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अध्यात्म बारहखड़ी
अवरण वरण कृपाल जो, रूप अरूपी नाथ। मूरतिवंत अमूरती, जाकै निजगुण साथ ।। २१॥ व्रती ब्रह्मचारी सदा, कि घर : महि:. . अति गृहस्थ प्रभो स्वस्थ जो, यामैं संशय नाँहिं ।। २२ ।। वन विहार निरधार जो, वानप्रस्थ हू नाम। जिती जितेन्द्री धीर जो, महावीर गुणधाम ।। २३॥ पातक सकल निपातको, मायाचार निपात। अविनस्वर अनिपात जो, सो श्रीपति श्रीपात।। २४॥ दंडै मन इंद्री सबै, खंडै विषय विकार। मंडै ज्ञान विराग जो, सो दंडी अविकार ।। २५ ।। त्रिविध कर्म दंडें प्रभु, नाम त्रिदंडी सोइ। चंडी प्रकृति धरै महा, मायारूप न होइ॥ २६ ॥ हंसनि को आधार जो, परमहंस जग भूप। हिंसाकर्म निवारको, धर्म अहिंसा रूप॥२७॥ भयटारक भट्टारको, भवतारक भ्रम दूर। कारक परम समाधि को, सकल उपाधि प्रचूर।। २८॥ श्रीगुर सूरि अध्यापको, उपाध्याय गुनपूर। उपन्यास निज पास को, रागादिक चकचूर।।२९।। शमी दमी प्रभू संयमी, साधु अवाथ सुजांन । ऋषि मुनि यति श्री पूज्य जो, अणागार भगवान ।। ३० ।। आचारिज आरिज प्रभू, अति संविग्न कृपाल । संबेगी निर्वेद जो, जैन धर्म प्रतिपाल ॥३१॥ निराभर्ण जगभूषणो, दिगपट दीनदयाल। प्रभू दिगंधर देव जो, थिर चर को रछिपाल॥३२॥ योगी योगारूढ़ जो, जंगमथावर ईश। यती तपोधन श्रुतिधरौ, संन्यासी जुगदीश ॥३३॥