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अध्यात्म बा
गोपीनाथ अनाथ सो, नित्य विहारी सोय। अमित प्रदेश विहारवन, आपुहि मांहैं होय ।।७३ ।। विमलभाव नाटक नटै, नटवा अदभुत जोय। नटघरलाल रसाल सो, रंग विहारी होय ॥७४ ।। प्रभु त्रिभंगी लाल जो, सकल त्रिभंगी भास। सप्तभंग प्रतिभास जो, धारै अनुल विलास ।। ७५ ।। एकानेक स्वरूप जो, भेदाभेद प्ररूप। नित्यानित्य निरूपको, अस्तिनास्ति द्वय रूप॥७६ ।। हानिवृद्धि नै रहित जो, जाहि न ध्याथै काल। सदा एकरस देव जो, थिरचर को प्रतिपाल।।७७॥ गुण पर्याय स्वभाव जो, सर्व विभाव बितीत। अतुल्न प्रभा अगणित कला, जगनाथो जगजीत॥७८ ।। वहिरंगा संगा तजें, अमला कमला पासि। सो कमलापति ईस जो, कार्ट जग की पासि ।। ७९ ।। कमला नाम न और कौ, कमला निज अनुभूति। ह्रदै कमल राजै सदा, आत्मशक्ति प्रभूति ।। ८०॥ नाहि प्रदेश विभिन्न है, कमला अर प्रभु के जु। आप वस्तु सो वस्तुता, एक रूप अधिके जु।। ८१॥ आप ईश सो ईश्वरी, आप शांत सो शांति। आप पद्म पद्मा बहै, आप कांत सो कांति ।। ८२ ।। पद्मा परणति पद्म की, वसै पद्म के माहि। पद्मनाभ की छांडि कैं, जाय और कहुँ नाहि।। ८३॥ कमला क्रिया कृपाल की, करता तैं नहि भिन्न। कर्ता कर्म क्रिया विधा, एक हि वस्तु अभिन्न ।। ८४॥ विद्या विभा विशाल की, स्वाभाविक परजाय। कर्म कल्लंकहि नहि लिप, कमल समान रहाय॥८५॥