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अध्यात्म बारहखड़ी
रमैं चरन पंकज बिषै, ताः दासा देव । तिनकी रक्षक भक्ति ही, सुरमाता श्रुति एव ।।५॥ सतपुरषनि की मात विनु, और न है सुरमात। परम उदात्त अपात्त तू, दै स्वभक्ति जग तात ॥ ६ ॥ ऋषि गुर ऋषि वर देव तू, ऋषि तर ऋषि पर नाथ। परम धुरंधर ऋषिनि मैं, ऋषि लागे तुव साथ ॥ ७॥ ऋषिप ऋषीश्वर ऋषभ तू, वृषभदेव अविकार। ऋजु सुभाव अति सरल तू, ऋषिपति ऋषी अपार ॥ ८ ॥ ऋनुमति विपुलमती. ऋषी लोहि भज. परिभाव। केवलभाव प्रभात तू, प्रभो भवोदधि नाव॥९॥ ऋजुता भाव विना कभी, लहिये तू न ऋषीस । ऋत्विक होता कर्म को, तू मुनिराय अधीस॥१०॥ सामग्री प्रक्रति सवै, अनल निजातम ज्ञान। तू ऋत्विक होमैं महा, प्रवल प्रपंच अज्ञान॥११॥ ऋचा तिहारी बांनि है, ऋद्धि सिद्धि को मूल । ऋषिनायक सुखदायको, तू ऋषिगन को चूल ॥१२॥
- बरवै छंद - हौं विरवा सम हतमति जगजन मूढ,
भव वन माहि बसेरा अबुध अगूढ। पात पात करि झारिउ मिथ्यावाय,
मधु ऋतु मायापाय जु अति अधिकाय॥ १३ ॥ मधु ऋतु भलिय जु इह माया ते नाथ,
पतझर करि विरखे कौं फुनि बहाथ। पात फूल्ल फल जुत करि अति अधिको जु,
बिरवै कौं रमणीय जु करहि सुमौज ॥१४॥