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अध्यात्म बारहखड़ी
व्यापि रह्यो प्रभु ज्ञान करि, लोक अलोक हु महि। लोक शिखर राजै सदा, सर्वगतो सव पाहि ।। ४७॥ सव वामैं वह सवनि मैं, वह है सव” भिन्न । बातें सवही भिन्न हैं, वह भिन्नो हु अभिन्न ।। ४८ ।। नरहरि धर्म धुरंधरो, धरणीधर जगभूप। कर्मनाग निरदलन जो, अतिवीरज गुण रूप ॥४९॥ पर कहिये बलयान को, सिंह महाबलवांन। महाबली नरसिंह जो, पुरुषोत्तम भगवान ।। ५० ॥ स्वैतत्त्व स्त्रिष्टी सबै, विरचै अततनि त जु। वही विरंचि न दूसरों, सही वसैं शिव मैं जु।। ५१।। महाकाल हर कष्टहर, महादेव निज देव। सो प्रभु महा महेश्वरो, जिन वर देव अछेव ।। ५२॥ कर्ता आतम भाव को, धर्ता धृति को सोय। हर्ता सकल विभाव को, भर्ता जग को जोय ॥५३॥ गुन अनंत के जोगते, जोगी कहिये सोय। अतुलित परमानंद को, भोगनहारौ होय॥५४॥ जोगी भोगी हरि सही, और न जोगी जोग।
और न भोगी भोग है, करि जन जिन संजोग॥५५॥ सर्वग सर्वज्ञो प्रभू, गुणधर गणधर साथ। जयकारी जगदीस जो, सो गणेश गणनाथ ।। ५६ ।। जो गुण गण को ईस है, जाकै ईश न कोय। परब्रह्म परमातमा, परिपूरण प्रभु सोइ ॥५७ ।। जगनायक शिवनायको, मुनि नायक मुनि भेस। विनुनायक परमेश्वरो, अखिल रूप अखिलेश ।। ५८ ।। देव विनायक और नहि, सोइ विनायक देव । नायक देव अदेव को, दायक सकल अछेव॥५९॥