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न्यास कहावै धाप । संन्यासी निहपाप ।। ३४ ।।
सं कहिये सम्यक दसा, सम्यक थापक शुद्ध जो, प्रेमी प्रेम प्रकाश जो, प्रेमाप्रेम वितीत । प्रेमलछिना भक्ति धरि, ध्यांवें जाहि अतीत ।। ३५ ।।
अध्यात्म बारहखड़ी
विरकत वैरागी महा, भौतिक भूति स्वरूप । अति विभूति अनुभूति जो रहित प्रसूति अरूप ॥ ३६ ॥ शंकर सुखकर वीर । करुणाकारण धीर ॥ ३७ ॥ तात्त कहा। परमेश्वर जिनराय ।। ३८ ।।
गोरक्षक है नाथ जो, वीतराग परम्ब्रह्म जो
दायक मंत्र कल्याण को शिव कल्याण स्वरूप जो,
निर्गुण निरबंधन प्रभू, सगुण अगुण तैं दूर ।
व्यापक विश्रु अनिश्र जो
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राम रमा भरपूर ॥ ३९ ॥ परम उपासन रूप | एकानेक स्वरूप ॥ ४० ॥
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सव देवनि कौ देव जो, सदा उभयनय भास जो, वैदिक तांत्रिक तत्त्व जो, सिद्धांती अतिसिद्धि । शुद्धि वृद्धिधर सिद्ध जो, धारक अतुल समृद्धि ॥ ४१ ॥ शिवमारग पारग प्रभु, जिनमारग कौ मूल । करुणासिंधु अगाधजो, पालक सूषिम धूल ।। ४२ ।। धर्मराय जिनराय जो देव धर्म गुर सोय । परमगुरू मर्म जु गुरू, कर्मगुरू हरि होय ॥ ४३ ॥ और न दूजाँ देवता, और न दूजौ पंथ । शिव विरंचि हरि बुद्ध सो, जो जिनवर निरग्रंथ ॥ ४४ ॥ सूत्री आगम धारको, श्रुति संमृति को मूल । पौराणिक परवीण जो, अध्यात्म अनुकूल ॥ ४५ ॥ जो स्वरूप व्यापी सदा, पर रूपी न कदापि । स्वस्थ समाहित स्वगत जो, सर्वातीत उदापि ॥ ४६ ॥