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अध्यात्म बारहखड़ी
बुद्धि निवास कुबुद्धि हर, परणति शुद्ध धरेय । शति त दि जे., जा :-:: सारेय. ६ ।। शक्तिरूप सद्रूप जो, चिनमूरति चिद्रूप। कर्मशत्रु निरनासनो, महारुद्र तद्रूप॥६१।। दयावान देवांन जो, थिरचर को प्रतिपाल । परमदयाल कृपाल जो, जोगी जुगति विशाल ॥६२ ॥ सुगत सुगति दातार जो, सुमति कूमति से दूर। नागर नित्य निरंजनो, निरवाणी भरपूर ॥६३ ॥ भूधर गोधर गोप्य जो, प्रगट रहित गति च्यारि। जाकौं जग जंजाल की, लागै नांहि वयारि ॥६४॥ भुक्ति मुक्ति को मूल जौ, गोस्वामी गुणपान। जग जीवन जगनाथ जो, जग त्यागी जगभाल॥६५॥ केवलज्ञान प्रकाश मैं, सर्व प्रकाशै ज्ञेय । आकरर्षे निजभाव जो, सो निज चेतन धेय ।। ६६ ।। आकर्षण नै कृश्न सो, व्यापक विश्व असेस। जिज पूज्य जगदीश जो, त्रिश्ना रहित अलेश।।६७॥
आराधै आराध्य कौं, निज आराधन सोय। सब बाधातै रहित जो, परणति प्रभु की होय।। ६८।। निज सत्ता निजभूति जो, ज्ञान चेतना जोय। परमाह्लादनि शक्ति जो, रामा रूप न कोय ।। ६९॥ द्रव्य थकी नहिं दूसरी, द्रव्य हि की परजाय। सो राधा घरमेश्वरी, परमेश्वर की काय॥७०॥ सो तामैं प्रभु ताहि मैं, वस्तु अभेद विलास । ताते राधारमण सों, शक्ति व्यक्ति परकास॥७१ ।। गोपै निज मैं निज कला, प्रगटै आपुहि माहि। कला गोपिका जा विष, विष रूप सो नाहि॥७२॥