ ।। न क्रोध सुरूप न ही प्रभु वृद्ध, तु ही जु नवल्ल अचल्ल अगृद्ध। महारस रूप सु अमृत वैन, सुनाय हमैं प्रभु देहु सुचैंन ।।७।। – सवैया इकतीसा - मूढता न तेरै, मांहि मूढ़ तोहि पाबैं नहि, ___ इंद्रिनि के विषया न तोकौं कहूं पांवही। विषई लहैं न तोहि, निर्विषे करे जु मोहि, ज्ञायक तू तत्व को सुनायक वतांवहीं । गावै तू सवै जु भेद जर्जरौं न वोल तेरौ, मिष्ट इष्ट भासै त जु मुनि जन ध्यावही। सर्वाक्षर मूरति तू क्यों अकार मैं न होय, सुर नर नाग खग एक तोहि गांवही ॥ ८ ॥ - दोहा - निर्विषया शक्ती जिको, शिवाभवा शिवभूति । मा पा जु रमा महा, सो दौलत्ति विभूति॥९॥ इति अकार संपूर्ण । इति श्री भत्तयक्षर मालिका अध्यात्म बार खड़ी नांमध्येय उपासना तंत्रे सहश्र नाम एकाक्षरी नाममालाधनेक ग्रंथानुसारेण भगवद्भजनानंदाधिकारे आनंदोद्भव दौलति रामेन अल्पबुद्धिना उपायनी कृते ककारादि त्रकारांत दशाक्षर प्ररूपको नाम द्वितीय परिच्छेदः ॥ २॥ आरौं टकार का व्याख्यान कर है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अध्यात्म बारहखड़ी - श्रीक - टकाराक्षर कर्तारं, चिच्चिमत्कार लक्षणं वंदे देवाधिपं देवं, सर्वभूत हितं परं॥१॥ - दोहा - टरयो नही टरि है नहीं, टरै न कवहू देव। अटल अचल अति विमल तू, दै स्वामी निज सेव॥२॥ एक टकोरौ धर्म कौ, तेरै वाजै नाथ । तू धरमी धरमातमा, धर्मनाथ गुण साथ॥३॥ - सवैया - ३१ - टक बंधी वात जाकै, टकसाल शुद्ध जाकी, टकटकी तोहि माहि, सोई निज दास है। टगी नांहि टची कोऊ, त्यागे राग दोष दोऊ, टकेनि को त्यागी, वडभागी सुखरास है। टरै नां भगति से जु, डरै नां जगत से जु, करै नाहि कामना जु तेरोई विलास है। टगटगापुरी अर राम की कहावै राज, तहां जायवे को चित्त जगतै उदास है।।४।। टल्ला नांहि लागै जाकौं, काल को कदापि नाथ, पायो तुव साथ, जानें परम प्रकास है। जाके एक टल्ला ही सौं भागे मोह आदि सव, __पायो शुद्ध वुद्ध ज्ञान आतम विकास है। टट्टमार लायक विभाव सव काढे जानें बाढे भवभाव निज भाव को विभास है। तेरौ ले सरन औ मरन को स्वभाव डारि राग दोष मोह टारि भायौ जू विलास है॥५॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी टण टण वाजें तैरै वाजे अति कोटि भेव जीति की जु टेव तेरी अतुल अछेव है। तेरे पुर मांहि नांहि सीत घाम कोई धाम टपका न पर जहां रति को न भेव है। टपके अमी अपार तेरे वैन सुनें सार त्रिश्ना को न नाम रहे स्व रस स्व बेव है। अनुभौ की कला तोते पाइए त्रिलोकनाथ, ____ अनुभव को दायक तू देव एक एव हैं ।। ६ ।। टहल तिहारी मोहि देहु जू महल केरी टहल्यो अनादि को सु मूलि मोमैं ताब नां। तिहारी टहल पाय हौंहगौ जु निरखेद रावरी टहल विनु मोमैं कछु आब नां। टारयो नांहि टरूं स्वामी अब तो उधारि मोहि राष्ट्ररी, करो जिन राखो पाति आबका। नांहि कछू चाहि मरे, तोकनां न मांगू और, एक निजभाव दै विभावनि कौं दाब नां ॥७॥ टांडौ लार्दै ऊरध कौं भरि जु अनंत भाव, तेई पुरि तेरै राव आवै अति न लें। टांगरौं सवै जु, त्यागि अनुभौ के पंथ लागि, तो सौं अनुरागि मुनि देखें दिव्य नैंन तैं। टाक हैं सिधंत मांहि भूमि को जु नाम ईस, ज्ञान की धरा अधीस पेखें तुव वैन तैं। टावर औ रावर सबै जु त्यागि वडभाग तेरै ई प्रसाद साध जीते मन मैंन तैं॥८॥ - छंद वेसरी - टामटूम सब त्यागि मुनीशा, रहैं तो मई ऋषि अवनीसा । टापू सम ए लोक अलोका, तेरे ज्ञान सिंधु मैं थोका॥९॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अध्यात्म यारहखड़ी निज मूरति विनु टांकी टांची, ज्ञानानंद स्वरूप जु सांची । पुरषाकार निराकारा जो, अघटित घाट निराधारा जो।।१०।। ताके पायवे हि भवि जीवा, मूरति टांची घडित सदीवा। पूजे तेरी सूत्र प्रवाम्म, कम और अकर्तृम मानें ।।११।। टांच टींच देवल की दासा, सौ रावें करि भगति प्रकासा। पूजा दोन गृहस्थ जु धरमा, मुनि के दरसन मात्र हि परमा ।। १२ ।। त्यागि टापरा पाप जु भारा, हस्ती स्पंदन पाय कटारा। टांक मात्र परिग्रह नहिं राखें, मुनि तोकौं लखि अमृत चाच॥ १३।। टाटी मोह जु माया रूपा, दरसन कौं आडी जु विरूपा। तोरै एकहि टल्ला सेती, त्यागें जड परणति हैं जेती॥ १४ ॥ टिकैं निजातम भावनि मांही, तेरे दास जु संसय नाही। बिना टिकांनी सकट न चालें, भगति विनां व्रत ज्ञान न पाले।। १५ ।। दिक्यो न हूं कबहू तन मांही, ए सन यों ही उपजै जाही। टिकौं अनंतानंत जु काला, कवहु टरौं नहि होइ अकाला॥१६॥ टिक्यो रहूं अनुभव रस माही, इहै भगति फल संसं नाही। टिकैं न तोर्षे कर्म अनंता, हमसौं टिरे टारि भगवंता ।।१७।। टीपटाप जग की सहु झूठी, इन मुनि की वृत्ति अपूठी। टीपटाप विनु तू अति सोहै, देव दिगंबर जन मन मोहै ॥१८॥ टीको त्रिभुवन को जु ललाटा, तेर सोहै तू अति ठाटा। टीकायत सव मांहूँ तू ही, नई नई टीपै न समूही॥१९॥ टीपै द्वय नय एक स्वरूपा, श्रुति अनादि रूपी हि निरूषा नहीं टिपिवौ नौतन तेरे, नित्यानित्य कथन तू प्रेरै ।। २० ।। टीप करावें टींच सुधारें, तुव मंदिर की तेजस धारै । जीरण मंदिर मरमति जेई, करवावें ते अतिसुख लेई ।। २१ ।। नौतम मंदिर रचैं तिहारा, प्रतिमा पधरावें गुनभारा। उपकरणा मंदिर में स्वामी, जेहि चदां हाँहि सुधांमी ।। २२ ।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी मोकों ॥ २४ ॥ टीसि न तेरे रीसि न कोई, टींटि करम की टार सोई । रूखा टुकरा पाय मनिंदा करें रावरौ ध्यांन जिनंदा ॥ २३ ॥ हैं टुटेक जीवन जयराया, टुक सी लोकनि की इह माया । तामँ राचि विसारयाँ तोकौं, तातें धृक धृक्क है टूटपूंज्यो इह जीव गुसांई, पूंजी दावी करमनि सांई । तू हि वतावै पूंजी देवा, हरै रोर अति घोर अछेवा ॥ २५ ॥ टूटि गये भ्रम भाव सबै ही, दासनि तैं मद मोह दवै ही । दास करौ और न कछु जाचें, त्यागि कलपना तोसौं राचै ।। २६ ।। छंद त्रिभंगी दूका ले रुखा, किस हि न दूखा, प्यास जु भूखा जीति प्रभू । करि टूक जु टूका मोह धुरूका, सबद गुरू का धारि विभू ॥ तजि टूम जु दामा, क्रोध जु कामा गृह धन धामा, तोहि भजैं । तेई शिव पांवें, कर्म नसांवैं, आतम भांवें भ्रमण तजैं ॥ २७ ॥ 7 — तेरी इह देवा, सब सुख देवा, वातैं नहि टेढी, तू गुन सेढी, टेढे मद मोहा, राग जु दोहा, १३५ नहि टेक जु देवा, तू अति देवा, करहि ज़ु सेवा, भव्यजना । एक जु एवा गुन जु घना ।। पदमा वेढी, इक तोसौं । करहि जु द्रोहा, प्रभू मोसौं ॥ २८ ॥ सोरठा मारयो टेरि जु टेरि, टांग्यो इनि अति दुख दियौ । कूंकौं टेरि जु टेरि, राव हमारौ न्याय करि ॥ २९ ॥ एक देव की तृ हि, और टेव की नांहि को । रागादिक जु समूहि, टेढे तैं सूधे किये ॥ ३० ॥ टैंणी तेरे नाहि, टैंणि उतारै मोह की । स्वांमी तेरै मांहिं, गुन अनंत अति शक्ति है ॥ ३१ ॥ दो कहिये श्रुति मांहि नांव महेश्वर देव कौ । और सु दूजौ नांहि एक महेश्वर तू सही ॥ ३२ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यान्म बारहखड़ी टोटौ परयौं अनंत, मोटौ करि टोटौ हरे। खोटौ मोह इकंत, पूंजी दावी कुमति दे।। ३३ ।। तू चिद पूंजी देय, टोटौं हरि जु अनादि को। तोकौं भवि जन सेय, अविनासी धनपति भया ।।३४।। टोक टाक नहि कोइ, तू स्वामी सव लोक कौ। तोते सव सुख होय, दुखहर भयहर भ्रांतिहर ।। ३५ ।। प्रभू टौंकर वैठि, गिर के मुनि तोकौं भ6। रहैं जु तोमैं पैठि, तिन कौं काल ग्रसै नही॥३६॥ जगत टौंकरै तू हि, बैठौ दीनदयाल जी। तोमैं गुन जु समूहि, तू जगजीवन जगपती ।। ३७ ॥ टं किरीठ को नाम, तूहि मुकट सव लोक को। टंकी घड्यो न राम, अघटित घाट अनूप तू॥३८ ।। - इंद्रवजा छंद - टंकोतकीरणैक सुज्ञायको तू, टंटा न पांवें जगनायको तू। टंकार होवें अतिशब्द तेरै, बादित्र वाजै अतिभूति नरें।। ३९।। पंधा कुपंथा प्रभु टंट बंटा, तामैं परै नाथ लगैं जु कंटा। तोकौं न पावै कुपंथें चलंता, तोकौं न भां पर कौं छलेता।। ४० ।। . दोहा - टः कहिये सिद्धांत मैं, शून्य तनौं है नाम । तू रागादिक शून्य है, गुन पूरण अति धाम ।। ४१ ।। अथ बारा मात्रा एक सवैया मैं । - सबैया ३१ .हरै नांहि टारे कभी, तोही मैं टिके जु साध, टीकायत लोक कौ, तुही अबाध रूप है। टुक सी विभूति पाय, महामद धरै राय, तेरै नांहि मान तु त्रिलोक मैं अनूप है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी टूकटूक करि डारें, सकल विभाव दास, टेक तजि टैंणी तजि तिरें भव कूप हैं। टोली नां अभावनि की, बैठो लोक टॉकरें जु, टंकवतकीरण तू टः प्रकास भूप है ।। ४२ ।। दोहा टग नहि तेरे और को, ज्ञान रूप टग सोय । सोई कमला लच्छिमी, संपति दौलति होय ॥ ४३ ॥ इति टकार संपूर्ण । आर्गै ठकार का व्याख्यान करें है । श्लोक " ठकाराक्षर कर्त्तारं दातारं धर्म शुक्लयोः । मोक्षमार्गस्य, वंदे तत्पद नेतारं लब्धये ॥ १ ॥ — - दाहा ठयो न काहू काल जो, नित्य निरंजन देव । ठटै ठाट निज भाव को, सो अनंत अति भेव ॥ २ ॥ ठई प्रतीति मुनीनिक, मुनि ध्यांवें सक नांहि । ठई न काहू की करी, तुव महिमा जगमांहि ॥ ३ ॥ ठग मोहादि अनंत है, तिन हि ठगैं मुनिराय । ते तेरे घुर चैन सौं, आवें भ्रांति गुमाय् ॥ ४ ॥ तुव भक्ती बिनु ए ठगा, ठगे जांहि नहि नाथ । तू ठगहर, दुखहर प्रभू, दीनानाथ अनाथ ॥ ५ ॥ ठग विद्या सर्व त्यागि के, निह प्रपंच हैं कोय । सोई तोकौं पावई, दास अवंचक होय ॥ ६ ॥ १३७ सीस । मोहि ठग्यो मोहादिकनि, डारि ठगोरी इहै ठगोरी भ्रांति है, दारौ जगत अधीस ॥ ७ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अध्यात्य बारहखड़ी ठट्टनि को नायक तुही, अति ठट तेरै पासि। ठाकुर मोहि उधारि तू, आधौ आप प्रकासि ॥८॥ ठाकुर तू इक और नां, तुव ठकुराई साच। चिंतामणि जगमणि तु ही, और जु जैसे काच ॥९॥ कहवति के ठाकुर घनें, ते झूठे अवनीस । काल जीतिवे सक नहीं, कायर कुमति अधीस।।१०।। ठाकुर तू जगजीत है, काल जीति अति सूर । चाकर तेरे सुरनरा, तू ठाकुर भरपूर ॥११॥ ठालिप तेरै नांहि हैं, ठाट अनंत जु नाथ । गुण पर्याय विहार तू, धरें अनंत जु साथ ॥१२॥ तू ठालो जुं ठसाक है, राज न काज न कोय। साथ इसौ नांहि को. एकल भड त होय।।१३।। ठाढे आसन धारि कैं, परम समाधि स्वरूप। ते मुनि तोहि जु ध्यांवही, तू मुनि तारक भूप॥१४ ।। - सवैया - २३ – ठाहरि जेहि रहैं तुव मांहि, नहीं जिनकै भवभाव मुनीसा । ध्यान करें न कछु पर आंन सुजांन महामति के अवनीसा । तेरहि ध्यान विनां नहि ज्ञान, नही निरवांन तुही सुगुनीसा। तू जगजीवन है जगनाथ जिनिंद मुनिदं सु ईस अनीसा॥१५ ।। नाहि ठिगा न ठिगी तुव माहि, ठिगै न किसै प्रभु तू हि अवंचा। तू अविनासि ठिकाणु सदा निज दासनि को प्रभु देहि अरंचा। नहि ठिलै प्रभु ठेलिउ तू हि, मिलै नहि तो महि नाथ प्रपंचा। तो विनु, ए ठिणकैं जगजीव, परे वसि कर्मनिकै धरि पंचा।। १६॥ ठीक जु वात कहैं गुरदेव सुमुरिख ते नर तोहि न गांवै। पंडित तोहि भ6 गुनवांन लहैं निज ज्ञान सु जे तुहि ध्यादें। ठींगड ले तुव भक्ति तनौं अति कूकर कर्मनिकौं जु नसावें। ते ठुकराय सवै जडभाव अनंत प्रभाव महापुर पावै ।। १७ ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १३९ चौप ठुकराई तेरी अति जोर, जामैं एक न दीस चोर । तुव ठुकराई देख्यां देव, सव चाकर दीखें अति भेव ॥ १८ ॥ ठूंठ समान वहिरमुख जीव, तोहि भजै नहि राचि अजीव । ठूंठ समाना मुनि भी कहे ध्यानारूढ स्वभावें लहे ॥ १९ ॥ इहै ठूंठता करि हरि देव, वह ढूंढता हरि जु अच्छेव । करण हरण कौ विरद जु एह, अब हरि अपनी भक्ति हि देह ॥ २० ॥ दूंणी देय मोह नैं मोहि, लूट्यो अति भाष कह तोहि । इह दूंगों दीयाँ जगराय क्यों धारी तैं माया काय ॥ २१ ॥ वेठि गुणाढ्य महाप्रभु तूहि द्याय राय गुन माल समूहि । तो सम ठेठर और न कोय, प्रभू ठेठि कौं ठाकुर होय ॥ २२ ॥ ठेल्यो विलै न तू वरबीर, टेघी जग की तू अतिधीर । ठेक लगै नहि कबहू नाथ, भगति नाव में मुनिजन साथ ॥ २३ ॥ तो सम्म खेबट और न कोय, भव जल पार करै भवि सोय । ठें बाजे वाजे देव, तेरें कोटि असंखि अछेत्र ॥ २४ ॥ ठोकर एकहि सौं भ्रम कोट, छाहे तैं राखी नहि वोट । ठोक ठाक करि काढे कर्म, तैं दासा तारे बिनु धर्म ॥ २५ ॥ ठोठी वहिरातम जे जीव, तोहि लहैं नहि तू जगपीव । विना ब्रह्म बिद्या नहि कोइ, पावै तोहि जु निश्चै होय ॥ २६ ॥ ठौर धेरै तू ही जु स्वभाव, ठौर देय तृ ही जगराव । ठौर पछारे तैं हि विभाव, तेरी ठौर न कालड पाव ॥ २७ ॥ — ठौहर देहु हमैं भगवान, मति भरमावैं परम सुजांन । ठंढि न उश्न न वरख्खा रती, काल न जाल देहु सो गती ॥ २८ ॥ ठंठ जीव परिणांम कठोर, ते नहि पांवें तोहि अरोर । ठः कहिये अति धन कौ नांम, तू अति धनदायक गुन धांम ॥ २९ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अध्यात्म बारहखड़ी छ, कहिये ससि मंडल नां, त्रिभुवन चंद तु ही निज धा। थिरचर मांहि तिहारी तुल्य, और न दूजो आप अतुल्य ।। ३०॥ अथ बारा मात्रा एक कबित्त मैं। - सवैया ३१ - ठट्ट को धनी अनादि, ठाकुर तु ही जु आदि, ठिलै नांहि ठेल्यौ तात, ठीक वात भासई। ठुकराई भरयो सदा, ढूंणी नांहि देत कदा, ठेठि को दयाल देव दया कौं प्रकासई । है है बाजे वाचैं नाथ, ठोकि काढे कर्म साथ, ठौर दी सुसाधनि कौँ पापनि को नासई। ठंढि नांहि उश्न कोऊ ठः प्रकास आप होऊ, परम पुनीत देव दूरि नांहि पासई ॥३१॥ - दोहा - ठकुराई तेरी महा, सत्ता परणति सोय! देवि भवानी लच्छिमी, सोई दौलत्ति होय॥३२॥ इति ठकार संपूर्ण । आगैं डकार का व्याख्यान करै है। - शोक - डकाराक्षर करि, सर्व प्रांणि हितं करं। चंदे लोकाधिपं देवं, सर्व मात्रा प्रकाशकं ॥१॥ .... दोहा ... डकारांक आगम विर्षे, शंकर को है नाम। और न शंकर दूसरौ, तू शंकर गुन धांम॥२॥ डकारांक फुनि लोक मैं, ध्वनि को नाम प्रसिद्ध। और न ध्वनि दुजी प्रभू, ध्वनि तेरी गुणवृद्ध ।। ३ ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १४१ डक्का हू को नाम है, डकारांक जग मांहि । डक्का तेरौ जगत मैं, और जु डकर नाहि ।।४।। ते डकार परगट कियो, तेरे नांहि तुकार। डरहर निडर अनादि तू, तोमैं नाहि विकार॥५॥ डग हू चलै नहिं स्वस्थ तूं, सर्व विहारी देव। डक नहि तू जु अडंकिता, दै दयाल निज सेव॥६॥ डरै न काल कराल तें, तेरे दास नचिंत। कौंन कमी जिन के प्रभू, पायो तो सभ मित॥७॥ - बसंत तिलका छंद - माया गिनी अघ सनी भवि . जु कैसी, मांटी इला जुतमला अति निंध तैसी। डारै सबै हि परपंच सुभक्ति धारें, तारै प्रभू अपनपौ भव भोग डारै॥८॥ कालोहि कालभुजंगो न डसै जु ताकौं, पीवें पियूष प्रभू नाम स्वरूप जाकौं। डाका पर न जम किंकर को तिनौ कौं, चालै न मंत्र रति डाकनि कौं जिनों को॥९॥ नाही डरै जु डरतें न हि दास डहकैं, तोकौं जु ध्याय मुनिराय कभी न वहकैं। जीवा परे जु जमा डाह महैं प्रभू जी, तेई बचैं जु नहि तोहि तजै कभू जी ।। १० ।। नाथा जु चित्त इह डाकत ही फिरै जी, मोपैं कभी जु इह चित्त नहीं घिरै जी। तैरै विहार नहि सर्व लो जु देवा, रोकैं मनां मुनि तिके हि धरै जु सेवा॥११॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... १४२ ...... ... अंध्यात्म बारहखड़ी डांवां जु डल इह चित्त न तोहि ध्यावे, तोकौं बिसारि भव मैं भ्रम को उपावै । जे होंहि डाभ सम तीक्षण बुद्धि धारा, ते याहि रोकि तुव भक्ति धेरै अपारा॥१२ ।। डाकैत चित्त सम और न कोई होई, तेई जु दास मन रोकही धीर होई। तु ही जु सिंधु प्रभु डाबर और देवा, सोसै न तोहि रवि काल तु ही अछेवा।। १३ ।। डाबा समान इह लोक तु ही जु रत्ना, तूई करै जु जगजीवन जीव यत्ना। डारे विभाव जडभाव अशुद्ध रूपा, तेई भर्जें सुमन लाय गुण स्वरूपा ।। १४ ।। - सोरठा - देह सनेह न कोई, तजे डावरा डावरी । तन मन तोमय होय, तेई दास महा सुधी।। १५ ।। डिढता धरि मन मांहि, डिगाडिगी सव त्यागि कैं। तोहि भजै सक नाहि, ते निज दास प्रसिद्ध हैं।। १६ ।। डिगरें नाहि कदापि, तेरी सेवा सौ प्रभू। तन मन तो महि थापि, भजन करें भी जल तिरै ।। १७ ।। डिम डिम वार्ड्स नाथ, तेरै वहु वाजा प्रभू। लागे मुनिजन साथ, तिरै तेहि भव सिंधुतें ।। १८ ॥ डिगरि गये जु विभाव, दासनि सौं लरिवे न सक। तेरौ अतुल प्रभाव, तू डीला अति पुष्ट है॥१९॥ डीठि न लागै तोहि, अति सुंदर अवनीप तू। सब मूठी में होहि, तेरी डीठि सवौं पैरें।। २० ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी डील अनंत स्वभाव, गुन पर्याय जु रावरै । तू अनंत रातः विभाव धेरै भई डुकरिया नांहि काल अनंत जु वीतिया । नित्य नई घट मांहि बैठी त्रिश्वा हरि प्रभू ॥ २२ ॥ डुलि डुलि चहुं गति मांहि दुखी भयो अति जीव इह । तू तारै सक नांहि भव तारक जगदीस तू ॥ २३ ॥ डूव्यो जीव अनादि, तेरी भगति विना प्रभू । धरे जनम वहु वादि, अव उधारि किरपा करें ॥ २४ ॥ डूंगरपति गिर मेर, सो तो सम निश्चल नहीं । तू मरजादा मेर, पूरण परमानंद डूडूगर अति मोह, जातैं करै प्रभू अति द्रोह, इह द्रोही डूडू मैं तुझ दासनि पैं नाथ, तू अनंतगुण साथ, वीतराग हारे नहीं ॥ २१ ॥ - संसार हास्यो निरमोह सुरनरा | तू ॥ २५ ॥ १४३ कौ ॥ २६ ॥ इहै । डूम है रहे देव, तेरे सुर नर कहै विरद अतिभेव, तू अछेव गुनसिंधु डेडर सम हौं ईस, कहा कहि सकौं तुव गुना । तू गुनसिंधु अधीस, जगदीस्वर अवनीस डेढ दिवस को आय, तुच्छ मात्र माया इहै । तामहि भूले राय, जीव न ध्यांवें तोहि डेरा इह तन होय, काचौं जीवनि को तामैं राचे लोय, महाभाग ध्यांवें तू ॥ २७ ॥ मुनिवरा । है ॥ २८ ॥ तू ॥ २९ ॥ जी ॥ ३० ॥ अरिल छंद डैरू वाजें नाहि भयंकर शब्द नां, वाजे वाजैं अतुल, तुल्यता अब्द नां । प्रभू। तुझें ॥ ३१ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अध्यात्म बारहखड़ी नित्य नवल जगदीस, तु ही जग डोकरा, सब मैं जूनौं तू हि सवै तुव छोकरा ॥३२ ।। डोड काग सम जीव जे न तोकौं भजें, महाभाग ते नाथ तोहि भजि जग तजैं। डोल्हा मूरिख जीव जगत मैं राचिया, तोहि न ध्याईं नाथ वि मैं माचिया ।। ३३ ॥ डोबा सब पाखंड एक तारक तुही, डोरि तिहारी मांहि सम्यकी हैं सही। डोल चरम की निंद्य निंद्य डोहा कहयो, दास भने न अभक्ष वचन तुव सरदह्यो।। ३४॥ डोरि तिहारै नांहि, तुम जु बंधन विना, डोरि मांहि सब लोक, डोरि विनु तू जिना। डौरि तर्जे भवि जीव, तेहि पांढं तुझे, डंड हरण तू देव, तारि भव तैं मुौं ।। ३५ ॥ डंडे जीव अपार मोह नैं कुमति दे, तू द्यावै निज माल, जीव की सुमति दे। तू नहि डिंभ अदंभ डिंभ वालक प्रभू, तेरे बालक सर्व तू हि पुरिखा प्रभू ।। ३६ ॥ है इंडोत जु जोग्य तु ही जगदीस है, के तुव वांनि प्रवानि मुनीस अधीस है। और न जग मैं कोय, डंडवत जोग्य है, डंक न तेरै कोय तु ही जु अरोग्य है॥३७॥ डंस मंस इत्यादि, जीत्र रच्छिपाल तु, डंकित कबहु न होय अडंक दयाल तू। इंड तीन ही डारि तो मई है रहै, वह जन तोकौं लहें और को नां लहै॥ ३८॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १४५ - दोहा - ड: कहिये मात्रांतिकी, तू सब मात्रा मांहि। तेरी सी मात्रा प्रभू, तीन लोक मैं नांहि ।। ३९ ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । - सवैया ३१ - डर नाहि तेरै कोऊ डारे रागदोष दोऊ, डिगर न कभी नाथ डीलां अति पुष्ट है। डुल्यो नाहि डुलै नांहि, डूंगर ते अति ऊंच ___ झान माह तेर। देश हि इष्ट है। . डैम नाहि वाजें तैर वाजे बाजें जू असंखि, डोरि मांहि लोक सव तो सौ तू हि सिष्ट है। डौरि नाहि तेरै कोऊ डौरि हरै डोरिनि की इंडवत जोग्य तू ही डः प्रकास तुष्ट है॥४०॥ - दोहा .. डलाजु माटी को जिसौ, तेसी भव की भूति। तेरी लक्ष्मी सास्वती, सो दौलत्ति विभूति ।। ४१ ॥ इति डकार संपूर्ण। आगै ढकार का व्याख्यान कर है। -- भोक - द्वकाराक्षर कर्तारं, ज्ञान रूपं जगद्गुरूं । लोकालोक प्रज्ञातारं, देवं देवाधिपं विभुं ॥१॥ - अग्लि छंद - ढ कहिये श्रुति मांहि मूढ़ का नाम है, ते नर मूढ अयांन भ® नहि राम है। ढ कहिये ध्वनि नाम ध्वनि जु तेरी सही, तेरी धुनि सुनि पाप नास है सकल ही ॥२॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अध्यात्म बारहखड़ी ढरै भव्य को वोर अभव्यनि परि नही, __ढव तेरौं ही साच और ढव झूठ ही। ढलक्यो नहि इंह चित्त रावरी भगति मैं, ___ताः रूलियौ देव अनंती अगति मैं ॥ ३ ॥ ढकै दोष जो कोय पराये धर्मधी, ___ सो पावै तुव भक्ति, त्यागि सहु भर्मधी। ढाल जगत की तू हि दया की पूंज है, परम पुनीत क्रिपाल गुनैनि की कुंज है॥४॥ ढाक पत्र सम चंद सूर तो देखतां, रंक सवै नर देव नाथ तो पेखतां । ढादिस बांधि मुनिंद, पंथ तेरो गहैं, ... हाढिसीक विनु देव दासभाव न लहैं ।। ५ ।। * : ढांण चूक ए जीव भक्ति ढांण न लहैं, तू हि बतावै ढांण तोहि मुनि जन चहैं। मैं 2. ढाहे तैं प्रभु कोट अविद्या के सवै, भाजि गये सब कर्म भर्म भै करि तवै॥६॥ : ढाहैगौ प्रभु तूहि हमारे बंधनां, तेरै सपरस नांहि नही रस गंध नां। ढाहा तोड वहै जु नदी आसातणी, ___ तु ही उतारै पार और कोई न धणीं ॥७॥ . डायो ढहै न मोह तो विना नाथजी, दाप्यो ढपै न त हि महा गुणसाथ जी। ढारयो दरै जु नांहि, आप ही तू ढरे, भव थिति आवै नीड आपनौं जब करै॥८॥ ढिग ही रहै जु नाथ मूढ जानें नहीं, दीले आतम काज करन कौं सठ सही। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मबार १४७ ढींचाढींच मचाय भूलि भी मैं परे, तोहि न ध्यांई नाथ पाप कर्मनि भरे।।९।। - सवैया - ३१ - दीम सम गर्ने लच्छि ढीव की न कर पच्छि, नारी कौं अलीन सम जांनि त्यागै जब ही। ढुकै मुनि मारग मैं दुकै महावत्तनि मैं, दुकिवी स्वभावनि मैं लहै मोख तव ही। दुकनि न होय जाकी विष के प्रचार मांहि, दुकि ढुकि चारित मैं छंडै पाप सब ही। दुलि दुलि साधुनि मैं, दुहिती मिष्टया गांध. . . .:. . तवं जगफंद छुटै और नाहि ढव ही।।१०। अथ जीव संबोधन - दूकडी जु आवै काल सबै तजि जगजाल प्रणव पुनीत मांहि द्रिष्टि धरि बाबरे। दूदै कहा माया की जु ढूंढि एक चेतन कौं, चेतन मैं लीन होऊ त्यागि सव चाव रे। ढुकै तू विर्षे जु मांहि यामै कछू सिद्धि नाहि ढूंढगे नाहि, पावै कहूं आप ही मैं दाव रे। ढूंढ्यो तू सवै जु लोक पायो नांहि सुख थोक, अवै जगदीस भजि समझि उपाव रे।।११।। ढूंढि हूँदि विषै कौं जु पाए त अनंत खेद, अव निज लीन होऊं वहै भति डावरे। ढूंढिवो उपाय तोकौं सिद्ध लोक जायवे को शुद्ध रूप तू ही सब तजि उरझावरे। दूकडी लवधिकाल, पाय प्रभू जी कौं ध्याय समकित रूप होय निज रस लावरे। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अध्यात्म बारहखड़ी ढेठि तजि जीव की सुढेठी तू अनादि ही को, ढेठि विनु त्यागें भया पावै नांहि भाव रे॥१२ ।। ढेढ घर सम देह भत्यो दुरगंध सौं जु। हाड मांस चांम रोम कुथिति को पुंज है।। उदधि के जलसौं पखालैं तऊ शुद्ध नाहि, असुचि को सागर जो पापनि को कुंज है। ब्रह्म होय हेढ सौं मिलाप राखै कौंन बात। छुयें पाप लागै जाकौं दोषनि को भुंज है। तू तो सठ ब्रह्म भया वेदनि सौं हित राख्ने इहै नांहि ब्रह्मता सुमारै कहा गुंज है ॥१३॥ - सोरठा - हैं इह अष्टम मात्रा, सब मात्रा मैं देव। जो ताकौं ध्याय सुपात्र, तातै भव भरमण मिटै॥१४॥ - सवैया - ३१ - ढोर होय रहयो कहा नैंक तौ विचार करि ढोलि मिथ्या मद कौं जु वावरौ तुझे कियो। ज़ान को वजाय ढ़ोल निज पर वल तोलि भगति मति लहि गाढी करि के हियाँ। करमनि को वंस खोय निज रस अंस जोय, वांधि सत्र गगदिक कष्ट वन ही दियो। होकि ढोकि प्रभु जी कौ ढोरी लाव जिन ही सौं ढोक दें जु वारंवार बांछै जो प्रभू लियो ।। १५ ।। दोकि परमेशुर कौं ढोरी लाव साधुनि सौं, ढोरी लाव दांन सील जप तप व्रत मौं। ढोलै जिन दया रस भरि ज्ञान सीसे मांहि ढोरता जु छांडि सब रूखौ कै अव्रत सौं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १४२ . ढोल खोसि मोह को जु पकरि मरोरि बांधिनिज रस छाकि, भया पूठि दै अकृत सौं। ढोकै मति मिथ्या देव मिथ्या गुर की न सेव धरि जति क्षेत्र चूमै अति वा ६ ढोटा नाहि काहू को जू तू जु है अनादि सिद्ध, सांई ही की जाति तू जु और नाहि भाव है। सांई कौं जु भूल्या ढोर वांधे नाहि इंद्री चोर, हूवा तेरा भोर भया चूका तूहि दाव है। अवै सांई यादि करि सांई ही का ध्यान धरि सांई ही बतावै तोहि छूटि का उपाव है। ढोटा नांहि काहू को हू ढोटा सव वाही के जु वाकौं छांडि वावरे, करैगी कहा नाव है।।१७।। ढोहे ते अनंत ढंग ढंग तेरौ वंध्यो नाहि अव सव त्यागि भया लेहु जिन सरनौं। दौरी मांहि आय जाहु दोरी तजि लोकनि की, तबै ढोल पावै तू जु और नांहि करनौं । दौरी लै जु साधुनि की, ढीठि सव परी मेलि झूठी ढेठि करै कहा आखरी तो मरनौं। ढंग तो विगरि गयो ढंढ सौ जु होय रहयो जगत में राचि भया करें कहा भरनौं ॥ १८॥ ढंपै मति औगुन कौं गुरु के निकट जाय सवै निज दोष भासि आलोचन करि रे। डंपि पर दोषनि कौं पर दोष जिन भासै गुन ग्राही होहु भया कथनी तू हरि रे। कथनी कर तो एक हरि ही की करि सदा । - हरि ही कौं जपि अर हरि ही सौ अरि रे। एक जिन नाम विनु आंन जिन भासै भया । मौनी होय अंदर मैं जिन ही कौं धरि रे ।।१९।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्य बारहखड़ी ढंग तू पकरि भया ढंढ मति होय रहै ढीचा ढीची तजि के विमोह ही सौं लरि रे। सवै तू उपाधि तजि, एक प्रभु ही कौं भजि, मुनि मतमांहि रजि प्रभु पाय परि रे। ढंढता विनसि जाय ढंग तेरौ वंधि जाय, पावै मोख द्वार भवसागर कौं तिरि रे। देह तौ तजी अनंत दोय को न कोयौ अंत अब जैसी करि पंच देहनि सौं मरि रे॥२०॥ - दोहा .ढः कहिये मात्रांतिकी, तू सव मात्रा मांहि । तेरी सी मात्रा प्रभु, तीन लोक मैं नांहि ॥ २१॥ अभयारा मारा एका सवैगा मैं ! ... .. . - सवैया ३१ – ढरै नांहि ढात्यो कभी ढिग ही रहै सदीय ढील नांहि जाकै कभी पारकर देव हैं। ढुकै मुनि मारग मैं तवै नाथ आवै हाथ ढूंढ्यो नाहि पाइए जु तारकै अछेव है। ढेठि नाहि जाकै कोऊ देठि हरै ढेठिनि की। दै प्रकास ढोक ताहि नाथ अति भेव है। ढौरी लावै साधुनि कौँ ढंढ नाहि पांव जाहि, ___ढः प्रभास शुद्ध भास गुण तें अभेव है॥२२॥ - दोहा - हरै ढंढता नादि की, पूरण तेरी ज्योति। सो विभूति धन संपदा, संपति दौलति होति ॥२३॥ इति श्री ढकार संपूर्ण। आग णकार का व्याख्यान करै है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १५१ - भाक :णकाराक्षर धातारं, ज्ञानिनं परमोदयं । सानंदं परमानंद, वंदे सर्वेश्वरं गुरुं ॥१॥ .- सोरठा - ण कहिये श्रुति माहि, ज्ञान नांव परगट प्रभू । तो विनु ज्ञान सु नाहि, ज्ञान मांहि तू ही गुरू॥२॥ थुति को नाम प्रसिद्ध, कहैं णकार सुपंडिता। थुति तेरी गुण वृद्ध, करें देव नरपति मुनी ॥३॥ - गाथा छंद - णमो णमो प्रभु तोकौं, णय परमाण णिखेप हु ण पावें। गगादिक रिपु मोकौं, दुख दे तो ध्याइ यां जावै ।।४। स्टैं णमोकारा जे णांवें, तोकौं स्व सीस मतिवांना। अति गुण गण भारा जे निरविध ना होहि भगवांना ।। ५ ।। णाण सरूवा तू ही, गाणी णादा सुणागरा राया। णाणा गुण जु समूही, णाणा रूवा जु सुखदाया॥६॥ णगिंदा जु सुरिंदा, चंदा सूरा जपैं हि सब तोकौं। ध्यानै तोहि मुनिंदा, भवसागर तारि प्रभु मोकौं ।।७।। णाव तिहारौ नामा, खेवट तू ही अनंत ते तारे । हम हूं तारि सुरामा, रागद्वेषादिकां टार॥८॥ - दोहा - णिय भावें जो गमि रहइ, अन्य विभाव मुएइ। सो पाबड़ णिय धम्मद्विइ, सयल विभाव चएइ॥९॥ णिच्चाणिच्च सरूंव मुणि, सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध। णियमादि सु उरधारि जिय, जपि जग गुर अणिरुद्ध ॥१०॥ णियडउ आवइ मरण जिय, णियणाहें लवलाव । छंडिवि सयल वियार तुह, उरथरि भवदधि णाय ॥ ११ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अध्यात्म बारहखड़ी णीय जु धारि अणीइ मुय, णीच संग सह हेय। णीबें वोयें अंव फल मूढ पई किम लेय ।। १२ ।। गुति कार णति करि नाथ कौं, णूतण सो न पुराण। णेय सयल जा णांण मैं, णेयणाह सो जाण ॥१३॥ मिणाह पामिणाह जो, णेदा मोखुह भग्ग। णेय रूव अति रूव जो, मुणिवर जा महि लग्ग ॥ १४॥ णेयण जम्हि ण णेय मैं, सो सहु भासक तौहु। ताहि भजहु परपंज तजि, चाहहु शिवपुर जौहु ।। १५ ।। क स्व सो देव मुणि, क रूव मुणि णेय । णिय णिय भाव ण छंदई, णिय सरूव हुइ ध्येय ॥१६॥ णोजीवस्स सहाव जिव, दव्व विभाव विकम्म। णोकम्म जु परभाव मुणि, अप्पा चेयण धम्म ।।१७।। णोइंदिय णोमण हवइ, णोवण वि णोगंध । णोरस फरस वि सद जिय, अप्पा मुणि जु अबंध ॥१८ ।। गोव मणि रुव व मणा ण तण, अप्पा सुद्ध विकुद्ध। गोका भवदधि की सही, चेयण स्वच्छ प्रबुद्ध ॥ १९॥ णंदउ विरधउ गुर वयण, गंदउ जगगुर देव। णंदउ सयलवि संघचउ, गंदउ भत्ति अछेव ।। २० ।। णः द्वादसमी मात्रिका, तू सव मात्रा माहि। सव अक्षर मय देव तू, सर्वातम सक नाहि ॥ २१ ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं। णमो णमो देव तोहि, णाण रूव करे मोहि, पिय मणि रुवक तृ णीय को णिवास है। णुति णति तेरी जेहि, करें धन्य धन्य तेहि, णूतण पुरातण तू णेय को विभास है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याता बारहस्नड़ी. १५३ गैक रूव एक रूव णोकमा ण कोई होड़, आनंद को सागर उजागर विलास है। णौका सम तारक तू णंदौ जगदीस धीस, __ण: पयास सव्व अंक भासक सुपास है।।२२।। ... दोहा - णमियामर णियरा धुरू, गुरू तिहारि भूति। सत्ता शक्ति रमा शिवा, सो दौलति विभूति ॥ २३ ॥ इति णकार समात्तं। आगें तकार का व्याख्यान कर है। - भोक . तत्त्वं तथ्य प्रणेतारं, तारकं ताप हारक। त्रिगुणं तीरदं तुष्टं, तूप हावली युतं॥१॥ तेजोरासिं महाशांतं चैगुण्यगुणितं विभुं। तोष रोषादि निर्मुक्तं, संतोषामृत सागरं ॥२॥ तौर्य त्रिकान्वितं धीर, तंत्र मंत्रादि दृरगं। तः प्रकासं चिदाकासं, वंदे देवं महोदयं ।। ३ ।। – सारठा - त कहिये सिद्धांत, मांहि चित्त का नाम है। तू परमेश्वर शांत, चित्त वाक तनु रहित तू।।४।। त भाष्यो श्रुति माहि, नाम क्रोध को ठीक है। तेरे क्रोध सुनाहि, मान न माया लोभ है।॥५॥ नांव पूंछ को ख्यात, त कहिये आगम बिषै। सींग पूंछ विनु तात, भगति रहित नर बोर हैं॥६॥ तमहर तपहर देव, तपधर गुणधर धीर तू। तपसी धारै सेव, है अछेव अतिभेव तू॥७॥ इहै तमासौ नाथ, जड़ मैं जीव जु बांधिया । जव छुट्टै वडहाथ, तू हिं छुडा करि कृपा॥८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अध्यात्म बारहखड़ी - बांटक छंद - तन तैं मन अति दूर तुही, तमनासक तूहि प्रकास कही। तफ्नीय समान अमांन सदा, तुव तुल्य न तप्त सुवर्ण कदा॥९॥ प्रभु तत्व सुरुप अरूप महा, तप भेद सर्व प्रभु ते हि कदा। प्रभु तथ्य निरूपक है परमा, तपधारि भनें धरि के धरमा ॥१०॥ तरणो जु तुही अर तारण तू, तप सागर आगर कारण तू। प्रभु तूहि तटस्थ जु स्वस्थ सदा, तुझाौं नहि छांडहि दास कदा ।। ११॥ तलफौं अति नाथ विना तुझा हूं, दरसन्न जु देहु न और चहुं। इह सुक्क तडाग समान भवो, गुन सिंधु तुही जगदीस सिवो ।। १२ ।। तटिनी तट सीत जु काल है, तप काल मह गिर सीस हैं। तरु के तलि चातुरमास महैं, जु हैं मुनिराय सु तोहि चहैं ।।१३॥ तब ही उधरै भव सागर तैं, इह जीव महा दुख आगर तैं। जव तू हि कृपा करि हाथ गहै, प्रभु आधि न व्याधि उपाधि रहै।१४ ॥ तकि तू हि रहयो सव कौ प्रभु जी, नहि कोइ तकै तुझ कौं विभुजी। तकिवौ प्रभु तेरह होय जौ, तजि भ्रांति मनां सुध होय तवे ।। १५ ।। तजियो नहिं जाय सुवल्लभ तू, भजियो नहि जाय सुदुल्लभ तू। तजिया सव तैहि विभाव प्रभू, गहिया गुण रासि सवै हि विभू।। १६ ॥ तनु पंचक मैं निरवर्त्त तुही, अविनश्वर ईश्वर धीर सही। हुय तद्भव मुक्त तु. हि भजे, भरमैं भव मैं प्रभु तोहि तर्जें।। १७॥ तरु सौ फल छाय जु दाय तुही, तरु ज्ञान विना तुव ज्ञान सही। तलि तेरहि लोक सबै जु वसैं, भव भक्तिहि ले तुव मांहि धसैं॥१८॥ इहु तस्कर मोह जु ज्ञान हरे, तुव दासनि तँ इह चोर डरै। प्रभु मोह हरै तुहि ज्ञान सु दे, नहि ज्ञान थकी भव भ्रांति कदे ॥ १९॥ तुव दास क्रिया अर ज्ञान मई, अति ही सुदयाल सुबुद्धि भई। तरकारि हरी नहि दास भई, सव त्यागि सवाद जु धर्म रखें ।। २० ।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १५५ - दोहा - तलवर ज्ञान विराग से, दंडै तस्कर मोह। तू राजा अति न्याय धर, काहू सौं नहि द्रोह ॥२१॥ त्रय गुण धारक देव तू, भेद त्रयोदस रूप। चारित भासै धीर तू, मुनितारक मुनिभूप ॥२२॥ जयवीसा विषया सर्व, भव सागर के मूल। सेया त्रयतीसा उदधि नरक भोग दुख थूल ॥ २३ ॥ तू हि प्रकासै नाथ जी, तेरे दास दयाल । समदिट्ठी त्रय चालिसा, प्रक्रति न वांधै लान॥२४॥ त्रय पंचास जु भाव है, क्रिया तरेपन होय। तू सव भासै लाल जी, शुद्ध स्वभाव जु कोय ॥२५ ।। पुरष तरेसठि उत्तमा, तू भासै जगदीस। तीर्थकर चक्री हली, हरि प्रतिहरि अवनीस ॥२६॥ कला बहतरि जगत की, इन” परै जु कोय । सुकला अनुभव की प्रभू, त्रय सत्तरमी होय ॥२७॥ त्रय अस्सी लख पूरवा, रिषभ रहे घर मांहि। पाछै मुनि अत धारि कैं, सिद्ध भये सक नाहि ।।२८। त्रय निवै प्रक्रती सवै, नाम कर्म की होय। तेरै प्रक्रति एक नां, प्रक्रति रहित तू सोय॥२९॥ त्रय सत वरषी होय कैं, नेमि भये मुनिराय। त्रय दस गुन वरषा गयें, पास वीर अतिगय॥३०॥ त्रय सत छत्तीसा प्रभू, मतिज्ञान के भेद। वय सत प्रेसठि मूढ धी, पाखंडी अति खेद ।। ३१॥ त्रय सत तीयालीस है, राजू लोक अनादि । घणाकार भासै तू ही, तो बिनु सरव जु वादि॥३२ ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी त्रय दिन थिति अगनी सही, त्रय सहन है अब्द। पवनकाय उतकिष्ट थिति, तू भासे पतिशब्द ।। ३३ ।। त्राता तारक तात तू, त्यागी भोगी देव। ताप हरन तारन तुही, दै क्रिपाल निज सेव ।। ३४ ।। तारनतां तिन तांननहि, गावै अदभुत राग। आतम रूप अनूप कौ, तू गायक वडभाग॥३५ ।। ताब तिहारी मोह जड़, सहि न सक्यो बलवान। लुक्यो भाजि भव वन बिषै, महा दुष्ट छलवांन॥३६॥ तामस राजस सात्विका, तेरै एक न कोय। तू आनंद स्वरूप है, . जान. गु होस् ताडन मारन कोइ कौं, तेरे मत मैं नाहि। 6 ताडे रागादिका, दोष नांहि तो पाहि ।।३८ ।। ताल मजीरा झांझि अर, झालर आदि अनेक। घाजे बाजै रावर, तू है रावर एक ।। ३९ ।। ताणें सियपुर कौं मुनी, ते तेरौ पथ लेय। पंथ दिखावा एक तू, तो विनु सर्व जु हेय ।। ४० ।। ताव आदि रोगा सवै, हरै तिहारौ नाम। रागादिक रोगा हरै, तू सुवैद गुण धांम॥ ४१ ।। त्रास न मानें काल की, निरभय तेरे दास। कालहरन दूखहरन तू, जगजीवन जगभास॥४२॥ तात तिहारै ढील नहि, सीघ्र उतारै पार। परमेश्वर परवीन तू, प्रभु है त्रिभुवन सार॥ ४३ ।। ताल तमाल न उपवना, सर वापी नहि कूप। सरिता सिंधु न ग्राम गिर, तुव पुर अदभूत रूप॥ ४४ ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ अध्यात्म बारहखड़ी - - छंद बेसरों - त्रिदसाधिपपति, तू त्रिपुरारी, त्रिज्ञ त्रिज्ञान त्रिनेत्र विहारी। तिग्मकरो जु कहावै भांना, तेरौ भजन कर भगवांना ।। ४५ ।। त्रिविध हरै त्रिविधातम तू ही, तू त्रिकाल दरसी जु प्रभू ही। त्रिपथ बिहारी सर्व विहारी, त्रिधा वुद्ध सनमारग धारी ॥ ४६ ।। त्रिगुण रूप त्रिभुवन को स्वामी, दरसन ज्ञान चरन अभिरामी। त्रिभुवन वल्लभ त्रिजग गुरू तू, त्रिदसाधिक्ष दुपक्ष धुरू तू।।४७ ।। त्र्यक्ष त्रिलोक सिखामणि देवा, त्रिप्त त्रिदोष रहित विनु छेवा। नाथ त्रिभंगी भासक तू ही, नाम त्रिभंगी लाल प्रभू ही।। ४८ ।। त्रिश्नाहरण त्रिसल्य वितीता, त्रियारहित जगजीत अतीता। त्रिण तुल्या भवभोग विभावा, दास न चाह कण मन लावा ।। ४९ ।। कण रूपा तुत्र भक्ति गुसांई, तू त्रितापहारी है सांई। तिप्टें तू हि सदा सव पासा, विरला जांनहि तत्व विलासा ॥५०॥ मो हति मंगल भव जल पाही, तो विनु पार होहि जन नाही। तीरथ तृहि जु भव जल तीग, तीरथकर जगदीसुर धीरा ॥५१॥ तीन लोक को नायक तू ही, तीरथ तेरी वांनि समूही। दासा तीरथ जगत उधारै, भगति भाव हिरदा मैं धारै॥५२॥ तीर ज्ञानमय तीखा लागैं, मोहादिक सव कर्म जु भागें। तुच्छ बुद्धि जीवनि की स्वामी, पर मोह के वसि अविरामी ।। ५३ ।। तुग्रा पधरी वागा पटका, पटकि मुनी प्रभु तोमैं अटका। तुमको सेय हेय सह त्यागा, तुम्हरी भक्ति मांहि भवि लागा ॥५४॥ तुरहि आदि असंखि जु बाजा, तेरै वाजै त जगराजा। तुच्छ मती मैं तू नहि सेया, तुच्छ गती धारी वहुभेया॥५५ ।। तुलना तेरी और न कोई, तू अतुल्य अविनासी सोई। जान तुला मैं सर्व जु नाले, तो विनु जन भव भव मैं डोल।।५६ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' वा . १५८ अध्यात्म बारहखड़ी तुज कहिये प्रभु सुत को नामा, पुत्र कला संग धन धामा । इनमैं राचे भौंदू भाई, तेरी भक्ति न उर मैं लाई ।। ५७ ।। तुरत उधारै तू भव सिंधू, हुमहि उधारि जगत के बंध । तुस सम देह जु कण सम जीवा, तू हि वतावै त्रिभुवन पीवा ।।५८ ॥ तुल सम तुनका सम जगवासी, उड़े फिर अति ही दुखरासी । भ्रांति वायु मैं परे विमूढा, ऊंच नीच धारी गति रूढ़ा॥५९ ।। - छंद मोती दाम -- तुषार समान जु है जड भाव, जु भांन समांन तु ही जग राव। तुचा करि वेढि उहै इह देह, जु अस्थिनि को प्रभु पंजर एह ।।६०॥ परयौ तन मांहि इहै सठ जीव, तु ही जगतारइ तू जगपीव । तुणतुण तार व* जगराज, महा जु विराग बड़े महराज ।। ६१ ।। तुही जु तुही जु तुही जु तुही जु, वही जु वही जु वही जु वही जु। कही जु कही गुर नैं हि सही जु, सुदासनि. उर मांहि गही जु । ६२ ।। व® अति तूर सु तू अतिपूर, सु, हौं लघु तूल समान जु कूर। उड्यो जु फिरौं भ्रम वाय मझार, तु ही थिर दे पद तारन हार ।। ६३ ।। भनें प्रभु तोहि सु तूटहि फंद, न तूठइ रूठइ तू सिवकंद। कहै प्रभु तू हि समूह जु नाम, सवै जु समूह धेरै तु हि राम ।। ६४॥ - सोरठा -- तूडा सम जगभूति, कण रहिता पसु ही चहैं। भक्ति समान विभृति, भई न है हैहैं कवै ।। ६५ ।। तूश्री मौन जु नाम, मौन धारि मुनिवर भ®। तेरी पंथ जु, राम, पावें तेई ज्ञानमय॥६६॥ तेरे मत विनु लाल, वारावाट जु जग भयो । तेजोरासि विसाल, तेजपुंज गुनकुंज तू।। ६७। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १५९ तेरौ सौ नहि तेज, सूर चंद हुतभुग धरें। तो दिगि सुर सग रेज, रतन रतन धर तेज विन ।। ६८ ॥ तेड्यो आवै नाहि, रहै सदा सव पास ही। जामैं सर्व समाहि, तेगादिक जाकै नही॥६९ ।। तेजरदि सव रोग, नाम लिये दरिहि नसैं। तें त्यागे जग भोग, जोग रूप जोगी तु ही॥७०॥ जैसैं तिल मैं तेल, तैसे घट मैं जीव इह। पर परणति को मेल, याकै तो विनु नां मिटै॥७१॥ नेह रहयो नहि नाथ, मो मैं कछु बाकी नहीं। देहु आपनौँ साथ, जाकरि है अति पुष्टता ।। ७२ ॥ तेरै राग न रोष मोहादिक तेरै नहीं। तेरे बंध न मोख, शुद्ध बुद्ध चैतन्य तू॥७३॥ तैलादिक सघ लेप, त्यागै अबधूता मुनी। तृ है देव अलेप, तोहि भ® मुनिवर महा।।७४ ।। छंद भुजंगी प्रयात तु त्रैकालि दर्सी सु त्रैलोकि ईशा, तु वैगुण्य रूपा अनूपा मुनीसा । तु त्रैलोकि लोकी विलोकै, सव ही समसार तु ही सवै तो फवै ही ।। ७५ ॥ तु त्रैलोकिनाथा चिदानंद तू ही, महादेव देवा गुरू है प्रभु ही। नहीं तैजसा कारमाणा न तेरे, तु उपाधी न व्याधी न आधी न नैर।।७६ ॥ नहीं तोल जाका नहीं मोल जाका, भजै नोहि जोई नहीं नास ताका। नहीं तोष रोषा तु ही वीतरागा, सुसंतोष रूपा मुनि पाय लागा ।। ७७३। नहीं तोड़ जोड़ा नहीं कोई तोरा, नहीं तो पर एक तू ही सजोरा। तु तोटा हरै देव दे भूति मोटी, सुमोटौं तु ही रीति नाहि जु छोटी।।७८ ।। नही तौर तेरा लहैं कोई दूजा, त्रिकातीर्य होवे कर देव पूजा । सुगीतं सुनृत्यं सुवादिन वाजा, जु तौर्य त्रिका ए कहावै सुसाजा ॥७९ ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अध्यात्म बारहखड़ी गलै तौख राल्यौ महामोह नैं जी, जु मिथ्यात रूपो सदष्टि हनैं जी। तुही जो छुडावै महा वंदि सेती, कही जाय नांही लही व्याधि जेती ।। ८०॥ सुतंत्रो तुही तंत्र कृत्तंत्र धारी, जु तंत्राधिपो तू हि तंत्री अपारी। सुतुंगा उतंगा तु ही है असंगा, नही तंत्र मंत्रा नहीं कोइ रंगा ।। ८१ ।। करें तांडवा वासवा धारि सेवा, तुही देवदेवा प्रभू है अछवा। तु ही है स्वतः सिद्ध स्वामी सवौं का, सुरों का नरों का सही है मुन्यौं का।। ८२ ।। - दोहा - तः प्रकास अतिभास त, सब मात्रा मैं नाथ। सर्वाक्षरमय धीर तु, गुण अनंत तुब साथ ॥८३ ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । तप को प्रकासक तू, तम को हरनहार, ताप सहु मेटै तात, त्रिना को न नाम है। तीर भव सागर की, वैठो अति उज्जल तू, तुष को न लेस तर, काम को न काम है। तूर वाजें जू अनंत, तेज को निवास कंत, तैजस औं कारमाण नाहि तैरै धाम है। तो सौ तू न दूसरौं जू, तौर तेरौ तोहि माहि. तंत मंत आप ही स्वत:प्रकास राम है।।८४ ।। तेरी नाथ जु अस्थिता, तत्व तरंग स्वरूप। सो गौरी धन संपती, दौलति ऋद्धि निरूप॥८५ ॥ इति तकार संपूर्ण । आगैं थकार का व्याख्यान करै है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १६१ - शोक - थकाराक्षर धातारं, सर्व मात्रा मयं विभुं। वंदे देवेंद्र वृंदावँ, लोकालोक प्रकासकं ।।१।। - दोहा - थ कहिये सिद्धांत मैं, भय रक्षण को नाम। तू रक्षक है भय थकी, निरभै आतमरांम ॥२॥ थकारांक आगम बिषै, उच्चसिलोचन नाम । सिद्ध सिला सम और नहि, अदभुत अतिगति धाम ।। ३ ।। थकित है हैं सुरपती, थल तेरौ अवलोकि। थल दै जलनैं कादि कैं, राख्यो कर्मनि रोकि॥४॥ धके कर्म तो भि प्रभू, लुक जु भव वन माहि। थलचर जलचर नभचरा, तू पालै सक नांहि ॥५॥ थक्यो बहुत हूं नाथजी, भटकि भटकि भव मांहि। थकै चिन्न तो मैं प्रभू, सो करि लै निज पांहि ।।६।। थरकि रहैं मुनि तो विषै, थल रूपी तू देव। थल वांधै प्रभु धर्म को, थलदायक तुव सेव ।। ७ ।। धल मैं जल मैं नभ महैं, तु ही सहाय न और। ऋद्धि करन संकट हरन, तू त्रिभुवन को मोर ।। ८॥ थट्ट तिहारै पासि है, गुन अनंत परजाय। सदा अकेले तुम प्रभू, एक रूप समुदाय ।।९।। चित्त वृत्ति अति थरहरी, जीव घात नैं नाथ । जिनकी तेई पावही, देव तिहारौ साथ ।। १० ।। थण वहुती मातांनि के, चूंषे बहुती वार। अव भव सागर तारि तू, तरण जु तारण हार ॥ ११॥ थाघ न आवे भव तनी, पारावार अपार । थाह लहैं तेईन प्रभु, दास हाँहि अविकार ॥१२ ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ थाह न तेरी पांवई, सुर नर खेचर नाम । मुनि गणधर हू नां लहैं, जे अनंत थाह न केवल विनु कहूँ, दै केवल निजभाव प्रभु, अध्यात्म बारहखड़ी वडभाग ॥ १३ ॥ तू केवस्थ शुद्ध बुद्ध — तेरे एक न थांन । निश्चल श्री भगवांन ॥। १६ ।। थांन मांन धन धान प्रभु सत्र दाता सव रूप तू, निज स्वरूप निज सब धांननि मैं तू सही, रहे जु एकै सर्वग व्यापक स्वस्थ तू, थाती तेरे पास है, और दरिद्री तू ही रमापति जगपती, हरै जगत को थार कटोग त्यागि सहु, लें करपात्र ते मुनि तेरौ ध्यान करि, पांवै भवजल धांध तिहारी विनु प्रभु, थाघ जगत कौं नांहि । दास करौ जगदीस जी, राखऊ अपुनें पांहि ॥ १९ ॥ पार ॥ १८ ॥ स्वरूपे । " चिद्रूप ॥ १४ ॥ धांणे मोह कर्म के उठावै तूहि और कौंन, होय । सोय ॥ १५ ॥ सर्व । गर्व ॥ १७ ॥ सवैया - ३१ थाप औ स्थाप एक तेरी ही जु लोक मांहि, तेरी धापी रीति कौ, उथापक न कोई हैं। धाट को धणी जु नाथ पाट धार है अनाथ, थाह न लहत कोऊ तू जु एक दोय है । थाक्यो अति हों जु देव, थाक टारि दें स्व सेव, थालि घालि दे थांन तो विनां न होय है। अहार । ध्यांवें मुनि धारि मौन तारक तू सोई है ॥ २० ॥ थिर रूप थिर देव, थिरचर नायक तू. थिरचर जीवनि कौ पालक गुरू तु ही । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ अध्यात्म बारहखड़ी धिर थान थिर धाम, थिर ज्योति थिर नाम, तू ही थिर राम अभिराम एक है वही। थिर थिरता को मूल, धिरता अपार देय, चिरीभूत भाव एक तू ही जो धेरै सही। थिति सब कर्मनि की तैं ही जो प्रकासी देव, सवै थिति हरी, तैं ही भव थिति से दही ॥२१॥ ___..- सोरता .. थीजै छीजै नाहि, पधेरै त न कदापि ही। अति गुन तेरै मांहि, थुति जु करै सुरनर मुनी ।। २२ ।। अधिः करिव का काहि दानित : माईनक हु। वुद्धि न मेरे पाहि, कैसे मो से श्रुति करें ॥२३॥ तोकौं नाथ विसारि, पर धन पर दारा गहैं। ते इह जनम पझारि, थुक थुक है नरकां परै ।। २४ ॥ थून महा तु देव, धूणी लोकालोक की। करहि महा मुनि सेव, तू अछेव अतिभेव है॥ २५ ॥ असौ थूल जु तृहि, जाम सर्व समांबहीं। गुनी गुनाट्य समूहि, दूहि न तेरै कोइ सौं ॥२६॥ सूक्षम असौ नाथ, अणु देखें तेहु न लखें। मुनि जन हूं के हाथ, नहिं आवै सो है तु, ही॥२७ ।। जीवनि के जु असंखि, जनम लखें मन की लखें। ध्यांनी मुनि निहकंखि, जैसे हू तोहि न लखें ।। २८ ।। थूणी .पर की नाहि, दावें जो तुव सूत्र सुनि। ते दासनि कै मांहि. आय महाभव जल तिरै ।। २९ ।। थूणी पर की जेहि, दाबैं पापी दुष्ट धी। जांवें नरकि जु तेहि, भगति लहैं नहि रावरी ॥३० ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अध्यात्म बारहखड़ी - -- सबै बा ३१ - थेई थेई तत्त करि नां. इंद चंद तेरे, ___ताल लय नाद करि तोही कौ जु गांवही। नारद हू कंधे धरि वीन अति सुंदर जो, ____ अति ही उछाह करि तो ही कौं जु ध्यांवही। शची आदि देवी सहु तोही कौं अलापैं नाथ, अहमिंद औ जतिंद तो ही कौं जु भांबहीं। चक्री अधचक्री हलि मनु मुनि संकर जु, सुर नर नाग खग तोकौं सिर नांवहीं ।। ३१ ।। थेथी वात करें ते न पाबैं तोकों काहू काल, तेरै कोऊ थेथी वात हेरें हू न पाइए। तोहि लहैं, पंडित विवेकी परवीन नर, शेशी बुद्धि तयागि एक नोही जु नाइट . थै सुमात्र अष्टमी प्रकासै तृहि और कौंन थोक धार तू ही एक सोहि सिर नाइए। थोक हैं अनंत गुन भाव परजाय तेरे, थोकनि को नायक तू हि उर लाइए ।। ३२ ।। थोथी भूति त्यागि औं उपाधि सव त्यागि नाथ, त्यागि सहु साथ मुनि ध्यां3 तोहि देव जी। थोक तोमैं माय रहे जीव ओ अजीव सव । भव्यनि को तारक तू देहु निज सेव जी। थोथी बात कियें तू न आवै कभी हाथ नाथ, धारि तुव धार नाहि पावै तुव भेव जी। थोरी औ वहुत तेरी साधु ही पिछां. वात और नांहि जानै तात, तेरौ है न छेव जी ॥३३॥ - सोरठा - थोरी बहुत कछून, मैं मूढै भगति जु करी। थोरी सर अति नून, सो तन पोख्यो अघमई ।। ३४॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १६५ थोरोकु लहू तोहि, भजें कदापि निपाप है। सब मैं तोहि जु टोहि, करूणा धरि सुभगति वरै।। ३५ ।। थौ तू ही जिननाथ, अमित काल पहली प्रभू। है रहसी जगनाथ, नित्य निरंतर देव तू॥३६॥ . सत्रैया - ३१ - थंभ एक लोक तीन की तु ही अनंतनाथ, थंभे से अनंत भाव थंभै तू उपाधि तैं। तैं ही थंभे दुष्ट धिष्ट कर्म मोह आदि देव, तू ही एक टार ईस सवै आधि व्याधि तैं। तृ ही एक थांघ और थांध नाहि दीसै कोऊ, तु ही थिर थापै तात तार जु असाधि तैं। जल थल मांहि एक तेरौई अधार धीर, और कोड़ थंभै नांहि भव असमाधि लें ॥३७॥ . सोरठा - थथा पासि दु सुन्य, वारम मात्रा बुध कहैं। तू देवा अति पून्य, अतिमात्रो सव मात्र मैं ।। ३८ ॥ अथ द्वादश मात्रा कवित्त एक मैं ।। - सवैया - ३१ - थन रूप देव तू हि, थाघ तेरी लहै तू हि, थिरता अपार नाथ, श्रीजै न पघर ही। थुति तेरी करै देव, थूणी लोक की सु सेव, थेई ऐई तत्त करि नाचें सुर नर हो। थै प्रकास है अनास, थोक को धनी सुपास, भोथी वात नाहि कोऊ, गुन थोक धर ही। थो तुही रहे तुही हि, है तुही हि थंभ लोक, थः प्रभास ज्ञान रास पाप नास कर ही।। ३९ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ दोहा थोथी जग की भूति इह, सो न विभूति कदापि । तेरी सत्ता शक्ति जो, सो दौलत्ति उदापि ॥ ४० ॥ इति थकार संपूर्णं । आगें दकार का व्याख्यान करें है । 4 श्रीक दयामयं सुदातारं, दिनाधीशेश्वरं विभु । दीनबंधुं जगद्वंधु, दुष्ट कर्म निवारकं ॥ १ ॥ अध्यात्म बारहखड़ी दूषकं पाप भावानां देह गेहादि वर्जितं । द्वैताद्वैत विनिर्मुक्त, दोष मोहादि दूरगं ॥ २ ॥ दौर्जन्य रहितं शुद्ध, बुद्धं दंड निवारकं । द: प्रकाशं चिदाकासं वंदे देवं सदोदयं ॥ ३ ॥ - 1 सोरठा दयौ न मोपैं कांम, दले न मैं कोयादि जे । तूहि उधारे राम, सम्यक भाव लखाय कै ॥ ४ ॥ — दर्भ समान कठोर, तीखे रागादिक महा । अति दलबल छल जोर, मोहि भर्माया जगत में ॥ ५ ॥ दल मेरे ज्ञानादि, दले डारि तनु जंत्र मैं । दुख दीयो प्रभु वादि, इनकों मैं न विगारियो ॥ ६ ॥ दझयो लोभ की लाय, शांत भाव पायो नहीं । धरी अनंती काय, राय अबै निज बोध दै ॥ ७ ॥ सिरै । द्रव्य प्रकाशक देव, सव द्रव्यनि मैं त्तू दै दयाल निज सेव, दया करो प्रभु दीन परि ॥ ८ ॥ द्रव्य स्व गुण परजाय, भेद अभेद विभासई । तू त्रिभुवन को राय, पाय परें तेरै मुनि ॥ ९ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १६७ द्रव्य क्षेत्र अर काल भाव, भावभवा सव भासई। तू अतिभाव क्रिपाल, लाल ललाम जु लोक कौ ॥१०॥ - छंद त्रिभंगी - दपधर जु मुनीशा, शमधर ईशा, यम नियमीसा, तोहि भजें। दरसन गुन धारा, ज्ञान प्रचारा, चरन अचारा, मोह तर्जें। तू है सुदयाकर, अति हि दयापर, शुद्ध सुधातर, लोकपती। दम इंद्रियरोधा, कहइ प्रबोधा, तू अमिरोधा, शुद्ध जती ।। ११ ।। है दत्त दयाभर, दक्ष क्रिपाकर, दृढकर दृढतर, ज्ञानमई। है दरसन जोग्या, अमर अरोग्या, हरइ अजोग्या, शुद्ध दई। तू ही जु दया निधि, धारइ अतिरिधि, करइ महासिद्धि, ज्ञानदसा। दशलक्षण धारा, मुनि मतवारा भजहि अपारा, चरनवसा।।१२।। - सोरठा - दवीयान अतिदूर, दृढीयान अति निकट तू। घट घट मैं भरपूर, दग्सन दरमिक दृश्य तृ॥ १३ ॥ दसा भली है नाथ, साथ तवै तेरौ गहै। तू पकरै जव हाथ, नव कैसी चिंता रहै ।।१४॥ दसा जाति मैं हीन, सोऊ तुव भजि उच्च है। जे तोसौं नहि लीन, ते कुलीन हूं नष्टकुल ॥१५॥ दक्षन उत्तर और, पूर्व पश्चिम चउ दिसा । चउ विदिसा को मौर, अध ऊरध को मूरधा ।। १६॥ दक्षिणा देय अनंत, ददा सवौं का एक तू। अतुल्ल दरव को कंत, दगादार पांवें नहीं ॥ १७ ॥ दगड़ा लूटें जेहि, दगा दगी हिरदै छ । परै नरक मैं तेहि, तोहि न पावें पाप धी॥१८॥ दत्तव तेरौ सौ न, तीन लोक मैं और के। सठपन मेरौ सौ न, तोहि ध्याय रोर न हरयो ।।१९।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अध्यात्म बारहखड़ी दब नहि काहू की हि, दब मेटै त्रिनामई। गम्य न साधू की हि, हम से कैसँ बरनवै ।।२०।। दथ्यौ करमते जीव, उरलौ तू हि कर प्रभू। तीन लोक को पीव, दरै न काहू तौं क्रवै॥२१॥ दडक दडका नाहि, तेरे दासनि कौं विभू । जीते नांही जाहि, अनुचर तेरे मोह पैं॥ २२ ॥ दल फल फूल जु कंद, तेरे दास न आदरें । तू त्रिभुवन कौ चंद, दयापाल परवीन तू ।। २३ ।। दहे करम भव रूप, गहे अनंता गुन प्रभू। दखे तोहि तैं भूप, दोष अनंता दुख मई ।। २४ ।। दही मही वसु जाम, आगे लेवी विधि नहीं। नही दास के काम, दही मही भेला द्विदल ॥ २५॥ - सार्दूल विक्रीडित छंद - दाता दांन जु धर्म भेद सवहीं, भासै तु ही भासको। दासा तोहि भ6 सुचित्त करि के, तू दायको वास को। दारिद्रा न रहैं कदापि निकटा, जाकै जु तोकौं भजे । देवा दानव मानवा मुनिगना, भव्या न तोकौं तजै ।। २६ ।। पीरै नांहि सुदानवा अनिवला, दांसानिकों क्यापिही। तैर द्वादसभाव को इक वही, नाही तु ही आप ही। दासी दास उदास होय तजि जे, तोकौं भर्जे नाथ जी । दांता शांत करे कृतांत न तऊँ, तेरौं प्रभू साश्च जी ।। २७ ।। दातारा नहि कोइ, दात्रि इक तु. देवै महा संपदा । दांना अन्न जु आदि पाप दलना, टारे सर्व आपदा। दाती पात्र सुदान भेद सुविधी, भामै तुही ओर को। दाता भुक्ति विमुक्ति देय इक त, हारी महारोर को॥२८॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १६९ - चौपई - दाग लग्यो मोकौं प्रभृ एह, मलिन महा धारी इह देह। दाह ऊपनौ अति परचंढ, त्रिश्ना को हवो न विहंड ।। २९ ॥ दाह निवार करइ प्रशांत, तू ही एक परम अतिकांत। द्वारौ तर सौ नहि और, द्वारै तैरै दीस दौर ॥ ३०॥ द्वारे तेरे संपति खरी, द्वारे तेरे नौ निधि परी। द्वारी सेवै सुरनरपती, फणपति खगपति अर जतिपती ।।३१।। दाव्यो करमनि दाड्यो अती, करौं पुकार सुनौं जगपती। दाझ्यो हौँ मायानल माहि, दावानल माया सम नांहि ॥ ३२ ।। दाता दै संतोष जु धनां, जा कर तोसौं लागै मनां । दांनी ज्ञांनी तू भगवंत, दारा पुत्र न तेरै संत ।। ३३ ॥ दाढ काल की तैं मुहि काढि, द्राक हमारी भ्रांति जु वादि। द्राक सीघ्र को कहिये नाम, द्राक उधार देहु निज धांम ।। ३४॥ दिगवासा जु दिगंबरदेव, द्विगाधीस द्रिगपाल अछेव । दिमादसौं को एक हि नाथ, दिन दिन अधिक तेज अति साथ ।। ३५ ।। दिन दूलह कमला पति जती, लोकपत्ती जीत्यो रतिपती। द्विजपति कहिये मुनिवरधीर मुनिवदि स्वामी वरवीर ॥३६॥ द्विज़ पंछी द्विज है मुनिशय, द्विज विप्रादि विकुन अधिकाय। द्विज तारक तृ द्विप हु सुधार, द्विविधा हरन भवोदधि पार।। ३७ ।। द्विरुक तन हि तु नवल सुजांन, छिन छिन तेरौं ध्यान प्रान । द्विणुकादिक मिलि लै जष्ट खंध, जड़ खंनि त तृ हि अबंध ॥ ३८ ॥ दिव्य रूप दिव्य ध्वनि खिर, तेरे मुखत अमृत झरें। तोहि दिनेस महेस सुरेस, सेम्स मुनेस जहि अमेस ॥ ३९ ।। द्विपपति कौ पति तेरौ दास, द्विप हस्ती को नाम प्रकास। द्विरद कह द्विपहू बुद्ध कहैं, तेरी चाल न हस्ती लहैं।। ४०॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अध्यात्म बारहखड़ी कहै चंद की वुध द्विजगज, तू द्विजराजनि को पतिराज । रुलत रुलत हूं दिक अतिभयो, महाभाग तँ तोकौं नयो । ४१ ।। अव सव दिकता मेटि दयाल, देहु आपुनौं दरसन लाल । तु द्रिष्टा द्रिष्टांत सवै हि, तोहि फवे सब पाप दवै हि॥ ४२ ।। दीरघ दरसी दीरघ दमी, दीपतिवंत तु ही अतिक्षमी । दीप्ततपा ध्यां मुनिराय, दीरघ सोच न तेरै राय ।। ४३ ।। ___ - मालिनी छंद - दीना नाथा, दीन वंशुल टु ही दमा दी, दीयतू प्रभू ही। दीपा संख्या, वीत हैं नाथ तैर, दीना तोकौं, पाय दैवत्त्व प्रेरै ।। ४४ ॥ दीनारादी, त्यागि से मुनीसा, तृ निग्रंथी, देव हैं लोकसीसा । दीनें तैं ही, ज्ञान आदी अनंता, भीने तोमैं, त्यागि भूती जु संता।। ४५।। दीजे दांना, लीजिये रांम नामा, तू ही रामो, सर्व व्यापी सुधामा। दीसे तू ही, योग निद्रा मझारे, घ्यांवँ तोकौं, माधवा जोगधारे।। ४६ ।। दुष्टा कर्मा, दुख्य दाई सवों का, टारै तू ही, नाथ है तू मुन्यों का। तोकौं ध्यायें, दुर्गति नाहि पावै, तोकौं गायें, दुर्मति नाहि भावै ।। ४७ ।। दुख्या मुख्या, नांहि तैर जु कोई, आनंदी तू, ज्ञान रूपी जु होई। सौजन्यो तृ, दुर्जना नाहि पावै, योगारूढा, तोहि योगी हि ध्यांव।। ४८ ।। - दोहा - द्रुघण वन को नाम है, वजी तेरे दास। दुराधर्ष अति कठिन तू, दुष्ट न पावें पास ॥ ४९ ।। द्युति धारी दुति रूप तू, द्युतिकर दुर्ग अछेव । दुरति हरन दुरगति हरन, दै दयाल निज सेव॥ ५० ॥ दस्यो नहीं दुरि है नहीं, दुरै न कवहू देव। बुद्धि दुष्टता की हरे, सिष्ट प्रतिष्टित एव ॥५१॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी द्युम्निनांम है सुर्ण कौं, तू सुवर्ण अति शुद्ध । कनक कामिनी त्यागि कैं, सेव करें प्रतिबुद्ध ॥ ५२ ॥ दुग्ध कहा उज्जल प्रभु, तू उज्जल जगदीस । नीरस भोजन लेय कैं, भजें तोहि जोगीस ॥ ५३ ॥ दुराराध्य नहि तू प्रभू, दृढ़ करम तैं दंडिया, आराधें मुनिराय । तोसों दूठ न राय ॥ ५४ ॥ दूरि नही अति दूर तू, अदभुत गति अवनीस । दून दूनौं तेज अति, तेज पूंज जगदीस ॥ ५५ ॥ वेस्या अर आखेट । ए तेरै मत मेट ॥ ५६ ॥ द्यूत मांस मदिरा प्रभू, चोरी नारी पार की दूषक पापनि कौ तु ही, पापी लहैं न भेद । दूजि नही दासांनि सौं, एकी भाव अभेद ॥ ५७ ॥ दूहाँ भवि तैं तू देवा सब नांहि । मांहि ॥ ५८ ॥ प्रतिमा दूजौं जग परपंच तैं, दूज देव न तो विनां देवल तेरी ही सही, जे देवल ढोकें नहीं, जिनके देस कोस धन धाम सहु, त्यागि भजें भवि तोहि । तू देसाधिपती प्रभू, देस असंखित होहि ॥ ६० ॥ तेरी तोतें पूजि । दूजि ॥ ५१ ॥ देनहार तोसौं नहीं देहु देहु निजवास । P देव देव नरदेव तु देह न गेह न वास ॥ ६१ ॥ देह देहुरी देव हैं, चेतन अतुल प्रभाव। ताहि लखे तुव भक्ति तैं जानी जान स्वभाव ॥ ६२ ॥ नाथ तिहारी देखना, जे धारें उर देस ज्ञानमय ते लहँ, यांमैं संसै देहो दरसन करि कृपा, और न चाहें तात । देखें तेरौ रूप अति, या सम और न जात ॥ ६४ ॥ मांहि । नांहि ॥ ६३ ॥ १७१ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सवैया देस त्यागि कोस त्यागि, रोस त्यागि दोस त्यागि, तोहि मैं रहौं जु लागि, तेरौई जु होय जी । छांडौं माया मोह सब खंडों को सव शुद्ध रूप देखूं तेरी ध्यांन मांहि जोय जी । देह तैं जु नेह छांडि, कुटम सनेह छांडि, तोही तैं सनेह करि छांडों दोष दोय जी । शुभ अशुभ नाथ त्यागि तेरी गर्छौ साथ, - ३१ अध्यात्म बारहखड़ी — तोही को आराध देव तू है एक कोय जी ।। ६५ ।। सोरठा द्वैताद्वैत न कोय, तू अवाच्य द्वै रूप है। दैव अतुल गति होय, दैत्य देव सव ही भजें ॥ ६६ ॥ नहीं दैन्यता नाथ, पीरें जार्कों कवह जाको पकरै हाथ, तू वडहाथ अनाथ द्वै नहि तोमैं दोष, द्वै अधिका दस तप कहै । देहि मुल्यों को मोख, कहै परीसह बीस द्वै ॥ ६८ ॥ 7 भी । जी ॥ ६७ ॥ द्वै अधिका प्रभु तीस लक्षण धर वड भाग नर । तोहि भजैं जगदीस तू ईसुर श्रीसुर प्रभू ।। ६९ ।। द्वै अधिका चालीस नांम कर्म की प्रकति हैं। तो मैं एक न इस P प्रकति परें परवीन तू ॥ ७० ॥ द्वै अधिका पच्चास देवल तेरे नाथजी । नंदीसुर जु विभास, दीप आठमों धारई ॥ ७१ ॥ द्वै अधिक प्रभु साठि मारगणा भासें तु ही । तू है आगम पाठि, अपठ पाठ अवनीस तू ॥ ७२ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १७३ - दोहा द्वै अधिका सत्तरि प्रभू, कला जगत की होय। तेरे पावे को जतन, ज्ञान कला है सोय ॥७३॥ दोष हरन दुख हरन तू, दोषा हर जगदीस। दोषा नाम जु रात्रि को, भ्रांतिमई निसि ईस॥७४ ।। दोषाकर है चंद को, नाम संसकृत माहि। चंद सूर अर सूरि सहु, तोहि भजें सक नाहि ।। ७५ ।। द्योति अनंत धरै तु ही, अति सोभा को पुंज । द्योढि करै तोसौं कवन, तू है आनंद कुंज॥७६ ॥ धोढ दिवस की साहिवी, जगवासिनि की नाथ। तेरी अचल जु साहिवी, तू समरध वड हाथ॥७७ ।। कियो दोहरौ अति प्रभु, कर्म मिले अति जोर। दिये जु दोटा भव विषै, तू दुख हरि हर रोर॥ ७८ ॥ दोव समान गन्यो मुझे, खोद्यो खुरपा होय। कमनि अव किरपा करौ, हरै कष्ट प्रभु सोय ॥ ७९ ।। दौर्जन्यादिक अवगुणा, धारै पापी मोह । तुम सजन असी करौ, करै नही इह द्रोह ।। ८० ॥ दौर्गत्यादिक टारि त, निहचल गति दै नाथ। दौर अनंत धरै तु ही, दौलति तेरै साथ॥८१ ।। दंभ रहित अति सरल तू, दंभी लहै न तोहि । द्वंद रहित निरद्वंद तृ, निरवांनी गुर होहि ॥८॥ दंदभि बाजा रावर, वाजें दीनदयाल मोह डरै पातिग दरै, हरषै भव्य रसाल ।। ८३ ।। दंपति नाम जु दोय की, तू एको द्वय रूप । दंगलवासी मुनिवरा, ध्यांचैं तोहि अनूप ।। ८४॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अध्यात्म बारहखड़ी दंग नगर कौ नाम है, तु नागर रसरूप। नगर तिहारौ सर्व कै, माथै है जगभूप ।। ८५ ।। दंती हस्ती कौं कहैं, हस्तीपति को नाथ। तोहि भजै जगनाथ जी, तू अनंत अति साथ ।। ८६ ।। दं कहिये जु कलत्र कौं, तेरै नारी नांहि। तू निज परणति सौं रमैं, रमा तिहारै मांहि ॥८७॥ दं कहिये प्रभु छेद कौं, छेदन भेदन नाहि। तरै भाव दयाल है, हिंसा. नाम न पाहि।। ८८ ।। दं कहिये फुनि दान कौं, तू दांनी जगदीस। भुक्ति मुक्ति की मान जो, भक्ति देहु अवनीस ।। ८९ ॥ दद्दा पासि दु शून्य है, अंतिम मात्रा जोय। तू सव मात्रा मांहि है, चिनमात्रो प्रभु सोय ॥९० ॥ अथ वारा मात्रा एक कवित्त मैं । _ - सवैया . ३१ दया को निधान है सुदानपति दाता एक, दिन दिन तेरौ जस देखिये नवो नवो। दीनानाथ दीनबंधु दुष्टनित दूर देव, देस ब्रत महाब्रत भासै त हरै भवो। दैव एक तू ही सव दोष को हरन हार, दौर अति तेरौ, दौरजन्य विनु तु शिवो। दंभः रहित और रहित मोह तें विशुद्ध, दः प्रकास है अनास देहु आपनी लवो॥९१॥ - दोहा - दया रूप गुन शक्ति जो. भवा भवांनी भूति । सो संपति लछमी रमा, है दौलत्ति विभूति ॥ ९२ ।। इति दकार संपूर्णं । आगैं धकार का व्याख्यान कर है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १७५ - थोक - धर्माधीशं धराधीश, धातारं धिषणाधिपं । शुद्धं बुद्धं सदा शांत, धीरं वीरे धुरंधरे ॥ १॥ विधुतारि ध्वजाधीश, धूम्रमार्गादि दूरगं। ध्येयं मुनिगणैधीर, धैवंतादि प्रकासकं ।। २ ।। सर्वाक्षरमयं देवं, धोमात्राविभासकं । धौतरार्ग विनिर्मोहं, ध्वंसकं पुण्य पापयो॥ ३ ।। धः प्रकाशं चिदाकाशं, शुद्धाकाशं प्रभाधरं । ...बंदे नाणं माथी. कर्म मर्म निवर्हणं ।। ४ ।। -- मालिनी छंद - धरम करम भासै धर्म को मूल तू ही, धरम अतुल्ल तोमैं, आत्म भावा समूही। धरम करण रूपा, धर्म है जीव रक्षा, असति बचन त्यागा, नाथ तेरी जु पक्षा ।। ५ ।। धन प्रभु पर को जी, चोरियां नर्कि जांदै, अर परवनिताजी सेययां कष्ट पार्दै । भल नहि धन लोभा, तू हि संतोष गावे, ज्ञान विनु नहि धर्मा, धर्म दासा जु भावै।।६।। धनपति पति तोकौं, कंठ शुद्धो जु गावै, धनपति नहि तो सौ, तू धनी धर्म भावें। धन निज अनुभूती, और नाही विभूति, अविचल धन तोपैं, नांहि धारै प्रसूती॥७॥ धरणिधर अनादी, तें धरे शुद्ध भावा, धनि धनि प्रभु तू ही, है धरानाथ रावा। अति गति धनपाला, तू हि है धर्म चक्री, धनद विसद तू ही, तोहि से जु चक्री ॥८॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अध्यात्म बारहखड़ी - दोहा . धर्मनाथ धन त्याग को, धनदाता धरमज्ञ। अति धनाढ्य तू धवल है, धरमाधिक्ष सुविज्ञ ।।९।। धनुष ज्ञानमय राव, बत्तबांन अघहार । धनुरद्धर वरवीर तू, कर्म हरन अविकार ॥१०॥ धक धल आनि स्वरूपातु, करमिंधन क्षयकार। तू हि धनुजय नाथ है, पवन जीत बलधार।।