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अध्यात्म बारहखड़ी
ऊठि न सकहीं तू तिनें, ऊर्जित करै अनूप। ऊर्जित प्रबल सुवीर कौं, कहैं मुनी गुणरूप॥१३ ।। ऊहापोह वित्तीत तू, हा तर्क जु नाम। तू अधितक स्वरूप है, अतुः अर्क नि बाम ।।१४।। ऊर्मी नाम तरंग कौ, तोमैं अतुल तरंग। ऊर्मीपति जलनिधि कहा, तू गुणसिंधु अभंग ॥ १५ ।। ऊधिम तेरै कछु नहीं, तू ऊधिम तें दूरि। मेरै ऊधिम लागिया, सौ हरि करि भरिपूर ॥१६ ।। ऊर्णनाभि है मांकरी, उरत का तार। आपहि मैं खेलै तारसौं, बहुरि सकौचै सार॥१७।। तैसें तू निज परणती, आपहि माहि उपाय। आपहि मैं लय करि प्रभू, धूव राजै जिनराय॥१८॥ नाम उर्मिला नदिनि' कौं, नदी सुपरणति होय। तृ. चिद्रूप समुद्र है, अति गंभीर जु सोय ॥१९॥ ऊलर तोसौं जे रहैं, फसिया विषयनि माहि। ते निज निधि पांव नहीं, भव भरमैं सक नाहि ॥२०॥ ऊभौं द्वारै रावर, करौं वीनती देव। द्वारे द्वारै भटकिवौ, मेटि देहु निज सेव ॥२१॥ ऊग्यो ज्ञानांकुर जौ, उर क्षेत्रै जगदीस। कण स्वरूप तू जव लह्यो, योग रूप अवनीस ।। २२ ।। ऊक चूक करि मोह नैं, हरयौ हमारौ माल। चिदधन धन द्यावौ सही, ज्ञान स्वरूप विसाल ॥ २३ ॥ दाह लगायो मोह नैं, गुन मंदिर के माहि। दाह वुझै नहि अव लगैं, ऊपर करहु न कांहि ॥२४॥ दाह वुझावो स्वरस दै, त्रिशा हरौ अपार । पार देहु भव सिंधु कौ, तू तारक जग सार॥२५॥