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कठि नहीं जु विमोह मैं, उकसि तुझ दासनि सौं लोकजित, दास करौ कघड्यो राजई, जांनैं सव नहीं,
प्रभू
मोह उदै ध्यांवैं
ध्यांवें
भखें अभख
ऊमरादि जे निंद्य फल, तिनकै घटि भक्ती नहीं, भक्ति दया
छंद गीता
ऊर्द्ध गांमी ऊर्द्ध धांमी ऊर्द्ध लोकी
तू हि ऊर्द्धादर्द्ध नाथा,
वडहाथा दै
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पार रारि ।
ऊर्द्ध लोक देव वितीत
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अध्यात्म बारहखड़ी
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अघदारि ॥ २६ ॥
ऊर्द्ध भाव स्वभाव पूरा, ऊर्द्ध शक्ती अतुल युक्ती, ऊंची दसा सव तैं जु तेरी, शक्ति व्यक्ति विभूति जो । संपति रमा पदमा सु दौलति, कमला और सुभूति जो ॥ ३१ ॥
इति ऊकार संपूर्ण आगे ऋ वर्ण का वर्णन करें है ।
श्रोक
ऋकाराक्षर कर्त्तारं धातारं धर्म शुक्लयो । ज्ञातारं सर्वभावानां, वंदे
त्रातारमीश्वरं ॥ १ ॥
संसार |
निरहंकार ।। २७ ।।
आहार ।
आधार ।। २८ ।
नाथत्वं ।
साधत्वं ।। २९ ।।
प्रचारत्वं ।
विकारत्वं ॥ ३० ॥
दोहा
ऋ वरण वर्ण जु सूत्र मैं देवमात कौ नांम
,
देव तु ही तेरे नहीं,
तात मात धन धांम ॥ २ ॥
अर
श्रुति
देवासुर जाति जे, तेऊ गर्भज देव जनि सुर मात हैं, इह भाख्यो दासनि के निश्चै भयो, देवमात तुव दिक्षा सिक्षा विनां,
तुव
देवमात नहि
नांहि ।
मांहि ॥ ३ ॥
भक्ति । व्यक्ति ॥ ४ ॥