११।। – चौपड़ी - धन्वंतरि है वैद्य जु नाम, कर्म रोग हर तू अभिरांम। अति रोगी हौं दुरवल महा, धज नाहि जु विभावनि गहा॥१२॥ धस्यों मोह घट घर मैं चोर, धप्यो न पापी करत जु भोर। लीनौं सरवसु पिंड न त®, या पकस्यो जिय तोहि न भजे ॥१३॥ धजा धार तू त्रिभुवन राव, तेरे द्वार निपख्यो न्याव । मोह हरौ द्यावो गुन माल, मोह जीत तुम लोक विसाल ।।१४।। धडक काल की कछु हु न है, जब जिय चरन सरन तुव गहै। धाता ध्याता ध्यांनी तू हि, ध्यान गम्य है तू हि प्रभृहि ॥१५॥ धारण रूप धेय तू देव, ध्यानै सुरनर मुनि अतिभेव। धातु न गात न कर्म न कोय, तू चैतन्य धातु हैं सोय ॥१६॥ धाम न गांम न ठांम ना जोय, धारावाही सर्वग होय। धा कहिये लक्षमी को नाम, श्रीधर श्रीवर तू अभिराम ॥१७॥ धारक गुन पुंजनि को तू हि, षटकारक मय अमित समूहि। धारासम इह भवजल धार, याते वेगि उतारों पार ।। १८ ॥ धावत धावत भव वन माहि, खेद खिन्न हूवो सक नाहिं। निज पुर को दरसावो पंथ, धारहु वात देव निरग्रंथ ॥१९॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी तो विनु धांवें अति गति माहि. तोहि ध्याय तेरे पर जादि। . धिषणाधर तू अति बुधिवांन, धिषणा कहिये बुद्धि प्रवांन॥२०॥ सब भासै धिषणा दे सही, धिष्ट कर्म टारै प्रभु तु ही। तोहि विसारि करें जड़ साथ, धिग धिग तिनको जीतव नाथ ।। २१ ।। धीर तोहि ध्यांवें वरवीर, तो सौ धीर न हरइ जु पीर। धरि पपीलिका मारग जीव, धीरां धीरां पांवें पीव॥२२॥ मुनिवर पंथ विहंगम धारि, तुरत हि पांव तत्त्व निहारि। धीत अधीत तुही जगजीत, धीजै तोहि जु शुद्ध अतीत ।। २३॥ धीमा धीमां गमन करत, भूमि निरखि जे पाय धरत। ते मुनि सीघ्र सिद्ध पुर गहै, तेरे मत करि तो मैं हैं ।। २४॥ धीठ करम दंडे ते देव, धीधन धीर धरै तुष सेव। धीज पतीज मोह की करें, ते सठ परकति कै वसि परै।। २५ ।। धी कहिये जु वुद्धि को नाम, बुद्धि हु तोहि न पावै राम । वुद्धि परै तू ज्ञप्ति स्वरूप, है चिद्रूप सदा सद्रुप ॥२६ ।। जे हि धीर धी धारै सेव, पांवें चेतन रूप अभेव। धीरजवंत तु ही भगवंत, धीरज धारि भमैं प्रभु संत ॥२७॥ धीस अधीस जु धीसुर तू हि, धुर धर्मनि की एक प्रभू हि। तू हि धुरंधर है धुजवंध, धुतकर्मा तू धरइ न बंध ॥ २८ ॥ धूव तू ही अध्रुव संसार, तो विनु कौंन उतारै पार। धुत्र उत्तपाद व्ययात्रय भेद, त्रिक रूपो तू एक अभेद ।। २९ ।। धू कहिये श्रुति माहि विख्यात, अंग कंघ को नाम जु तात। तू अकंप प्रभु हे जु अपंक, धूर्जे तोतें कर्म जु वंक ३० ।। फुनि धृ भाख्यौ धौत जु नाम, उज्जल तृ हि सुनिश्चल रांम। धू कहिये जु चित्त को नाम, रिधू तू हि मन तै पर राम॥३१॥ धू एकाक्षर माला विघै, नांव भार की परगट लिखै। तू हलको नहि भारौ नाथ, अगुरलधू अति गुणगण साथ ।। ३२ ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अध्यात्म बारहखड़ी धूरि समांन जगत की भूति, चिद्रूपा तेरी हि विभूति। धृरि धूसरे मुनिवर धीर, ध्यावें तोहि हरै भव पीर ।। ३३ ।। धूत न पावें भूत जु नाथ, महाभूत ध्यावें गुन साथ। तेरी भक्ति गहै, तजि भर्म, सिर धूर्णं तव सर्व जु कर्म ॥३४॥ धूप न छांह न सीत न थांम, घरखा नहि तेरै पुरि राम। अमृत वरसै मृत्यु जु हरै, तू ही मेघ महा सुख करै॥ ३५ ॥ धूमकेतु सम कर्म प्रजार, धूम न तोमैं तू अतिसार। ध्येय रूप तू धेठि वितीत, धेटि हरै धेठिनि की जीत ॥३६॥ धेनु काम अर कलप जु वृक्ष, चिंतामणि तुव नाम प्रतक्ष। धेनुपुत्र सम मूरिख लोक, तोहि न ध्यावे तू गुन धोक॥३७॥ धैवंतादिक सप्त जु सुरा, तू हि विकासै नायक धुरा। धोटा काहू को तू नहीं, धोक धोक तोकौं प्रभु सही ।। ३८॥ धोरी तू इक और न कोय, धोरी लावै मुनिवर होय। धोवें तुव भजि पाप जु मैल, तेरे दास लगे तुव गैल ॥ ३९ ॥ धोखा नहि यामैं कछु देव, हरै भ्रमण तेरी निज सेव। धोती नेती आदि जु क्रिया, तू अक्रिय तैरै नहि त्रिया ॥४०॥ धौत वस्त्र धोती जे धारि, पूर्जे तोहि ग्रहस्थ अचारि। ते पांवें अनुभव को पंथ, तू अनुभव दायक निरग्रंथ ।। ४१॥ धौ कहिये बंधन को नाम, तेरै बंध न तू गुन धांम। धौत मला मुनि ध्यावे तोहि, करुणा करि तारों प्रभु मोहि।। ४२ ।। धौल लगाय मोह नैं जोर, खोसि लिये गुन इह अति चोर। मेरे गुन द्यावो जगदीस, मोह निवारौ लोक अधीस।। ४३ ।। ध्वांन हरौ अज्ञान जु हरौ, ध्वंस सकल पापनि को करौं। जीव ध्वंसकर पापी जीव, तोहि भ0 नहि दुष्ट अतीव ।। ४४ ॥ धंधा त्यागि भजै मनिराय, धंधा मैं हिंसा अधिकाय। धः कहिये बंधन को नाम, तोमैं बंध नहीं विश्राम ॥४५॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १७९ धः कहिये धन धांन जु नाम, तू सव दाबक गुण गण धाम। धांन यांन मिष्टांन जु आदि, हिंसा कारन वनिज अनादि ।।४६॥ दास तर्जें करुणा उर भनें, करुणा विनु सठ पाप न तजैं। पाप तर्ज विनु भक्ति न होइ, भक्ति विना प्रभु मिलै न सोय॥ ४७ ।। अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । - सईया .. ३१ - धरम को नायक है दायक है ध्यान को जु, धाता धिषणाधिप तू, धीर वीर धुर को। धूत नाहि पांव जांहि ध्येय रूप है महा हि, धेठि हरै धेठिनि की, गुरु हैं सुगुर को। से₹ जू सवै जु सुर धैवंत प्रमुख सुर, करि के अलाप चार, गावै पत्ति सुर को। धोरी तू हि धौत मल धंध भाव नांहि छल, धः प्रकास है अनास, नासक भौज्वर को ।। ४८ ।। - दोहा .. धर्म स्वभाव जु वस्तु को, धर्मी तू निजरूप। तेरी जो धरमज्ञता, चेतन भाव स्वरूप ।। ४९ ।। सो लछिमी गौरी रमा, धा राधा निज भूति। स्यामा गोपी संकरी, सो दौलनि विभूति ।। ५० ॥ इति धकार संपूर्ण। आगै नकार का व्याख्यान कर है। - कि - नत्वा नाभिभवं धीर, ऋषभं ऋषि पूजितं । नित्यं निरंजनं शांत, नीति मार्ग प्रकाशकं ॥१॥ नुतं शक्रादिभिर्देवै, नूनं निर्वाण नायकं । नेतारं मोक्षमार्गस्य, नैक रूपं महामुनिं ॥२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अध्यात्म बारहखड़ी नोकर्म रहितं शुद्धं, नौका तुल्यं भवांवुधौं । नंदितं नः प्रियं देवं, वर्दे देविंद्र वंदितं ॥३॥ - दोहा - नमो नमो वा देव कौं, चिदधन आनंद रूप। पाए पनि परमानपा, र जग भूप ॥ ४॥ नकारांक है ज्ञान को, नाम जु ग्रंथनि माहि। ज्ञान रूप ज्ञानी तुही, तो सम और जु नांहि ॥५॥ कहैं नकार निषेद कौं, पाप निषेदै तू हिं। विधि निषेद दोऊ कथन, भासै जगत प्रभू हि॥६॥ नय उपनय भास तु ही, अनय निवारक देव । नवधा मा प्रकाषिक, कही म क सेट ।। ६०.!!.... नव तत्त्वनि को कथक तू, नव दस जीव समास। भासै तू हि जु वीस नव, रतन त्रय प्ररकास॥८॥ नव अधिका प्रभु तीस हैं, ऊरध लोक निवास। दास न चाहैं नाथजी, चाहैं तेरौ पास॥९॥ नव अधिका प्रभु चालीस, नरक घाथद्धा होय। परै नरक मैं दुष्ट धी, भगति न धारै सोय॥१०॥ नव अधिका पच्चास नर, पदवी वेसठि होय । हुंडा तँ चउ नर घटे, पद घटियो नहि कोय ॥११॥ नव अधिका सठि सौ परें, बड़े पुरुष परवीन । त्रेसाठ इनमैं आयया, जिन मारग लवलीन॥१२ ।। नव अधिका सत्तरि प्रभू, ताके दूने नाथ। है इक सौ अट्ठावना, प्रकृति न तैरै साथ। १३ ।। नव अधिका अस्सी प्रभू, कह निवासी लोक। तु हि निवासी मोक्ष कौ, तो मैं सर्व जु थोक ।।१४।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी नवति नाम नित्रै सही, निवें सागर कोडि । बीते सुमति पछै सही, प्रगटे पदम बहोरि ।। १५ ।। नव नवती सौ लाख प्रभु, कोटि कुलां कौ पाल । जीव दयामय देव तू, हिंसादिक अघटाल ।। १६ ।। नव से विंजन नाथजी, लक्षण सौ परि आठ । तीर्थंकर धारें सदा, जारै करम जु काट ।। १७ ।। नमोकार जपि तोहि जी जेध्यांवें मन लाय । ते नर तेरौ पंथ गहि, आंवें तुव पुरि राय ॥ १८ ॥ १८१ चौपड़ी नवल रूप तू अतुलित वृद्ध, नगन दिगंबर धर्म प्रवृद्ध । नग तो सम नहि जग मैं और, नग दायक त्रिभुवन को मौर ॥ १९ ॥ — नग परवत तू निश्चल देव, नग तरबर तू सुरतरू एव फल छाया मंडित जगदीस, नग रतन जु तू रतन अधीस ॥ २० ॥ नट सम जीव नच्यो वहु रूप, तेरी भगति विना जग भूप । वयो नदी आसा मैं नाथ, भव नद में डूव्यो जु अनाथ ॥ २१ ॥ नभ सम शून्य ह्रिदै म जीव, तोहि न ध्यावै तू जग पीव । नभ प्रमांण तू अति विसतार, चेतनता कौ पुंज अपार ॥ २२ ॥ नत कहिये जो नम्रीभूत तोहि नवै मुनिवर अवधूत | तू न नवीन पुरातन नाथ, नमसकार तोकौ जगनाथ ॥ २३ ॥ नय नय अपुनें पुर मैं विभू, नहि नहि मेरे और जु प्रभू । नलिन समान अलिप्त जु तूहि, नरकांतक है तुहि प्रभूहि ॥ २४ ॥ नगर अनश्वर दायक देव, नश्वर तू नहि दें निज सेव । नर नायक नागर तू नाथ, नास हरन अति गुन गन साथ ॥ २५ ॥ नागपती गांवें गुन ग्राम, नाकपती नांवें सिर रांम । नाना दुखहर आनंदरास, नाटक भासक शुद्ध विलास ॥ २६ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अध्यात्म बारहखड़ी नारायण, नारद को नाथ, नाव तु ही तारे भव पाथ। नांव तिहारे जे नर जपें, तिनके पाप करम सहु खपैं ॥ २७ ॥ नाग काल दासैं नहि इसे कर्म नाग दारौं लखि नसें । नाग करम कौं नाहर तुही, नाग काल कौं गरड जु सही ॥ २८ ॥ न्यायशास्त्र कृत स्वामी तू हि धर्मशास्त्र भासै जु समूहि । नाक लोक दायक तू ईस, शिवदायक तू है जगदीस ॥ २९ ॥ नागकुमारादिक सव देव, तेरी सर्व हि धारें सेव । नाना रूप एक भगवान, नाटक चेटक एक न आंन ॥ ३० ॥ नाटसाल जाकै नहि कोय, जाके सिर परि तू प्रभु हो । न्याति पांति नाता तजि मुनी, तांता जोरें तोसौं गुनी ॥ ३१ ॥ नाद वेद को भासक तु ही, नाद विंद को भेद जु कही । नासाग्र जु धरि दृष्टि मुनीस, तोहि भजैं तू है अवनीस ॥ ३२ ॥ नास्तिक जाहि न पां मूढ, तू है अस्ति नास्ति अति गुढ । नाल लगे तेरै जो कोय, ताहि उधारै तू प्रभु सोय ॥ ३३ ॥ नाहर हू तोकौं भजि देव, भये दयाल ज्ञान रस बेव । निरमांनी निरवांनी नाथ, निरद्वंदी निरमोही साथ ॥ ३४ ॥ निराबाध निकलंक दयाल, निहकल निरमल अति गुन पाल । निरुकति निरुपम निर्गुण तुही, गुणी गुणातम गुणयति सही ॥ ३५ ॥ निरुपद्रव तू है निरमुक्त, नित्य निरंतर देव विरक्त । नित्यानित्य कहै सव तूहि, द्वयवादी है तूहि प्रभुहि ॥ ३६ ॥ निर्निमेष निरनिमित अपार, निद्रारहित निजाश्रित तार। तत्व निलीन निखिल दुखहार, करइ जु निरनय तत्व विचार ॥ ३७ ॥ निमित्त उपादाना सव कहें, तोकौं ध्याय निराकुल रहे। निराहार निःक्रिय निरग्रंथ, निराभर्ण देवै निज पंथ ॥ ३८ ॥ हाँ निकृष्ट दुष्ट जु पापिष्ट, तोहि विसारि गहे जु अनिष्ट । तू ही तारें दे निज बोध, तो खिनु कौंन करें प्रतिवोध ॥ ३९ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १८३ निरलोभी निरवंधी गुरू, निर कंटिक निरआयुध धरू। निरमद निरुतर निरधन धनी, निरजरपति पूजें तजि मनी ।। ४० ॥ निराधार निःकिंचन देव, निरधारा आधार अछेव। निरागार निजरूप अभेव, निराकार निरलेप सुदेव॥४१॥ तू निष्टप्त कनक सम काय, तू निरविघन निरामय राय। निगम प्रकासक निगम स्वरूप, निरदोषी अति धर्म निरूप ॥४२ ।। निश्शेषामल शील निधांन, निधि अनंत धार भगवान। निरविकार निरवैर निराग, निसप्रेही निश्चय वडभाग ।। ४३ ।। निरविकलप मिरहिंसक निस्व, निस्तुष निरभ्य नायक विश्व। निरारंभ निहसल्य निकंप, तू हि निरंजन भजहि निलिंप॥ ४४ ।। कहैं निलिंप देव को नाम, तू देवनि को देव सुरांम। निसि दिनि ध्यां सोहि मुनिंद, निरखें बदन तिहारौ इंद॥ ४५ ॥ निश्चय अर व्यवहार प्रकास, निरनायक निरमायक भास । निरमायल निंर्दै श्रुति माहि, निवल तणौँ भीड़ी सक नांहि ॥४६ ।। निखिल उपाधि रहित निज रूप, निहपरमाद निरासय भूप । शुद्ध वुद्ध चिद्रूप अरूप, ननिभ निरमल सर्वग भूप॥४७॥ निभ कहिये जु तुल्य को नाम, तेरी तुल्य न कोई रांम। माया निसिहर तू दिनकरो, जमैं निसाकर तू तमहरो ।। ४८ ॥ काल निसाचर पीरै नाहि, तुव दासनि तैं सब दुख जाहि। नर्क निगोद कष्ट नहि लहँ, तेरे दास सुवासहि गहैं ॥४९ ।। नित्य निवास तु ही अनिवास, श्रीनिवास स्वामी अतिभास । तेरी प्रतिनिधि दूजो नहीं, निधि निधान अनिधन तू सही॥५०॥ – मंदाक्रांता छंद - नीरा दूरा, अतिगति तू ही, तोहि मूढा न लेबैं, पावां तेरे, भंवर जु मुनी, नीरजां मांनि से। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अध्यात्म बारहखड़ी नीरा नाही, तुव सम प्रभू, दाह मेटै जु तु ही, नीचा तेरी, भगति न लहैं, साधु सेर्वै समूही॥५१॥ ....नोको तू ही, निज गुण मई, नीतवानी प्रभू ही, नीरागो तू, जगपति जती, नीठि पैए जु त हो। नीली भाजी, वरजित कहै, नीलि निंदै जु तू ही, नीसाना जे, अति गुन मई, तू हि धार समूही॥५२॥ . नीवा वोयें, कर नहि चढे, नाथ आम्रा फलाजी, नींचा देवा, भजिहि न मिटें, काम क्रोध छलाजी। जैसी जाने, भवि जन भनँ, तोहि कौ कै अनन्या, नीरा देखें, निजमहि सदा, तोहि कौं ते हि धन्या।।५३ ।। - दोहा -... नीलांबर कहिये हली, हलधर पूजै तोहि। नीड नाम घर को सही, तेरै घर नहि होहि ।। ५४ ।। ईहां कोय प्रश्न 'जु करै, हलधर अंबर नील। क्यौं धार ते अति चतुर, इहै रंग अवहील ॥५५॥ ताको उत्तर है इहै, नीलि रंगे नहि होय। रतन मई पांवन महा, धारै हलधर सोय ।। ५६ ।। नींद भूख तेरै नहीं, दूषन भूषन नांहि। नीलांबर तारक तु ही, गुन अनंत तो पांहि।।५७ ।। उच्च जाति हू तोहि तजि, नीच हाँहि दुख रूप। नीच जाति हु तोहि भजि, उच्च होहिं सुख रूप॥५८ ।। नुति नति इंद्रादि करै, श्रुतिजु करें मुनिराय । नुद नुद उर अंतर तिमर, ज्योति रूप अधिकाय॥५९ ।। नुद कहिये दूरि जु करौ, भ्रांति हमारी देव। अनुपम निरुपम भक्ति दै, करें निरंतर सेव।।६०॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १८५ मुनि सुरपति अहिपति भज्यां तू ऊंचौ नहि नाथ। ते ऊंचा हैं तो जप्यां, तू अनंत गुन साथ ।।६१।। नूतन नाहि पुरांन त, नून भाव तोमैंन। नूनं निश्चय रूप तू, द्वय वादी दोमैंन।। ६२ ॥ विपत्ति परवृतिः विधि है. राग. दोष द्ररा नाहि। हरे नूनता जीव की, गुन अनंत तो मांहि ।। ६३ ।। नूपर सम वाचालता, जौ लगि तो न लहंत। तोहि लहयां अनुभव दसा, मौन रूप एकंत ।। ६४॥ - गाथा छंद - नेता नाम नियंता, कह नियंता जु प्रेरको जो है। तू प्रेरक भगवंता, प्रेरै निजभाव निजं माहे ॥६५॥ नेदीयांन जु नीर, तू नीर दूरि नांहिं कवह भी। तू काह हि न पीर, दृरा तृ जीव प्रातिनि सौं।। ६६ ।। नेज तिहारी बांनी, कादै संसार कूथी। जीवा नेम धारि जे प्रांनी, तोहि ज तेहि जम जीते॥६७॥ नेमि नाम है धुर को, धुर धर्मनि की तु ही हि जग धोरी। तू ही गुरू सुरनर कौ, नेमि प्रभू नेम को मूला।। ६८ ॥ नेत्र त्रिलोकी को तू, नैको एको तु ही अनेकांतो। नाथ अल्लोकी को तृ, नैन गिर्ने तोहि मुनिराया।६९॥ नैंन तिहारै ज्ञाना, निरखै लोका अलोक निश्शेषा। नैक स्वभाव प्रधाना, नानाभावा लखै तू ही॥ ७० ॥ नोइंद्री नोचित्ता, नोकर्मा नांहि भाव करमा हु। नोधामा नोबित्ता, अति विना तु हि अति धामा ।। ७१।। नौ कहिये पुरण कौं, पुरण तू ही तू ही प्रभु नौका। भव सागर तारण कौं, तो विनु कोई नही दूजा।।७२|| Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ नौपाधिक हैं तेरा रूप महा ज्ञान पिंड है तू ही । मलमय पुदगल मेरा, कैसे तोक छुवै स्वांमी ॥ ७३ ॥ नंदन तू नहि काको, नंदन वन को धनी तु ही स्वामी । नंदन नांम जु ताक, जाहि लख्खें होय आनंदा ॥ ७४ ॥ नंदी विरधों स्वामी, निंदा श्रुति दोय तुल्य दास गिर्ने । परनिंदा नहि कांमी, जपहि विरामी प्रभू तोकौं ।। ७५ ।। छप्पय 5: नः असमाकं देव देहू तू निज पदभक्ती, नः असमाकं नाथ, नांहि चहिये भव भुक्ति । असमाकं को अर्थ, हम हि तू तारि जिनेसा, भ्रमण मेटि जगदीस, तिमर हर तू हि दिनेसा । भय भव जु भ्रांति हरि जोगिया, हरि जू अंधता नादि की, दै दिव्य चक्षु जोगीसुर, पर परणति हरि वादि की ॥ ७६ ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । — सवैया ३१ नमो नमो देव तोहि नाथ सेव देहु मोहि, निपट निरंजन तू, नीरजो, अनंतरा नुति नुति करें साध नूनता हरे अगाध, नेह त्यागि देह तैं, रटैं मुनि निरंतरा । नैक रूप एक रूप, नोविभावभाव तोमैं, नौपाधिक नौका प्रभु और नां पदंतरा । भव जल तारक तू, नंदन तिहारे सब नः प्ररूप एक रूप बाहिज अभंतरा ॥ ७७ ॥ दोहा तेरी नित्य विभूति जो, मा पदमा अनुभूति । सत्ता शक्ति शिवारमा, दौलति संपति भूति ॥ ७८ ॥ इति नकार संपूर्ण । अध्यात्म बारहखड़ी — — — Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी इति श्री भक्त्याक्षर मालिका वावनी स्तवन अध्यात्म बारखडी नाम ध्येय उपासना तंत्रे सहस्त्रनाम एकाक्षरी नांममालाद्यनेक ग्रंथानुसारेण भगवद्धजानंदाधिकारे आनंदोद्भव दौलतिरामेन अलप बुद्धिना उपायनी कृते टकरादि नकारांत प्ररूपको नांम त्रितीयः परिच्छेद ।। ३ ।। आरौं प्रकार का व्याख्यान करें है। — भोक संयुक्त, परमानंद प्रियं पिनाकि संसेव्यं — महेश्वरं । पापापेतं प्रीत्यप्रीति विवर्जितं ॥ १ ॥ पूतदेहं प्रभास्वरं । पुण्यं पुण्यगुणोपेतं प्रेक्षणं सर्व लोकस्य पैशून्यादि निषेधकं ॥ २ ॥ पोत तुल्यं भवांभोधी, परषान्वितमीश्वरं । पंडितं पंडितैर्वद्यं, पः प्रकासं नमाम्यहं ॥ ३ ॥ - der पकारांक आगम बिषै पवन तनौं है नांम। पवनजीति मनजीति मुनि तोहिं भजें गुन धांम ॥ ४ ॥ — पवनागम मैं भेद सहु, मंडल मुद्रा मंत्र | सुर नाडी तत्वादि के बीज सहित शिव तंत्र ॥ ५ ॥ 3 रेचक पूरक कुंभका, त्रिविध जु भेद विचार | प्राणायाम करें बुद्धा, मन जीतन कौं सार ॥ ६ ॥ नव द्वारि को रोक सुर, काढहि दसम दुवार । मन वांधें सुर रोकिकै, योगी योग प्रचार ॥ ७ ॥ मन वसि करि ध्यांवें तुझें, आतम रूप बिचार | लहहीं परम समाधि क्रौं, योगी स्वरस बिहार || ८ || ताकौ नांम प्रकार । तू रण ऋण तैं रहित हैं, त्रिभुवन वल्लभ सार ॥ ९ ॥ बहुरि प्रगट रण रंग जो, १८७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अध्यात्म बारहखड़ी प्रभव प्रजापति तू प्रभू, परमेसुर परवीन । प्रणव प्रणेता परम गुर, परम जोति रस लीन॥१०॥ परम तत्व परमातमा, परम ज्ञान परमज्ञ। परमेष्टी परतर प्रगट, परम धाम अति विज्ञ ॥ ११॥ परम रूप परमारथी, परम पुरिष भगवान। परम विद्य परतक्ष तृ, पग्म हंस अनिज्ञांन ।। १२ ।। प्रज्ञानिधि प्रवुधातमा, प्रथित प्रथीपति नाथ। परम परापर तू प्रचुर, परमानंद अनाथ ।। १३ ।। परमदेव परसिद्ध तू, प्रजापाल दुखटाल। परम पवित्रातम तु ही, परम प्रताप विशाल ॥१४॥ परिग्रह त्यागि मुनी भजें, परमब्रह्म को रूप। सो परब्रह्म विसुद्ध तू, आप हि आप स्वरूप ॥१५॥ परम प्रीति दासा करें, परम प्रतीति जु धारि। पर देवो निज देव तू, परिणामी अत्रिकारि ।। १६ ।। परणति परणामनि थकी, कबहू नांहि विभिन्न । पक्षपात रहितो प्रभू, पक्षांतर प्रतिपन्न ।। १७ ॥ प्रथम प्रशम परिमित तुही, प्रणमैं सुरनर पाय। परम स्वछंद प्रतिष्ठितो, प्रथीयान अतिकाय ॥१८॥ प्रत्यग्र जु कहिये नवल, नित्य नवल तू नाथ । परम परापति भक्ति तुव, तू तारै भवपाथ ।। १९ ।। परमोदय परवान तू, ह प्रक्षीण जु बंध। तोहि भज्यां निज पुर लहैं, तू ही सिद्धि प्रबंध।। २०॥ प्रकृति पर निज प्रकृति तु, परम प्रशस्त दयाल। नय प्रमाण निक्षेपत, परै तू हि जगभाल ॥ २१॥ परम प्रकास्य प्रकासको, अतुल प्रकास विकास। पद अंबुज से मुनी, मधुकर भाव विभास ।। २२ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १८९ पगि पगि निधि दासांनि को, दास निरीह निकांम। तेरी पख विनु और घख, राखें नाहि विरांम ।। २३ ।। पगे नही विषयनि विषै, पगे तोहि मैं धीर। पणधारी तु पार कर, अपठपाठ अतिवीर ।। २४॥ पख पख मास उपास धरि, तप करि मुनिवर धीर। मन इंद्री अवरोध करि, तोहि भजें वरवीर ।। २५ ।। भजन विना अति तप करै, तौउ न कर्म हनेय । भजन सहित तप आदर, भव जल कौं जल देय ॥२६॥ परचा प्रगट जु रावर, तारै अमित अपार। पतिराखन दासांनि की, तू जगपति अविकार ।। २७ ।। पदवीधर सेवै तुझें, लहैं उच्चता सेय । तू हि पदारथ परम है, तुव भरि ताहि लाहय ।। २४ । । पवि कहिये प्रभु वज्र कौं, वज्री तेरे दास। परतखि देव परोक्ष तू, भज्यां कट जम पास ।। २९ ।। प्रतिमा तेरी पूजि है, देवल तेरौ पृजि । प्रतिमा तैं विपरीत जे, तिनकै तोते दूजि॥३०॥ परम पयोनिधि गुननि को, प्रमित रहित जगदीस। पल पल मैं मुनि ध्यांत्रही, मुनि तारक तू ईस ।। ३१ ।। पल भक्षण सम पाप नहि, याते करुणा नास! करुणा विनु कुगति लहँ, करुणा भगती प्रकाश ॥३२॥ पष्ट किये सव कर्म नैं, पुष्ट किये सब धर्म परम प्रफुल्लित वदन त, अति प्रसन्न विनु भर्म ।। ३३ ।। प्रतिविंवित तोमैं सबै, तुव प्रतिबिंव जु पूजि। दिढ जु प्रतज्ञा धारि कैं, पूजहि दास अदृजि ।। ३४।। प्रवचनसार जु, तूही, समयसार अविकार । तेरौं प्रवचन सुनि प्रभू, पांवहि भक्ति बिचार ।। ३५ ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ... पट घट रहित जु सुघट तू, घट पटादि परकास । दिगपट सेवहि तोहि कौं, तू ही निपट विलास॥३६॥ पाः कहिये सिद्धांत मैं, पान वस्तु को नाम। अनुभव अमृत पान है, सो तू पावै राम ।। ३७ ॥ पाः कहिये फुनि नाथ जी, पावा वालो जोहि । सो तू ही औरैन को, पावै अमृत सोहि ।। ३८ ॥ पाता नाता पालक जु, पाप निवारक देव । पारस तू कंचन करै, पातिग हरड़ अछेव ।। ३९ ।। पास अपासि सुपास तू, पात्र जु पात्र वितीत। पावन पारेतम तु ही, पासि हरन जगजीत ।। ४० ।। पात्र दातृ दोन जु विधी, सकल विभासै तू हि। कर. मशः सा जुझौं, सू. मन मा प्रभू हि ॥४१ ।। पारख तो सम और नां, परखै सरव जु भाव । पारंकर पाठिक तु ही, प्रांण नांथ भव नाव।। ४२ ।। - छंद बाल - प्राणनि की रक्षक तूहि, ध्यांवें सत्र तोहि समूही। जो पारणामिका भाषा, सो निश्छे शुद्ध, स्वभावा ।। ४३ ।। तो ही तैं जानहि भव्या, पावै नहि जाहि अभव्या । तृ प्राज्ञः प्रज्ञाधारी, पाखंड निधार भारी ।। ४४ ।। पाखंडी तोहि न पावै, तेरे मत तोमैं आंवें। सुख सत्ता अर चैतन्या, अवबोधादिक जे धन्या ।। ४५ ।। निश्चै प्राणा तू धारै, इंद्री सुख दुख्य निवारै । प्राणिनि क प्राणा कहिये, इंद्रयादिक सो नहि लहिये।। ४६ ।। तेरे हैं शुद्ध स्वभावा, लहिये नहि एक विभावा। तू प्राग्यः प्राग्ररो है, नाको इह अर्थ धरो है। ४७ ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी तू दुःपरवंस रहस्या, पावै निजदास अवस्था। प्रभु पाशुपता पशुपति कौं, सेवहि पारवती पति कौं ॥ ४८ ॥ पारवती अर पशुपति भी, तोकौं ध्यांवें गणपति भी। पशुपति धारहि तुव सेवा, पशुधन पावै नहि भेवा ॥ ४९ ॥ पशुधन दुरगति कौँ पार्वे, पशुकरमी तोहि न गांवें। पशुकरमी मैथुन कारा, पशुकरम जु मैथुन भारा ।। ५० ॥ पशु हू तुव भजि सदगति कौं, पांवहि प्रभु त्यागि कुमति कौं। पागे मुनि तो महि धीरा, लागे तुव गुन मैं वीरा ॥५१॥ पां% नहि कर्म विपाका, तू धारक शुद्ध रमा का। पाघ न छौंगा कछु वस्त्रा, भूषन एको नहिं शस्त्रा॥५२॥ अदभूत राजा तू जोगी, नहि जोग एका अति भोगी। भोगा नहिं इंद्री विषया, आनंद भोग श्रुति लिखिया॥५३ ।। पाछौं नहि कबहू होइ, तू अन अग्रणी सोई। तू पाटधार जगराजा, अदभुत जोगी भव पाजा ।।५४ ।। पार न पर कर्मनि के, तुव दासा विनु भर्मनि के। नहि पाठ पठंतर कोई, तू अदभुत पाठिक होई।। ५५ ।। नहि पात न कंद न फुल्ना, फल हू न भखें व्रतमूला। सव मैं लखि आतमरामा, निरवैर रहैं गुन धामा ।।५६ ॥ पाथोधि गुननि को तू ही, सुर पादप तू हि प्रभू ही। पादप है वृक्ष जु नामा, पाथोधि समुद्र सुधामा।। ५७ ।। पार्थिव सेवे तुव पावा, पार्थिव कहिये नर रावा। हैं पाक सासनो इंद्रो, तेरौं दासा जु महेंद्रो।। ५८ ।। मुनि पाद मूल तुव सेवै, तोकौं भजि शिवपुर लेवें। मैं महापातकी मृढ़ा, सेये पापी अति रूढ़ा ।। ५९ ।। पांवन हैं तोकौं मेयें, हैं पार भक्ति तुव लेयें। पामर पावै नहि भेदा, अध्यातम तू हि अभेदा ।। ६० ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी प्रायश्चित्तादिक गावै, तपभेदभाव अति भावें। तेरौ सौ पांण न कोई, धारै दूजो नर होई।।६१।। पायो तेरौ जव मरमा, तव भागे सर्व जु भरमा। पाल्यो जव सर्व जु धर्मा, टाल्यो जव सर्व अधर्मा ॥६२ ।। - छंद वंयरी - प्रिय: प्रियंकर पिक जित बैंना, तू पिनाकि पूजित जगन॑नां । नावं पिनाकी शंभू कैये, पिक कोईल की नाम जु लैंये।। ६३ ।। पित्त वाय कफ सर्व हि रोगा, नाम लियें नासें दुख भोगा। पिडच न चाप न तेरै गेपा. अदभुत धनद्धर विन कोपा ।। ६४॥ पिठर समांन देह मैं जीवा, करम अगनि करि तपिउ सदीवा। तेरी भगति हि तपति निवार, परम शांतता भाव जु धारै ।। ६५ ।। तु पिधानते रहित जु देवा, निरावर्ण प्रगट जु अतिभेवा। पिता पितामह तृ हि सवौं का, सुगनर विद्याधर जु मुन्यौं का ॥ ६६ ।। प्रिया पुत्र परिवार न तेरें, कमलापति निज परणति नेरै। पिवहि जिके तेरी निजवांनी, जित पियूष अमरण पद दांनीं ॥६७।। छकहि स्वरस मैं विकलप दूरा, थकहि आपमैं आनंद पूरा। पिसे ज्ञान जंत्रै सव कर्मा, लसँ अनंता आतम धर्मा ।। ६८॥ पिव पिव भव्या निज रस शुद्धा, जाकरि जीव होय अतिबुद्धा। असे वैन तिहारे स्वामी, जे पीढं ते धन्य सुधांमी।। ६९ ।। प्रीति जु अप्रीती नहि दोऊ, वीतराग तू अदभुत होऊ। प्रीति करें तोसौं जे जीवा, तिन हि न पीरै कम अत्तीवा।।७० ॥ पीक समान जगत की भूती, पीप भरधो इह देह प्रसूती। इन प्रीति त्यागि जे जीवा, तोहि भ6 ते हूँ जग पीया।। ७१।। पीठि देय सब जग सौं नाथा, तोहि जु ध्यांऊ तजि सहु साथा । कबहु पीठि देंहु नहि तोही, मोहि सुधारि देव निरमोही ।। ७२ ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी पीठ नाम सिंहासन होई, चमर छत्र सिंहासन सोई। तोहि फवै तू त्रिभुवन राजा, प्रीणय भव्य लोक भव पाजा ।। ७३॥ पीतांवर तू अतुल आशा सोयो अंत न्यः नाना . . . परम समाधि ध्यानमय तू ही, पीतांवर पूजित जु प्रभू ही ।। ७४ ॥ पीहर जीव मात्र को स्वामी, सब कायनि कौ रक्षक नामी । ज्ञान यंत्र मैं कर्म जु पीसैं, तिनकौं तेरे निज गुन दीसैं ।।७५ ।। पीत न सेत न रक्त न स्यामा, हरित नहीं तू अवरण नामा। पीतामृत तू अजर अमृत्यू, तोहि ध्याय जीते मुनि मृत्यू ॥७६ ।। - छंद मोती दाम - पुरांण पुनीत पुराण जु सार, तु ही पुरसोतम है अधिकार । महा पुरषत्व पुराधिपराज, नही प्रभु पुण्य अपुन्य समाज॥७७ ।। तु ही पुरदेव सर्वं पुरनाथ, तु पुष्कल रूप अनंत जु साथ । तु ही सु पुरातन पुष्टिद पुष्ट, भ6 पुरहूत महारस तुष्ट ।। ७८ ।। तु ही जु पुरंदर नाथ अनादि, भजै मुनि तोहि पुलाक जु आदि। कहैं पुरहुत पुरंदर इंद, सु तोहि भज्यां सव लेंहि अनंद ॥७९॥ दवै जु हियो सरवै प्रभु नैंन, पुलकित होय सरीर सु चैन । सुतोहि लख्यां सव भ्रांति पुलाय, सुपुण्य जुरासि तु ही सुखदाय॥८०॥ कहैं प्रभु पुण्य पवित्र जु नाम, तु ही सुपुनीत महामति राम। तु ही पुरुषारथ भासइ च्यारि, तु ही पुरिखा सवको मुझ तारि॥८१॥ करौं जु पुकार तिहारहि द्वार, रुल्यो वहुतौ अव दै ततसार। तु ही प्रभु पुज्य भ6 सव लोक, नहीं जु पुरां नव तू गुन थोक॥८२॥ पुलिन्नि मह निवसैं मुनिराय, व0 गिर गह्वर मैं जतिराय। वसे वन माहि करें तुब ध्यान, न तो सम आंन तु ही अतिज्ञान ॥८३।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अध्यात्म बारहखड़ी न पुत्र न पौत्र न श्रांम न गांम, सुपुस्तक मांहि तु ही अभिराम । जु पुच्छ बिना तिरजच जिकेहि भजैं नहि तोहि जु मूढ तिकेहि ॥ ८४ ॥ वृथा करि फूलि धेरै जु गुमान, सु चूंटिहि जाय जु पुष्प समान । नहीं तुव दास करें प्रभु मांन, चहें न विमान गर्दै तुव ज्ञान ।। ८५ ।। नहीं पुनरुक्त जु तू हि कदापि, भजैं हि पुनर्पुन धीर अलापि । तु पुष्करसों निरलेप मुनीस, अकास तन इह नांम भनोस ॥ ८६ ॥ कहैं फुनि पुष्कर नाम तडाग, तु ही सर सौ तपहा रसभाग । तु ही इक पूजि नही पर पूजि, महा अतिपूरव तु ही जगदूजि ॥ ८७ ॥ न पूत न नाति हि तू निजरूप, अपूरव पूरव तु जगभूप । तु ही परिपूरण पूरण ज्ञान, सुपूठि न देहु सुनौं भगवांन ॥ ८८ ॥ करौ प्रभु हौं अतिपूत जु कार, हरे हमरे गुन मोह अपार । सुरंचक दें करि इंद्रिय भोग, ठग्यो मुझको लखि मूरख लोग ॥ ८९ ॥ अ करि न्याव गुना धन द्याव, तु ही जगराव सुन्यौं अतिभाव | जु, पूछि तिहार हि द्वार महंत, तु ही जगपूजित नाथ अनंत ॥ १० ॥ हमारी ही देह महाहि मलीन, महा अति पूर्ति जु गंध अलीन। भजें तुव नाथ पुनीत जु होइ, करों अति पूत प्रभू तुम सोय ॥ ९१ ॥ तु ही इक प्रेष्ट जु और न कोइ, महा अति इष्ट सुअर्थ जु होय । महा इक प्रेषण तृ. हि दयाल, करें अति प्रेम मुनीस विसाल ॥ ९२ ॥ तु ही प्रभु प्रेम अपेम वितीत, तु भक्त जु वच्छल देव अतीत | कहैं प्रभु रुद्र हि प्रेत जु नाथ, जपें तु हि रुद्र सुगौरि हि साध ॥ ९३ ॥ तु पेहि देहि लोक अलोक, तु ही इक पेड़ धरें बहु थोक । लगे जग लोक सुपेट इलाज, भजें नहि मूह तुझें महराज ॥ ९४ ॥ सुपैठि रहे परपंचनि मांहि, जु पैसिहि मायक मैं सक नांहि । करें अति पैसुन्यता जगजीव तुझें नहि पावहि तू जग पीत्र ॥ ९५ ॥१ जुपै रहि भक्ति रसाधिक मांहि तिक्रे भव पार लह सक नाहि । लहैं नहि भक्ति सुपैमुनि धारि, सुदुष्ट स्वभाव महादुखकारि ॥ ९६ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ा . . . . . . ... ... . . ... निभी इह पैज तिहार सदाहि, जु ले सरनौँ तुम यो शिव ताहि। सुपोथिनि मांहि तुम्हारि ही कित्ति, तु ही गुन पोषक है अति सत्ति॥९७ ।। कहै तु हि प्रोषध युक्त उपास, धरै प्रभु पोसह ध्यांबहि दास। जिके नर पोहि इंद्रिय स्वाद, तिके नहि पांवहि भक्ति प्रसाद ।। ९८॥ मुनीसर पोस जु माधनि मास, रहैं तटिनी तट भोग उदास । सुग्रीषम मांहि रहैं गिरसीस, सुचातुरमासहि वृक्ष तलीस ॥ ९९ ॥ करे तप तोहि जपे अघनासि, लहैं पद केवल ज्ञान विलामि । विना तुव भक्ति तपा फल नून, महातप तेज तु ही हि अनून ।। १०० ।। तु ही अति पोरिस पोषन हार, सुनौं इक बात भवोदधितार। जु पोट महा दुरगंध तनीहि, धरी हमरै सिरि बसि वनीहि ।। १०१।। महा सठ मोह न छोडहि पिंड, भमावहि लोक पहैं जु अखंड । तु ही हमरौ करि ऊपर नाथ, करे निरबंधन दै निज साथ ।। १०२॥ तु ही इक पौरिघ रूप अथाह, तु ही प्रभु पौरव नागर नाह। भ® तुव पौरि सुरासुर सर्व, भ0 नरनाथ तजे सहु गर्व ।। १०३ ।। नहीं प्रभु पौरि न खाइ हिं कोट, न साथ न संग न आंन दपोट। सर्व धर तूहि सवै हि विनीत, अजीत सजीत अभीत अतीत॥१०४॥ सारठा - पौलोमी को नाथ, अर पौलोमी तुव रटैं। तृ ही अति गुन साथ, पौत्र न पुत्र न नारि नां॥१०५ ।। इंद्राणी को नाम, पौलोमी पंडित कहै । जपैं निरंतर धाम, तेरों पौलोमी सदा॥१०६ ।। खीण भयो अति नाध, रोगी नादि जु काल को। तृ अनंत वड़ हाथ, पौष्टिक भाव सु दे मुझें ।। १०७ ।। दोह। - पंजर नाम शरीर कों, तेरै पंजर नाहि। पंच शरीरनि से रहित, चिदघन गुन तन मांहि ।।१०८।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ अध्यात्म बारहखड़ी पंगा अव्रत धारका, चरन रहित अविवेक। ते तेरे परसाद ते, पांवहि चरन विवेक॥१०९॥ तु ही पुंडरीकाक्ष है, प्रभु पंचत्व वितीत । ज्ञानानंद सु पिडं तृ, पंक रहित जगजीत ।। ११० ।। पंकज चरन जु मुनि भमर, सेवै तन मन लाय। पंथ प्रकासक एक त, पंथी भक्त निकाय।। १११ ॥ पंच महाव्रत धारका, इंद्रिय पंच निरोध । पंद्रह त्यागि प्रमाद जे, ध्यावहि चित्त विसोधि॥११२ ।। पंच अधिक प्रभु चालीसा, लख जोजन परमांन । सिद्ध सिला है सासती, सोहि तिहारौ थांन॥११३ ।। पंचास जु लक्षा कहे, कोडि उदधि परवांन । ऋषभ पछै इतनें दिननि, प्रगटे अजित सुजांन ।।११४॥ सुर्ग सोलमैं आय है, देविनि की उतकिष्ट । पंच अधिक पंचास पलि, तृ भासै जग इष्ट ।। ११५ ॥ पंच साठि प्रकती प्रभू, चौदह के हैं भेद। मिलि अठवीस तिसंणवै, नाम प्रकति अति खेद ॥ ११६ ।। तेरे एक न पाइए, प्रकति परै तू होय। अविनासी आनंद मय, केवल रूप जु कोय।।११७ ।। पंच अधिक सत्तरि सहस, ताके आधे जोय। सर्व प्रमाद न तो विषै, निह प्रमाद न होय ॥ ११८ ।। पंच अधिक असी प्रक्रति, जरी जेवरी तुल्य। ते ह खपाय सुकेवली, सिद्ध जु हौंहि अतुल्य ॥११९ ।। पप्या पासि दु सुन्य है, अंतिम मात्रा जोहि। तू सब मात्रा मांहि है, चिनमात्रो प्रभु होहि ।। १२० ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अथ बारा मात्रा एक सवैया मैं । परम प्रसिद्ध देव, पावन जु दै स्व सेव, अतिहि प्रियंकर तू प्रीतम प्रसिद्ध है। पुलिनि मैं बैठे साध तेरी ही करें अराध, पूतातम पूजि एक तू ही अनिरुद्ध है। प्रेम तोसौं कीजे नाथ और तैं जु कौंन साथ, पैसुन्य न भाव तोमैं एक न विरुद्ध है। . . . पोषक न तोमो और पौरिष अपार तोमैं, पंथ देहु आपुनौं तु प; प्रकास शुद्ध है॥१२१।। - दोहा - तेरी पदमा शुद्ध जो, निज सत्ता निज शक्ति। सोई कमला लक्षमी, दौलति संपत्ति व्यक्ति ॥१२२ ।। इति पकार संपूर्ण। आगँ फकार का व्याख्यान कर है। - भोक - फकाराक्षर कर्तार, फलदाता रमीश्वर । सर्वमात्रामयं धीरं, बंदे देवं सदोदयं ।। १ ।। ___ - दाहा - फकारांक सिद्धांत मैं, झंझा पौंन स नाम। पौंन न झंझा पाइए, नाथ तिहारै ठाम ।। २ ।। वहुरि फकार कहैं वुधा, भय रक्षण को नाम । तू भयहर भवहर प्रभू, चिदघन आतमरांम ।।३।। ईति भीति सव दूरि है, लेत तिहारौ नाम: डरै दास के दास सौं, भय भाजै तजि ठाम ।। ४ ।। स्तुति हू कौश्रुति मैं कहैं, नाम फकार प्रवांन । स्तुति तेरी गनधर करें, सुरनर करै सुजांन ।।५।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अध्यात्म बारहखड़ी छंद नारा - कहैं प का टकार हू फकार को हि अर्थ ही, सुसोर होय जोर सो प का टकार है सही। नहीं जु सोर जोर हैं जहां तु ही विसजड़ी, तुझे जपैं सुईसरा उपाधि सर्व भाजई।।६।। फवै हि सर्व तोहि कों, दवैहि मोह तोहि सौं, किये अनंत पार लें, टरै मतीहि मोहि सौं । प्रभू फटिक्कसारि साकरे सुभाव निर्मला, भ6 जु तोहि साधवा सवै हि पाप दमला।।७।। फला लहैं जु तोहि तैं अनश्वरा अनंत जी, विभुक्ति मुक्ति दायको तु ही त्रिलोक कंतजी। वृथा तनौं हि फल्गु नांय, तू न फल्गु भामई, कहै सुतत्त्ववारता तु ही सवै प्रकासई॥८॥ फलैं न कर्म पादपा जर्व अग्यान दुष्फला, करें हि दास दग्ध वीज रूप ताहि निष्फला। फणाधिपा सुराधिपा नराधिपा तुझै भर्जें, ___अनादि काल के जु कर्म दासत परे भ6 ॥९॥ फटै न फूटई कभी स्वभाव भाव जीव को, तु ही कहै इहे स्वरूप नाथ है सदीव करें। फला दला न फूल्ल कंद रावरे जनाभौं, तज हि जीभ स्वाद कौं दयाल भाव ते रखें।।१०।। फंदकतो फिर हि चित्त ले विष सवाद कौं, भजै न तोहि मूढ धी लग्यो महाविवाद को। तु ही सुधारि आप मैं लगावई महा प्रभू, ___ फल्यो जु फूलियो सदा तु ही तरू महाविभू।। ११॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी १९९ फणी जु काल रूप है इसै न नाथ दास कौं, फसैं न मोह मैं मुनीस छांडि नाथ पास कौं। फस्यो अनादि काल को मुआतमा फसाव मैं, निकास होइ तोहि तें जु आवई स्वभाव मैं ।। १२ ।। - छंद त्रिभंगी - फरहरहिं पताका, नाथ रमा का, करम विपाका, तू हि हरै, है अति फलदाता, फलित विख्याता, त्रिभुवन त्राता, वोध करें। कित हू नहि फसियो, अति गुण लसियो, निजगुनवसियो, तू हि प्रभू, फणपति अति गांवें, गुन मन लावें, सुर सिर नार्वे, जगत विभू॥१३॥ . सवैया-३१ . . मोह को फरफराट मेटै तू जगतराट, पाटधारी तू विराट नायक अनूप है। दायक स्वभाव को सुज्ञायक अनंतभाव, लायक अनंत नाथ, आनंद सुरूप है। फासि काटि कंठ की अज्ञानता सुरूप जोहि, डारी मोह चोर नैं हमारै दुखरूप है। जीव को दयाल तू क्रिपाल है विसाल लाल राखि छत्र छाय मैं तु ही अनुप भूप है।। १४ ।। चुभी जु फांस होयमैं मिथ्यात भाव रूप देव माया औ निदान बंध रूप जो विरूप है। सम्यक स्वभाव चिमुटा ते कादि फांस नाथ चैंन देह दास कौं तु ही दयाल रूप है। फारातोरी नांहि तेरै, फारितोरि डारै अघ, फारिक विभाव से तु ही पियूष कूप है। फाल चूको नादि को फस्यौ जुफासि मांहि मैं ही तू ही काढि फासि ते क्रिपाल तु अनूप है॥१५॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी फाकी तेरे सूत्र की हरै अनादि रोगनिकौं, फकै मायामोह कौं सुचूरण स्वरूप जो। जीव के असाध्य रोग, जन्म जरा मृत्यु सोग, ... . ...सव ही नसावै देव अँसी है निकूप जो। याको करें सेवन जु साधु सव वाधा जीत, याको जस गांव सुरनाग नर भूप जो। दोष सब कटै याते, तेरीई प्रसाद इहै, औषध को दायक तू वैद है निरूप जो ॥१६॥ फाकी लेय औषध की पथ्य जे हैं सदींव __ अभष अहार त्यागि तजें जू कषाय करें। जीभ वसि राखें अर नारी सौं न नेह राखें अलप अहार लेय सरखें दिढ काय कौं। तवै रोग करें नाथ कबहू न करें साथ, कल्प काय हौंहि जीति पित्त कफ वाय कौं। बहुतनिकौ रोग हरयो इहैं जाची औषध जु ___फाकी देहु याकी देव हरै जू अपाय कौं ॥ १७ ॥ फाफ मारते जु काम क्रोध लोभ मोहादिक जीव लोक जीति के सु सूरवीरपन की। तेरे दास देखत ही भाजि गये छांडि खेत, सनमुख भये नांहि बुद्धि त्यागि रन की। दासनि नैं लोक हू उधारे तुव दास करि काल वचाये रीति पाली जु सरन की। इहै रीति देखि कैं जु कायर लखे विभात्र, भ्रांति सव नासि गई भव्यनि के मन की ।। १८ ॥ फाटि टूटि जाय सो तौ पुग्गल को रूप सव फाटिवी न टूटिवौ न जीव माझ देखिये। असौ भेद तोही ते लहयौ जु भव्य जीवनि नैं तू ही है सफार परिपूरण विसेषिये। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी स्फार को अरथ विसतीरपा कहैं मुनीस तू ही विसतीरण अनंत रूप पेखिये। गुन है अनंत औं अनंत परजाय तैर, सकति अनंत महिमा अनंत लेखिये ॥१९ ।। जाड्यता अनादि की सुसीतकाल रीति सम भव्यनि के दूरि होय तेरेई प्रसाद तैं। फागुन सौ सम्यक ज् प्रगटै तवै हि नाथ ज्ञानरवि तेज लहै, तेरे स्यादवाद लें। ध्यानानल ताप गहै, विमल स्वभाव लहै, फुले गुन फूला आत छूटें जू विषाद तैं। जीव भंवरी जु सोई सुख मकरंद लेय, स्यामता नसावै नाथ छूटै जु विवाद तैं। २०॥ चारित जो चैत्र सम प्रगटै तवै जु वेगि त्यागि लोक कांनि जब स्वेछता बिहार ही। ऋतुराज सम मुनिराजता प्रगट होय दिन दिन तप को प्रभाव अति धार ही। परमत भाव मास वैसाख जु मिटि करि जेठपन होय अति सुचिभाव सार ही। सांवन समान मनभावन पुनीत भाव, झर लांबैं अमृत की अतुल अपार ही ॥२१॥ भादव समान भद्रभाव सुकलो जु होय सरद समान तव केवल उपाव ही। मीन चौकरी न फेरि उपजै कदपि काल, कालतें वितीत होय जाल मै न आव ही। सिद्धि ऋद्धि वृद्धि औ समृद्धि को भरयो अनंत आप रूप होय करि आप रूप पाव ही। भ्रमण न भ्रम सु कदापि शुद्ध कौं न होय अध्यातम जोग इहै तू ही एक गाव ही।।२२।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ दोहा फागुन कातिग अर प्रभू, मास अषाढ हु मांहि । शुक्ल पक्ष त्रय मास मैं वसु दिन वृत्त करांहि ॥ २३ ॥ अष्टमि तैं पून्यौं सुधी, इहें अठाई होय । तू हि प्रकास नाथ जी, सिद्ध गुननि परि सोय ॥ २४ ॥ फिरयों अनंती जौनि मैं तो बिनु दीनदयाल । अब फिरिवाँ सब मेटि तू, दै निज ज्ञान विसाल ॥ २५ ॥ फिरि फिरि बिनऊं नाथजी, भ्रमण न फिरि फिरि होय । सो निजवास दयाल जी, देहु क्रिया करि सोय ॥ २६ ॥ फिसका ओि — फिल्ल पारयो तैं ही मोह, , तो सौं लरि सकै नांहि चोरनिको रावही । फिट्ट फिट्ट कीचे तैं हिं राग दोष भाव सव, दासनि पैं भागि जांहि सकल विभाव ही । फीटी बात तेरे दरबार मैं न दीखे कोऊ, अध्यात्म बारहखड़ी फोटी बात कीयें नाथ तू न हाथ आव ही । फुनि फुनि कहाँ मेरी भ्रांति हरि दास करि, तेरा दास होय सो तुझें तुरंत पाव ही ॥ २७ ॥ दोहा - — फुटकर गुन तेरे नहीं, गुन अनंत इक रूप । फूटि फाटि नहि गुननि मैं, शक्ति अनंत स्वरूप ।। २८ ।। फूलि धेरै भव भाव मैं मूरिख लोग अयांन । 1 फूलि धेरै तुव भक्ति लहि, ज्ञानवंत गुनवांन ।। २९ ।। फूल पांच नहि जोग्य है, ब्रह्म व्रतिनि कौ देव । ब्रह्मचर्य के शत्रु ए. त्यागहि दास अभेव ॥ ३० ॥ फूंकि फूंकि पग मुनि धेरै तेरे दास उदासते, भव धारें दया अछेव । भोगनि तैं देव ॥ ३१ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २०३ फूस तुल्य भव भोग ए, कण रहिता जड भाव। चाहैं पसु सम नर तिनैं, दासनि के नहि चाव ।। ३२ ।। चाव एक तुव भक्ति कौ, दास धेरै अतिभाव। फेन तुल्य भवभूति, जिनके नाहि उपाव ।। ३३ ।। .. सबैया इकोप्ला -- फेन सम माया और काया है तडित सम, वादर की छाया सम जाया जग जाल है। इंद्र चाप तुल्य भोग्य भावना विनश्वर जो, वुद खुद जल के समान धनमाल है। यामैं नाहि सार कोऊ सार एक तू हि होऊ, तारि भव सागर से तू हि दुख टाल है। फेरी जग मांहि देत बीत्यो जु अनंत काल, फेरि फेरि कहूं कहा जगत प्रपाल है॥३४॥ - सोरठा - फैल्लि रयो सव माहि, फैल न एक धेरै तु ही। जिनकै फैकट नाहि, तेई तोहि लहैं प्रभू।। ३५ ।। फैन न एको कोय, जैन प्रकासक त सही। बैंन सधा से होय, फोरे ते हि अनंत अघ ।। ३६ ।। फोरा सर्व मिटैहि, फौरे ही से भजनौं। कर्म कलंक कटै हि, तो. सर्व कल्याण है ।। ३७ ।। - दोहा - फौरि जु मोहादिकन की, मेटें तेरे दास। फौज त्यागि है एकले, कार्दै कर्म जु पास ।। ३८ ।। फंद न तेरै एक हू, फंद रहित निरद्वंद। छंद अलंकारादि सव, तू भासै जग चंद ।। ३९॥ पस्यो फंद मैं मैं महा, तू छुड़ाय प्रभु मोहि । फंद जु काटि स्वछंद करि, कहाँ कहा अति तोहि ॥ ४०॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ फरसी सम्यक बोध की, नाथ रावरै हाथ । क्यों न फंद काटौ प्रभू, क्यों न देहु निज साथ ।। ४१ ।। फ: कहिये ग्रंथनिविषै फूतकार कौ नाम । फूतकार सरप जु करें, विष भरियो अघ धांम ॥ ४२ ॥ नांम मंत्र तुम्हरों रटें, सर्प माल सम होय । फ: कहिये फुनि नाथ जी, निःफल भाषा सोय ॥ ४३ ॥ निःफल तेरौ भजन नां, फलदायक तू देव | दासनि के कछु कांम नहि, निकामा रस बेव ॥ ४४ ॥ फः प्रवेस की नांम हैं, तोतें ज्ञान प्रवेस | फ: कहिये फुनि कलह कौं, कलह रहित मुनि भेस ॥ ४५ ॥ कलह तजें विनु ज्ञान नहि, ज्ञान विना न अनंद । ज्ञानानंद स्वरूप अदभुत परमानद ।। ४६ । अथ बारा मात्रा एक कबित्त मैं । अध्यात्म बारहखड़ी फल कौं जु दायक तू नायक फणिंद को जु फासि तैं निकारि अर फिरिवौ मिटाय तू । फीटी वात मूढ करि फुनि फुनि धारें देह दास तेरे हैं विदेह कर्म तैं छुडाय तू । फूस तुल्य भोग भाव फेन तुल्य भूति राव फोरें फैकट भयौ जु लोक शुद्ध रूप राय तू । तू त्रिभाव भाव, फौरि हरे फौरिनिको, फंद बिनु फः प्रकास नाथ सुखदाय तू ॥ ४७ ॥ दोहा — — तेरी नाथ सफारता, अति विसतीरण शक्ति । सोई पदमा मा रमा, संपति दौलति व्यक्ति ।। ४८ ।। इति फकार संपूर्ण आर्गै बकार का व्याख्यान करें है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २०५ -. भोक - बर्द्धमान महाबाहुं, विश्व विद्या कुलगृहं । वीतरागं विनिर्मोहे, बुद्धं शुद्धं प्रभाधरं ॥१॥ बू मात्रा भासकं धीरं, बेद सिद्धांत रूपिणं। बैनतेय निभं वीरं, कर्म नाग निवर्हणे ।। २ ।। बोध रूपं चिदानंदं, बौद्धादि मत दूरगं। बंदे धीरं सदा शांत, निर्ग्रथं बः प्रकासकं ।।३।। - दोहा - ब्रह्मनिष्ट ब्रह्मन्य तू, है ब्रह्मज्ञ दयाल। परब्रह्म परमातमा, ब्रह्म निदेसक लाल ।। ४ ।। ब्रह्म शब्द के अर्थ बहु, भगवत मोक्ष सुज्ञांन । शील जीव श्रुति द्विजकुल्ला, एते ब्रह्म बखांन ।। ५ ॥ बहुश्रुत बिश्रुत बस्तु तू, तेरै नांहि अबस्तु। बहु जीवनि को पारकर, तू बहुत्त परशस्त ।। ६ ।। ब्रह्म योनि निरयोनि तू, बध बंधन नैं दूर। ब्रह्म बचन प्रतिपाल तृ, आनंदी भरपूर ।। ७ ।। वंद त्रिभंगी -- बक सम कपटी जे, धन झपटी जे, अघ लपटी जे, तुब न लहैं। मुनि हंस समाना, कपट न जाना, उज्जल ज्ञाना, तुव जु गहैं। निरमल जो भावा, अति निरदादा, अतुल प्रभावा, प्रभु इक तू। सरवर अमृत भर, तपहर तपधर, दुखहर सुखकर ड्रक त्रिक तृ॥८॥ मुनि है बनबासा, तजिधर बासा, बिबिध बिलासा, तोहि जपैं। लखि सन्न मैं तोहि, है निरमोही, तोहि जु टोही, साध तपैं। फुनि बन जल नामा, जलजित रामा, अति अभिरामा चिदघन तू। जित बनज सुचरणा, आनंदकरणा, हरइ जु मरणा सुखतन तू।९।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अध्यात्म बारहखड़ी बहु बलभद तारे, अतिबल धारे, बणिक हु तारे, भव जल तैं। तू बिप्र उधारा, क्षत्रिय तारा, जगत उधारा, निजबल तैं। अति बनियां ठनियां, श्रीगुर भनियां, जगगुर गनियां, जग राजा। बलि जाहु तिहारी, गुनबपु भारी, तु भवतारी, भव पाजा ।। १० ।। थिरचर को बर्मा, अतुलित धर्मा, रहित जु कर्मा, अति मर्मी। बत्रांग जु स्वामि, भयहर नामी, मृदुतर धामी, अतिधर्मी। करमनि कौं तौर, अघमद मोरे, अपुर्ने जोरे, अति राजै । बत्मल गुन धारै, भगत उधार, पाप प्रहार, अति छाजै॥११॥ ब्रतधर अति ध्या, गुन गन गावें, मुनि लव लांचें, धरि समता। अतिवृत्त परायन, तू मन भायन, निज सुखदायन, प्रभु रमता। बहु बस्तु जानें, भ्रांति जु भानें, भव्य जु मानें, इक तोकौं। करम जु बटपारा, हरि भवतारा, कार भव पारा, प्रभु मोकौं ॥१२॥ ... दोहा - बाद बिबाद न तो विषै, बाह्याभ्यंतर एक । बहिरातम पांवें नहीं, तू एको जु अनेक ।। १३ ।। सब बाहिर सब माहि त, बाल न पांव तोहि। ब्राला रहित अतीत तू, श्रीधर दै शिव मोहि ।।१४।। ते ब्राह्मण जे तुवं भजैं, तोहि त° ते निंद्य । निराबाध जगदीस तू, श्री भगवंत सुबंध ।। १५ ।। बाग सधन तुव गुननि कौं, ता सम और न कुंज। कुंज विहारी देव त, रमैं अतुल गुन पुंज ॥१६॥ बापी सरबर नहि नटिनि, तेरे पुर मैं नाथ । सुख सरवर नरवर तु ही, 'गुन समुद्र अति साथ।। १७ ।। ब्याह बिना नारी सकल, तृ बरजै जगनाथ । व्याहत नारी हू तजें, तब पावै तुव साथ ।।१८ ।। बासी भोजन जे भरखें, ते न लहै तुव भक्ति। भक्त न श्रुति वर्जित गहैं, विषयनि मैं नहि रक्त ।।१९।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २०७ है महूर्त दिन जब रहै, ब्यालू तब ही जोगि। रात्रि न भोजन उचित है, तू बरजै हि अजोगि।।२०।। ब्याल नांव है दुष्ट गज, व्याल नांव है नाग । अहि न उसै गज हु नसे, तुव दासा बड़भाग।।२१।। ब्याघ्रादिक लखि दास कौं, दास हौ हि तजि गर्व । सुरनर असुर जु खेचरा दासहि सेवहि सर्व ॥२२ ।। काल करम रागादिका, पीरि सबै नहि एहि । तो औसौ दूजी कवन दासनि कौं दुख देहि ।। २३॥ बास रहित तू बसि रहयो, निश्च आपुन माहि। व्यवहारै सब ज्ञेय मैं, तू हि बसै सक नांहि ॥ २४ ।। बासुदेव पूजित तूही, बासुपूज्य जग पूज्य । व्याकरणादिक भास तू, अव्याकृत जग दूज्य ।। २५ ।। बादीगर को बानरा, मोहि जु कीयो मोह । ज्यों हि नचाच त्यौं नचौं, इह मोह अनि द्रोह ॥ २६ ॥ बाट बहता नाथ जी, उपनौ अति गति खेद । अब निज पुर को पंथ दै मोहि करौ निरख्नेद॥२७॥ बांनी तेरी सुनत ही, बहुतनि खोयो खेद। तेरी बानि पियूष है, परम स्वरस अतिबेद ।। २८॥ वारी तेरी फलि रही, जाकै बारि न कोय। फल पावै प्रभु तोहि करि, तू फलदायक होय ।। २९।। बिगरी बात सुधारि तू, तो विगरि न कहुं चैं। विक्यौ अचेतन हाथ हूँ, अब दै सम्यक नैंन ।। ३०।। बिरही नादि ज काल को, लही नहीं निज शक्ति। बिस्यौं बिरयौं करि नर भयो, दै नरहरि निज भक्ति।।३१।। बिरला तोकौं पांबही, भव बिष हरि जगनाथ। विजय जीव की तोहि तैं, विल होत अघसाथ ॥३२१५ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी विलित कानपभाल विाद सिद्ध जगदेव । निरविकार निरलेप तू, दै स्वामी निज सेव ॥३३॥ तू बिहाय सम निरमलो, तिष्ट सर्व विहाय। तैरै योहि बिहावई, स्वरस छक्यो अधिकाय ॥३४॥ तू बितर्क नै बेग लौ, युक्ति जु सर्व प्रकास। तोहि बिसारि जु हौं भम्यौं, अन्न दै भक्ति बिलास॥ ३५॥ तू हि बिदारै सर्व अघ, तू हि विडार भर्म । तू बिस्तार सुरूप है, निस्तारक निज धर्म ॥ ३६ ।। तू बिचार जोगीनिकों, निज बिहार विसफार। सकल विभाव वित्तीत तू, हरइ विभीति अपार ॥३७॥ बिनजारौं निरबांन को, मोटौं सारथबाह । बिनज निजातम अस्तु को, तर अतुल अथाह ॥३८ ।। मेरी बिकरे तव परै, तू पकर जब हाथ। बीवा तेरै पासि है, तू हि बतावै नाथ ॥ ३९ ॥ बीहैं नाहि कदापि हू, तेरे दास अभीत। तू बीचार वितीत है, बीजभूत जगजीत ॥ ४० ॥ तोहि वीसरयां भव भमैं, तुव भजियां भव मुक्ति। भुक्ति मुक्ति की मात जो, दै देवा निज भक्ति ।। ४१ ।। जिह्वा भूषन भजन है, बीस भूषन नांहि। बीरा नाम लॅबोल कौं, लौकिक भाषा मांहि।। ४२ ।। बीरा सील ब्रनीनि कौं, उचित न होय कदापि। भोग मूल हैं पुष्यदल, तू वरजै श्रुति थापि॥ ४३ ॥ बीर धीर बरवीर तू, वीजाक्षर परकास। योगी योग विलास तंध्यानारूढ विभास ।। ४४ ।। काया माया बीजली, सम क्षणभंगुर होय। तोहि भज्यां अविनश्वरा, लहिये लक्षमी सोय ॥ ४५ ।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बीट तूटियां फल गरौं, मोह गल्यां सब कर्म । मोह बीज है जगत को जाकरि उपजै भर्म ॥ ४६ ॥ 2 धर्म रीति सब तू कहें, बीधा सीधौ भक्ष नां, अणगाल्यो जल निंद्य । अति प्रबुद्ध जग बंध ॥ ४७ ॥ बुध तोकौं पांवहि प्रभू, अबुध न पावैं नाध । बिबुध वंद्य जगवंद्य तू, अति अनंत गुन साथ ।। ४८ ।। बुरी भली सब ही तजी, जग करनी जग मूल । भजी भक्ति जब रावरी, तब भागी सहु भूल ॥ ४९ ॥ नहीं बुलायो आव ही नहीं पठायो जाय । स्त्री है सर्वत, प्रभू जगत को राय ॥ ५० ॥ बूझैं सारी बात तू, सूझे तोकौं छूटै अमृत धार तू, हरै जगत कौ बूढै भवजल मैं सठा, बिना तिहारी जिन बुझ्यो तोकौं प्रभू, तिन खोये यो बेठि सारू मुझें, कर्म मिले बहु जोर । पोट धरी दुरगंध की, मेरे सिरि अति घोर ॥ ५३ ॥ गन्यो वेसरी सौ मुझे लाद्यो वोझ अनंत । निरदय टोली अति मिली, तू छुड़ाय भगवंत ॥ ५४ ॥ बेता सर्वजु भाव को, कहूं कहा जु बनाय | बेहा बीता तो बिना अब सब भर्म मिटाय ॥ ५५ ॥ 1 सर्व । गर्व ॥ ५१ ॥ नाव । भ्रम भाव ॥ ५२ ॥ न्याति तिहारी में सही, तुम राजा बलवान । नाथ छुडावो बेठि तैं सुनि विनती भगवांन ॥ ५६ ॥ जड जु बेठि सारू गहे, राज तिहारे मांहि । चेतन कौं विपरीत इह, नाथ रीति इह नांहि ॥ ५७ ॥ बेद नांव सिद्धांत को तू है वेद प्रकास । है निरवेद अभेद तू, बैठौ सब के पासि ।। ५८ ।। २०९ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बैवस्वत हर विश्वधर, कर्म रोग हर देव । बैदक रीति प्रकास तू, वैद तु ही जु अछेव ।। ५९।। बै निश्चय कौ नाम है, निश्चै रूप जु तू हि। बोध निधान सुजान तू, बोध प्रमांन प्रभू हि।। ६० ।। बोहथ भव की तू सही, प्रतिबोधक भवि जीव । तारे तू हि जु और नां, सुखदायक जग पीव।। ६१॥ . छंद मालिनी - तुझ हि नहि पिछांनै, शून्यबादी जु बौधा, लहहिम विपरीता, नूर पाखंड सौधा। . .... करहि पर विघाता, ते न तोकौं जु पांवें, सकल जन दयाला भक्त तोकौं हि गांवै।। ६२ ।। तव निकट जु ऋद्धि, सिद्धि को सिंधु तू ही, __ रहित सकल बंधो, मोक्ष मूलो प्रभू ही। चिदघन चिनमात्रो, शुद्ध भावो अनादी, अचलित परभावो, लोक बंधू जु आदी ।। ६३॥ – सादल विक्रोडित छंद - वंधा बंधन तू हि काटि शिव दे, तू नासई बंकता। पावै नाहि जु पंचका प्रभु तुझै, तैरै नहीं सकता। माता दासनि की हि पुत्रवति है, और जु बंध्या समा। तू ही नाथ अनाथ पार करणो, धारै अनंती रमा ।।६४।। - दोहा -- विंध्याचल पुर सम गर्ने, गि गुहा घर तुल्य! है उदास भव वास ते, दास जड़ें जु अतुल्य ।। ६५॥ विंताकादिक बिंजना, तेरे दास भवन। और हु वस्तु अभक्ष जे, तिनकौं कबहु चखैन ।। ६६ ।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी बंदी तोहि दयालज़ी, बंदौं तेरे दास। बंदौं तेरे सूत्र जी, भक्ति ज्ञान परकास ॥६७ ।। बबा पासि दु सुन्य है, अंतिम मात्रा एह। .. "सत्र मात्रा में एक तू, चिनमात्री जु विदह ॥६८ ॥ अथ द्वादस मात्रा एक कबित्त मैं। ब्रह्म परब्रह्म तू ही, बाल वृद्ध युवा नाहि, बिगरी सुधारै नाथ जीव की अनादि की। बोर बुद्ध शुद्ध तू ही, छूटै बूंद आंनद की, बेद सूत्र भासक प्रकासै रीति आदि की। बैनतेय सारिखौ जु कर्म नाग नासिवे कौं, बोध को निधान रीति भाथै स्यादवाद की। बौद्ध नांहि जानें भेद बंदनीक तू अबेद, बः प्रकास है अनास धार रीति दादि की।६९।। - दोहा -- तेरी नाथ जु बस्तुता, सोई सत्ता शक्ति। संपति भूति विभूति जो, दौलति निज छति व्यक्ति॥ ७० ॥ इतिश्री बकार संपूरणं । आगै भकार का व्याख्यान कर है। . भोक - भव्यांभोरुह मार्नडं, भानु कोटि जित प्रभं। भिन्नं रागादिभिर्भीति, नाशनं भक्ति मुक्तिदं ।।१।। भूतनाथं जगन्नाथं, भेदाभेद प्रकाशकं । भैरवादि पतिं धीरं, सर्व भैरव तापहं ।। २ ।। भोगातीतं महाभोगं, सार्वभौमं महेश्वरं । भंगुर व संभृतै, विवर्जितमीश्वरं ॥३॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भः प्रकाश चिदाकाशं सर्वाधारं सदोदयं । वंदे देवेंद्र वृंदा, योगिनं भोगिनं विभुं ॥ ४ ॥ दोहा भव्यनि को तारक तु ही भव सागर की पोत । भर्त्ता त्रिभुवन को प्रभू, जाकै गात न भोत ( गोत ) ॥ ५ ॥ भयहारी भगवंत तू, श्री भगवान सुजांन । भद्र भद्रकृत भरित तू, ज्ञान भवन गुनवांन ॥ ६ ॥ तु ही भवांतक भ्रम हरै, करै भलाई नाथ । भली तुही भजन जुं किया, भव तौर वडहा ॥ ॐ — अध्यात्म बारहखड़ी - भव तेरौ हू नांम है, होय स्वभाव स्वरूप । तू भदंत गुनवंत है, भगत बछिल शिव रूप ॥ ८ ॥ भगति तिहारी भवि करें, अभवि न पांवें भक्ति । भुक्ति मुक्ति की मात जो, दै निज भक्ति सुव्यक्ति ॥ ९ ॥ भर्म नांव कंचन तनौं, कनक कामिनी त्यागि । भगति करें मुनिवर महा, एक तोहि मैं पागि ॥ १० ॥ भद्रिक परिणामी लहैं, कुटिल लहैं नहि तोहि । गुन भरिता हैं तो भज्यां दै सेवा प्रभु मोहि ॥ ११ ॥ — त्रोटक छंद भय क भयकारिज ईश तु ही, भगवान विनां दुख कौंन हरे, भकभूर करें अधकर्म तु ही, भव भंजन तू भवि रंजन है, भरतादिकतार निरंजन है। भणियों न भणायउ पंडित ही ॥ १२ ॥ भगवंत तु ही भव पार करै । ही भरपूर तु पिंड सुख ही ॥ १३ ॥ जु जगभास करो जु महा कवि है। अतिभाव तु ही मनभावन है, वडभाग तु ही अति पावन है ॥ १४ ॥ नहि भानु जु और तु ही रवि है, — Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २१३ अति अमृत भाप असाचि तुरी, तर भासमा नाघ अमाध बड़ी: अविभाग अखंडित शुद्ध तु ही, अतिभार धुरंधर आप सही ॥१५॥ गुन भाजन भ्राजिसनू जु तु ही, अतिभास अभास प्रकासक ही। गुन ग्राम सुरासुर नाग नरा, पढ ही जु भये सम भाट धुरा ॥१६॥ जग को प्रभु भाल दयाल तु ही, इह भाहि निवारइ तू हि सही। गुनभाग सुभाग हकार सबै, कहही इक तोहि त ( ) पाप दबै ।। १७॥ सब वृद्धि जु हानि लखै इक तू, अति ही भिषको इक है त्रिक तू। अति रोग हरै अति भिन्न तु ही, अति है जु अभिन्न स्वभाव सही ।। १८ ॥ भिरि है न भिरयो तुक दासन सौं, जडधी जु विमोह अखासन सौं। भिस्लि है न भिलै भिलियो कवहीं, तुव भावनि माहि विभाव नहीं ।। १९॥ नहि भीट सकैं तुझै जन ए, तन है दुरगंध चला मन ए। नहि भीति विभीति सुदासन कौं, अतिभीम तु ही अघ नासन कौं ॥२०॥ ___ - दोहा - भी कहिये भय को प्रभू, तू हि अभी भयहार। भीरु नाम कायर तनौं, दास अभीरु अपार ।।२१।। भीनें तोमैं जोगिया, भीतरि बाहिर एक। भीख जु मांगें तोहि , शुद्ध स्वरूप विवेक ।। २२॥ भीर पर नहि दास कौं, तू हि सहाई नाथ। भील हु तो जपि सदगती, पावै तू वड हाथ ।।२३।। भीच्यो मोहि अपार जी, तनु यंत्र ज मैं डारि। मोह महा निरदय मिल्यो, अव भव संकट टारि॥२४॥ - आरल छंद - भुवनेश्वर जगराय छुड़ावै मोहि तू, है त्रिभुवन को तात रहयो अति सोहि त। भुक्ति मुक्ति दातार, भक्ति दै रावरी, लगी नादि की देव भ्रांति हरि बावरी ।। २५ ।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अध्यात्म बारहखड़ी भुगतें विनु छुनै न कर्म शुभ अशुभ जो जग मैं, जीवनि कै जु लगि रहे सुलभ जो। तेरी भक्ति सुवन्हि काठ झ्यौं क्षय कर, कर्म कलंक सवै 'जु भाक्त ते अति डरै ।। २६ ।। दास जु चाहैं भक्ति भुक्ति तें काम नां, भुक्ति कहावै इंद्र पदी सुखबासनां। भुक्ति फणिंद पदी हु चक्रि पदई प्रभू, तेरे दास गिनैं हि निकम्मी सहु विभू।। २७ ।। तु भुवनाधिप नाथ, भुजंगाधिप पती, अतिगति जीभ बनाय सेस ध्यावै अती। भुवन मांहि तुव कित्ति तु ही है अति गुना, ___ तोहि जमैं बड़भाग मुनीसर तत चुना ॥२८॥ - छंद भुजंगी प्रयात – भुजंगी प्रयातारि छंदा सवै ही, तु ही जो वखानैं सदा दोय नैं ही। तु ही भूत भृद्भूत भावो सुररूपा, तु ही भूति रूपो विभूति सुरूपा॥२९॥ प्रभू तात मातृ अभूतो अभूही, महाभूत भूतेश्वरो है प्रभू ही। सदा भूपती तू हि भूरीश्वरो वा, विभू है सुभूतीश्वरो थीश्वरो वा॥३०॥ तजे भूलि ध्या। मुनीसा, तुझे ही तु ही देव भूतारथो शुद्ध है ही। जिके नास्तिका भूतवादी अयाना, तुझै नांहि गांवै तिके नां सयानां ।। ३१ ।। - सारठा - तजि बहिरंगा भृति, चिदघन रूपा धरी। नो मां, सुविभूति, भृत्यंतर तू देव है॥३२॥ हर भूख अर प्यास, जग भूषण तू देव है। अति भूषित अति भास, भूरि अनंत सुगुन तुही ।। ३३ ।। भूप न दं? जाहि, चोर न वाकै पैसई। कर आपुनों ताहि, तू हि प्रभू ताकौं न भै।। ३४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी भृ प्रथ्वी कौ नांम, भू कहिये उपजें जिको । प्रथ्वीपति तृ रांम उतपति मरण न रावरै ।। ३५ ।। , ८. भूत सुमनाभ मंगल तू सद भूत आतमारांम, तृ परमातम जीवपति ।। ३६ ।। कहैं सत्य कौं भूत भूतारथ नि करा । तू है सत्य प्रभूत, सत्य तिहारों धर्म है ॥ ३७ ॥ भूत अतीत जु काल, तृ त्रैकाल्य प्रधान है। भूत जु इंद्री लाल इंद्री मन तोहि न गर्दै ॥ ३८ ॥ उपजै जाको नांम, भूत कहें श्रुति धर नरा । तू हि स्वयंभू राम, उपज्यो उपजायो नहीं ॥ ३९ ॥ भूत जु विंतर भेद, भूत जु भार्गे नांम तैं । भेष रहित अतिवेद, भेद अभेद अवेद तू ॥ ४० ॥ भेद जु डेडर नांम, भेक तुल्य मैं मूढ मति । कैसे पांऊं रांम थाह सुगुन सागर तनौं ॥ ४१ ॥ भेट चित्त करि तोहि, ध्यांवैं मुनि ममता हरा । भेद रहे नहि कोहि, तेरै साधुनि सौं प्रभू ॥ ४२ ॥ भेजे तैं हि अनंत, शिवपुर कौं जगनाथजी । भेज चढे भगवंत, तेरे द्वारे जगत की ॥ ४३ ॥ भेरि दमांमां देव तेरें, देवल अति वजैं । सुरनर धारें सेव अति अछेत्र अवनीस तू ॥ ४४ ॥ भैरव भाव न कोय, भैषज भव की तू सही । तु अति भोगी होय, आनंद रस को भोगता ॥ ४५ ॥ भोला लोक अयांन, तोहि त्यागि औरहि भजैं। गनियें सोइ सयांन, तुव भजि त्यागें जगत कौं ।। ४६ ।। २१५ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भोगी सर्प जु नांम, भोग फणनि कौ नांम है। सर्प हु शुभ गति रांम पांवैं तेरै नाम तैं ॥ ४७ ॥ P भोग जगत के नाथ, झूठे सर्वहि सार नहि । भोग त्यागि तुव साथ, करहि जती अतुलित व्रती ॥ ४८ ॥ इंद्र चा छंद न सुर्ग चाहें न च विभूती, न नाग लोका नहि चक्रिभूती । न ऋद्धि सिद्दी परजोग भूति, न सार्वभौमीभुज की विभूती ॥ ४९ ॥ अध्यात्म बारहखड़ी नही जु इष्टा न अनिष्टा चांहैं, निहकांम भक्ता शिव हू न चांहैं। पगे जु तोमैं प्रभु, हैं अनन्या त्वत्पाद धूली प्रतिपन्न धन्या ॥ ५० ॥ — — सोरठा भौतिक लहें न तोहि, जे आरंभी अति सठा । दें जगदीसुर मोहि, निहकामा भगती महा ॥ ५१ ॥ भौंदू तोहि विसारि, विचरै भवमाया विषै । भंगुर भूति जु डारि तोहि न सेवें जडमती ॥ ५२ ॥ भं नक्षत्र जु नांम, नक्षत्रनि को पति ससी । ध्यावै तोहि सुधाम, सवं नक्षत्र हु तुव भजे ॥ ५३ ॥ भंग न तूहि अभंग, भंग भाव तेरै नहीं । भ्रांति न तू अति रंग, नांहि दुर्भाांति जु तो विषै ॥ ५४ ॥ भव मद भेजें सोय, जो तेरौ सरन जु गहै। भ्रंस न कवहु होय, जो तोकौं तन मन रटै ।। ५५ ।। — — छप्पय भः कहिये श्रुति मांहि, भ्रमर कौ नाम जु होई. भ्रमर रुप मुनिग़य, सम्यकी अति व्रत जोई। चरन कमल प्रभु के हि ध्याय अनुभौ रस पीवैं, करि जु स्यामता दूरि, शुद्ध है तोहि जु छीवैं ॥ ५६ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २१७ भजि चरन कमल जग जाल तजि, आंवहि तुव पुरि भविजना। अति अमल अतुल तुव गुन सुभजि, अजर अमर हैं सुखतना ।। ५७ ।। अथ द्वादस मात्रा एक कबित्त मैं। - सवैया ३१ - भरम को नासक तू भाव अति उज्जल है, भारती तिहारी पार करै भव जल तैं। भिन्न पर भावनि त भीनौं निज भावनि मैं, भुकति मुकति ईस तारै निज बल तैं। भूप सब भूपनि को भेदभाव नांहि जाकै, भैषज समांन देव न्यारौ भोग मल तैं। सारभौम नाथ जाकै भंगुर न साथ कोऊ, भः प्रकास है अभास जूबो मोह छल तैं ।। ५८ ।। - दोहा - तेरी नाथ जु भद्रता भवा भवांनी सोय। कहैं भद्रकाली जिसैं, निज सत्ता है जोय।।५९ ।। ऋद्धि सिद्धि गौरी रमा, मा पदमा परतच्छि। काली काल हरा महा, संपत्ति स्यामा लच्छि।। ६०॥ भा आभा द्युति क्रांति जो, चंडी तिमर खिनास। स्वाभाविक पर्याय जो, प्रभु की अति गुन भास॥६१ ।। शिवाशंकरी श्री प्रभा, लक्ष्मी चेतन शक्ति। सो जैनी जिनभावना, दौलति अतुलित व्यक्ति ।। ६२ ।। इतिश्री भकार संपूर्ण । आगैं मकार का व्याख्यान करै है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अध्यात्म बारहखड़ी महादेवं महावीरं मान माया विदूरगं। मिथ्या मार्ग निहतारे, मीनध्वज निपातकं ॥१॥ मुक्तिमूलं महाधीरं, मेधापार सदोदयं । मैत्र्यादि भावना रूपं, मोह रागादि वर्जितं ।।२।। मौनारूद महाज्ञानं, मंगलं विश्वपारगं। मः प्रकाशं चिदाकाशं, वंदे वीर शिवाधिपं॥३॥ ___ -- चौपड़ी - महाज्ञान मतिवान जु मुनी, जपैं तोहि तू है अतिगुनी। महाराज सरणागत पाल, पतित उधाग्न दीन दयाल ।।४।। महा ऋद्धि अति सिद्धि निवास, मन बुद्धि कै जु परें अतिभास । रटहि महेंद्र नरेंद्र खगेंद्र, महित महापति तू हि मुनेंद्र ।। ५ ।। सदा मनोहर अति हि सुरूप, मृत्युंजय भयहर भवरूप। मद मच्छर ( मात्सर) मनपथ मलनास, मानती अतिकृति अतिभास ।।६।। महामहेश्वर अति मरमन, महा प्रभू सुविभू अतिविज्ञ। मरमी धरमी देव महंत, मही नीति धारी भगवंत ।। ७ ।। मनुपति मुनिपति जगपति जती, करहि मनीषी सेवा अती। नांव मनीषा बुद्धि जु कहैं, महाकांति तोकौं मुनि चहैं ।। ८ ।। महामहीप मही को धनी, महिमा सागर नागर गुनी। महामहेश जिनेश नरेस, जपहि सुरेश रसेस असेस ।।