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अध्यात्म बारहखड़ी .. .. . . .... "...:. :.. ..:: : ४७
उदवासक तू इंद्रिय ग्रामा, सुवस वसावै अति गुणधामा । उदक कहा जैसौं तू सीता, अति निर्मल चिद्रूप अतीता ॥४१॥ उपादेय तू जग सव हेया, उत्कीर्णो न कदापि अमेया। उपादान अर निमित जु द्वैही, कारण भासै तू अति है हौ।। ४२ ।। सर्व उकीरि राखिया अर्था, तेरे ज्ञान माहि अत्यर्था। निज गुन की उग्र जु है सेना, तैरै दोष नही कछु लेना॥४३॥ शक्ति नहीं कर्मनि मैं जैसी, दासन हूं सौं करै वहसी। उत्तरदायक एक जु तू ही, प्रश्न करैया सर्व समूही॥ ४४ ।। उदभासक सु विभासक तू ही, तत्त्वज्ञान भासै जु प्रभू ही। . अति उद्दाम देव उदघाटा, सुखें चलावै निज पुर बाटा।। ४५ ।। उश्न गुणो अग्नि मैं जैसे, केवल ज्ञान आप मैं तैमैं। जिनकै घट उदयाचल मांही, उदितो तू दिनकर सक नाहीं ॥ ४६ ।। तिनकै भ्रांति निसा कित पैए, शुद्ध प्रकास विभास वत्तए। उजलाई उत्तमता तेरी, सो संपति आनंद घनेरी॥४७॥
- छंद गीता - उद्धरोधर उत्तरोत्तर उद्धतोद्धत शुद्धत्वं । उजलोजल उत्तमोत्तम, उत्कटोत्कट बुद्धत्वं ।। ४८ ।। उठि उठि जीव सम्हारि आपा, जड़ मैं तेरी रूप नां। असे बँन सुनाय स्वामी, तो सम और स्वरूप नां ॥४९ ।। उठि मैं तेरी भगति बल तै, उगिलि नांखों प्रकृतिजी। उलटि जग सौं सुलटि तोपैं, आंऊं अतिमति सुमति जी॥५०॥
- दोहा - प्रभु की जो उतकिष्टता, सोई कमला होइ। पदमा दौलति संपदा, श्री धन लक्ष्मी सोई॥५१ ।।
आगें ऊकार का व्याख्यान करै है।