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________________ अध्यात्म बारहखड़ी __ -- भोक . ऊकारं पदमं देवं, ज्ञानानंदमयं विभुं। परात्परतरं शुद्ध, वुद्धं वंदे स्वरूपिणं ॥१॥ - दोहा - ऊ कहिये सिद्धांत मैं प्रकट विश्नु को नाम । सर्व व्यापको विश्न है, परम ज्योति गुणधाम ॥ २ ॥ विश्नु सदाशिव हरि दरो, गणपति निन् पनि देव ! तमहर भयहर गुणधरो, तू जगदेव अछेव ।। ३ ।। ऊरध लोक प्रदायको, ऊरध सबकै तू हि। ऊर्जित जगमूरध तु ही, नहि काहू सौं दूहि॥४॥ उषा माहि जु ऊठि कैं, जमैं तिहारौ नाम। अहनिसि मंगल रूप ही, रहै महाविश्रांम ।।५।। उँघ नींद सब खोय कै, तजि विषयनि कौं साथ। भजै तोहि सोई जनम, सफल कर जगनाथ ॥६॥ भजन निरंतर जोग्य है, है आवस्य त्रिसंधि। भजन करै सोई लहै, केवल भक्ति असंधि ।।७।। अग्यो जिन घट तू प्रभू, जगरवि दीन दयाल। गयो ऊनता भाव सव, गई न्यूनता लाल ॥८॥ ऊठ्यो जब तू गाजि कैं, भविघटि नाद स्वरूप। मोह गयो तव भाजि कैं, विषय कषाय जु रूप ॥९॥ ऊपर दासनि को प्रभू, करें तो विनां कौंन । दास ते हि उर अंतरै, भऊँ तोहि गहि मौंन॥१०॥ अपरि नीचौं दिसि विदिसि, व्यापि रहयो तू देव। और न चाहैं नाथ जी, देहु रावरी सेव ॥११॥ ऊपरि सब के तू सही, सब से ऊंचौ ईस। तेरी ऊकस सौं मुनी, हरे मोह कौं धीस ॥१२॥
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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