९।। मन मरकट के रोधक साथ, पदनांतक अति मगन अवाध । महामंत्र तेरौ उर धरै, महापद्म पदमा तुहि वरै ।। १०॥ महसां पति महतां पति गुरू, महाध्वर धरो अतिब्रत धुरू। महामहर्षि महाशय प्रभू, महापराक्रमधारी विभू॥ ११ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - छंद नाराच महानमा महा कलेसनासको महा प्रभू, महागुणी गुणाकरो युगादि देव है विभू। महा जु कर्म नासनो महेशता धरो हरो, महामनोहरांग है . महा गुरू रमावरो ।। १२ । मलाहरै कलाधरै मनोज दंडको महा, न मत्सरी लहैं जु जाहि ज्ञानवंत. लहा। मलीमसा मनामलीन नां लहैं अनंत जो, __मनुक्ष देव दानवा भ. अनादि कंत जो॥१३॥ मरुमछली दुनी मझार वाग्दिो अछेव सो, सदा सुसर्वमध्य है, महोत्तमो अभेव सो। महाकृती निराकृती महासुलच्छि दायको, मयाकरो व दयाकरी अनामयो असाथको । ६.५... - दहा .मठमंडप में मुनिवसैं, जपैं तोहि दिन गति। मगन दसा दासोनि की, अतुलित अचल लखाति ।। १५ ।। मगरमछ सम मोह है, भवसागर के मांहि । तो विनु पार न पाइए, तू तारक सक नाहि ।। १६ ॥ मकरध्वज मनमथ मदन, कहैं काम कौं नाम। काम मनोभव है सही, कामजीत तू राम॥१७॥ मलिन भाव सव ही हरे, मघवा पूजित तृ ही। मधु मांसादि निषेधको, मधुसूदन जग दृहि ।। १८ ।। मदसूदन अघसूदनो, ममता हर महिपाल । मधुकर चरन रोज के, मुनिवर मगन बिसाल।।१९।। निज रस अति मकरंद जो, पीवहि स्वरस छकह। भिक्षा लेकरि मधुकरी, तोही माहि पगेह।। २० ।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अध्यात्म बारहखड़ी महिषी इंद्रतनी सदा, जपै तोहि कौं ईश। महल न महिला रावर, तू जोगी जगदीस ॥२१॥ मल्ल मोह हारी तु ही, मल्लनाथ जगनाथ। अतिबल अतिदल अचल तू, गुन अनंत तुव साथ।।२२।। मलमूत्रादि भरयो इहै, देह अपांवन निंद्य। तोहि छुवै कैसैं प्रभू, तू अनिंद्य जगबंध ॥ २३ ॥ मदिरा सम ममता इहै, मोहमयी अघरूप। तू हि निधार जगगुरू, रमता रांम अनूप॥ २४॥ - छंद सालिनी - माया काया, नांहि जाया जु तेरै, मारो कामो, नांहि ते? ज नेरे। मातंगी जे पूजि हिंसा जु धारा, ते तोकौं नां पांव ही धर्म हारा ॥ २५ ॥ मार्गो तुही, मार्गणा तुहि गावै, मांनी जीवा, तोहि नाहि जु पावै। मातंगा हू, तोहि ध्याय जु देवा, हो तेरो शक्र धारै हि सेवा ॥ २६ ॥ माना गात्रा, नाहि छात्रा जु तेर, माया जालो, नाहि तैरै जु नेर। माता ताता, नांहि भ्राता हु तेरे, मा लक्ष्मी जो, शक्ति तैर हि नेरे।। २७ ।। मानो नाही, तो हि पावै कदापी, मारे जीवा, ते न पावै जु पापी। मांसाहारा, नांहि भक्ती जु धारें, तेरे दासा जीव हिंसादि टारै ।। २८ ।। माहे पोसे, तीर बैठा नदी कै, तोकौं ध्या साधु भ्रांती न जीको। मापे लोका, लोक ही सवैही, तोकौं स्वामी, सर्व सोभा फर्व ही ॥ २९ ।। माला फेरें, नाम तेरी जु लेवें, गार्हस्था जे, दानं चास्यौं हि देवें। साधू थ्यानारूढ है तोहि ध्यांव, योगारूढा, अंतरात्मा जु गांवें॥३०॥ – चौपड़ी - मास मास उपवास जु धारि, साधु तपोधन तत्व बिचारि। भ6 तोहि तजि जग परपंच, तो विनु सर्व गन्यों जग रंच ॥ ३१॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २२१ माहिर सब को तू जगराय, तेरे माहिर हैं मुनिराय। जग जन तोहि न जांनि सबै हि, विनु जानें भववन भटक हि।। ३२ ।। माधव तूहिउ माधव भC, मा लक्ष्मी तोकौं नहि तजैं। चिद्रूपा शक्ती अनुभूति, सो लक्ष्मी आनंद विभूति ॥ ३३ ।। अति माधुर्य वैन तू कहैं, तोहि महामुनिवर अति चहै। माल न तो सौ त्रिभुवन माहि, अविनासी तू अतिगुन माहि।। ३४ ।। मित भासी तू अमित अपार, मिष्ट बचन तेरे अति सार। मित्र न तो सौ जग मैं और, तू मिथ्यात हरन जगमार ॥ ३५ ॥ मिाल तोमैं गरिमा, न देता निज मा अनाथ। मिले न मिल्यो मिलि है तुव माहि, परपंच जु तर कछु नांहि ॥३६॥ अमिल मिलापी तू हि दयात्न, मिलै मुनिनि सौं तू हि कृपाल। मिलि जु रहयो सव ही सौं तू हि, सकल व्यापको लोक प्रभू हि ।। ३७।। -- इन्द्रवज्रा छंद - तेरौं मिलापा कवहू न छूटै, तू ही मिलापी कवह न तृटै। मिटै मिटायो कवह न स्वामी, नाथा अखंडा अति ही सुनामी ।।३८॥ तू हि मिलाफी मुनिवर्ग को हैं, तिष्टै जु नागौंपति सर्ग की है। सर्गा जु स्त्रिष्टी तु ही स्त्रिष्टीनाथा, शुद्ध स्वरूपो पदमा जु साथा ॥३९॥ मित्रो जु तू ही प्रमिताक्षरो है, विशुद्ध भावो परमाक्षरो हैं। मिल्यो न तोसौं इह जीव पापी, तारौं रुल्यो जु अति ही संतापी॥ ४० ॥ तो सौं मिले जे मुनि सिद्ध हुये, लिये न जन्मा कवहू न मूये। कहैं जु मीनध्वज काम नामा, निःकाम तू ही अति धाम रांमा ।। ४१ ।। - कुंडलिया छंद - मीनौ जनचर नांप है, जल विनु छांडै प्रान, जैसी प्रीति जु तोहि सौं, करै मुनि मतियांन। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अध्यात्म बारहखड़ी करें मुनि मतिवांन, तो विना सार नहि रहई, . . . भीग्यो तुव रस माहि, द्वैत भावो नहि लहई। लग्यो तोहि सौ रंग, और वस्तु जु नहि लीनो, करै कलोल जु सोई, नाम है जलचर मीनो ॥ ४२ ॥ पापी तोकौं ना लहैं, खगमृगमीन हत जु, जीव दया पालैं प्रभू, ते जन तोहि लहैं जु। ते जन तोहि लहैं जु, होय तेरे निज दासा, तुव परसाद जिनिंद, पावई तुव पुरि बासा। निद्रा भुख सु जीति, साधु ध्यावे हि प्रतापी, धरमी तोहि भ® ज, नां लहैं तोकौं पापी ।। ४३ ॥ आंखिनि मीट जु नां लगें, अनिमेषा हैं देव, तू देवनि को देव है, दै स्वामी निज सेव । दै स्वामी निज सेव, हम जु तो विनु अति भरमें, तुझहि विसारि दयाल, मूढ़ है बांधे करमें। तू है जगत उधार, तारि अपनें अनुचर गनि, साधु सुध्यांवहि तोहि, नो लगै मीट जुआंखिनि ।। ४४ ।। मोत जु तो सम और नां, तेरी प्रीत जु साच, चिंतामणि जगमणि तु ही, और देव सम काच। और देव सम काच, मूढ़ जन तिनकौं सेः, तेरे भगत अनन्य, तोहि भजि निजरस लेवें। कामजीत मनजीत, नाथ तृ है जगजीत जु, कहये के जगमीत, औ ना तो सम मीत जु।। ४५ ।। मीठौं भजन जु राव, और न कोई मिष्ट, मुक्तो बंधन नैं तुही, भव विमुक्त जग इष्ट। भव विमुक्त जग ईष्ट, मुकति को मूल जु तु ही, मुनिवर ध्यां। तोहि, तू हि है जगत प्रभू ही। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २२३ ... .asaaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa. भहि मुमुक्ष मुनीश, ज्ञानमय तू हि जु दीठौ, ___ मुकट जगत को तू हि, रावरौं भजन जु मीठौ ॥४६।। मुद्रा शांत जु राघरी, मुसकान मुलकनि नाहि, मुख तेरौं अविकार है, जा सम और जु नाहि। जा सम और जु नाहि, नाथ उनमुद्रित सोई, मुसै मुननि को चित्त, जाय मुसियो नहि जोई। भ® जाहि वड भाग, जाहि पावै नहि क्षुद्रा, बुद्रिा बागा या होग, शी संत जु मुद्रा।। ४७ ।। मूरति तेरी मनहरा, ज्ञान मूरती तू ही, है आनंद जु मूरती, त्रिभुवन को जु प्रभूहि। त्रिभुवन को जु प्रभूहि, मूल्न धरमनि को तूही, देव अमूरति तू हि, मूढमति तोते दूही। मूरति तेरी मूरति ................... .............. || ४८॥ मूका तेहि जु नां जपैं, तोहि जु कार गुनगान, मूरिख तोहि जु नां लहैं, तू ज्ञानी गुनवांन। तू ज्ञानी गुनवांन, करहि उनमूलित कर्मा, मूलोन्मूल करे जु, तोरि डारे सव भर्मा । मूः बंधन को नाम, वंध सब कीनें भूका, ___ . मूरति तेरी पूजि, नां जर्षे तेहि जु मूका ।। ४९ ।। तिनकै मूंड मुडाइयां सिद्धि न कोई होय, तोहि न ध्यां मूढ धी, पगे जगत मैं सोय । पगे जगत मैं सोय, बोधकर तू नहि जान्यों, कंद मूल फल खाय, भाव करुणामय भान्यों। मेधा को नहि लेस, लेस नहि श्रुति को तिनकै, भजन विना किह काम, मूंड मुडायां तिनकै ।।५० ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अध्यात्म बारहखड़ी -- छप्पय - मेन वै जल . आर, तू हि जानामृत धारा, ताकी रहनि न ठीक, तू हि है नित्य विहारा। वह निपजांदै धांन, तू हि उपजावै ध्याना, वह देहगो कदापि, तू हि निहकपट विग्याना। अति चपल दामिनी मेघ कै, तेरै कमला निश्चला, प्रभु क्षणक चाप है जलद को, जान चाप तुव अतिबला ।। ५१।। मेर धरम की तू हि, मेर वांधै धरमनि कि, मेचक भाव मलीन, मलिन परणति करमन कि। मेचकता नहि कोइ, शुद्ध तू बुद्ध महाअति, जगत देव अतिभेव, परम तत्व जु तू जगपति । सकल मेदनी को जु नाथा, मैत्री प्रमुख जु भावना, सव कहइ विमल अति अचल्न तू, भाव तिहारै पावना।। ५२॥ मैथुन है अतिनिद्य, ताहि त्या- तुव दासा, मैंन कहावै काम, कामहर परम प्रकासा। मोह मल्ल को जीति, मोक्ष की पंथ जु तू ही, मन मोहन तू देव, सर्वगत तू हि प्रभू ही। मोद स्वरूप अनादि अनिधन, अति प्रमोद भावो तु ही, मोकौं जु तारि भव जलधि तै, नाव तू हि जगदीस ही॥५३॥ - सोरठा -- मोहे जीव अपार, मोह करम नैं नाथ जी। तू हि उतारै पार, पारंकर परतक्ष तू॥५४ ।। मोसे जीव अपार, कैसैं मैं तिरिहौं प्रभू। तू हि करै निसतार, मोसे पापनि को महा॥५५ ।। मौलि मुकट को नाम, मुकट जगत को तू सही। मौड सकल को राम, मौज न तेरी सी कहूं ॥५६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी मौजी तो सम और, तीन लोक मैं नाहि को। करै करम कौ चौर, मौर्वी चाप न रोपनां ।। ५७ ।। मौनारद मुनीश, ध्यावें मंगल रूप तू। मंत्र मृरनी ईश, मंत्र न तंत्र न यंत्र नां ॥५८ ॥ मंगल कारी तृहि, मंता संता कंत तू। मंद न तूहि प्रभूहि, मंदमती तोहि न लखें।। ५९ ।। मंदिर गुन को ईस, सीस जगत को तू ही। मंगलीक जगदीस, मंडन त्रिभुवन को महा॥६०॥ मं. व्रत अनादि, खंडें अव्रत कौं तू ही। गुन मंडित तू, आदि, तो विना वादि सवै जगत ॥६१॥ मुंचि न मौकों नाथ, मंक्षु उधारौ भव थकी। जग जीवन अतिसाथ, अंजन मंजन रहित तू॥६२॥ मंद कषाई जीव, भक्ति भाव सोई लहै। तीन कषाय अतीव, धारै सो, तोहि न लहें ।। ६३ ।। मः कहिये श्रुति माहि, शिव को नाम प्रसिद्ध है। तो विनु और जु नाहि, शिव शंकर जग गुर तुही ।। ६४।। मः कहिये फुनि चंद, त्रिभुवन चंद मुनिंद तू। से इंद नरिंद, तोहि फनिदं मुनिंद हू।। ६५ ।। मः वेधा को नाम, तू ही विधाता विधि करै। पूरब बंध जु राम, कादं तु औरैन को॥६६ ।। अथ बाग मात्रा एक कवित्त मैं। - सबैबा . ३१ - महादेव महाराज, मारग प्रकास तू, माया नै वितीत मिथ्या भाव ते रहित है। . मीन केतु जीति मुनि ध्यावे, तोहि मूल तही मेदनी को नायक अनंतता सहित हैं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ मैत्र्यादिक भावना प्रकास मोह जीतक तू रोह तुल्य जीव को न दूसरों अहित है । मौलि सव लोक कौ जु मंगल स्वरूप नाथ मः प्रकास हैं अनास ईसुर महित है ॥ ६७ ॥ कुंडलिया छंद - - अध्यात्म बारहखड़ी माता पद्मा शक्ति जो आतम सत्ता जोड़, चिद्रूपा गुण व्यक्ति जो, चिनमुद्रा है सोइ । चिनमुद्रा है सोय, वस्तुतैं एक स्वरूपा, भेद भाव नहि काय, वस्तुता सोइ अनूपा । प्रभु की परणति शुद्ध, शुद्धता सोय विख्याता, शिवा आर्हति सिद्धि, शक्ति जो पदमा माता ॥ ६८ ॥ • दोहा सो गौरी स्यामा सही, रमा राधिका सोइ । भवा जिनेंद्रा ऋद्धि जो, सो दौलति हू होइ ॥ ६९ ॥ ― इति मकार संपूर्ण । इति श्री भक्त्यक्षर मालिका घावनी स्तवन अध्यातम बार खड़ी नाम ध्येय उपासना तंत्रे सहस्त्रनाम एकाक्षरी नाम मालाद्यनेक ग्रंथानुसारेण भगवद्भाजनानंदाधिकारे आनंदरांम सुत दौलति रामेन अल्प बुद्धिना उपायनी कृते पकारादि मकारांत पंचाक्षर प्ररूपको नांम चतुर्थ परिच्छेद || ४ || आगें यकार का व्याख्यान करें है । · झांक यशो रासि महाबाहुं याचा सर्वपूरकं । वियासा रहितं नित्यं निश्चलं लोक वत्सलं ॥ १ ॥ यी मात्रा भासकं वीरं युक्तं गुणगणैः सदा । यूथाधिपति मीशानं निजबोध धरं सदा ॥ २ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २२७ ये रागादि विनिर्मुक्ता, स्ते हि ध्यायति तं परं। यै ति मुनिभिः शांत, स्तैप्तिं परमं पदं।।३।। योग मार्ग प्रदातारं, यौगिकी ऋद्धि दायक। यं भनि सदा सर्वे, तं वंदे परमेश्वर ।। ४ ।। यः प्रभुः सर्व लोकना, मीश्वरः जगदीश्वरः । सुरासुसनशः सर्वे, बस्याज्ञाकारिण: सदा॥५॥ - दोहा - यदा कहा जा समैं, तोहि भनँ मुनिराय । तदा कहावै ता समै, भ्रांति न एक रहाय॥१॥ यत्कहिये जातै प्रभू, भऊँ तोहि जगत्यागि। जग असार तू सार है, तोमैं रहिये पागि।। २ ॥ तत्कहिये तातै प्रभू, देहु, भक्ति निहकाम। सर्व त्यागि तोकौं भजें, जैसी बुद्धि दै राम ॥ ३॥ यस्य कहावै जाहि के, उर निवसै तू देव । तस्य कहावै ताहि के, है आनंद अछेव ॥४॥ यस्मिन्कहिये जा विषै, तेरी भक्ति जु नाहि। तस्मिन्कहिये ता विर्षे, गुण गण नांहि रहांहि ।।५॥ - कुंडलिग छंद - यति नाथो अतिदेव तू, यति पति यति गण ध्येय, यति नायक सुयतीश्वरो, यति पालक यति सेय। यति पालक यति सेय, सेवही जाहि यतिंद्रा, यत्ति गुरगुरू दयाल, देव यतिभेस मुनिंद्रा। यतिराजो यतिनाव, धारही यतिवर साथो, यति वर्गनि को तात, देव तू यति अतिनाथो ॥६॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ अध्यात्म बारहखड़ी थति तारै जग देव त, यग्य यजन यज्ञेस, .. . अज्ञासा : पूरन : सर रस...तोडि हेवेस। यजै तोहि देवेस, यज्ञ है तेरी सेवा, यज्ञ ध्यान अगनीहि, होमिये कर्म अछेवा। अति दानो सो यज़, शील यज्ञो अघ टार, यज्ञ पुरुष है तू हि, देव जग तू यति तारै ।। ७ ।। - दोहा - याज्ञक साधु मुनीश्वरा, यज्ञ तिहारौ ध्यांन । यश तो सम और न धेर, यशी न तो सम आंन ।।८।। नाम जनेऊ को कहैं, पंडित यजुपवीत । धारि जनेऊ गृहपती, त्यागें सकल अनीत॥९॥ द्विज क्षत्री वणिक जु कुला, एहि जनेऊ लेहि। शूद्रनि कौं लेवा नहीं, इह आज्ञा गुरु देहि ॥१०॥ तोहि भन्यां त्रिकुला भला, विना भजन सव निंद्य। निदि कुला हूं ध्याय कैं, हौंहि जगत करि बंदि ॥११ ।। यथाख्यात चारित्र दें, नाथ तिहारी भक्ति। केवल दाता भक्ति है, भक्ति धेरै अति शक्ति ।। १२ ।। __ - छंद मोती दाम - तु ही यम नेम जु आदि सहि, प्रभू वसु जोग विधी हि कहै हि। तु ही यम नासक मोक्ष प्रकास, महायत नागर यन्न विभास॥ १३ ।। ल मुनि यत्र जु यत्र जु नाथ, सु तत्र जु तत्र जु तू हि अनाथ । ग्रव प्रमिता प्रतिमा हु निहारि, कहैं अति पूजित सूत्र मझारि॥ १४ ॥ जएँ जु यमी नियमी मुनिराय, भजे हि शमी जु दमी जतिराय। ग्टैं नहि तोहि सु ते हिय अंध, मिथ्यात हि राचि कर अघबंध ।। १५ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म धारहखड़ी यथा प्रभु अंध अधार सुयष्टि, तथा भवि के तुव भक्ति हि इष्टि। न नारक यातन दास लहै हि; न चायना सुहु की सुपारे ।। १६.. चहैं तुव भक्ति न चाहहि भोग, अयाचक रूप गहें निज जोग। न याति न पांति न न्याति निकोय, सवै तजि लोक भजै मुनि होय।।१७।। - दोहा - या कहिये जु विधात कौं, तृ हि विधाता देव। था तेरी परणति सही, चिद्रूपा अतिभेव ॥१८॥ यावत तोहि न पांवहीं, तावत भव भ्रम होय। यावत कहिये जो लगैं, जीवन उधरै सोय।।१९।। याभ्यां कहिये दोयकरि, रुलै जीव संसार। राग दोष दोऊ अरी, जी मुनि अविकार॥ २० ॥ कहै यियासा श्रुति विषै, गमनेछा को नाम। गमनागमन वितीत तू, निश्चल निरमल राम ॥२१॥ यी इह चउथी मात्रिका, तू हि प्रकासै देव । धेरै अव्ययी भाव तू, अक्षय रूप अछेव ॥२२॥ युक्ति प्रकासक वस्तु तू, युगाधार युगधार। युग कहिये है कौं सही, तृ द्वय रूप अपार ॥२३॥ निराकार साकार तू, दरसन ज्ञान अभेव। युगल रूप अतिरूप तु, युगमभाव अतिभेव ।।२४।। तु सामान्य विशेष है, अस्ति नास्ति परकास। नित्यानित्य अनेक तू, एक रूप अतिभास ।। २५ ।। युग युग तेरौ आंसिरौं, नाथ युगादि अनंत । युक्तायुक्त विभेद सहु, तू हि विभासै संत ।। २६ ।। युष्माकं को अर्थ इह, तुम्हरै नांहि विकार। अस्माकं को अर्थ इह, हमकौं करि भवपार ।। २७।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी युषमात असमत शब्द सहु, तू ही प्रगट करेय। शब्दातीत अजीत तृ, चेतन भाव धरेय॥ २८ ॥ मुक्तिः न. तेरी मी कहूं.. युबति ने तौ पास। निरयांणी निरढुंद तू, अति आनंद प्रकास ।। २९॥ युवा बाल वृद्ध जु नहीं, प्रभू युगंधर तू हि। युगल रीति भासक तु ही, तू युगबाहु प्रभू हि॥३०॥ युग जुड़े को नाम है, युगसम लंबी वाहु । महाबाहु तू देव है, परम स्वरूप अथाह ।। ३१ ।। युग प्रमाण धरती लखें, लखि लखि भूमि सुसाध । द्रिष्टिपूत पाव जु धरै, धारै भगति अगाध ।। ३२ ॥ यूथ समूह जु नाम है, सर्व समूह प्रकास। कर्म यूथ टारै तू ही, यूथ गुननि के पास!॥ ३३ ॥ . - बसंत तिलका छंद .. यूनां तु ही जु अतिवीर सुधीर स्वामी, तू ही जु धर्ममय यूप धेरै सुनामी । ये तोहि चित्त करि भव्य जना जु ध्यांव, ते शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध स्वरूप पावै ।। ३४ ।। ये तोहि भूलि विषयारस मांहि राचे, ते लोक मांहि बहु रूप धरे जु नाचे। ये है अनन्य अति धन्य जु तोहि सेवें, ते त्यागि राग अर दोष सुसिद्धि लेवें ।। ३५ ।। – साठा - येन शब्द का अर्थ, जा करि भा0 पंडिता। जा करि त्यागि अनर्थ, लहिये शिव सो तू सही: ।। ३६॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी येन अर्थ फुनि और, जानैं तू घ्यायो सही। सो हूबो जगमौर, भव भरमण ताज हत्यौ।। ३७ ।। येन कहैं जा साथ, ज्ञान विराग विवेक है। ताकै भक्ति सुनाथ, उपजै तेरी अद्वतौ ।। ३८ ॥ - दोहा - येषां कहिये नाथजी, जिनकै भक्ति जु होय। तेषां कहिये तिनहि कै, तत्व बोध है जोय ॥३९॥ यैः कहिये जिनकरि तुौं, पाबैं दीन दयाल । ते रतन त्रय दे हमैं, सरणागत प्रतिपाल ॥४० ।। यैः कहिये फुनि जिनि मुनिनि, तोहि जु ध्यायो देव। तैः कहिये तिन ही सही, पायो पद जु अछेव ।।४।। यैः कहिये जिन सहित प्रभुः, तो सौं भेटैं नाथ। सो ज्ञानादि प्रबंध दै, बंध हरन जगनाथ ।। ४२ ।। योगी योग प्रकास तु, योगीश्वर अवनीस । योज्ञ तु ही अति शुद्ध है, योगारूढ मुनीस ॥४३॥ योग शास्त्र भासी तु ही, योग तंत्र योगीश । जाहि भ6 योगी महा, सो तू ही भोगीस ।। ४४ ।। तजि संयोग सबंध जे, योग धरै मुनीराय। संसलेष संबंध हु, तिनकै नांहि रहाय ॥ ४५ ॥ समुवायो जु सबंध हैं, सो प्रगटै तिनकै हि। तेरी भक्ति प्रशाद तैं, कर्म कलंक दवै हि॥४६ ।। योद्धा तेरे दास हैं, जीतें कर्म अनादि। युद्ध करन समरथ नही, तिनसौं खल्न रागादि ।। ४७॥ योग गम्य तोकौं कहैं, योगिनि त हु अगम्य । योनि लक्ष चौरासि तैं, टारै तू हि जु रम्य ।। ४८ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अध्यात्म बारहखड़ी ब्रह्मयोनि निरयोनि तू, प्रभू अयोनी शंभु। अति योजन दूरा तुही, अति नीरै विनु दंभ ।। ४९ ।। यौ कहिये द्वौ दोष हैं, राग द्वेष अनादि। तू सब दोष वितीत हैं, निरदोषी प्रभु आदि॥५०॥ - छंद भुजंगी प्रयात - नहीं यौवनारूद्ध नांही जु वृद्धो, तु ही नित्य रूपो प्रभू है समृद्धो। तु ही यौगि की देव देवै जतिक्षा गर्दै सर्वोपी पर रिति रिक्षा . इहै धर्म ध्याना सुयंत्र स्वरूपा, तृ हि देव यंत्री नियंत्री अनूपा। प्रभू हैं स्वतंत्रा अमंत्रा अनादी, सवै सिद्धि यंत्रा तु ही स्यादवादी।।५२ ।। नही यंत्र मंत्रा नहीं कोय तंत्रा, तु ही यंत्र मंत्री स्वतंत्रा अमंत्रा। बिना नाम तैर नहीं और मंत्रा, विना ग्रंथ तेरे नहीं और तंत्रा ॥५३।। ____ --- ॐद त्रिभंगी - प्रभू तू हि अयंत्रा परम सुमंत्रा, प्रगट सुतंत्रा अविकारी । सब यंत्र सुमंत्रा, सकल जु तंत्रा, तू हि निमंत्रा अधिकारी। इह देह हु यंत्रा, जगत हु यंत्रा, लिखित हु यंत्रा तू भासै। फुनि सकट हु यंत्रा, वजड़ सुयंत्रा, तृ हि नियंत्रा अघनासै॥५४ ।। अति तू हि जु यंत्री, अतुल जु मंत्री, यंत्र नियंत्री, विनु यंत्रा। है सिद्ध जु यंत्रा, अजपा मंत्रा, योग जु तंत्रा, अति तंत्रा। सव भेद बतावै, विधि जु सुनावै, तत्व जताबै जिनराया। अभ यंत्र नसावै, यत्रि कहावै, तंत्र जु भावे, सुखदाया ।।५५ ।। - दोहा - यं कहिये जिह . तु ही, करै आपुनौं दास । तं कहिये तिह नैं प्रभू, देय आपुनों वास ।। ५६ ।। यः कहिये जो जीव भवि, तोहि भजे भगवंत। सः कहिये सो सीघ्र ही, पावै ज्ञान अनंत ।।५७ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी यः कहिये यमराडु कौं, तू यमहर भवतार | य: कहिये फुनि खान कौं, ज्ञान यान अविकार ।। ५८ ।। यान पात्र भव सिंधु की, तू हि उतारै पार य: कहिये फुनि यत्न को तू अयल गुन धार ।। ५९ ।। य: कहिये फुनि त्याग कौं, तू त्यागी अति देव । अति भागी अधिकार तू, दै दयाल निज सेव ॥ ६० ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं I सवैया यतिनि को नायक तू यतन करैया देव, यान पात्र लोक कौं तु ही हि भवतार हैं । वियासा न तेरे कोऊ, यी प्रकास तू हि होऊ, युक्ति कौ निवास वृद्ध दायक अपार है । नोति ये अर्जेन तेन पत्र तन्त्र गृह यैर्न सुन्यौ नाथ जस ते न पांवें पार है। योग कौ प्रकास देव यौगि की जु दिक्षा देय, . — — यंत्र मंत्र नांहि कोऊ, य: प्रभास सार है ।। ६९ ।। कुंडलिया छंद --- या अनुभूती रावरी, हरै यामिनी भ्रांति, सो शुद्धा तुव भानु की, किरण जु परम प्रशांति । किरण ज़ु परम प्रशांति, मोह तिमर जु कौं नासै, भोग भावना मेटि बोध दिवस जु विभासैं । कर्मासुर क्षयकार योग मूला जु विभूती, भाषै दौलति ताहि, रावरी या अनुभूती ॥ ६२ ॥ इति यकार संपूर्ण । आगैं रकार का व्याख्यान करें है। २३३ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - शोक - रजोहरं रमानाथं, राज राजेंद्र सेवितं । रिक्तता रहितं पूर्ण, धर्म रीति प्रकासकं ॥१॥ रुक्माभं रूप लावण्य, भूषितं लोक भूषणं। रेत शादि रहित; - दादरीयं . ६ || .. रोगादि रहितं शुद्धं, रौरवादि निवारकं । रंगरागादि निर्मुक्तं, रः प्रकाशं नमाम्यहं ।। ३॥ – उपेंद्र वज्रा छंद - भाष्यो रकारो धन को जु नांमा, नांही रकारी विनु नाम रामा। रकार भाष्यो फुनि वैश्रवो हू, सोऊ स्टै जु अर वासवो हू॥४॥ रम्यो रमानाथ रमाधवो तू, मृत्यु हरै नाथ रसायनो तू। रमा न वाह्या चित शक्ति तेरी, सोई रमा है प्रभु तोहि नेरी ॥५॥ दोसा रसा नां रस वाक्य तू ही, रत्नादि दाता जग को प्रभू ही। न रत्न कोई विनु आत्म भावा, रत्नत्रया तू हि धेरै स्वभावा ॥६॥ पृथ्वी रसा है तु हि भूपती है, भूमी समाधी तुहि दे यती है। रसातले जाहि सु तेहि मूढा, जे तोहि त्यागे कुविधी हि रूढा ॥७॥ रक्षा वतावै सव जीव की तू, प्रीति छुड़ावै जु अजीव की तू। रती हु मात्रा नहि भ्रांति जाक, तोमैं रच्यो जू भवि जीव ताकै।। ८ ।। तोकौ रच्यो नांकि नही कदापी, तू ही अनादी प्रभु है उदापी। रचे न तूही भव भ्रांति माही, तोसौं रचे जे अभव्या मु नाही।। ९ ।। - दोहा - रत्नपती पूर्जे चरन, रत्नगर्भ भगवांन । रतनेश्वर अति रत्न धर, रल न ता सम आंन ।।१०।। रमण रमा को जो प्रभू, रति अरति न एकोहि। अति सुशील जगदीस जो, अविचल सुविधेकोहि॥११॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रमणीको रस मूल तू, रमि जु रहयो सब पांहि । रमैं आप माहे तु ही, रज रहितो सक नाहि ।।१२।। रती न जाकी सी धेरै, तीन लोक मैं और। रतिपति जीत्यो जाहि नैं, सो त्रिभुवन को मौर॥१३॥ ... सवैया ३१ - .... रघुवंस आदि केई म को लधारक नु, रघुनाथ नाथ तू ही तीन लोक नाथ है। रणधीर रणवीर रद भांजै के जु ज्ञान चाप धारक कर हि तुव साथ है। र तोहि इंद चंद र₹ जु मुनिदं सव रटै अहमिदं तू, जिनिंद बद्ध हाथ है। तारै भवसागर तें, नागर निरंजन तू, भव दुख पावक वुझायवे कौं पाथ है॥१४ ।। - दोहा - रव कहिये उच्चार कौं, नाम उच्चारै तेहि । रहसि लहै निज रूपको, भव जल कौं जल देहि॥१५ ।। रा कहिये धन कौं सही, निज धन तू हि जु आदि। राग रहित अविकार तू, राम सुनाम अनादि ॥ १६ ॥ रामा तेरै नांहि को, रमा न रामा होय । रमा रावरी शक्ति है, राधा कहिये सोई॥१७॥ राधा दूजि नाहि को, निज सत्ता है जोई। शिवा आर्हती शक्ति जो, सो गोपी हू होय ।। १८॥ राका पूरणमासि है, राका कौ है चंद। तैसौ सीतल चित्त करि, तोहि भसँ जु मुनिदं ।। १९॥ राजा सब को तू सही, राव जगत को तू हि। राय न तो सम दूसरौ, रावर एक प्रभू हि ।। २० ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी राचै तो मैं जोगिया, रारि भारि सव त्यागि। रासि गुननि की तू सही, रहिये तोमैं पागि ।। २१ ॥ - कुंडलिया छंद -- राख समाना भूमि जोरे, राखी सहै न कोटाः . . . . . : .. ..... राग करें यां सौं जिकै, ते मति हीन जु होय। ते मति हीन जु होय, राति दिव यामैं पागे, धंध भाव मैं सचि, तोहि ध्यानै न अभोगे। चाह तोहि सुभव्य, तेहि पांथें निजग्याना, चाहैं मूरख लोक भूति जो राख समाना ।। २२ ।। ..... हाहा - राजस तामस सात्विका, तू धारै नहि एक। निज स्वभाव राजिंद तू, धारै अतुल विवेक ।।२३।। राष्टर देस जु नाम है, देस असंखित होय। तेरै लोक प्रमाण तू, ज्ञान मात्र है सोय॥२४॥ - छप्पय - त्रिभुवन चंद जिनंद, राहु सम मोह न गहई, क्षयी भाव कबहू न, तोहि नहि कलमष लहई। तू निकलंक दयाल, तिमरहर भ्रांति निसाहर, जमैं निसाकर तोहि, जडत हर तू प्रभाकर । अस्त भाव कवहू न होई, उदयरूप निति देखिये, नहि रक्त पीत सित स्याम तू, हरित न अवरण लेखिये।। २५॥ रिय कर्म अति भर्म, नाथ तुब दास जु देखें, रिपु नहि इनसे और, रीति इनकी हि जु पेखें। रस रीसि जु _ भाव, इनहि उपजाये मोमैं, नादि काल तै देव, मोहि डारयो इनि दो मैं। विषयकवाय लगाय मो कौं, दाबे अति गुन निज मई, जद्धमय पंजर मांहि मूदिवि, भटकायो चहुगति दई ।। २६ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी विषय स्वाद कौं लागि मैं जु रोरी अतिभाषी, लखियो नाहि जुरोहित की सी अब दें भगति दयाल, टारि सवही अधकर्मा, रीझ खीजि मुनि त्यागि तोहि ध्यांवें तु हि पर्मा । रीझे तेरे रस जु मांहैं, छके रावरी क्रांति मैं, रीझे कर्म सबै हि तिन पैं, जे आये तुव पांति मैं ॥ २७ ॥ सोरठा रीता रहें न दास, भरितावस्थ स्वरूप हैं । तू पूरण गुन रास तो सौ तू हि जु और नां ॥ २८ ॥ — - सवैया रुकमाभ उज्जल तू रुकम नहीं जु तुल्य. तेरी सी विमलता जू तू ही एक धार ही । तेरी रुख साच और झुठी सव दिसि नाथ, रुज हर रुग हर करै भव पार ही । रुकै नांहि रोक्यो कभी व्यापि रह्यो सवमांहि, रूपे मुनि तोहि मांहि, लख्यो तू हि सार ही । रुणक झुणक करि नांचें इंद चंद तेर, रुचि क समूह तू हि तारक अपार ही ।। २९ ।। रु तू जु भव्यनिकों, अभविनि र्को रुचै नांहि, तेरी रुचि सरधा प्रतीति देहु मोहिजी । रूप ही अरूप तेरै, तू अरूप हैं स्वरूप, तोसौं रूपवान कोऊ दूसरों न होहि जी । चेतना स्वरूप तू हि आनंद स्वरूप नाथ, अटल अवाधित रह्यौ जु अति सोहि जी । रूढ परसिद्ध नांम तू हिं परसिद्ध रांम गूढ़ अति तू हि देव वनैं सब तोहि जी ॥ ३० ॥ ३१ २३७ 1 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अध्यात्म बारहखड़ी - सोरठा - रूढि अविद्या रूप, तेरे दास न आदरै। है तौं सौं इक रूप ध्यां अहनिसि निज विषै।। ३ ।। रूढ कूद इह जीव, भयो अविद्या वाय तैं। कर जु शुद्ध अतीव, तू हि मिथ्यावाय हरि।। ३२ ।। - छंद त्रिभंगी - प्रभू कबहु न रूठे, कबहू न तूढ़, अमृत बूढ़, उर माह। अतिकरत निहाला, अति हि विसाला, जगत प्रपाला, जग चाहैं। सव तेरे दासा, तू हि प्रकासा, परम विलासा, रस रूपा । अति वैरागी तू, वडभागी तू, अनुरागी तू, करि भूपा ।। ३३ ।। नहि रूसि जु जानें, रीसि न आने जड वुधि भा तू गिप्ता। चीकन नहि रूखा, है नहि लूखा, त्रिषित न भूखा तू त्रिप्ता। रेचक विषयनिकी, जीवनि मुनि की, हित भविजन की, तुव वानी। सव रीति प्रकास, कुमति विनासै, तत्व विभासै भय भांनी ॥ ३४ ॥ - सोरला .. रेचक पूरक और, कुंभक तू हि प्रकासई। सव योगिनि को मौर, योगसिद्ध परसिद्ध तू॥३५ ।। रेत समान विभूति, जग की तजि योगीश्वरा । पांवें निज अनुभूति, तेरी भक्ति प्रसाद तैं ॥३६ ।। जैसे रेसम कीट, बंधे अपनी लाल तैं। तैसैं जिय धरि कीट, बंधै जगवासी जना ॥ ३७॥ - सवैया - ३१ - रेवरा समान इहै जग, भरयो कूरे सौंहि, तामैं जीव लेटियो सुमोह मदिरा पियें। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रम्य रमणीक तूही, नांहि भव रूप तू ही, धारें मुनिराय नांम, तेरौ आपुनैं हियें। कूरे तैं निकास तू ही, मोहमद्य दूर करें, ज्ञान की प्रवोधक तू शक्ति आत ही लियें । रेत करि डारै कर्म भूधर कौं दास तेई Ser भक्ति भाव वज्ररूप, जेहि कर मैं किये ॥ ३८ ॥ २३९ — सोरठा रे रे चित्त अवांन, भजऊ भजऊ जगदीस कौं । धारहु क्यों न सयन, जाकरि भव भरमण मिटै ॥ ३९ ॥ ₹ रै लंपट जीव, विषयनि मैं लपट्यों कहा। क्यौं न भजे जग पीव, जाकरि निज रस पाइए ॥ ४० ॥ शेर दरिद्र जु नांम, रो भय को नाम जु कहैं । तू दरिद्र हर रांम रोग महा रागादि हरे रोप न चाप अनादि, रोकि रहे भव मांहि मोहादिक राक्षस महा । ते ही तुव पुरि जांहि, जे इनकों नांसें मुनी ॥ ४३ ॥ भयंकरा ।। ४१ ।। भय कौं तू हि तू हि अति धनुद्धर तू अदभुता ॥ ४२ ॥ बैद्य तू । P भजें ॥ ४४ ॥ रस । रहयौ ।। ४५ ।। रोष न दोष न राग, तेरे तू अविकार है । वीतराग वडभाग, तेहि जेहि तोकौं रोचिक होय मुनिंद, जपें तोहि तजि रोस तो सौ नृ हि जिनिंद, रोम रोम व्यापि जु रोहणि आदि नक्षत्र, संवें सत्र तोकौं प्रभू । नक्षत्री जु पवित्र, तो सौ तू ही और नां ।। ४६ ।। रोहिणी व्रत्त जु आदि व्रत अनेक कहै तू ही । तू भगवंत अनादि, रौरवादि टारक तू ही ॥ ४७ ॥ रौरव नकं जु नांम, तू नरकांतक देव हैं। सर्व कष्ट हर राम, धांम ऋद्धि कौं तू सही ॥ ४८ ॥ — Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी रौदिक सार्थिक सर्व, शब्द प्रकासै नाथ तू। ..... . . . . हो सोह.... को, गट; . रंगनाथ तू रंगधर ।। ४९ ।। रंकनि तैं प्रभु राव, करै तू हि दे पूजि पद। ग्क ते हि भव भाव, धारै मिथ्या द्रिष्टि जन॥५० ।। सम्यगदृष्टि राव, और न राब त्रिलोक मैं। तू रावनि को राव, रंजित नहि रागादि मैं॥५१॥ रंग विरंग जु नाहि, तेरे रंग स्वभाव को। आतम अनुभव मांहि, मगन रहैं तेरै जना ।। ५२॥ रुधैं कर्म सवै हि, धर्म शुकल परगट करें। तोते भर्म दबैहि, रंध्र न तेरे एक है।। ५३॥ रंध्र कहावै छिद्र, छलछिद्री तोहि न लखें। तू निरबंद अछिद्र, क्षुद्र न पावै भेद तुव॥५४॥ रंच न भाव विकार, थारै अविकारी तु हो। रंग महल ततसार, तहां विराजें धीर तू।। ५५ ।। रंभा थंभ समान, भव तन भोग असार ए। इनतें प्रीति अयांन, करें तोहि ध्यांवें नहीं ॥५६॥ रंग समाधि स्वभाव, और कुरंग सवै कहे। चंचल कायर भाव, इनमें निश्चलता नहीं ॥५७॥ र; कहिये अति माहि, नाम काम को प्रगट है। काम क्रोध कछु नाहि, तिनतें भक्ति न पाइए ।। ५८ ।। र: कहिये फुनि नाथ, अनि नाम सिद्धांत मैं। तपति हरण तृ. पाथ, कर्म दहन अगनि हु तुही ।। ५१।। कहैं वज्र को नाम, र: ग्रंथनि मैं पंडिता । वत्री पूर्जे गंम, तो कौँ तन मन लायकरि ।।६० ॥ शब्द नाम बुद्धिवांन, र: भाई गंधनि विर्षे । शब्दातीत सुजांन, शब्द अर्थ भासै तु ही॥६१॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी र: भाष्यौ फुनि रूप, रूपी तु न अरूप है। रूप अरूप अनूप, तू चिद्रूप अमूरती॥६२ ।। र: रक्षण को नाम, रक्षक थिर चर को तूही। अति विश्रांम सुधाम, गुन अनंत भगवंत तू ।। ६३ ।। अथ बारा मात्रा एक कबित्त मैं। - सवैया - रतिपति जीतें तेरे दास, राग दोष हर, रिपु नांहि इनसे कदापि तीन काल मैं। रीति सर्व धर्मनि की, तु ही जो प्रकार, देव रुलैं नाहि, तेरे जन रा0 गुन माल मैं। रूप को निवास तू ही, रेचकादि भासै विधि, रैनि सम भ्रांति हरै, त न जग जाल मैं। रोर हर रौरवादि दार तृ हि रंग नाथ, र: प्रकास तू हि नांहि शुभाशुभ चाल मैं॥६४॥ __ - कुडलिया छंद - स्वामी तेरी रम्यता, रमा जु कहिये सोइ, रति अति जु दोऊ नहीं, जो चिन्मुद्रा होय । जो चिन्मुद्रा होय, वस्तु कैवल्य स्वभावा, ___ भेदभाव नहि कोइ, शुद्धता शक्ति प्रभावा । भवा भवांनी भूति, ऋद्धि सिद्धि जु अतिनांमी, भाषै दौलति ताहि, रम्यता तेरी स्वामी॥६५ ।। इति रकार संपूर्णं । आगैं लकार का व्याख्यान करै है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - शोक - ललितं लालसातीतं, लिखितं गणनायकैः। नीलं स्नीलाधरं धीरं, नहि लुप्तं च कर्मणा ॥१५॥ लूनिता शत्रवो येन, कर्म रूपा दुराशया। शुक्ल ध्यानासिना सर्वे, सो हि जानाति तं परं ।। २॥ निर्लेपं निर्मलं वीरं, वर्जितं सकलै मले। लोकनाथ महाशांत, लौल्यता रहितं सदा ॥३॥ लंपटै न क्वचिलभ्यं, लिंग रूपादि वर्जितं । ल: प्रकाशं चिदाकाशं, वंदे देवं सदोदयं ।। ४ ।। --- उपेंद्र बज्रा छंद - भाष्यो लकारो श्रुति मैं जु इंद्रा, इंद्रा र₹ जु तुझ कौँ मुनिंद्रा । लकार भाषे लवणो हु जोई, तू ही स्वलावण्य मयो जु होई॥ १॥ भाषं लकारो फुनि व्याज को भी, भासै लकारो फुनि दान सौं भी। अव्याज तू ही परपंच न्यारा, दांनी महाभुक्ति विमुक्ति द्वारा ।। २॥ आनंद लक्ष्मी पति लोक नाथा, लक्ष्मी स्वरूपो लक्षमी हि साथा । लक्षो अलक्षो अति लक्षणाढ्यो, लक्ष्मी निवासो अति ही धनाढ्यो ।। ३ ।। .. तत्वानुभूती लक्ष्मी हि सोई, बाह्या विभूती न विभूति कोई। स्बुर्गापवर्गा सव देय तू हि, भक्तान चाहँ जु चहैं प्रभू ही॥४॥ --- मंदाक्रांता छंद - लक्ष्मी नाथो, ललित अति ही, है ललामो त्रिलोकी, चौरासी जे, लख दुखमई, जोनि से भिन्न लोकी। चौरासीतें, वह हि जु प्रभु, काढई भव्य जीवें, जाकौं नामा, निज रसमई, साधु लोका जु पीवें ।। ५ ।। लज्या आदी, अति गुन धरै, दास तेरे सुशीला, तेरे दासा, लसहि जु अती, भक्ति मैं नांहि ढीला । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २४३ गगा दोषा, तजि लव धरै, तोहि सौ कै अनन्या, तोकौं जानें, निज रस छकैं, साधवा ते हि धन्या॥६॥ - दोहा - लगनि त्यागि घरपंच की, लगनि लगावै जेहि । : .. तो सौ ते. निजामा , अन्य भाग. हैं ते हि ।।७।। लहलहाट अति ज्योति तू, झलझलाट तू देव। लसैं महा दैदीप अति, दै दयाल निज सेव ।।८।। चित्त लगाय मुनी भजें, तू हि लगावै रंग। लटकनि तेरी घां करै, ते हि लहैं तुव संग॥९॥ लट्यो फट्यो इह जीव अति, लुट्यो जु भववन माहि। लूटयो मोह निसाचरें, गुन हरिया सक नाहि ॥१०॥ आयो तेरै द्वार अव, स्वामी करि जु निहाल। गुन अनंत सव द्याय तू, सरनागत प्रतिपाल।।११।। लखै तु हिं सब कौं सदा, विरला तोहि लांत। जे केवल निज ज्ञान मय, तोहि लहैं ते संत ।। १२ ।। __-- चौपड़ी - लगे रहैं तेरै दरबार, तेई तत्त्व लहैं अविकार। लघु दीरघ को भेद न कोइ, जपै तोहि सो तेरा होइ।।१३।। लरिवो भिरियो जगसौं त्यागि, क्षमा रूप कैसमरस पागि। तेरे होय लहैं निज वस्तु, लब्धि मूल तू रोर विधुस्त ।।१४।। लपिवौ रटिवी तेरौ नाम, केवल लभ्य तु ही अति धाम। लसित महा सोभा को पूंज, दीस तू हि सधन गुन कुंज ॥१५ ।। लता भाव पुष्पनि को तू हि, लहरि विषै की हरड़ समूहि। लहरि स्वभाव तरंग स्वरूप, लहरी तो सम और न भूप ।। १६॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अध्यात्म बारहखड़ी लकरी अंधे कै आधार, भक्ति अधार भविनि के सार। लखै आप सम सकल जु जीव, सोई भक्ति लहै जगपीव ॥१७॥ - सवैया २३ - लाभ अनंत अनंत सुभोग, अनंतपभोग अनंत सुदाना, वीरज नाथ अनंत धरै तु हि, आनंद रूप अनंत सुज्ञाना। लालच लोभ तजे तुवदास, लहै तुव पास महामतिवाना, लांगलि आदि भौं सव तोहि, जर्फे जतिराय तु ही भगवाना ॥१८॥ लाधवता न लहैं तुव सेय लहँ अति ही सुगुरुत्व महंता, तू न लघू न गुरू भगवान, तु ही प्रभु लोक गुरू भगवंत । लाडिल तू हि जु लाल विसाल, सुल्लाज तुझै हमरी गुनवंत, लाडिलि तेरी हि आनंद इति जु और मलाडिाल हाल महता ।। १९ ।। लापर लोग लहैं नहि तोहि, लहैं सुप्रवानिक वोनि लपंता, लाधउ तू हि मुनीनि मनोहर, लाय जु लौ तुझ कौं हि जपंता। लागि जु लागि सुइंद्रि सवादनि मूरिख लोग, तुझे न रटता, लाग लगाव करे जग सौं सठ जीव फिरै जग मांहि नटंता॥ २० ॥ लांक जु ऊपरि बांधि ऊषग्गा, न पाय मग्ग सुवीरफ्नां को, लात जु खाइय मोहतनी अति, भाव न भायउ धीरपनां को। मोह हि जीति सबै सुइ सूर न और धरै पथ सूर पनां कौं, लिप्त रहैं तन भावनि मांहि विरद्द धेरै वइ क्रूर पना कौ॥२१॥ लिन्न भये भव भावनि माहि, लिज्यों श्रुति को न लख्यौ जग जीवनि, लीनउ नाहि स्वभाव चिदातम लीन भये अति माहि अजीवनि। लीक गही नहि नाथ तिहारिहि धारिय लीक जिका भवि जीवनि, राचि अलीकहि लीढ भये परपंचनि मांहि गनी निज जीवनि ॥२२॥ - सोरठा -. लीजे तेरौ नाम, दीजे दान अनेक विधि। जइए तीरथ धाम, गृहवासिनि कौं ए उचित ।। २३ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २४५ लीन होय तुव माहि, तज नौंमाया जाल सहु । साधुनि कौं निज पाहि, लखनौं तू ही अद्विती।। २४ ।। लीला और न कोई, लीला निज परणति सही। भेदभाव नहि होइ, द्रव्यभाव परणति विष ।। २५ ।। लीला मात्रै तू हि, तारै भवसागर थकी। तो सा सहि प्रभूहि, लीलाधर धरणीधरा ॥ २६ ॥ लीये मुनि निज माहि, दीयो वास जु सासतौ। लुप्त कदाचित नाहि, गुप्त सदा परगट तू ही।।२७।। लुब्ध भाव नहि कोइ, लुब्धक लोहि न पांव ही। लुपै न कबहु सोइ, लिप नहीं करमनि थकी ॥२८॥ - दोहा -- लुकै भाजि भव वन विषै, तुव दासनि पैं मोहि। लरि न सके दासांनि तें, इह पापी अति द्रोहि।।२९।। लुटे न कवह ना लुटैं, लुटि हैं नाहि कदापि। कमनि पैं तुव सेवका, अतिबल तू हि उदापि॥३०॥ लूटि लियौ भव वन विषै, कर्म मिले अति चोर। अव उपगार करौ प्रभू, तुम नरपति अति जोर।।३१॥ लूखो जग सौं होयकार, करि एकाग्न जु चित्त। तोहि भमैं सोई लहै, चेतन रूप सुवित्त ।। ३२॥ लू कहिये ताती पवन, लू सम इह भव वाय। तृ हि हरे झर लायकैं, अमृत रूप सुराय ।। ३३ ।। लूलौ अंध सुकंध चढि, दव निकस जेम। ज्ञान घरनके कंध चढि, भवनिकसै तेम ।। ३४॥ लूला पावें चरन कौं, अंधा आखि लहैं हि। तेरेई परसाद तें, इह गुरु देव कहहि ।। ३५ ।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अध्यात्म बारहखड़ी लेखनि मैं आवें नहीं, लिख्यो न कबहू जाय। तेरौ जस अत्यंत है, लेखक नांहि लिखाय ।। ३६ ।। लेनहार भवि रासि को, तू अलेख अति लेख। लेस्या रहित अलेस तू, धारै गुन जु असेष ॥ ३७॥ लेज रावरी वांनि है, भव कूपनि तैं काढि। जीवनि कौं निरवान दे, तू है अतुल गुनाद्धि ॥ ३८ ॥ लेप रहित निरलेप तू, लेहु लेहु निज माहि। ले इह आलय नाम है, तेरै आलय नाहि ।। ३९ ।। तेरौं आलय ज्ञान है, ताको आलय तूहि। सर्व ज्ञेय को गृह तुही, सव तै भिन्न प्रभूहि ।। ४० ।। फुनि जु सलेषम नाम है, ले इह सूत्र मझार। वाय पित्त सल्लेषमा, तेरै नांहि विकार ।। ४१ ।। लेन योगि निजरूप है, तजि देनां परभाव। इह तेरौं उपदेश है, तू चैतन्य स्वभाव ।। ४२ ।। लेस मात्र रागादिका, तेरै नांहि विभाव। लै लै आपुन मांहि तू, दै आनंद स्वभाव ।। ४३ ।। लोक विलोकी नाथ त, लोक नाथ जगनाथ। लोकनि को आधार त, सर्व लोक तुव साथ ।। ४४ ।। लोलपता सव त्यागि कैं, हँ निरलोभ महंत। तोहि भनँ तृ लोकमणि, लोभी नांहि लहंत ।। ४५ ।। - सर्व वा २३ – लोभ समान न औगुन आन, नहीं चुगली सम पाप जु गाया, सत्य समान न आन महातम शुचि मन तुल्य न तीरथ न्हाया । सज्जनता सम और कहा गुन कीरति तुल्य न भूषन भाया, सद विद्यासम और कहा धन औजस तुल्य न मृत्यु वताया ।। ४६।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २४७ - दोहा - लोकालोक सुझायको, लोक शिखर अतिभास ! लोक प्रमाण सुजाण सो, दे दासनि कौं वास ।। ४७॥ लोल नांव चंचल तनों, चंचल लहैं न जाहि। नही लोलता दास के, दांसहि पावै ताहि ।। ४८ ।। लोच नहीं भव भाव मैं, लोच रूप है नाथ। लोकपाल पूर्णं चरन, असरन सरन अनाथ ।। ४९।। लोह निंगड़ सम पाप है, कनक निगडसम पु . दोऊ बंधन रूप ए, तू दोऊनि ते शुन्य ॥ ५० ॥ __.. चौपई - लोद फटकरी हररै बिना, जैसे रंग मजीठ न गिना। तेरी रुचि सरधा परतीत, विनु गलता नमता नहि लीत ।। ५१।। लोष्ट समान जगत की भूति, या सम और न पाप प्रसूति। अविनासी आनंद विभूति, सो तेरी संपति अनुभूति॥५२॥ लोप होय नहि जाको कदा, सो संपति दै रहइ जु सदा । नहीं लौल्यता तेरै मोहि, लौकिक तोहि जु पार्दै नाहि ।।५३ ।। अति अलौकिकी तेरी रीनि, लौकांतिक धारै परतीति। अति ही सलौनी तेरी भक्ति, भक्ति थकी पइए निज शक्ति॥५४॥ लंपट तोहि न ध्या प्रभू, लिंग विवर्जित तू ही विभू। लघु भव सागर कौं तेहि, अहनिसि ध्यावे तोकौं जेहि।। ५५ ॥ लंध्यो जाय न तू गुन सिंधु, लंछिन सर्व हरै जग बंधु। लंब हाथ तू अति हि समर्थ, द्रव्य लिंग पार्नै नहि अर्थ ।। ५६ ॥ भाव लिंगि योगीश्वर तोहि, ध्याबैं तोसौं तनमय होहि । दसा अलिंग धरै तू. देव, नांहि कुलिंगि धेरै तुब सेव ।५७।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ अध्यात्म बारहखड़ी -- दोहा -- लं पृथ्वी को बीज है, वं जल को है वीज। रं अगनी का बीज है, यं मारुत को बीज ।।५८ ॥ हं आकाश को वांज है, सब योजान को बीज। काज वीज तू देव है, अदभुत सुर अवनीज॥५९॥ लः कहिये प्रभु दांन कौं, दांन प्रकासै तू हि। दाता तो सम और नहि, दीन दयारन प्रभूहि ।। ६० ।। अथ वारा मात्रा एक कवित्त मैं। लक्षन अनंत तोमैं, लायक तु ज्ञायक है, लिप नाहि काहू सौंहि लीन निज रूप मैं। लुपै नाहि लुखौ नाहि, लुखौ भव भोगिनी मैं, लेप नाहि जाके कोऊ आनंद स्वरूप मैं। लै लै आप माहि मोहि लोभी नाहि लहै तोहि, लौल्यता न दासनि कै ते न भव कूप मैं। लंपट लहैं न सेव लः प्रकास तू अछेव, अकथ स्वरूप नाथ आ3 नां प्ररूप मैं॥६१॥ - कुडंलिया छंद -- लाल तिहारी लक्षमी ता सम और न कोय, निज स्वरूप लावण्यता सो अनुभूती होय। सो अनुभूती होय, शंकरी सोइ विभूती, जगत ललमा होइ, लाडिली आनंद भूती। प्रभा जिनेंद्रा ऋद्धि, मोह रागादि प्रहारी, भाषै दौलति ताहि, लक्षमी लाल तिहारी।। ६२ ।। इति लकार संपूर्ण । आमैं वकार का व्याख्यान करै है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २४९ - भोक - वश्येंद्रियं वृषाधीशं, वाक वादिनि भासकं। विशालाक्षं च विश्वेशं वीतरागं गत क्लमं॥१॥ वंदे वेदांग वक्तारं, निर्वेद निरदूषणं । वैवस्वत हरं धीर, व्योम तुन्यं च निर्मलं ॥ छ ।। सर्व मात्रा मयं धीरे बंदे वं शरणं विभुं॥२॥ - उपेंद्र बज्रा छंद - भाष्यो वकारो घरणो जु देवा, धारे दिगाधीश जु तेरि सेवा । कहयो वकारो फुनि वायु व नामा, तोकौं जगद्वायु लगै न रामा॥१॥ तु ही जु वक्ता वदतांवरो है, वश्यद्रियो देव दिगंवरो है। वृषो वृषांको वृषभोहि तू ही, देवा जु तू ही वृषभध्वजो ही ॥२॥ धर्मो पवित्रो जु वृषो कहावै, धाँ तू ही अति धर्म माय। अवर्णवर्णो वृषभांक स्वामी, वर्णं तु कौंन सुभांति नामी ॥३॥ तृ ही जु देवा सुवरिष्ट धी है, तू ही वृहद्भाव धरो यती है। वृहस्पती की हु न बुद्धि औसी, गावै जु कीर्ती कछु है जु जैसी ॥ ४॥ वृद्धो प्रवृद्धो वर्दायको तू, शुद्ध स्वभावो जग नायको तू। आनंदमूर्ती अति ही विलासा, ध्यां न तोकौं जु अभव्य रासा।। ५ ।। - लंद देसरी - व्यक्त वशी जु वरेण्य तु ही है, वर्षीयान जु नाथ सही है। वसै जिनौं के घटि तु देवा, हरै तिनों का पाप अछेवा ॥६॥ वज्रागनि सम त्रिना एही, सीत करै तू निजरस देही। वही तू ही जाकौं ऋषि ध्या, वहीं तू हि नारद जस गांवै॥७॥ वही तूहि वज्री अति सेवै, वही तू हि जाते शिव लेवें। वही तू हि चक्री सिर नांवें, वही तू हि फणपति अति गांवै॥८॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अध्यात्म बारहखड़ी वन्यो ठन्यो अति सुंदर रूपा, वनि आवै तोकौं बड भूपा । तेरौ सौ वानिक तोही पैं, वाचस्पति नहि परद्रोही पैं॥९॥ वातरसन निर्वात जु तू ही, वागीश्वर धीश्वर जु प्रभूही। वायु मूरती है जु असंगा, बारि मूरती शांत अभंगा ।। १० ।। वह्नि मूर्ती कार्य हि जा.. परी .. शाति जु. ध। .. नभ मूर्ती तु है जु अलिप्ता, सर्वस्वरूप तू हि अति गिप्ता॥ ११ ।। वायुरोध उपदेश कर तू, मन रोधन के हैतु कहै तू। वायु न तेरै काय हु नाही, व्यापक ब्रह्म तू हि निज माहीं।। १२॥ वात्सल्यादि प्रकासै तू ही, वाच्य वितीत अवाच्य प्रभू ही। वलि जाऊं तेरी जगनाथा, वारिज चरन भC मुनि नाथा ।। १३॥ वाधा रहित विशाल जु तू ही, विद्यानिधि विद्वान प्रभू ही। विपुल ज्योति धारक तू देवा, विश्वंभर दे अपुनी सेवा ।। १४ ।। तृ हि विविक्त विवेद सुवेदा, जपहि यतीश्वर होय अभेवा। सुविधि विधाता अविधि विनासी, विनय मूल अति धर्म प्रकासी ।। १५ ।। सुहृद विनेय जनों का तृ ही, अविहीत अस्तिथ तू हि प्रभूहि। तू अविलीन विलीन विभावा, तू हि विकल्मष परम स्वभावा ।। १६ ।। विगतराग अविकार विशाला, विगत विहार अहार दयाला। नित्य विहारी अढलं विहारी, रंगविहारी तू हि उधीरी ॥१७॥ प्रभू विदांबर परम सुरूया, विश्वेश्वर भूतेश्वर भूपा। विभवो भावो तू हि अभावो, विश्रुत विश्वातम विनु दावो॥१८॥ विश्वशीर्ष अविनासी स्वामी, विद्या विश्व देय अभिरामी। विश्वकरण विश्वेशो ईशा, विष्टरश्रन्त्र तू श्री जगदीसा ।।१९।। विश्वरूप विस्वास सुरूपा, तू विशिष्ट अतिशिष्ट अनूपा। महाविक्रमी विश्वमुखा तृ, विश्वासी सवको हि सखा तू॥२० ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी नायक विश्वतनौं तू एका, विजितांतक विरती सुविवेका। तू हि विश्ववित विश्वजिती तू, विभयो विरजो जगतपती तू॥ २१ ॥ तू हि विरागी है जु विशेषा, विघ्न विनाशक है जु अशेषा। देव विनायक नायक तृ. ही, विशेषज्ञ अति विज्ञ प्रभू ही।।२२।। तू विकलंक विमुक्तात्मा है, विश्वभूति अति ज्ञानात्मा है। विश्व चक्षु तू विश्वजनेता, तू हि विश्वभूतित्व प्रणेता॥ २३ ॥ विनु तू हि अति जिश्नु जिनेशा, सर्वग सरवज्ञो सुमहेशा। ब्रह्म सुविद्यादायक तू ही, विश्व विलोचन जगत प्रभू ही॥२४॥ विश्वयोनि निरयोनि गुसांई, विश्व विलोकी अतुल असांई। परम विवेकी ध्यावहि तोही, देहु विधीश्वर सुविधि जु मोही ।। २५ ।। विधि प्रेरक तू अविधि विडारे, विधि अविधी तोकौं न निहारे। वियदाकार अपार जु तू ही, शुद्ध विहाय समो जु अदूही ॥ २६ ॥ विभू दूसरौ और न तो सौ, भौंदू जन दूजों नहि मोसौ। तोहि विहाय लग्यौ भ्रम जारा, ध्यायो नाही जगत अधारा ।। २७॥ तो हि विहावै नित्य जु यों हि, भाव विभाव गहै नहि क्यों हो। विश्व कर्म से न्यारा तू ही, विश्वमूरती तू हि प्रभू ही ॥२८॥ विश्व जु कर्मा तू हि कहावै, करम करम की रीति वतावै। वस विभा जा मांहि अनंता, तू हि विभाधर विश्व लखंता ।। २९ ॥ विविध प्रकार करें सुर पूजा, बिवुध प्रपूजित तृ. जग दूजा । विधुताशेष निबंधन तू ही, संसारार्णव तार प्रभू ही॥३०॥ तू वितिरिक्त परम सुख भाया, नित्य विमुक्त विमुक्ति प्रदाया। विसनीरण तु विश्व प्रमाणा, पुरुष प्रमाण पुराण सुजाणा ।। ३१ ॥ वितरण दांन तनौं है नामा, तू दानी दानेश्वर रामा । विरज करे रजरहित विमोही, अरज सुने भय हरि निरमोही ॥३२॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अध्यान्म बारहखड़ी विषहर अमृतधर तू देवा, विषधर पति धारै तुव सेवा। · विग्रह हरन करन आनंदा, चिदघन तन ज्ञानानंदा॥३३॥ असरीरी जु अविग्रह आपा, सुनि विनती मेटौं भवतापा। सर्व वितीत विराग विकासा, महा विपुल मति विमल विलासा ।। ३४ ।। विश्वनाथ अति है जु विरक्ता, परम विराम विकांम अरक्ता। विद्याधर भूधर अविथारा, विषयातीत अतीत अपारा ।। ३५ ।। विरह वितीत वियोग वितीता, सदा सयोगी योग अतीता। सर्व विराटपती महाराजा, सर्व विकासी सर्व समाजा।।३६॥ विदुष विवुध ए पंडित नामा, पंडित तेहि भ® गुण धांमा। तू हि विराजे सर्व जु पासे, जान स्वरूप अनंद प्रकासे॥ ३७॥ - अनुष्टुप छंद - बिना तेरी कृपा नाथा, नांहि पाबैं विशुद्धता। विना शुद्धि न सिद्धि है, सिद्धि स्थात्मोपलब्धिता॥ ३८॥ विपक्षी नां लहैं सिद्धि, पक्षी तेरे लहैं शिवा। विक्कहिये पक्षी नामा, द्विपक्षी तू सदा शिवा ।। ३९ ॥ पक्षी तारे पशु तार, तार ते सुर मानवा। नर तारा तु ही देवा, तारे तैं हि जु दानवा ॥४०॥ - गाथा छंद --- तद्भव तारै मनुजा, जन्मांतर देव नारका पसवा । तृ हि उधार दनुजा, भवतारा तू हि वत धारा॥ ४१ ।। नांव विराट जु गरुडा, काल अही नासने तु ही गरुडा। ध्यांवे तो हि ज अजडा, गरड़ ध्वज पूजनीको तृ॥ ४२ ।। वि ऋहिये आकासा, तु हि चिदाकास तत्त्व प्रतिभासा। वीतराग सुबिलासा, बीत विमोहा सु देवा तू ॥४३॥ वीत विकारा वीरा, बीराधिप वीर वीतसंगा तू। वीत प्रचारा धीरा, वीनधरा नारदा घ्यांव।।४४ ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . अध्यात्म तारनपदी ब्रीडा आदि गुना जे, धारै दासा सुने हि तुव देसा। पांवहि ज्ञान धना जे, ब्रोडा तोकौं हि दासनि की॥ ४५ ।। व्युतपन्ना जे साधु, व्युतपत्ती ज्ञान ध्यान की जिनकै। तेरी करहि अराधू, व्यूढा प्रौढा मुनी शुद्धा॥ ४६ ।। व्यूहादिक अति भेदा, युद्ध विर्षे होइ सूरवीरनिकै। युद्ध विना विनु खेदा, जीतें तेरे जना मोहैं ॥ ४७ ।। वेद विधाता तू ही, वेद तिहारी हि वांनी सिद्धांता। वेत्ता सर्व समूही, निरवेदा तू हि अतिवेदा ।। ४८ ।। स्वरस स्व संवेदन जो, तू हि प्रकासै जु तत्व विज्ञाना। वेधा भव भेदन जो, तू ही वेगें जु भव तारै ॥४९ ।। वेपथु कहिये कंपा, तू हि अकंपा अनश्वरा स्वामी। निरमल तू हि अलिंपा, वेस्यादिक विसन निर्दै तू॥५०॥ वेषहु धारि विमूढा, तोकौं ध्यां न नागिया धंधै। ने पद लहैं न गूढा, रूढा भवसागर वूडै ।। ५१ ॥ वैवस्वत हैं कालो, कालहरा तू हि कर्महारी है। वैद्यो तू हि विसाला, वैश्वानर रोग इंधन कौं।। ५२ ।। वैनतेय सौ तू ही, काम भुयंगो नसै जु तुव नामैं। धारै भाव समूही, रति कौं वैधव्य दे तू ही ।। ५३ ॥ वै इति निश्चै नामा, निश्चै तू ही कहै जु व्यवहारा। द्वयनय भासक रामा, वैराग्यालंकृता तू ही॥५४ ।। वैदेही दुखहारा, वैस्य उधारा सुविप्र तारा तू। क्षत्रि उधारा भारा, भव्य उधारा जु तु ही है ।। ५५ ।। तु ही विदेहो स्वामी, वैदेही रीति भासई सकला। व्योम समान विरामी, व्योम जडो तू हि चिद्रूपा ॥५६॥ वोट न तेरै कोई, तू हि निरावर्ण है जु निरलेपा। केवल चिनमय होई, वोट हरै तू हि दे दरसा ॥ ५७ ।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अध्यात्म बारहखड़ी - सवैया २३ --- घोर तिहारिहि इंद निहारहि, नागपती फुनि तेरिहि बोरा, चक्रि हली मुनिराय निहारहि, तेरिहि वोर तजे भव घोरा । वोप चढे अति तोहि जु सेयहि, तू अतिज्ञान अनंत सजोरा, वोस जु विंदु समान विषै सुख, तोहि बिसारि गहै सुइ भोरा ।। ५८॥ . .. – योहा ... . . वस्त्र व्यौंत को सोहई, जैसे जन को जोर। तैसें जग की साहबी, तोहि फवै अति जोर ।। ५९ ॥ व्यौहारी निश्चनय, पावै तोहि जु सेय। तू निश्चै व्यौहार मय, नय भाषै अति भेव ॥६०॥ वंस अनेक उधारिया, तरै वंस न कोय । वंसनि मैं मोती यथा, त्यौं तू जग मैं होय ॥६॥ वंधक तोहि न पांवहीं, बंधकता अति निदि । तू हि अवंचक देव है, विगि रहित अतिवंदि ।।६२ ।। विगि अर्थ अर शब्द सहु, तू हि विभासै देव। ए तोकौं लहि नहि सकें, तू अनंत अतिभव ।। ६३ ।। वर्ण पंच रस पंच अर गंध दोय वसु फास। ए विसति तैर नहीं, तू चेतन अतिभास ।। ६४।। वितादिको अशुद्ध फल, श्रुति वर्जित तजि देहि । तेरे दास प्रबीन अति, शुद्ध अन्न जल लेंहि ॥६५॥ वः युष्माकं रावर, राग न दोष न मोह । वः कहिये फुनि नैत्र कौं, तू जग नेत्र अमोह ।। ६६ ।। वः कहिये फुनि गमन कौं, विना गमन सहु गम्य। तोकौं घट घट की सदा, तू अगम्य अतिरम्य ॥६७।। वः श्रेष्ठ जु को नांव है, तू अति श्रेष्ठ अपार। व: विकार हू को कहैं, तू स्वामी अविकार॥६८॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । वरदाय ऋद्धिदाय, वासना रहित राय, विश्वभर वीतराग, वीतमोह है तु ही । व्युतपन्न व्युतपत्ति रूप तू अनंत महा व्यूढ, अतिगूढ नाथ वेद मूल है सही। वैवस्वत हारी देव, व्योम तुल्य है अछेव, व्यौहार सुनिश्चय कौ भासक रहै वही । गुनवंत ज्ञानवंत, वंस अतितारक तू, प्रकास है विभास रागादिक है नहीं । ।। ६९ ।। कुंडलिया छंद तेरी नाथ सुपरणती, वीतरागता जोहु, सोई विगत विकारता ज्ञान चेतना सोहु । ज्ञान चेतना सोहु ताहि कहिये निज कमला, अति हि विज्ञता भूति, वस्तुता क्रांति जुविमला । वह तेरी अनुभूति संपदा शक्ति धणेरी, — भाषै दौलति ताहि, परणती नाथ जु तेरी ॥ ७० ॥ इति वकार संपूर्ण आगें तालबी शवर्ण का वर्णन करें है। — भोक शक्ति मूलं च शक्तीशं, धर्मशास्त्र प्रकासकं । शिवंभवं सदाशीलं शुद्धं शुक्लं प्रभाधरं ॥ १ ॥ J — शूरं वीराधिपं वीरं, शैलराज निभं धीरं — शेमुषी शै शोक संताप प्रपूजितं । हारकं ॥ २ ॥ शौत्राचार प्रणेतारं प्राणिरक्षा प्ररूपकं । शंकरं शंभवं वंदे, शः प्रकाशं विभास्वरं ॥ ३ ॥ २५५ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी – इंद्र बज्रा छंद - भाष्यो श वर्णो जु परोक्ष नामा, तू ही परोक्षो परतक्ष रामा। शक्ति स्वरूपो अतिशक्त तू ही, शस्त प्रशस्तो अति है प्रभूही ॥१॥ शर्मा जु वर्मा जग को शशी है, शक्नु स्वरूपो अति ही वशी है। सुखो हि शर्मो सुख रूप तू ही, शक्राभजै तो हि तु ही प्रभू ही॥२॥ तू ही शरण्यो शरण प्रदाई, तू ही शमी है शमभाव दाई। हितू न तो सौ जग मांहि कोई, शत्रुघ्न तू ही परसिद्ध होई॥३॥ शत्रू हि रागादिक और नाही, शत्रुजयो तू हि सुलोक माहि। नहीं जु शस्त्रा न हि अस्त्र वस्त्रा, वीराधिवीरो तु हि ज्ञानशस्त्रा ॥४॥ शब्दा न रूपा नहि गंध फासा, तेरै रसा कोई न तू विभासा । रसी महा तूहि प्रभू रसीला, पांवॆ न तोकौं सठ जे कुसीला ।। ५॥ - दोहा - शमित सकल दुख दोष तू, शमी दमी ध्याहि । शव जु मृतग तेई प्रभू, जे तुहि नहि गांवहि॥६॥ तेरी वांनी शर्करा, और शर्करा नाहि। महा मिष्ट भवताप हर, रस अनंत जा मांहि ॥७॥ गुन शमुद्र गंभीर तू, अति नय नायक नाथ । शल्य रहित अविभाव तू, शक्ति अनंता शाथ ।। ८॥ शनैः शनैः भवपार हूँ, ले पपीलिका पंथ। तुरत विहंगम पंथ हैं, उधरै मुनि निरग्रंथ ।। ९ ।। - अनुष्टुप छंद - शांत रूपी विशुद्धात्मा, शास्ताशासन नायक। शांतिकारी सदा शुद्धो, शांति नाथो सुजायक ।। १० ।। शांतो दांतो प्रकाशात्मा, शास्वतो शाम्य भावक। शा सोभा कहिये स्वामी, तू हि सोभा प्रभावक॥११॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २५७ शास्वती संपदा तेरी, शातकुंभ समान तू। शातकुंभी सुवर्णो है, है सुवर्णो अमान तू॥१२॥ कर्म काई लगें नाही, ज्ञान रूपी विशाल तू। शाखा गोत्रा ना गात्रा है, शास्त्रज्ञी शास्त्र पार तू ।।१३।। शापानुग्रहसामर्था, तेरेदासा दयाल हैं, तेरेनाम सवैनसँ। शाकिनी भ्रांति भावा जो, दास पिंडे नही धसै॥ १४ ।। शाक पत्रा न पुष्पा जे, कंद मूला तथा फला। तेरे दासा तऊँ सर्वे, लेंहि अन्ना तथा जला।।१५।। – चौपड़ी - शिव निर्वांन तनौं है नांम, तू निर्वान रूप अभिरांम। शिव कल्याण नाम हू होय, तो विनु और न शिव पथ कोइ ।। १६ ।। शिव तू ही शंकर है त हि, बुद्ध विशुद्ध प्रवुद्ध प्रभूहि। शिव कहिये रुद्रहु को नाम, महारुद्र ध्यावे तुव धाम ॥ १७ ॥ शिवपुर दायक नायक लोक, लोक शिखर राजै गुन थोक। शिक्ष न काह क्रौ तु हि गुरू, शिव मंदिर जगजीवन धुरू।।१८।। शिष्ट विशिष्ट महा वरवीर, शिष्टाचार प्रकाशक धीर। शिष्ट पुरष धारै तुव सेव, दुष्ट न पावै तेरो भेव ॥ १९॥ शिखा सूत्र रहिता निरग्रंथ, ध्यांव तोहि धारि तुव पंथ । शिखरी पति सम निश्चल ध्यान, धारहि तेरे दास सुज्ञान।।२०।। घन गर्जित सम तेरी वांनि, सुनि हरर्षे भवि अतिगुन खांनि। भव्यन से न शिखंडी और, तो सम मेघ न तु जगमौर॥२१ ।। शिखी अगनि भव तुल्य न शिखी, तू हि वुझावै अतिरस ऋषी। शिवा गवरी शक्ति जु होय, शक्ति अनंत धेरै तू सोय॥२२॥ शिला सिद्ध परसिद्ध प्रभाव, तहां तू हि राजै जिनराव। स्वगत सर्वगत तू सुखदाय, चरन कपल से मुनिराय॥२३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अध्यात्म बारहखड़ी तिनसम औरि शिलीमुख कौंन, अनुभव रस पीईं धरि मौन। शी शयन जु को नाम अनादि, तैर शयन न तू प्रभु आदि ।। २४ ॥ शी इह निंदा ह कौं कहैं, पर निंदा करि तोहि नु गहैं। शी हिंसा सोई अति पाप, दया भक्ति को मूल निपाय ।। २५ ॥ हिंसा करि वारदा पद हैं, नया धारिलोको भलि गा! . तू आनंद सिंधु गंभीर, शीकर शक्ति धेरै अति धीर ।। २६ ।। शील निरूपक शील स्वरूप, शीत न उन्न न तू अतिरूप ! शीर्ष लोक के तू ही रहै, मुनिवर तोहि जु पास हि लहै ।।२७॥ - छंद मोती दाम - कहैं बुध शीघ्र उधारक तू हि, तु ही जिन शुद्ध स्वरूप प्रभू हि। तू ही शुचि रूप दयाल अनंत, तू ही अति शुद्ध प्रवुद्ध सुसंत ॥२८॥ शुभाशुभ रूप नहीं निज रूप, प्रभू अति शुद्ध स्वरूप प्ररूप। तु ही अति शुक्ल सुध्यान प्रकास, तु ही प्रभु शुद्ध नयोनय भास॥२९ ।। जिके शुभ लक्षण हैं मतिवान, जिके अशुभा तजि कैं शुभवांन । हुये तुव भक्ति श्रकी पद शुद्ध, लहैं जु अध्यातम रूप प्रबुद्ध ।। ३०॥ हुवै जु हरित सुशुष्क हु वृक्ष, लो तुव दासह कौं परतक्ष। हुवें जु तडाग हु शुष्क भरित्त, लखे तुव दास जु शुद्ध चरित्त ।। ३१ ।। यथा नर शुक्ति लखे मतिमूढ, गर्ने जु रजत समान प्रलढ़। तथा सठ देहहि आतम जानि, पगे जड़ मांहि ममत्त जु आंनि।। ३२ ।। जवै तुव शब्द सुनैं धरि भाव, तवै निज रूप लखें हि स्वभाव। गहैं तुव भक्ति जु सम्यक दिष्टि, लहँ नहि भक्ति सुमूढ कुदिष्टि ।। ३३ ।। - दोहा . इट सागर उर शुक्ति मैं, काल लबधि परवान। तेरे वैन जु वारिंदा, बरसै अमृत ज्ञान॥ ३४ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २५१ सम्यक मुक्ता फल तवै, उपजै अदभूत रूप। ताकरि भूषित मुनिगना, रै स्वसिन्दि अनुप॥ ३५ ॥ शूर वीर तेरे जना, जीतें मोह विकार। त्यागि शून्यता चित्त की, पांवें ज्ञान अपार ।। ३६ ।। नहि शूरत स्वभाव है, मिथ्यादृष्टिनि मांहि। रै काल तें मूढ ए, धीर वीरता नाहि ॥ ३७॥ शूली कहिये रुद्र कौं, धारै हाथ त्रिशूल। रुद्र जपैं तोकौं प्रभू, तू दयाल शिव मूल ॥३८ ।। शूलारोहण आदि दे, नरक वेदनां नाथ। पार्दै जे तोहि न भजै, करै विषय को साथ॥३९ ।। शूकर कूकर आदि वहु, निंदि जौनि सठ जीव। पावै तेरी भक्ति विनु, भव भव कष्ट अतीव ॥ ४० ॥ शून्यवादि आदिक जड़ा, जे तुहि गां नाहि । जनम मरन अति ही करें, भवसागर कैं मांहि ।। ४१ ।। शूची सूत्र विना नसँ, तुव सूत्रै विनु जीव। भव वन मैं भरमण करे, दुख पावै जु अतीव ॥ ४२ ॥ शेखर जग को तू सही, भमैं शेमुषी धार। नाम शेमुषी बुद्धि को, तू है बुद्धि हु पार ।। ४३ ।। शेष अलप को नाम है, नाम अशेष समस्त । अलपकाल मैं भव तिरै, तेरे दास प्रसस्त ॥४४॥ लहैं अशेष स्वभाव कौं, भक्ति भाव परभाव। शेश सुरेश तुझे रटैं, तू त्रिभुवन को गव॥४५ ।। शेक सींचवे कौं कहैं, तू सोंचें तरु धर्म । करुणा रस परकास तू, करुणाकर अतिपर्म।। ४६ ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी शैल नाम गिर को कहैं, गिरपति से थिर भाव । तेरे दास महामती, धारै नांहि विभाव ॥ ४७ ।। शैल सुता शिव की तिया, जपै तोहि चित लाय। सकल ध्येय आदेय तू, जगनीवन जिनराय ॥ ४८ ।। शिशु बालक को नाम है, जो बालक को भाव। सो शैशव कहिये प्रभू, तू नहि बाल स्वभाव।। ४९।। शिव कल्याण स्वरूप तू, तेरे दासा सैव। और न शैवा गुर कहैं, तो विनु और न दैव ।। ५० ॥ शोक न तेरे जन धेरै, आनंद रूप सदीव। शोभनीक तू ही प्रभू, है अशोक थर पीव ।। ५१ ।। सोणित लोही कौं कहैं, रेत नाम है धात। रेत रक्त कौँ पिण्ड इह, तोहि छुवै किम तात।।५२ ।। शूरवीर को भाव जो, शौर्य कहावै नाथ । सो तेरे दासनि विर्षे, कायर अग जन साथ ।। ५३ ।। शौच प्रकासी शुद्ध तू, करुणा विनु नहि शौच । तू ही एक शुचिश्रवा, जगजन सर्व अशोच ॥ ५४॥ अंतर शौच सुग्यान है, व्रत तप वाहिर शौच। लौकिक शौच जु कुश जला, लंपट भाव अशौच ।। ५५ ।। शं कहिये सुख कौं प्रभू, तू शंकर जगदेव। शंभव शंभु अदंभ तु, दै दयाल निज सेव ।। ५६ ।। शंखादिक बहु वाजई, यादित्रा अतिभेद । शंका तेरे नाहि है, तृ निशंक विनु खेद ।। ५७ ।। निःशंकित आदिक गुणा, धारै तेरे दास। तेरी शरणौं लेयकैं, पावें अतुल विलास ।। ५८ ।। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २६१ शः कहिये मात्रांतिकी, तू सव मात्रा मांहि। चिनमात्री जगदीस तू, राग दोष भ्रम नाहि ।। ५९ ।। अथ बारा मात्रा एक कबिन मैं। - सवैया ३? - शक्तिनि को पुंज तूहि, शांत दांत है प्रभूहि, शिव रूप तू अनूप, शील को निवास है। शुद्ध बुद्ध शूरवीर ध्यांव, तोहि साधु धीर, शेमुषी प्रदायक तू आनंद विलास है। निश्चल स्वभाव शैलनाथ से अडिग्ग भाव जर्षे मुनि राव तू हि शोक को विनाश है। शौच को विकासक तू, शंकर जिनिंद देव शः प्रकाश ज्ञानभास नायक सुपास है।॥६०॥ __ - कुंडलिया छंद - तेरी नाथ ज शांतता, सत्ता अतुलित शक्ति, श्री संपति लक्ष्मी रमा शिवा वस्तुता व्यक्ति। शिवा वस्तुता व्यक्ति, भिन्न नहि तोते नाथा, एक स्वभाव स्वरूप कवहु छाडै नहि साथा। भवा भवांनी भूति, शुद्धता ऋद्धि घणेरी, भार्षे दौलति ताहि, शांतता नाथ जु तेरी॥६१ ॥ आगैं सवर्गी षकार का व्याख्यान कर है। ( प को कहीं ' ' . में रखा गया है. जय प्राइस कागा में : कहाँ 'स्व' १५. जैसे घोट - खोट। - संपादक) - शोक -- घकाराक्षर कर्तार, भेत्तारे कर्मभूभृतां । सर्वमात्रामयं धीर, वीरं वंदे सदोदयं ।।१।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ . . .. अध्यात्म यारहखड़ी - सोरठा - ष कहिये श्रुति माहि, नाम इहै जु परोक्ष कौ। यामैं भ्रांति जु नाहि, तू परोक्ष परतक्ष है।। २ ।। तृ षटकारक रूप, षट करम जु तेरै नहीं। तू षट द्रव्य निरूप, षट कायनि को पीहरा ॥३॥ षटदस भावन भाय, पावै तेरौ पद मुनी। षटदस सुर्ग कहाय, सो चाहे नहि मुनिवरा॥४॥ षट बिंशति प्रकृती हि, मोहतनी मुनिवर हतें। तिनः कर्म जु वीहि, भामैं अपनी सौंज ले॥५॥ षट त्रिंशत गुन धार, आइरिया तोकौं भनँ। घट चालीस जु सार, गुन पांचैं तुव भजन ॥६॥ . .. दोहा -. षट पंचास कुमारिका, देवी रुचिक निवास। चरन कमल ध्याबैं प्रभू, तेरे आनंद रासि ।। ७ ।। घष्टि सहसर सुत पिता, चक्री सगर सुग्यांन । तेरे चरन सरोज भजि, पहुच्यो पुर निरवान ॥ ८ ॥ गहै निगोद सरीर कौं, लहि कारण षटतीस । पांढं तेरे भजन विनु, जनम मरन अति ईस ।।९।। षट षष्टी सहसर उपरि, त्रय सत अर षट तीस। अंत महुरत एक मैं, भामैं मुनि अवनीस ।। १० ।। मन वच तन की चपलता, वसु मद विषया पंच। चउ त्रिकहा, विसना सपत, चउकषाय दुख संच॥११।। पंच मिथ्यात समेत ए, कारण हैं घट तीस। इन करि जीव निगोद, लहि सुख देखें कुमतीस ॥१२॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २६३ घर सप्तति जिक्षा अधक; सर चैत्य निवास। दीप तडित अगनी उदधि, मेघ दिसिनि के भास॥ १३ ॥ घट असी तिके अर्द्ध ए, तीयालीसा होय। एती प्रकृति न बंधई, चौथौ ठाण जु सोइ॥१४ ।। षणवती लक्षा प्रभू, तेरे सौध विसाल । पौन कुमारनिकै घरां, स्तनमई अघटाल ॥१५॥ षणवती सहसा त्रिया, नारी तजि चक्रीस। घट्वा (खटवा ) शयन हु त्यागि कैं, है निरग्रंथ मुनीस।।१६।। वनवासी है तुवं ज, भवतन भोग विरक्त। अनुभौ रस पी महा, धर्म शुक्ल अनुरक्त॥१७॥ षपै (ख) चित्त भव भोग कौं, भववासिनिकौ नाथ। ( खपैं) न तातें कर्म अघ, लहँ न तेरौ साथ॥१८॥ घवरि(खवरि ) नहीं निज रूप की, पगे प्रपंचनि माहि। लगे थांम धन मांहि ए, ता. भ्रमण करांहि ॥१९॥ षडसम कर्म समूह हैं, अगनि तुल्य तुव ध्यान। भस्म करै क्षण मांहि सहु, ध्यान समान न आन ॥२०॥ - छंद - घा कहिये लक्षमी को नामा, तू लक्षमी धर देवा। तो विनु लक्षमी नहि औरनिके, दै लक्षमीवर सेवा ।। २१ ।। षांन (खांन) न पान न गांन न ताना, अस्त्र न वस्त्र न तेरे। नादि काल से कबहु न लाधौ, लागी भ्रांति जु मेरै ।। २२ ।। षाड (खाड) समान जगत मैं प्रांनी, पस्यौ नादि तैं मूढा। तृ हि निकासि देय पद ऊरथ, अविनश्वर अति गूढा ॥ २३ ।। हरि करि निज धन पाली (खाली) हाथा, कियो कर्म दुष्टनि नैं। भरमायो चहुंगति मैं अति गति, रागादिक पुष्टनिमैं ॥२४॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अध्यात्म बारहखड़ी षोडौं (खाडौं) ज्ञान भाव को जिनकै, तेई कर्म प्रहारें। लेकरि चेतनभाव अतुल धन, तेरौ नग्र निहारै ।।२५ ॥ षाई (खाई) कोट न पौरि न कोई, गृह पंकति ह नाही। वापी कूप न सरवर सरिता, तू है जा पुर मांही ।। २६ ।। ता पुर पहुंचें तेरे दासा, जे निरविषया हो। विर्षे समान न और जु वैरी, ए जीवनि की घो।। २७॥ खाजि खुजावत हि भल लागें, फुनि अधिकौ दुख होई। विषय सेवता ही भल्ल लागें, दुष 4 भव भव सोई।। २८ ।। खांहि अभक्ष अपेय जु पी, ते नहि तेरे दासा । खादि अखादि विचार विना पसु, अविवेकी अधरासा ॥२९॥ कुवनिज करि तुल भत्रिन पा, सां नर्क मिला ... ... ... खांड लवन धांनादिक वनिजा, करहि न तेरे दासा ॥३०॥ खान समांन जगत को माया तामैं, रा. नाही। संसय विभ्रम मोह रहित नर मगन रहैं तो मांही ॥ ३१॥ खाय जु रूखा टुका साधू, ध्यावै तोहि नचिंता । तेई भव जल कौं जल देकरि, पाबैं तुव पुर संता ।। ३२ ।। खास सास आदिक अति रोगा, दासनि कौँ लखि भागें। रागादिक रोगा जन्न नासैं, तब कछु व्याधि न जागें ।। ३३ ।। खिसैं न ग्यान क्रिया ते कवही, तेरे दास निकंपा। परे खिसांनै जिन पैं कर्मा, पद पावें जु अलिंपा॥३४॥ खिरक समान इहै भव स्वामी, पसु सम ए भववासी। विषयरूप त्रिण के अभिलाषी, अविवेकी दुष रासी ।। ३५॥ नर तेई जे तेरे दासा, कण मैं चित्त लगा। विषय रूप त्रिण कवह न चाहै, ज्ञान स्वरूप हि भावै।। ३६ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी खिजहि न ऋबहु खिजाये धोरा क्षमा रूप अति शांता । खिलहि फूल ज्योंचिन जिन का, गहहि सुवास प्रशांता ॥ ३७ ॥ छंद भुजंगी प्रयात खिनायो न जावै बुलायो न आवै, तु ही सर्व रूपो सब मैं रहा । नखीजें न रीझैँ मुनि शांत भावा, तुझी कौं रर्दै त्यागि सर्वे विभाषा ॥ ३८ ॥ जु खीला समाना त्रिशल्या हमारे, चुभी हैं हिये मैं तुही नाथ दारें । खुभी है जिनों के तिहारी सवांनी तिनों के न माया न मिथ्या निदांनी ॥ ३९ ॥ खुसै नांहि दासांनि कौ ज्ञान बित्ता, नही कर्म चौरांनि पैं जांहि जित्ता । खुसी हि रहें नित्य तोकौ हि ध्यांयें, सवै सोक चिंता नसें तोहि गांवें ॥ ४० ॥ — खुलै भ्रांति ग्रंथी तिहारं प्रभावें, लहे तत्त्व विज्ञान भ्रांती अभावें । विषै पंक मैं जीव खूंतौ अनादी, निकासे तुही देव दे ज्ञान आदी ॥ ४१ ॥ न खेस्या ख्रिसै ध्यान तैं धीर चित्ता, जिनों में लख्यौ एक तू शुद्ध वित्ता। सही खेह तुल्याइहें भी विभूती, इहें मोहमाया जु भ्रांति प्रसूती ॥। ४२ ।। — करें खेद याकै लिये मूढ भावा, जपै नांहि तोकों गर्दै ए विभावा । मुनी चित्त कौं खचि ल्यांवै हि तोमैं, भज्यों नांहि तोकौं लगी भ्रांति मोमैं ।। ४३ ॥ - सांडा काल महा परवल सदा । पांवैं भव कौ तुन जना ॥ ४४ ॥ सर्व जीव षैकार, पै करि ताकौ पार, षोडश कारण भाय, सब कारण कौं राय, - २६५ तुव पद पांवें मुनि जना । कारण एक तु ही सदा ।। ४५ ।। खोट रहे नहि नाथ, सुनिकें तेरी दिव्य ध्वनि । खोटे जीव न साथ, पांवें तेरौ कबहू भी ॥ ४६ ॥ खोले धरे अनंत, छेह न आयौ भवतनौं । भक्ति देहु भगवंत, जा करि भव भरमण मिटें ॥ ४७ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अध्यात्म बारहखड़ी खोज न पायौं नाथ, तुव मारग को मैं कभी। लडे कर्म जड साथ, उन मारग भरमाईयो।। ४८ ।। ___... सवैया .. ३१ - खोहरै पहार के निवास करि स्टैं साधु खोरि मैं इकंत वैठि तोही कौं चितारहीं। खौरि काटि चंदन की वंदन करै गृहस्थ जत्ति जन न्हवन न खौरि कभी धारही। साधुनि की खौरक से भागें काम क्रोध छल तोहि लषि साधवा जु ही हिं भवपार ही। पंढ नर तेहि जेहि ध्यावै नांहि तो कौं कभी, तेरेई प्रसाद भव्य राग दोष टारहीं।। ४९ ॥ - दोहा ... रखंजन की मिटि खंजता, पद पां. अविकार। अंध आंखि पांचैं प्रभू, ज्ञान रूप अतिसार ॥५०॥ खंध न बंध न रावर, खंध देस नहि कोइ। खंध प्रदेस न है प्रभू, परमाणव हु न होय ।। ५१ ।। तू केवल चिद्रूप है, गुन अनंत तो माहि। ज्ञानानंद स्वरूप तू, परपंचनि मैं नाहि ।। ५२ ।। घष्या पासि दु शुन्य जो, वाग्म मात्रा सोय। सव मात्रा मैं एक तू, चिन्मात्रो प्रभु होय ॥५३ ।। अथ द्वादश मात्रा एक कवित मैं। - सवैया - तू हि षटकारक स्वरूप गुन घांनि (खांनि) भूप, षिसे ( खिसैं ) नाहि ध्यान तैं कदापि रावरे जना। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २६७ घीजि ( खीजि ) रीझि त्यागि लगे हि भक्ति भावनि मैं, घुसैं ( खुसैं) नाहि मोह पैं धरयो स्वरूप मैं पना। फ़्तौ (खतौ ) नां विभावनि मैं पेद ( खेद) विनु नायक तू, __ पै ( खै) कर जु पोट (खोट ) रूप, अंधकार को दिना। पौरक (खौरक) नो दास बनस कंटिक की . . . . . . : घंध ( खंध) विनु बंध विनु घः प्रकास तू गिना ।। ५४।। a - कुंडलिया छंद - नेरी देव सुकांतता, हरै सोक संताप, ताहि कहैं वुध लक्षमी रमा परणती आप। रमा परणती आप, ज्ञान मात्रा जु विभूती, ख्याति रावरी सोइ, अतुल आनंद प्रसूती। अनुभूती द्युति कांति, संपदा सिद्धि घणेरी, भाषै दौलति ताहि, कांतता देव सु तेरी ।। ५५ ।। इति षकार संपूरणं । आगैं दंती सकार का व्याख्यान करें है। - शुकि - सनातनं सदानंद, सारासार निरूपकं । सिद्धं शुद्धं बुद्ध, पूजितं सीरपाणिना ॥१॥ सुश्रुतं सुप्रियं धीर, सूत्र सिद्धांत दीपकं। मुनिसेनापतिं वीरं, भाव सैन्यान्वितं विभुं॥२॥ सोम दृष्टिं धरा धीशं, सौम्यं शांतं सदोदयं । संपदा संचयं ध्याये, द्यः स याति परंपदं ॥३॥ - अरिंदन छंद ... स कहिये श्रुति मांहि श्रेष्ट का नाम है, . तो बिनु श्रेष्ट न कोय, श्रेष्ट तू राम है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अध्यात्म बारहखड़ी स्रष्टा धर्म स्वरूप स्त्रिष्टि कौ तू हि है, सर्वलोक कौ ईस अधीस प्रभूहि हैं ॥ ४ ॥ सरवारथ सिद्धि दाय सकल लोकातिगो, सरव लोक को सारथी हि करमातिगो । सदानंद सद्रूप समरसी भाव तू समरस धर मुन्निराय जपै जगराव तू ॥ ५ ॥ सरवग सरवज्ञो हि तू हि सरवत्र है, सर्वरूप सर्वालयो हि जग छत्र है । सकल देख सब सम्यकी हि तोकौं भजें, मुनि समंत जु भद्र तोहि लखि भव तजैं ॥ ६ ॥ प्रभू सहस्त्र सुमूर्ति सद्य भवतार तू, तूहि सहश्र जु शीर्ष सर्वदा सार तू । तू हि सहश्र जु पात तात सब लोक कौ, सहश्राक्ष जगदीस ईस गुन थोक कौ ॥ ७ ॥ रटै सहश्र फणाधिपोहि तोकौं प्रभू, सहस किरण ध्यावैहि कीर्ति गावै विभू । सहश्राक्ष जो इंद रूप तुव निरषतों, मगन होय करि नृत्य करै अति हरषतों ॥ ८ ॥ समता धर मुनिराय धीर तोकौं सदा, अहनिसिध्यांवें तोहि नाहि त्रिसरें कढ़ा । सक नांही जिनकों कदापि कोऊ तनी, सखा जिनों के तोहि सारिखी जगधनी ॥ ९ ॥ सलिल समाना तेहि दाह भव कौं हरे, निर्मल रूप मुनीश ध्यान तेरों करें। सलिल निधी इह जगत याहि तिरि साधवा, आंवै तेरे लोक यतीश अबाधवा ॥ १० ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सन जन तोहि विसारि रूलैं भात्र जार मै, तव मत प्रोहण विगरि स डू0 धार मैं। सत्य स्वरूप निरूप अनूप अधीस तू, सफल होय नर देह तो भज्यां ईस तू ॥११॥ सत्ता रूप अरूप शुद्ध चैतन्य तू, भव सागर तैं पार करै प्रभु धन्य तू। सपरस रस अर गंध वर्ण शब्दा नहीं, ज्ञानानंद स्वरूप तू हि निज गुन महीं॥ १२ ॥ - कुंडलिया छंद - सदा सनातन ईस तू, सदा त्रिप्त जोगीस, सदा जोग जगदीस तू, सदा भोग भोगीस। सदा भोग भोगीस, धौंस तू धीर सदागति, . सदानंद सद्रूप, सकल समयज्ञ प्रजापति । सर्व व्यापको तू हि, स्वस्थ अति स्वच्छ सदा धन, सदा स्वभावी भाव, ईस तू सदा सनातन ॥१३ ।। सदा समाहित नाथ तू, परम समाधि स्वरूप, सरवाधिक्य सहाय तू, सर्वेश्वर जगभूप। सर्वेश्वर जगभूप, वीर तू सर्व समूही, स्पष्टाक्षर प्रतिभास, है स्वयंवृद्ध प्रभू ही। सत्य स्वयंभू देव, सेव दें धीर अवाधित, स्वभृ अभू सवरूप, नाथ तू सदा समाहित ।। १४॥ सर्व कलेसा तू हरै, सर्वदोष हर ईस, सर्व वित्त सर्वोत्तमा, सर्वजीव अवनीस। सर्वजीव अवनीस, सर्वदरसी सवभावा, सत्य परायण नाथ, सत्य सरधान प्रभावा। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अध्यात्म बारहखड़ी गुन समग्न अति उग्र, तू स्थवीयान अलेसा, सदाचार परवीन, तू हरै सर्व कलेसा ।। १५ ॥ समय प्रकासक सार तू, स्वसंवेद्य रस लीन, कृतकृत्यो सतकृत्य तृ, तोमैं भाव न दीन । तोमैं भाव न दीन, तू हि है दीन दयाला, सतवन तेरौ देव, करहि सुरनर मुनि पाला। स्व समय रूप अनूप, नाथ तृ सर्व विभासक, तू स्वतंत्र जगदीस, सार तू समय प्रकासक॥१६॥ समभावा तोहि जु भ6, ते निज समय लभंत, स्वयं सिद्ध सब पूजि तू, सरल स्वभाव अनंत। सरल स्वभाव अनंत, तू हि है ब्रह्म सनातन, सर्व विभाव वितीत, मीत तू सर्व सदाधन। सकल प्रपंच निवार, तोहि ध्यांचैं मुनिरावा, सकल जीव रक्षिपाल, भ6 तोहि जु समभावा ।। १७॥ .. छंद - सप्त नरक नहि पां दासा, सुर्गादिक हु न चांहैं। सतरा संजम धारि अनासा, तुव पुर कौं हि उमाहै ।। १८ ॥ सातवीस विषया तजि मुनिवर, हाँहि उदासी भव तैं। ते तेरौं अध्यातम लहि करि, निकसैं या भव दव तैं।।१९।। सप्त तीस सहमर गनि लीजे, बहुरि पंच सै गनियें। एते भेद प्रमाद सबै ही, तो भजियां सव हनियें॥ २० ॥ विकथा पचवीसा अर एचवीसा हि कषाया गुनियें। पच्ची पची गुनियां एई, छस् एच्ची भनियें ।। २५।। फिर एई इंद्री अर मन सौं, गुन्या थकी भव मृला। साढा सैंतीसाहि सैकरा, हौं हि महा अघ थूला ।। २२ ।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २७१ ए फुनि पंच नींद सौं गुनियां, सहसर पौन गुनीसा । द्विविधि मोह सौं गुनिया एई, सहसर साढ संतीसा ॥ २३ ॥ सप्त अधिक चालीसा प्रकती, घाति कर्म की कहिये। तुव मारग तैं धाति कर्म हरि, केवल बोध जु लहिये॥२४॥ सत्तावन आश्रव तू टार, सतसठि सम्यक भाषै। सम्यक दरसन जान चरन मय, तो करि निज रस चाषै। २५ ।। सत्तरि कोडाकोडि पयोधी थिति है दरसन मोहा। तेरे दास हनैं प्रभु मोहा, जिनकै राग न द्रोहा ।। २६ ।। सतहत्तरि को बंध बतावै, चौथे ठांणि जु स्वामी। सत्यासी तेरौ ही नामा, सत्य स्वरूप सुनामी॥२७॥ सत्याणव सहसर चौरासी, लक्षा तेरे देवल । सुर्ग लोक मैं नादि अकर्तम, इह भा0 श्रति केवल ॥२८॥ चौथी पंचम छट्ठी ग्रीवां, सप्ताधिक सौ देवल। तेरे अहमिंद्रनिकरि पूजि, इह भासै धर कंवल ।। २९ ॥ सप्त दसाधिक अर सौ प्रकृती, बंधै पहलै ठाणे । पहलौ ठाण उलंधि लहै बुद्धि, तब तुव भक्ति जु जाणे ।। ३०॥ सहसर नाम तिहारे जपिकरि, भवि पांनिज वस्तू। अमित अनंत नाम हैं तेरे, तू प्रभू परम प्रशस्तू ।। ३१ ।। - छंद वेसरी .. साषा (सखा) जीव मात्रनिको तू ही, सरव भूत को हितू प्रभृही। सरसुति तेरी वांनी कैयै, सरसुति करि आतम गुन लैये ॥ ३२ ॥ सपदि सद्य ए शीघ्र जु नामां, तुरत देय तू केवल धामा। सकट कर्म सबै ले माजा, जव तोकौं ध्याबैं मुनि राजा॥३३॥ सठ मोसौ दुजो नहि औरा, तोहि विसारि कियो निज चौरा। सन्यौं विषं सौं मैं अतिमूढा, तोहि न ध्यायो है आरूढा॥३४॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अध्यात्म बारहखड़ी सड्यो पङो इह देह जु पापा, सो मैं कुवुधी जान्यो आपा। सत्य स्वरूप न जान्यों तू ही, सदा धरे परपंच समूही।। ३५ ।। पग्म समाधि देहु जगराया, मेटि भरमना मूल जु माया। सधन तुहीं आतम धन धार, निधन हर जम 6 जु उवारे।। ३६ ॥ निरधन सव ही निधन निवासा, लक्ष्मीधर तू अतुल प्रकासा। सहित अनंत गुननि तँ तू ही, रहित विभाव सुशक्ति समूही ।।३७ ।। सहजानंद सहजगति तूही, सहज विभास प्रकास समृही। सहनशील मुनिराय जु ध्यांच, सदा सरवदा तोहि जु गांवें।। ३८॥ सरवर आतम भाव निमग्ना, र तोहि मुनिवर संविग्ना। कहा सारदी चंदर क्रांती, तुव वांनी सादर अतिक्रांती॥ ३९ ।। - मंदाक्रांता छंद . .......... ... .. सानियो का निक्टाहि, रहै. साई साक्षात देवा, ___सामीप्यो तू, मुनिजननि कै, सार सरवस्व वेवा। साधू पूजै, अतिशय धरा, सातिौ तृ मुनिंदा, ___ साध्यो तू ही, जितपति अती, स्वामि है मोक्ष कंदा ।। ४० ।। स्वाधीनात्मा, अति गुण युतो, साधना सर्व गावै, स्वात्मारामो, परम पुरुषो, सार्वभौमा जु ध्यान । साचौ देवा, समरथ सदा, साधका होय पावै, __ नोकौं सांई, मुनिजन लहैं, वाधका नाहि भावैं ॥४१ ।। साक्षी भूतो, सब घट लखे, स्वास्थि रूपो तुहि जो, ___सार्वः सर्वो, सकलपत्ति अती, साहिवो है सही जो। साखा गोत्रा, प्रवरन प्रभू, तू असाधारणो है, सारी भ्रांती, हरइ मनकी, मारभूतो जिनो है।४२ ।। - छंद नागच्च - नहीं कदापी स्वापतेय तो समान लोक मैं, तु ही अनंत स्वापतेय है स्वभाव थोक मैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २७३ कहैं जु स्वापतेय द्रव्य, द्रव्य तू चिदातमा, ..... ... सतत्य सार है अपार इस तू गुणातमा॥४३ ।। तजेहि स्वाद सर्व ही सु पंच इंद्रियोद्भवा, करे सुधीर चित्त जे विनासई मनोद्भवा। जर्षे हि सानुकूल होय तोहि सौं जतिंद्रिया, भजेंहि तोहि सात्विका तिके हि है अतिंद्रिया॥४४॥ नही कदापि सात्विका न राजसा न तामसा, तु ही अनादि शुद्ध रूप देव है महारसा। मुनिंद साहसीक हैं अरण्य के निवासिया, ___ अहोनिसा र₹ जु तोहि भक्ति भाव भासिया॥ ४५ ॥ तु ही जु सारथी प्रभू चलावई स्वयंत्र कौं, स्वभाव रूप यंत्र है, तु ही धेरै स्वतंत्र कौं। न रावर सुदास कौँ कदापि साप काटई, ___ न रावरे जनांनि कौं भूपाल क्रापि दाटई ।। ४६ ।। न रावरे सुदास के कदापि चौर पैसई, ___न रावर जनांनिकै सुचित्त भ्रांति बैसई। न रावर जनांनि कौं कदापि कोई पीडई, तु ही अनादि औ अनंत एक रूप है दई॥४७॥ तजे हि साम दाम दंड भेद च्यारि भूपती, सुग्यांन रूप साध हैं रटैं तुझै महा धृती। इहै हि सारदा सदा सुबांनि रावरी महा, प्रभाव याहि के मुनीश शुद्ध तत्व की लहा॥ ४८।। ___ - दोहा -. सार समुच्चै तू कहै, तत्व सार तू देव। साधु समाधि प्रदायका, दै दयाल निज सेव।। ४९ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सायं प्रात भजें तुझै, भजें दुपहरि मांहि । अर्द्ध रात्रि ह भवि भ6, यामैं संसै नाहि ।।५० ।। नित्य भलै अहनिसि भ®, लग्यौ तोहि सों चित्त। तो सौ और न देखिये, तीन लोक मैं वित्त ।। ५१ ।। साधर्मी तेई महा, जे तोसौं लवलीन। तो सौं जे विमुखा नरा, ते हि विधर्मी हीन ।। ५२ ।। तू साकार स्वरूप है, निराकार हू तू हि। नराकार सव रूप तू, लोक प्रमाण प्रभू हि ॥५३॥ साकृति और निराली, प्यागी -- शुनिस्सार। ... साची चरचा रावरी, तो विनु सर्व असार ।।५४ ।। सानंदी सद्रूप तू, सालोको अतिलोक। सामीप्यो अति निकट तू, गुन अनंत को थोक ॥५५ ।। सारूपो निजरूप तु, ज्ञानरूप अतिरूप। तू सायोज्य सुमिलित है, गुन अभिन्न चिद्रूप॥५६ ।। सारिष्टो अति ऋद्धि तू, स्व रस रसीलों देव। अति साम्राज्य धुरंधरो, है साम्राट अछेव ।। ५७ ॥ सात नरक अति दुख मई, तो भजियां नहि पाय। नरकांतक तू देव है, सकल त्रिलोकी राय ।। ५८ ।। नरकनि के दुख अकथ हैं, कहत न आवै थाह। देह जनित मन जनित औं, क्षेत्रोतपन्न अथाह ।। ५९ ॥ असुरोदीरित अति दुखा, वहुरि परसपर कष्ट। इनहि आदि अगणित दुखा, नारक मांहि सपष्ट ।। ६० ।। भूख अतुल तिरषा अतुल, मिलै न कण इक अन्न । बूंद मात्र वारि न मिले, है नारक अति खिन्न ।।६१ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ अध्यात्म बारहखड़ी छेदन भेदन मार अति, रोग अनंत अपार । अति चिंता वहु वेदना, कहत न आवै .: नांहि असुर जनित तीजा लगें, आगे वढतौ नारकभूमि कूभूमि मैं दीखै हिंसा मृषा अदत्त धन, अर परदारा संग | अति त्रिश्वा, आरंभ अति सपत विसन परसंग ॥ ६४ ॥ — पार ॥ ६२ ॥ , द्युत मांस मदिरा बहुरि वेस्या अर आखेट । चोरी नारी पार की इन करि दुरगति भेट ॥ ६५ ॥ — दुख्य । सुख्य ॥ ६३ ॥ छंद बेसरी अभरख अहारी, पर अनहारी, करहि अगम्या गम्य विकारी | स्वामि द्रोही मित्र द्रोही, बहुरि कृतघ्नी धरमद्रोही ॥ ६६ ॥ जे विस्वास घातका दुष्टा, नरक परें पापिष्ट स्पष्टा । विषदाता दवदाता पापी, मित्र निहंता परम सतापी ॥ ६७ ॥ बालघातका वृद्ध निपाती, अध परिणांमी निरदय छाती । सप्तम नरक लगे ए जावें, अगणित काल अतुल दुख पांवें ॥ ६८ ॥ पशुघाती दुरवल नरघाती, नरक परै सठ धर्म निपाती । निहकारण वैरी दुखदाई, पिशुन कुजन नरकांपुर जाई ॥ ६९ ॥ नर्क न पांवें तेरे दासा, सुर्ग हु चाहैं नांहि उदासा । चाहें केवल तेरी भक्ती, सुर्ग मुक्ति की मात प्रव्यक्ती ॥ ७० ॥ - छप्पय सिद्धारथ तू सिद्ध, सिद्ध सासन तू देवा, तू सिद्धांत निबंध, देहु स्वामी निज सेवा । सिद्धि ऋद्धि दातार, सिद्ध ही जांनें तोकौँ, अतिसित भक्ति प्रभाव, देहु तू जिनवर मोकौं । २७५. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अध्यात्म बारहखड़ी सिद्धकल्प तू जगतनाथा, तू हि सिद्धि संकल्प है, तू प्रसिद्ध अविमद सिद्धा. सिद्धिमूल अविकल्प है॥७१ ।। सिद्धि सिला को नाथ, नाथ तू है त्रिभुवन को, देहु देहु निज सेव, अंत दै प्रभु भव वन कौ। सिक्ता सम भवभूति, सो न चाहें निज दासा, चाहैं केवल भक्ति, रावरी अचल प्रकासा। सित तै सित अति अमल भावा, स्त्रिष्टि सकल तुव ज्ञान मैं, स्त्रिष्टि नाथ तू, स्त्रिष्टि भासक, प्रतिभासै निज ध्यान मैं।। ७२ ॥ स्त्रिष्टि अनंत स्वभाव, शुद्ध पर्याय अनंता, स्त्रिष्टि अनंत सुज्ञान, आदि गुन अतुल धरता। स्त्रिष्टि न इनसी और, एक रूपा अविनासी, स्त्रष्टा तू जगदीस, ईस तू सर्वविभासी। स्वपर स्त्रिष्टि को तू अधीसा, भिन्न अभिन्न सुव्यापको, सिषी भव्य अति हरष पांच, तू सुमेघ धुनि लाप को॥७३॥ गयो सिटाय जु मोह, धाक सुनि तेरी देवा, दासनि सौं लर” हि, सिट पटावत अति भेवा। तैं हि सिखाये दास, ज्ञान किरियामय निपुना, अति हि सिहां, धीर, तोहि तैं लखि तत अपुना। नाहि सिहावै जगत छति लखि, गर्ने लोक माया असति, तो ही कौं सिर ऊपर धरि, निश्चिंता मुनिवर लसति॥७४ ।। - दोहा - सिर परि सबक तू रहै, विरला तोहि लखंत। तेहि सिधाएँ सिव पुरै, ज्ञानामृत चखंत ।।७५ ।। - कुंडलिया छंद - हैं स्वीकारे मुनि गना, लोक रीति से भिन्न, तू स्वीकारयो मुनिगननि, तत्व स्वरूप अभित्र। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी तत्व स्वरूप अभिन्न सीरपाणिनि कौ तारक, इहै नांम बलिभद्र, तू हि बलिभद्र उधारक । चक्रि उधारे तू हि हि स्वीकृत अति तारे, सीं करुणा वृक्ष, मुनिगना तैं स्वीकारे ॥ ७६ ॥ सीधी वधौ निंद्य है, मांस समान सदोष । मांस समान सदोष तेल जल चरम निपतिता, हींग महा हि अभक्ष, तू हि वरजै अधरतता । हाट मिठाई निंद्य, तजहि तुव मत द्रिढ कीधी, भ कदापि न दास निंद्य है सीधौ वीधाँ ॥ ७७ ॥ सीता नाम जु भूमि कौ, तू हि भूमि कौ नाथ, धरणीधर वरवीर तू, धीर महागुण साथ । धीर महागुण साथ, तू ही दुखहर सीता कौं, सीता परम सतीहि सील है सरवस जाकौ । नारी तेरै नांहि, तू हि एकाकी मीता, भूमी भुज तृ सत्य, भूमि को नाम जु सीता ॥ ७८ ॥ सोरठा सीमंधर तू देव, सीम धरम की तू सही । दै दयाल निज सेव, जाकरि भव भरमण मिटै ॥ ७९ ॥ २७७ — सीझैँ तेरे होइ, सीझे तोमैं आंवही। सत्य स्वयंभू सोय, ज्ञानानंद स्वरूप तू ॥ ८० ॥ सीचे जल सौं कोय, तब तरवर फल को फलै । व्रत तरवर सम होय, तुव रस सींच्यो शिव फलै ॥ ८१ ॥ सीष गर्दै जो कोय, तेरी त्रिभुवन सांइयां । सो स्वतत्त्वमय होय, भवभरमण कौं वारि दे ॥ ८२ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अध्यात्म बारहखड़ी सीस नाय सुरराय, तोहि जु बंदै नरवरा। मुनिवर पूजै पाय, तेरे सब करि पूजि तू।। ८३ ।। सीह नृसीह अनादि, कर्म द्विरद मदहर तु ही। तू सब मांहि आदि, आदि पुरिष परवीन तू ।। ८४ ।। सीलों बास्यों अन्न, खांहि ते हि बोध न लहैं। जे तोसौं प्रतिपन्न, ते अजोग्य सब ही त6 ।। ८५ ।। सीसो वनिज न जोगि, सीसा मैं हिंसा अती। तू वरजै हि अजोगि, दया धर्म को मूल तू।। ८६ ।। सुश्रुति भासं तू हि सुगुणी सुगुण विभास तू। सुष्टहि लहैं प्रभूहि, दुष्ट न दरसन कौं लहैं ।। ८७ ।। - मालिनी छंद - सुगत सुगति दाता, सुश्रुतो विश्रुतो तू, सुभग सुमुख देवा, सुष्ट है सुव्रतो तू! सुमति सुहितकारी, है सुरूपो सुगुप्तो, सुखमय सुलभो तू, पुल्लभो तू अल्लुप्तो ।। ८८ ।। सुहृद सुख सुरूपा, साधवा तोहि ध्यावे, सुनहि सुश्रुति तेरी, 8 सुघोषा सुगांवें। सुमुख सुभग जीवा, तोहि सौ लौ लगावें, सुविधि धरि सुधी ही, सुस्थिता होय भावै ।। ८९ ॥ सुरग मुकतिदाता, तृहि हैं मुष्टवाचा, ____ अतुलित मुखिया तू, देव है नाथ साचा। सुरपति अति पूजैं, तोहि पूज्यां सुश्रेया, लहहि सुमति नाथा, तोहि तँ तू हि ध्येया॥ ९० ॥ - छंद चालि - सुत्रामा सुरपति नामा, सुरपति को पति तू गमा। सुर असुर नरा मुनि पूजैं, तिनले अघ कर्म न पूजें।।९१॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी सुरगुर को गुर तू देवा, है सुतनु सुमुख अतिभेवा । सुमनां हैं मुनिवर घ्यावें, सुजना तो सौं मन लावैं ॥ ९२ ॥ तो सौं जे सुरति लगांव, करि सुरचि महागुन गांवें । तेई पांवें शिव सुगती, जे भव्य सुदर्शन सुरती ॥ ९३ ॥ तू सुनय द्विनय परकासै, तू सुगी सुष्टगी भासे । गी है वांनी कौ नांमा, तेरी यांनी सुखधामा ॥ ९४ ॥ जे सुबुद्धी तोहि निहारें, तेई सुजीव शिव धारें। सुत परिजन त्यागि मुनीसा ध्यां एकाग्र जतीसा ॥ ९५ ॥ सुकृत की मूल जु तूही, सुकृती ध्यावै हि प्रभू ही । सुकृत हू लखि न सकै ही, अकृत कैसें जु धुकै ही ॥ ९६ ॥ है सुप्रसन्न जे ध्यांवें, तेई निज आतम पांवें । सुभ अशुभ त्यागि वरवीरा, तुवपुर पहुंचें जगधीरा ॥ ९७ ॥ सुपथी जे सुपथ प्रकासा, तोही तैं लहहि विलासा । सुमरन तेरौ जे धारै, कुमरन कौं तेहि बिडारै ॥ ९८ ॥ दोहा - जे सुशील जन ध्यांवही, तोहि सुचित्त लगाय । ते सुख पिंड अखंड हैं, आवैं तुव पुरि राय ।। ९९ ।। वसंत तिलक | छंद तेरी प्रभू सुधि लहैं मुनि वीतरागा, होवै सुकार्थ नर देह महा सभागा । तेरे ही मैंन सुनता सहु भ्रांति नासै, २७९ — तेरी सुचाल लखतां निज तत्त्व भासे ॥ १०० ॥ तेरी सु स्वच्छ गतिता गति तैं अतीता, तो सौ सुजांन जग मैं नहि और लता । मेरी सुधार नहि तोहि विना जु होई, तू ही करें हिं सुरझार उधार सोई ॥ १०१ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अध्यात्म बारहखड़ी तू ही सुठाकुर प्रभू जगदीश राया, लोकेश लोक परिपूरण रूप भाया। और कुठाकुर सवै नर देव सर्वे, झूठी विभूति लखि मूढ वृथा जु गर्वे ।। १०२ ।। तू ही सुढार सुभ रूप कुहार औरा, ..तो कौं सबै मुधि प्रभ जग कौ हि मौरा। .. तू ही सुदारण महादुखहार देवा, तू ही सुधारण हमैं प्रभू दै स्व सेवा ।। १०३ ।। तू ही सुतारक भवोदधि पोत स्वामी, तू ही सुमारग निरूपण रूप नामी। तू ही सुदर्शन विभासक दृश्य रूपा, तू ही सुग्यान धन शुद्ध स्वरूप भूपा॥ १०४॥ - छंद भुजंगी प्रयात - सुनासीर भाष्यो जु इंद्रो सुरेद्रो, तुझी कौं र₹ देव तू है मुनिंद्रो। चहैं नाहि दासा सुनासीर लोका, विरक्ता जगद्भोग थी ग्यान थोका । १०५ ।। सुपर्णा समाना तिहारे सुदासा, जिनौं कौं लखें काल नागा जुनासा। ग्रस काल लोकैं न दासै प्रभूजी, सही काल जीता सुदासा विभूजी ॥ १०६ ।। सुवर्णा नही है सुवर्णा गुसांई, तु ही है सुवर्णा सुरूपा असांई। सुतो नाहि काहू हि को तू अनादि, सुता सर्व तेरे तु ही तात आदी ।। १०७।। तु ही मृर चंदा हतै अंधकारा, प्रकासी सदा तत्व रूपी अपारा । जप सूर चंदा भजै न फनिंदा, तु ही कोटि सूर्याधितेजो मुनिंदा ॥ १०८॥ तु ही सूक्षमो जाहि कोऊ न जान, तु ही थूल थूलो अनंतत्त्व मानें। नही सक्षमो तू हि थूलो हु नाही, अमूर्त स्वरूपो तुही सर्व माही ।। १०९॥ तु ही सूनृतो सत्य रूपो अरूपो, प्रभू तूही सूरीश्वरो है अनूपो। जधैं सूरि तोकौं उपाध्याय धोकैं, स्टैं साध तोकौं हि जे चित्त गेकै॥११०।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ अध्यात्म बारहखड़ी तू ही सर्व सूचै सदानंद सांई, प्रभू तू हि चिद्रूप रूपो गुसांइ । हरै पंच सूना दयापाल तू ही, तु ही शुद्ध अध्यात्म रूपो प्रभू ही।।१११॥ महासूत्र भासी महातंत्र स्वामी, तू ही सूतबंधो असूत्रो अनामी । तु ही देव सृधौ तुझे सर्व सूझै, सदा सूधि और तु ही सर्व ठूझै ( बूझै ) ॥ ११२॥ इहै जीव सूतौ महानीद मांही, जगावै तु ही देव संदेह नाही। स्वतत्व प्रसूती तिहारी सुभाषा, महा ज्ञान वैराग्य रूपी सुसाषा ।।११३।। -- सोरता - मधु मांसादि भौं हि, ते सठ सूतिग रूप निति। करुणाभाव लखें हि, भक्ति पंथ तेई लहै ।। ११४ ।। ... छंद त्रिभंगी - प्रभू तू हि यथेष्टो, विभु अति प्रेप्टो है जु स्थेष्टो, थिर देवा। गुन सेना को पति, अति हि महाछति, एकाकी अति, घर देवा। कवहू नहि स्वेदा, तू हि अखेदा, परम अभेदा, अति सेना। मुनि धारहि सेवा, हौं हि अछेवा, तू जगदेवा, अति देना।।११।५।। नहि स्वेत जु कृष्णा, तू अति विश्ना, जिनवर जिश्ना, अति नामा। इक सेवित तृ ही, सर्व समूही, अतुल प्रभू ही, अतिरामा । तू ही भव मेता, ज्ञान जनेता, तत्व प्रणेता, जगराया। तू विप्र सुधार, क्षत्रिय तारै, सेठ उधार, शिव दाया॥११६ ।। - दोहा - तु सेय भवि जन तिरै, जगतारक तु देव । संस सुरेस नरेस सहु, धरहि तिहारी सेव॥११७॥ सेरी भव वन मैं इहै, अध्यातम सैली हि। इह सैली पायें प्रभू, रहै न वुद्धि मैली हि॥११८ ।। या सैली करि शिव लहैं, भव वन की जल देय। सैंण तिकेहि जु इह धेरै, लखिक सब जग हेय।। ११९॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अध्यात्म बारहखड़ी तजि सैथल्य स्वभाव जे, द्रिढ चित्ता है धीर। ते इंह सैली लहैं, स्वरस रसीले वीर।। १२० ।। ... छंद मोती दांग - तु ही जिन सोम सुद्रिष्टि प्रशांत, महा अति सोभित है अतिकांत। मु सोलहवांन कहा जु सुवर्ण, तु ही अतिवान अनंत अवर्ण ।। १२१॥ नहीं कछु सोच न सोक न रोक, तु ही सुप्रसन्न महागुन थोक । तु ही इक सोधउ साधनि सत्य, लष्यौ परपंच सवै हि अनित्य ।। १२२ ।। - दोहा - सोहं सोहं धुनि सुनें, जग धंधा छिटकाय । तेई तेरौ पंथ लोह, पावै चेतनराय ।।१२३॥ सौरा शैवा सौगता, तो विन शिव न लभंत। सौख्य मई गुन निधि तु ही, तो कौं साध चहत ।। १२४॥ सौम्य तु, ही अति सौम्यता, तेरी दीन दयाल । अति सौंदर्य अपार तू, अति सौजन्य रसाल।।१२५ ।। तेरे सौंज अपार है, अति सौहार्द सुरूप। अति सौरभ्य अलभ्य तू, ज्ञान लभ्य चिद्रूप॥ १२६ ।। सौध तिहारो लोक सिरि, निज स्वभाव हैं सौध । सौध तिहार जेय सव, सव को सौंध असौथ ॥१२७ ।। अति सौभाग्यमई तु ही, कहिये को लग नाथ। सौदामिनी सि जगत छति, नजि मुनि लें तब साथ ।। १२८ ।। सौदामिनी विजुरी हि सो, भवमाया भकभूर। तेरी भूति अनश्वरा, अति अनंत भरपूर ।। १२९ ।। - सवैचा तेइसा ॥ २३ ॥ - संबर रूप अरूप अनूपम संचम धारक तू अति भारी। संवर निर्जर मोख तु ही इक आश्रव बंध न तू अविकारी । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २८३ जीव अजीब सबै प्रतिभासई तू हि जु और न कोइ अपारी । सुंदर रूप सुसुंदरता धर, तू जगसुंदर संत उधारी ॥१३०॥ संग तजे सहु संचय त्यागि, तजे धन संपति संत महंता। संसय मोह तजे सह विभ्रम, तोहि स्टैं मुनि तत्व लहंता। संगति लोकनिकी तजि साध भर्जे हि अवाध महा विलसंता। संक न चित्त मझार धरै मुनि ध्यान सुधारस रूप चखंता।। १३१ ।। - कुंलिया छंद - चविधि संघा जाहि कौं, भर्जे सुचित्त लगाय, 2. भोर संचर गिर गुनि को सिलोकी रस्य । सकल त्रिलोकी राय, संधि बंध न कछु जाके, संधि विभक्ति समास कारका नाहि जु ताकै। सर्व विभास अनास, भासई लिंग जु त्रय विधि, ध्यावै तत्व स्वरूप जाहि कौं संघा च विधि ।।१३२ ।। क्रियमाणा अर संचिता, प्रारब्धा विनसंत, संसय छांद्धि तुझैं भ6, आनंदा विकसंत । आनंदा विकसंत, संत ही पावै भेदा, संघ उधारक तू हि, नाथ है अति निरखेदा। तू संवित्ति स्वरूप, संपदा रूप सुजाणा, तुम नांमैं विनसंत, संचिता अर क्रियमाणा।। १३३ ।। - दोहा - सं कहिये सम्यक सदा, तू सम्यक निज रूप। तेरै संबंध जु नहीं, परपंचान की भूप॥ १३४ ।। संग्या संख्या लक्षणा वहुरि प्रयोजन नाथ । सर्व विभासै शुद्ध त, भेदाभेद सुसाथ।। १३५ ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अध्यात्म बारहखड़ी संकट हरन सुपास तू, दूरि नही जग सार। तू संदेह वितीत है, संसारार्णव तार ॥१३६ ।। संसारी तैं सिद्ध , तेरेई परसाद। संभव तू ही असंभवो, धरइ जु नांहि बिषाद ॥१३७ ।। जे संसार सरीर सैं, अर भोगनि त नाथ। विरकत हूँ सुमुनीश्वरा, ते हि लहैं तुब साथ ।।१३८ ।। संप्रदाय तेरी सही, जा करि शिव सुख होय। भव संतान अनंत तैं, तारक न. प्रभू, गोरा !! १३: ।। . संपा विजुरी कौं कहैं, तदवत चंचल देह। संपादक निज ज्ञान को, चेतन तत्व विदेह ।। १४० ।। संप्रदान अधिकर्ण अर, अपादान अर कर्ण। करता करम जु षट विधि, कारक रूप अवर्ण॥१४१।। संध्या अभ्र समान है, भव तन भोग विभूति। इनसौं जे ममता धेरै, भव मैं धेरै प्रसूनि ॥१४२।। संध्या तीन मझार जे, तोहि भर्जे चित लाय। अहनिसि ध्यान समाधि की, सिद्धि लहँ ते राय ! १४३ ।। संवेगादिक गुणधरा, ध्यानै तोहि मुनिंद। तु असंग सरवंग है, केवल रूप जिनिंद।। १४४।। सत संगति नैं पाईए, तेरी भक्ति दयाल। शिव संगम को मूल है, नेरी सेव कृपाल ॥ १४५ ।। ... मस्टा - सः कहिये मो जीव, धन्य धन्य है जगत मैं। तोहिं र₹ जु अतीव, तेरौं नै निज रस लहै ।। १४६ ।। सः शूली को नाम, शूली रुद्र त्रिशूल धर। सो ध्यानै तुव धाम, तू सब करि पूजित प्रभू॥१४७ ।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं। समरस पूरित तू, सागर गुननि को हि, सिद्धि ऋद्धि वृद्धि को सुआगर अनंत है। सीमंधर सीमंकर सुष्टता प्रकाशक तृ, सुनासीर ध्यांचैं जाहि देव भगवंत है। सूत्र की विभासक जो, सेत भव सिंधु की हि, सैली को महंत महा, सोमद्रिष्टि संत है। साँध नांहि देह नांहि व्यापि रह्यो लोक मांहि, संतनि को नायक जो सः प्रकास तंत है॥१४८।। - छंद कुंडलिया – तेरी नाथ सुसंपदा, महासुसंपति जोय, संकट हरनी सिद्धि जो, लक्ष्मी कहिये सोय। लक्ष्मी कहिये सोय, होय जो अतुल अनंता, ___ अनुभूती मुधिभूती, स्वच्छता तेरी संता। साकृति नाकृति रूप, तो समा क्रांति घणेरी, भाषै दौलति ताहि, संपदा नाथ सु तेरी ।। १४९ ॥ इति सकार संपूर्ण । आगै हकार का व्याख्यान करै है। - श्रोक -- हरि हर महावीरं, हार निहार सन्निभं । हितं हिरण्य गर्भ च, हीन दीनादि पालकं ॥१॥ हुताष्टकर्म संघातं, दीप्तं हुतभुजोपमं । पुरहूत पतिं देवं, हूं मंत्राक्षर भासकं ।।२॥ हेम. रूपं महाशुद्धं, हैमाद्या भरणातिगं। कर्म होमकर धीरे, देवं ध्यानाग्नि दीपकं ॥३॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ २८E अध्यात्म बारहखड़ी हाँत्रिकं पाप हतार, हंस वगै निषेवितं । ह्रः मंत्राक्षर रूपं च, वंदे देवं सदोदयं ॥४॥ दोहा - हर्ष रूप आनंद घन, हर्ष विषाद वितीत। हर हरि जिनवर देव तृ, हरि हर पूजि अजीत ॥ ५ ॥ __ . छप्पय - हर स्वामी हर नाथ, तोहि हल धर अति सेवें, हृदय कमल मैं तोहि, साधु धरि शिव सुख ले। हत विरोध तू देव, तू हि हतराग विमोहा, हृषीकेश जगतेस, नांहि तेरै परद्रोहा। हरित न पीत न सेत रक्त, स्याम न तू घनस्याम है, हरित काय न हि भक्ष भाषे, तू हृदयस्थ सु राम है॥६॥ हवि सुरूप सहु कर्म, तू हि होता जु अनादी, __ ध्यानानल परगास, देव तू सव महि आदी। हद वेदह तू देव, हद्द वांधै सहु तू ही, रहै हद्द के अंत, ज्ञान घन तूहि समूही। नहि हसइ न तूसइ रूसई, नित्य प्रसन्न अनंत तू, हम कौँ हु देहु निज भक्ति प्रभु, हृष्ट तुष्ट भगवंत तू॥७॥ हठ योगी हठ योग, तू हि हठकरि अघ खंडे, हणे कर्म सब भर्म, काम क्रोधादि विहंडे। हच्छपकरि वडहच्छ, तारि तू हमहि गुसांई, हति पातिग हरि देव, लोभ मोहादि अमाई। हटकि चित्त जे तोहि ध्यावे, अटकि हैं नहि जगत मैं, हदै राग मोहादि तिनतें, ते गनियें तुव भगति मैं।। ८ ।। हड़ षोड़े को नाम, एहि हड सम भवकूपा, ___ यात कादि दयाल, देहु निरवांन अनूपा। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २८७ हस्ति न घोटक भृत्य, नांहि स्यंदन शिवकादी, चाहें केवल भक्ति, रावरी सव महि आदी। तू चैतन्य अमूरतातम, ज्ञान स्वरूप अनूप है, लोकेस लोक परमाण तू, पुरषाकार स्वरूप है।।९।। हस्त मांहि सहु वस्तु, अस्त विनु उदय स्वरूपा, हसत वदन जगनाथ, श्रीर तू वीर अरूपा। हसिवौ खिजिवी नाहि, तू हि विनु राग द्वेषा, अलख अमूरति देव, सेव दै शुद्ध अल्लेघा। करि स्व हजूरी मोहि नाथा, दे समीपता आपंनी, हरि भ्रांति देहु सम्यक्त तू, टारि मूरछा पापंनी ।।१०॥ हारद तू हि दयाल, और नहि हारद कोऊ, ......... तेरी हाक... सरनोविक पोटू मिरजक सम होऊ। हानि न वृद्धि न कोय, तू हि है नित्य अखंडित, हानि वृद्धि परकास, तू सदा अतिगुन मंडित । हास्यादिक ते रहित देवा, निरमोही निरवांन तू, हाव न भाव विलास विभ्रम, योग युगति परवान तू। ११ ।। हांती पारचौ नाथ, कर्म नैं मेरौ तोते, छां. नाही संग नादि तैं ए जड़ मोते। हाथ पकरि अव देव, बैंचि लैं अप पुर मैं, हार समान जु होय, तू हि वसि हरि मुझ उर मैं। हाटक त अति विमल तू ही, है विराट को नाथ तू, हारद योगीश्वरनि की है, रहे निरंतर साथ तृ॥१२ ।। हार न मुकट न कटक, नांहि को अंगद तेरे, तू निरग्रंथ दयाल, मोह माया नहि नरे। तृ ही हिरण्य सुनाभि, नाभि को पुत्र कहावै, प्रभू हिरण्य सु गर्भ, अर्भ को तृ न लखावै । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अध्यात्म बारहखड़ी अर्भक वालक नाम कहिये, तू वालक नाह कोय की, अजर अजोनी शंभु स्वामी, तू हि तात सब लोय कौ ॥ १३ ॥ तु ही हिरण्य सुवर्ण, तो समो नांहि सुवर्णा, हितमित वैन दयाल, तू हि है हितु अवर्णा । हिमकर पति जग जोति, तू हि हिमगिरि सौ देवा, हिमता हर हर देव, देहु चरननिकी सेवा । बसहु हिये मैं ज्ञान रूपा, हिरदै की चक्षु खोलि तू, हि कहिये निश्चै स्वरूपा, हरि हरि हमरी भोलि नृ॥ १४॥ हिवड़े तिष्टि सुदेव, तारि लै जगत प्रपाला, ___ हिम ऋतु सम जड भाव, टारि मोते सुकृपाला। ह्रींकार मय रूप, तू हि है ऊँकारा, तू श्री वीज स्वरूप, सर्व वीजाक्षर पारा। हीदायक तू ही प्रपूजित, श्री ही धृति कीरति सवै, वुद्धि जु कमला तोहि सेवें, राग दोष तोतें दर्दै ।।१५॥ हीरा मांनिका लाल, अवर पुखराज जु पन्नां, मूंगा मोती बहुरि फुनि सुलीलम गनि लिन्नां। रतन लसनियां होय, नव जु ए रतन सुप्रगटा, तीन रतन विनु सर्व, रतन दीसैं अति विघटा। सम्यग दरसन ज्ञान चरना, स्तनत्रय एई सही, परमराग पुखराग प्रमुखा संध्याराग जु समल ही॥१६॥ हीसैं अति सुनुरंग, वार वारन बहुगजहि, सेवहि अति सुनरिंद, द्वार वादित्र सुवजहि । सज्जहि अति भट शूर, जिनह कौं सेवहि सव जन, से चक्रीनाथ, तोहि सौं लावै निजमन । तुव कारणि सव जगत तजि कैं, भजहि नरोतम दास हूँ. तव पावें तुब पंथ देव, राग दोष द्वय नास हूँ॥१७ ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २८९ तीये. शुल्म सद, हाणिया विटालि . मांहैं, लहैं हीन परजाय, पापिया संसैं नाहैं। अतिहि हीनता रूप, भूप इह भव की माया, याते पार उतारि, देहु अविनश्वर काया। तेरे दास उदास भव तें, ज्ञान क्रिया मैं निपुण हैं, व्रत्त प्रवत्तक भक्ति रूपा, तिन सम और जु कवण हैं।। १८॥ हींग जु होय अभक्ष, हाट को सीधौ नियं, चरम चाननी छाज, चर्म घृत तेल हु निंद्यं । चंदोवा है जोग्य गृही कौँ भोजन पाने, __ पूजा दांन सुज्ञान तूहि भासेइ प्रमाने। हुतकर्मा हुतभर्म तू ही, तू होता भव भाव को, हुलसै हि चित्त तो देखतां, तू खेवट गुन नांव कौ ॥१९॥ हु अहिये प्राक्रत्त मांहि है परगट नामा, तू हि प्रगट जगदीस. ईश है अतुलित धांमा। हूं अति सलिउ अनंत, काल भव वन महि तो बिन, अव निस्तारि दयाल, तू हि प्रभु तमहर कर दिन। हेत अहेत जु त्यागि जग सौं, हेत करें तो सौं मुनी, हेम रूप तू रहित काई, तो विनु हेय सबै दुनी ।। २० ।। हेय कहावै त्याग, जोग जे वस्तु पराई, __ परद्रव्य जु नहि लीन, एक निजरस सुखदाई। आतम विनुसब हेय, एक आदेय स्वरूपा, हेयाय सवै हि, तू हि भासइ जग भृपा। तेरै हेय न एक दीमै, तू हि उपादे वस्तु है, हे नाथ तारि भव सिंधु तँ, तू तारक परसस्त है।॥२१॥ हेकड मल्ल अवीह, हेतु शिव को इक तू ही, हेत अहेत न लेत, एक निज भाव समूहि। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० अध्यात्म बारहखड़ी हेला मात्रै तू हि, जीव को करह उधारा, ............ ... .... हेटलि तेरै सर्व, गर्व हर तू हि अपारा। हेला शीघ्र जु नाम कहिये, तू हि शीघ्र भवतार है, हेला लीला नाम कहिये, लीला धर त सार है॥२२ ।। लीला ज्ञान विभूति, और को लीला नाही, हेरयो तोहि मुनीनि, राचिया तो ही माही। हेम सुकामिनि त्यागि, त्यागि सहु रागर दोषा, तेरे होय सुदास, मानमद करहि जु सोषा। माया काया सौं न नेहा, एक नेह करि तोहि सौं, भव्य अनंता पार पहुंता, रहित हुवा जे मोह सौं॥२३ ।। - दोहा - पार न पहुंचे ज्ञान विनु, ज्ञान भगति विनु नाहि। भगति दया विनु नाहि कहुं, दया मोम चित्त माहि॥२४॥ जे अभक्ष भोजन करें, पीनै जेहि अपेय। करहि अगम्यागम्य जे, ते करणा नहि लेय॥ २५ ।। चित राखें कोमल सदा, वोलहि हित मित र्दैन। तन मन करि दुख देंहि नहि, तेदयाल बुधि नैंन॥२६ ।। - छप्पय - हेडा कहिये मांस, मांस सहु होय अभक्षं। वे ते चऊ पंचिंदि जीव जंगम नहि भक्षं। थावर होय सुभक्ष, मांस रक्तादि न जामैं। अन्न वीण जल छाण, भेद भासइ तू तामैं । अन्न वारि लघु अशन करिक, त्यागि अभक्षा सब जिके। तोहि भसैं मन शुद्ध होई पार होई भव” तिके ॥२७॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी भरत हैमवत हरि जु, क्षेत्र फुनि महा विदेहा । रम्यक्क अर हैरण्य वत सु औरावत जेहा । सप्त क्षेत्र ए नाथ, दीप जंबू मैं भासें । सर्व दीप को देव, एक तू अतुल प्रकासै। हैं तू ही जु उधार ईसा, और न तोसौ दूसरा । तू हि ज्ञान आनंद रूपा, तो विनु सव जम धूसरौ ॥ २८ ॥ है तो सव सिद्धि, ऋद्धि कौ सागर तू ही । होता पापनि कौ हि, होमई कर्म समूही । होड तिहारों और, करइ को सुरनर नागा । तू थिर चर को नाथ, भासइ ज्ञान विरागा । होत सवै सुख तोहि सेयें, तू सुख दुखतैं रहित हैं। तू आनंद सुकंद स्वामी, गुन अनंत तैं सहित है ॥ २९ ॥ २११ होनहार अर भूत, वर्तमान जु सव जांनैं । तोतें कछु न परोखि, तू हि रागादिक भानें। होय सकल कल्यांण, तोहि तैं अंतर जामी । होहु होहु भवतार, नाथ तू हमरी स्वामी । हो हो जिनवर देव देवा, सुनि विनती जगनाथ जी । साथ देहु अपनौं निरंतर, भवदुख पावक पाथ जी ॥ ३० ॥ होवै ध्यान मझार लीन चित्त जु मुनि जन काँ। तोर्तें भेद रहै न, भव्य जीवनि के मन कौ । अभवि न पांवैं तोहि ज्ञानघन अमृतघन तू । चिदघन अतन अमान, देव जगजीवन जिन तू । होठ न हालै कर न फिरई, वयण उचारो नां हुवै। सोहं सोहं अतुल मंत्रा जपि अजपा तोहि जु छुवै ॥ ३१ ॥ होयगाँ तू हि हाँ तू ही जगनाथ, है तू ही परतक्ष लक्ष अत्यक्ष " निरंतर । अनंतर । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी हौं सठ जगत मझार, होस करि विषयनि केरी। रुलिउ अनंतउ काल, भक्ति भाई नहि तेरी। हिंसादिक अपराध करि कैं, नर्क निगोदादिक लही। विनु भजन रावर कुमति लहि, कुगति अनंती मैं गही।। ३२ ॥ - सोरठा - अब दै भगति दयाल, भव संकट हरि नाथ जी। भगत पछिल तू लाल, भगत कर भगवंत जी॥३३॥ हंस नाव है भानु, भानु ससि तेरे दासा। हंस पति तू देव, मोह मद तिमर विनासा। परम हंस मुनिराज, तू हि हंसनि को सरवर। हंस पखेरू जाति, तिन समा उज्जल मुनिवर। क्षीर नीर ज्यौँ जीव जड़ को, भेद करें यतिवर प्रभू। हंस जीव सवही कहांवें, तू जीवनि को गुर विभू॥३४॥ हं मंत्राक्षर तू हि, मंत्रमय मूरति तेरी। परम समाधि सु तंत्र, भूति सहु तेरी चेरी। ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्वः जु, परम तू मंत्र स्वरूपा । हिंसा ध्यांत उछेदा करण तू भांनु अनूपा। कहा हंस की चाल जैसी, जैसी चाल सुरावरी। हंस अनंत उद्योत धर प्रभु हरहु जु भ्रांति विभावरी ।। ३५ ।। हंत कहावै खेद, खेद नहि तेरै कोई। तू निस्वेद अभेद, देव निरखेद सु होई। दुखहर तू हि मुनिंद, दोषहर तू हि अनंदा। तू हि काल हर देव, कंट हर तू हि जिनिंदा । सकल कुविधा हरणहारा, है दारिद्र हरो तुही। ह्रः मंत्राक्षर रूप भूपा, सर्वाक्षर तू ही सही ॥३६॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २९३ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं। हरिकै तु ही जुहार हारल की लाकरी है, हित मित बायक तू, नायक सु जायका। हीरा मनि मानक जे हीन सहु कंकर ए, हुलसैं न इनैं पाय, तेरे निज पायका । हूं तो सठ भूलौ तोहि, हे प्रभु सुधारि मोहि, है त्रिलोकनाथ देव ऋद्धि सिद्धि दायका। होता सब कर्मनि को, होस नांहि तेरै कोऊ, हंस देव हः स्वरूप, सर्व वात लायका॥३७॥ - कुंडलिया छंद - तेरी नाथ स्व हर्षता, धेरै न हर्ष विषाद, ___ गुन अनंत रूपा महा, सो लछिमी अविवाद। सो लाछमी अविवाद, ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि, ____नही हीनता होइ, स्वानुभूति परिवृद्धि। सत्ता ज्ञान विभूति, संपदा संपति देरी, भाओं दौलति ताहि, हर्षता नाथ सु तेरी ॥३८॥ इति हकार संपूर्ण । आगै क्षकार का व्याख्यान करै है। – शोक - क्षमाधारं रमानाथं, क्षांति रूपं महाबलं । क्षिप्त रागादि संतानं, क्षीण मोहं जगद्गुरुं ॥१॥ क्षुद्रैरलभ्यमीशानं, खू मंत्राक्षर भासकं। क्षेत्राधिपं त्रिलोकेशं, क्षैम धर्म प्रकाशकं ॥२॥ क्षोणीधरं महाधीरं, क्षौमालंकारवर्जितं । क्षंताधिपं सदाशांतं, क्षः प्रकाशं नमाम्यहं ॥३॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ अध्यात्म बारहखड़ी — गाथा क्ष कहिये क्षम नामा, क्षम समरत्था तुही प्रभू सवला । अवला लखहि न धामा, तेरे अवला न पुत्राद्या ॥ १ ॥ क्षक्कहिये क्षय नामा, क्षय हर तू ही सु अक्षयो क्षत्क्षांती फुनि रामा, तू हि क्षमा मूल क्षम तू क्षय को क्षयकारा, क्षति तल मध्ये सुपूजनीको तू । तू हि क्षमा धन धारा, रोग क्षयी नासका तू ही ॥ ३ ॥ क्षमी क्षमाधन थामा, समरथ तो सौ न दूसरी कोई। भ्रांति क्षपाहर रामा, क्षपा निसा नाम बुध भाषै ॥ ४ ॥ तोहि क्षपाकर सेवें, दिनकर से सुरिंद अति सेवैं । तुष भजि मुनि शिव लेवैं, क्षमा धरा तू हि धरणीशा ॥ ५ ॥ स्वामी । देवा ॥ २ ॥ तू क्षरिवे तैं रहिता, अक्षर तू ही अक्षरातीता ( तू ) । अति क्षपणक गण सहिता, क्षपक श्रेणी हि दाता तू ॥ ६ ॥ क्षत पीरा कौ नामा, क्षत हर तू ही जु क्षत्रियाधीशा । क्षति नहि तेरे रामा क्षति नाथा तू हि जगनाथा ॥ ७ ॥ 1 , पूरा ॥ ८ ॥ क्षणिकमती नहि पांवें गांवें तोकौं मुनी क्षमावंता । भव्य जना अति भांवें वीरा तू क्षत्रवटि क्षपित कलंका तू ही क्षण क्षण ध्यांवें यतीश्वरा संता । सुद्ध सुबुद्ध प्रभू ही, क्षपाकरा कोटि नख मार्हे ॥ ९ ॥ ज्ञान छतें हैं मौना, शक्ति छतां है क्षमा महा जिन कै । ते दासा नहि गौना, दांन करें कित्ति नहि चाहें ॥ १० ॥ क्षति समक्षमा जिन कैं, जल सम शांती सुवह्नि सी क्रांती । पवन समांन तिनों के विसंगतता हि ते भक्ता ॥ ११ ॥ निर्मल नभ सा दासा, ध्यांवें तोकौं प्रसन्न चित्ता जे । ते केवल परकासा, पावै तेरे हि परभावैं ॥ १२ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २९५ ....। सवैया क्षांत प्रशांत सुदांत तुही प्रभु, कांत अपार सुक्षायक दाता। क्षांति प्रकाशक भासक ज्ञान सुक्षायक सम्धक रूप उदाता । क्षांम नही तु हि क्षाम कहैं कृश, तू अति पुष्ट प्रवीन प्रमाता । क्षार समुद्र सुआदि अनेक, पयोनिधि भासइ तूहि विख्याता ॥१३॥ क्षालन हार सवै अधको तु हि, तोहि प्रक्षालन हार न कोई। क्षार पयोधि समांन इहै भव, तू गुन सागर अमृत सोई। क्षिष्ट परे सह कर्म कलंक तिहारहि दासनि पैं वल खोई। क्षिप्त किये परभाव विभाव सुदासनि के परपंच न होई॥१४॥ - छप्पय ... क्षिषु हिंसायां नाथ, भासई पंडित लोका। हिंसासम नहि पाप, ए हि सव अघ को थोका। हिंसक लहइ न भक्ति, जीव रक्षक तुव दासा । दया समान न धर्म, भाषई केवलि भासा। क्षीण कलंक प्रक्षीण बंधा, क्षीर समुद्र प्रसिद्ध कर। क्षीर श्राविणी ऋद्धि धारा, ध्यां3 तोहि मुनिंद वर।। १५ ।। क्षीयमाण नहि तू हि, वीर तू वर्द्ध जु माना। क्षीण शरीर न होय, पुष्ट तू सुख तन ज्ञाना। क्षीरादिक रस त्याग, तपधरा तपसी ध्यावें। क्षीरोपम तू विमल, विमल है मुनि जन पावें। क्षीर नीर यौँ जीव जड़ कौं भेद भाव लखि योगिया। लहि ब्रह्म ज्ञान तोकौं लखें, अनुभव रस के भोगिया ॥१६॥ - दोहा - ज्ञान क्रिया करुणानिको, तेरी भक्ति निदान । तेरे भक्त न आदरै, वस्तु अखांन अपांन ॥१७॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी - छप्पय -- क्षुद्र पान को क्षीर, नीर हू तिन के घर को। कबहु न लेवौ जोग्य, काम नहि उत्तम नर कौ। काचौ दूध अजोगि, कवहु अचवें नहि भक्ता। द्वै घटिका पहलीहि, उश्न करनौ हि प्रयुक्ता। भेड उष्टरी को न क्षीर, श्रुति वर्जित दास न ग्रहैं। तजि क्षुद्र भाव शुभ भाव धारे, दास दरस तसे चहें।। १८॥ ___ - कुंडलिया छंद - तो मैं नाहि विभिन्नता, क्षुद्र न पार्दै तोहि, क्षुद्र कर्म क्षुण जु किये, दै अनुभव रस मोहि । दै अनुभव रस मोहि, तू हि है देव अवस्त्रा, झुरिकादिक नहि कोइ, रावर शस्त्र जु अस्त्रा। तोहि भज्यो नहि नाथ, ज्ञान वैराग्य न मोमैं, अव दै केवल भक्ति, भिन्नता नाहि वि तोमैं।। १९॥ - छंद - क्षुधा त्रिषाधिक दोषा नाही, क्षुल्लक भाव न तैर। क्षुत्रिट हर मुनिनि की तू ही, समता भाव जु प्रेरै॥२०॥ क्षुल्लक एलि उभै विधि भासै, एकादस पडिमा मैं। तू नहि क्षुल्लक एलिन मुनिवर, केवल सिद्ध दसा मैं।।२१।। क्षुत न जंभाई खास न सासा, देवनि के वुध भार्षे तू देवनि को देव जगत गुर, मुनि हिरदा मैं राखें।२२।। मंत्राक्षर भासक तू ही, मंत्र मूरती देवा। क्षेत्रपती क्षेत्राधिप सांई, क्षेत्री क्षेत्र अछेवा॥ २३ ॥ क्षेत्रपाल क्षेत्रज्ञ गुसांई, सब क्षेत्रनि की जानैं। क्षेमकर क्षेमंधर स्वामी, तत्त्रातत्व वखांनै २४॥ क्ष्वेड कहावे विष की नांमा, विषधर तोहि जु ध्यावें। विषधर शंभू अर पारवती, तेरौ ही गुन गांवै।। २५ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी iver नाग नागपति तरी, शुन गांवें अति रसना । वेड सुधा तु परसादें, तू अति अमृत विसना ॥ २६ ॥ तू हि अभिन्न व्यापक स्वामी, निजगुन पर्यय मांही । भिन्न व्यापको सकल ज्ञेय मैं, राग दोष मैं नांही ॥। २७ ॥ तातै विश्रु सदाशिव तू ही, ब्रह्म गणेश महेशा । सुगतं बुद्ध दिनकर तमहर है, शक्ति स्वरूप जिनेशा ॥ २८ ॥ क्षेप विक्षेप न तेरै कोई, करै कर्म विक्षेपा । तत्ववोध के अर्थ प्रकासै, नय परमाण निक्षेपा ॥ २९ ॥ — छंद पद्धड़ी क्षेत्र देह क्षेत्री जु जीव, तू जीवनाथ है जगत पीव क्षेत्र लोक क्षेत्री हि तू हि तू सर्वक्षेत्र व्यापी प्रभू हि ॥ ३० ॥ तू देव क्षेम शासन सुमूल, तू क्षैम रूप त्रैलोक्य चूल | क्षोणीधर भूधर तू दयाल, पृथ्वी अनंत तेरै विशाल ॥ ३१ ॥ क्षोहणिदल सेना गुन अनंत, अक्षोभ तू हि राजै प्रसंत । तू सर्व क्षोभ हर बोध धार, देवाधिदेव स्वामी अधार ॥ ३२ ॥ तू क्षौम रहित भूषन खितीत, है देव दिगंबर अखिल जीत । मुनि क्षौर विवर्जित लुंच केश, ध्यांवें जु तोहि धरि नगन भेस ॥ ३३ ॥ संत दंत शांती स्वरूप, तू क्षाति ( क्षति) विवर्जित लोकभूप । है क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः विभास, तू मंत्री मंत्र स्वरूप भास ॥ ३४ ॥ अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । — धर्मनि मैं आदि क्षमा जु नाथ, तू उत्तम क्षम भासक अनाथ । तेरे न नाथ तातैं अनाथ, त्रैलोक नाथ अतिभाव साथ ॥ ३५ ॥ - सवैया ३१ - २९७ क्षमा कौ स्वरूप तू हि क्षायक स्वरूप नाथ, क्षिष्ट परै रागादिक तेरे ही सु ध्यांन तैं । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ अध्यात्मब क्षीण मोह तू अक्षुण क्षुद्रभाव नै विभिन्न, हूं प्रकाश मंत्र भास पूरण विग्यान तैं। क्षेमंकर क्षेत्रनाथ :म रूप क्षोणी नाथ, क्षौमनांहि भूषन न तेज अति भान तैं। क्षतउ तू क्षांति रूप क्षः प्रकास है अनूप भूप सब लोकनि को भिन्न छल मान तैं।। ३६॥ - कुंमलियः छर . . . . . . . . .. . क्षायक सम्यक भासिनी, पारिणामिका शक्ति, मिथ्यारूप क्षपा हरै, अक्षुणा अव्यक्ति । अक्षुणा अव्यक्ति, क्षुण कीये सव कर्मा, क्षीर समाना विमल, चेतना भूति सुधर्मा । क्षमा अविका देवि, लछिमी रमा अमायक, भासै दौलति ताहि, भासिनी सम्यक क्षायक ।। ३७ ।। स्वामी तेरी कांति जो, क्षांति रूप अति शांति, सोई गौरी शुद्धता, नित्य प्रसन्न प्रशांति। नित्य प्रसन्न प्रशांति, परम ज्योति धुति आभा, प्रभा प्रभावति सोइ, तत्यता वस्तु महाभा। सत्ता सिद्धि विशुद्धि, ऋद्ध राधा अभिरामी, स्यामा दौलति रूप, कांति जो तेरी स्वामी॥ ३८॥ - दोहा - चेतन देव सुचेतना, देवी एक स्वरूप। वह सुद्रव्य वह परणती, गुन रूपा चिद्रूप ॥ ३९ ॥ नाम अनंत सुदेव के, देवी नाम अनंत। आपुन माह पाइए, भगवति अर भगवंत ॥ ४०॥ सब अक्षर मात्रानि मैं, सकल जेय मैं देव । देवी हू सब मैं लसै, विरला वुझै भेव ॥ ४१ ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी २९९ मणि सुवर्ण मैं क्रांति जो, तिन से भिन्न न जोय। त्यौं वह दौलति द्रव्य तें, है अभिन्न रस सोय।। ४२ ।। इति क्षकार संपूरणं इति श्री भत्तयक्षर मालिका अध्यातम बार षडी नाम ध्येय उपासना तंत्रे सहश्रनाम एकाक्षरी नाम मालाद्यनेक ग्रंथानुसारेण भगवद्भजनानंदाधिकारे आनंदराम सुत दौलति रामेन अल्प बुद्धिना उपायनिकृते यकारादि क्षकारांत नवाक्षर प्ररूपको नांम पंचम परिछेद ॥ ५ ।। इति ग्रंथ संपूरणं॥ - दोहा - अक्षर मात्रा नादि की, करता सरवगि देव। प्रतिकरता गनधर मुनी, परंपराय अछेव ॥१॥ सर्व ग्रंथ अक्षरमई, मात्रा रूप वखांना अक्षर मात्रा जे लखें, ते पां| निरवान ॥२॥ नाम अनंत अनादि के, अक्षर मात्रा रूप। संसकृत प्राकृत्त मैं, गां● मुनिजन भूप ।। ३ ।। या युग मैं बुधि घटि गई, नहि ग्रंथनि की ग्यान। संसकृत प्राकृत कौ, विरला करै बखांन ।।४।। उदियापुर मैं रुचि धरा, कैयक जीव सुजीव । प्रथीराज चतुर्भुजा, श्रद्धा धरहि अतीव ।। ५ ।। दास मनोहर अर हरि, द्वै वखता अर कर्ण। केवल केवल रूप को, राखें एक हि सर्ण॥६॥ चीमां पंडित आदि ले, मन मैं धरिउ विचार । बारषड़ी है भक्तिमय, ज्ञान रूप अविकार।।७।। भाषा छंदनि माहि जो, अक्षर मात्रा लेय। प्रभु के नाम वषांनियें, समुझे बहुत सुनेय ।। ८॥ इह विचार करि सव जना, उर धरि प्रभु की भक्ति। योल दौलति राम सौं, करि सनेह रस व्यक्ति ॥९॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अध्यात्म बारहखड़ी बारषड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अनूप। अध्यातम रस की भरी, घरचा रूप सुरूप ।। १०॥ साधर्मिनि की देसना, लहि करि दौलति राम। अविनासी आनंदमय, गायो आतम राम ॥११॥ वसुवा को वासी इहै, अनुचर जय को जानि। मंत्री जय सुत को सही, जाति महाजन मांन ।। १२ ।। न्याति खंडेल जु वाल है, गोत कासिलीवाल। सुत है आनंदरांम को, जाको इष्ट दयाल ॥ १३॥ गुरू दिगंबर साध हैं, वीतराग हैं देव। दया धर्च नौ आंसिरी, सालिम ४ . अध्यातम रौचीनि को, दासा मन वच काय। भजन कर भगवंत कौ, भगति भाष चित लाय ॥१५ ।। जय को राख्यो रांण पैं, रहै उदैपुर माहि। जगत सिंह किरपा करें, राखें अपुर्ने पांहि ।। १६ ।। छंद भेद जां. नहि, समुझि न ग्रंथनि माहि। अलंकार विज्ञान को, अलंकार हूं नाहि ।। १७॥ कोसनि मैं लेस न धेरै, परिचय काव्य न ज्ञान। शब्द युक्ति परमागमा, ए त्रय धरे न कान ।। १८ ॥ श्रुति सिद्धांत सुनें नहीं, देखे नाहि पुरांन । पेखे नाहि कदापि हू, सिंगारादिक आन॥१९ ।। स्व परन समय लखाव कछु, लौकिक कला न कोय। नहि पाई अनुभव कला, केवल चिनमय सोय ॥२०॥ योगाभ्यास अभ्यास नहि, यम नियमादिक आठ। बूझि न तत्वातत्व की, सूत्र न शास्त्र न पाठ॥२१॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ३०१ बुद्धिवल हू औसौ नहीं, नपवल श्रुति वल नांहि। दानादिक को बल्ल नहीं, छल बल नांहि जु पांहि ॥२२॥ केवल अध्यातम धरा, रुचिधर प्रभु के दास । दासनि के दासांनि की, कम रज शुभ मति भास॥ २३ ॥ ताकी भक्ति प्रशाद तैं, पूरन कीनों ग्रंथ। वीतराग प्रभु गाइया, गायो भक्ति सुपंथ ॥ २४ । मंगल रूप अनूप प्रभू, मगल करौ सदैव। चउविधि संगनि कौं महा, तत्व प्रकासक देव ।। २५॥ धर्म प्रवरती घर्द्धतौ, जीव दयामय शुद्ध। विधन टरों संसार को, होहु दशा प्रतिषुद्ध ॥२६ ।। - छंद - दौलति करौ देहुरा वालौ, निरभय रूप अनूपा । जिनदासनि के दास करौ प्रभु, अजित सुधर्म सुरूपा॥२७ ।। शंभु अदंभ अखंड धरापति, करौ नाथ अविनासी । जादौं पति नियमादि सुनाथा, करौ सय सुखरासी ॥२८॥ जंबू दीप क्षेत्र है भरत जु, आरज खंड निवासा। देस नाम मेवाड 'उदैपुर, रची तहां इह भासा ॥ २९ ।। संवत सत्रह सै अठ्याणव, फागुन मास प्रसिद्धा। शुक्ल पक्ष दुतिया गुरवारा, भायो जगपति सिद्धा ।। ३० ।। जवै उत्तरा भाद्र नक्षत्रा, शुक्ल जोग शुभकारी। वालव नामकरण तव वरतै, गायो ज्ञान विहारी॥३१॥ एक महूरत दिन जव चढियो, मीन लगन तव सिद्धा। भगति माल त्रिभुवन राजा, कौँ भेट करि परसिद्धा ।। ३२॥ अमल अचल अविनासी संपति, दौलति कमला पति तैं। चाहहि ज्ञान चेतना परणति, थिरचर पति अति छति तैं।। ३३॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अध्यात्म बारहखड़ी इति श्री भत्त्यक्षर मालिका अध्यातम बारषड़ी संपूर्ण । शुभं भवतु || श्री। संवत १८०० का भाद्रमासे कृश्नपक्षे तृतीय तिथौ गुरुवार इदं अध्यात्म बारषडी दौलरांम कृत पं. महात्मा स्वेताबंर मया राम महैपालाणी लिषतमस्ति ।। श्रीः ।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ग्रन्थ में आये शुद्ध आत्मा के कतिपय नाम केवल राम, अनाम, हर (बंधन हरने वाला), हरी ( पराक्रम रूप), दिनकर देव (अज्ञान अन्धकार हरने वाला), गणनायक, जगभूप, बुध (प्रतिबोधक), विरंचि (विधिकर्ता), जिनवर, मदनजीत, जगजीत, अभिराम, रम्यरमण, भगवान, ज्ञानवान, रमार्कत ( स्वयं की शक्तियों के नाथ) चर, परम आल्हादक, सुरपति, क्षेत्राधीश, नरपति, आदीश, आदिपुरुष, संत, महंत, अनंत, अरिहंत, शुद्ध चेतना, आतमराम, अकाम, कामरूप (आनन्दमग्न), ... .. मतराम, सुंदर, सरस, विराम, विद्वान, महाराज, द्विजराज, भवनांव, क्षितिपालक, भयटालक, आखण्डल (एकछत्र स्वामी), क्षेत्रपाल (स्व-परक्षेत्र पालक), नटवरलाल (विमल भावों का नाटक करनेवाला), त्रिभंगी लाल (अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य का अवभासक), काष्ण (सर्व भाव प्रकाशन करते हुए भी निजभाव का आकर्षक होने से कृष्ण), महारुद्र (कर्म शत्रु का नाशक होने से), अमर, कर्णनाभि (मकड़ी की भाँति पृ. २२-२३ पर 'आप ही मैं खेले तार सौं बहुरि सकौंचे सार' (१९१७), अवितर्क, ऊहापोह वितीत, देव (नित्य गुणों में रमने से कवि करे क्रीड भव सिंधु मैं तातें जीव हु देव' तक कह देते हैं (५६/५) ।) कठिन शब्दावली पृ. २२.२३ फहा - फँसा असम : कोई बराबर नहीं अब्दा - जल महासम - सबके घराबर अकेला अतनु प्रहारी - कामनाशक अलेसी लेश्या रहित भेवा - भेद. रहस्य सुअनाश्री . किसी के आश्रय नहीं अभू अजन्मा अविगत - अविनाशी स्वभ : स्वयं से पयायों का | प. २५ जनजाश्री - निज वैभव में उत्पाद उत्पाद | भोगीसा - शेषनाग, धरणेन्द्र अरज ज्ञानावरणादि रक्षित १२७ अछेप : बाधा रहित विरज - विरक्त विमोष - चोरी रहित अरुज - निरोग अषोभ क्षोभ रहित Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अध्यात्म बारहखड़ी गलत राह अनीन - अन्यून, कम नहीं | पृ. ३६ पाथा - पानी अच्छीन अक्षीण आसेच्या . सेवा योग्य इकंग - दिगम्बर च्छति = शक्ति पृ. २५ अपात = पतन रहित पृ. ४३ असाथ • अकेला अधात ... - धातु रहित देह . . | पृ. ४४ उपधि - परिग्रह अमाम = ममता रहित अवाम - स्त्री रहित प, ४५ उनमान = अल्पता अभाम - स्त्री रहित अपसि - बंधन रहित अजूहो . अभी है पृ. ५३ दायाद - कुटुंबी अपायो __- अप्राप्त पृ. ६२ ओपासक = उपास्य प्रणीता = कहा गया अंवर - आकाश निकंद = नष्ट करने वाला अमानो = अनंत असोष = चिन्ता रहित, ऊपनी = उत्पन्न हुई शोषण रहित पृ. ७४ कैतव - छल अबादी ___ - वचन रहित करमामय = कर्मरूपी रोग अथापो = किसी ने स्थापना धू - उडाने वाला, नहीं की ध्वसं करने दुपक्षो । निश्चय व्यवहार- | पृ. ७५ कदरजता - कंजूसी पक्षवाला हरत = हरा होना, लाम - स्थान खुश होना विधात . धातु रहित कलभ = हाथी पृ. २८ अपर - अन्य खोघा = इन्द्रियों में लिप्त अरुण = सूर्य पृ. ८५ खात = सेंध आचारण, परिणमन खुध्यो ____ - प्रविष्ठ करने वाला अतुल अतूल .. भारी, हल्का खुस्यो - छीना गया नादि - अनादि मदत्ती = मस्ती पृ. २९ करा = किरण खेल - पानी की खेल सुगमक - समझने में सरल श्लोणी - पृथ्वी अतिक्षम = महासमर्थ खैरलभ्य - इन्द्रियों से अप्राप्त क्षमाकर . क्षमाशील | पृ.८८ गमक - ज्ञान पृ. ३० अलापित = अलिप्त ग्राम = गाँव, समूह नागर - चतुर ग्रामणी - गाँव का स्वामी चार - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी ३०५ गंज गंतव्य पृ. ९० गिरानाथ - बृहस्पति छिनक प्रवादो = बौद्ध गिरपति = सुमेरू छिक छाक - छिद्र, दोष गिलै . निगलता है छोति ___= क्षति धरधारी = धारकों को धारण पृ. ११७ छीतल . शिथिल करनेवाली प. ११८ क्रम - चरण अमाय .. असीम पृ. १२० जात रुपाभ = स्वर्ण को चमक .. गाडी का धुरा जुटित = जुड़े हुए पृ. ९२ छंद = कपट, छंद क्रमाब्ज .. चरण कमल पृ. ९३ गंज = मौहल्ला , बाजार.... - गंजा करना पृ. १२१ जहै ___= छोड़े ___ = जाना चाहिए भिषक वैद्य पृ. ९४ धूसरौं - धूल भरा चित्र ___ = अद्भुत पृ. ९८ उद्र = उदर, पेट पृ. १२२ जातुचित ____ = किंचित पृ. ९९ सिखी - मोर जित = विजयी घौरक - घुडक पृ. १२३ डेडर = मेंढक चंचकांचरन = चमकता हुआ सोना | पृ. १२४ जुनो - अलग पृ. १०२ चतुः शरण - आरहत, सिद्ध, साहू जेहली - आलसी और केवली कथित जेर - हल्के धर्म रूप चार शरण पृ. १२५ जैत - जीत पृ. १०५ चारचारी - आचार का आचरण जौन्ह - चांदनी करनेवाला पृ. १२६ झषध्वज ____ = कामदेव निकूपा - निकम्मा पृ. १२७ झांण = ध्यान चार = दूत झिकाय - तृप्त . १०६ असक्ती = आसक्ती, राग करिमा ___ - कालिमा वोट - आड पृ. १२९ झोक - ऊंघ चीलै - मार्ग पृ. १३० भूति - वैभव, राख धानि - छोड़कर पृ. १३८ ठट्ट ___ = ठाठ, वैभव पृ. १०७ वादि - बेकार ठालिय ____ = ठालापन, पृ. ११० भोर = भ्रम फालतूपन्त पृ. ११४ छक लालसा पृ. १३९ ठूणा - औलंभा छत्रा - ढका हुआ पृ. १४२ ाबा - ऑस दादिका - दाद, शाबासी डाबर - गड्डा छिपा . रात्रि | पृ. १४३ डूगर ___- जादूगर Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म बारहखड़ी अब्द - बादल पृ 181 नाकपति - इन्द्र पृ. 146 हाहा - तट। . 187 पिनाकि = महादेव हाण - कुर्य का ढाणा पिडच . प्रत्यंचा पृ. 152 गीय -- नौति पिधान - वस्त्र अणोइ - अनीति पृ. 152 निकूप - दुष्ट मुय .. छोड़ दे पृ. 200 फीटी .. थोथी पृ. 153 तूप .. स्तूप पृ. 202 वर्मा .. रक्षक हावली = भवनों की पंक्ति | पृ. 200 विहाय = आकाश = ज्ञाता तटिनी - नदी | पृ. 210 वैवस्वत - काल पृ. 156 ताण = लक्ष्य लेते हैं | पृ. 211 तापह = ताप नष्ट करने त्रिदशाधिप - देवों की स्वामी वाला पृ. 158 तुल - समान पृ. 227 यियासी - इच्छा हुतभुग = अग्नि पृ. 249 क्लम = संक्लेश पृ. 159 तेह = तेज पृ. 253 देसा उपदेश पृ. 167 दवियान = दबनेवाले, ब्रौद्धा = लज्जा दत्तव = दाता = नपुंसक पृ. 169 द्विप = हाथी पृ. 270 स्थवीयान = अचल पृ. 173 दंगल - जंगल पृ. 286 हच्छपकरि = हस्तक्षेपकारक पृ. 175 धिषणा - बुद्धि पृ. 288 वारन - हाथी प. 176 धज - धीरज पृ. 290 क्षौम - रेशमी वस्त्र षंड // // li