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अध्यात्म बारहखड़ी
नवति नाम नित्रै सही, निवें सागर कोडि । बीते सुमति पछै सही, प्रगटे पदम बहोरि ।। १५ ।। नव नवती सौ लाख प्रभु, कोटि कुलां कौ पाल । जीव दयामय देव तू, हिंसादिक अघटाल ।। १६ ।। नव से विंजन नाथजी, लक्षण सौ परि आठ । तीर्थंकर धारें सदा, जारै करम जु काट ।। १७ ।। नमोकार जपि तोहि जी जेध्यांवें मन लाय । ते नर तेरौ पंथ गहि, आंवें तुव पुरि राय ॥ १८ ॥
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चौपड़ी
नवल रूप तू अतुलित वृद्ध, नगन दिगंबर धर्म प्रवृद्ध । नग तो सम नहि जग मैं और, नग दायक त्रिभुवन को मौर ॥ १९ ॥
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नग परवत तू निश्चल देव, नग तरबर तू सुरतरू एव फल छाया मंडित जगदीस, नग रतन जु तू रतन अधीस ॥ २० ॥
नट सम जीव नच्यो वहु रूप, तेरी भगति विना जग भूप । वयो नदी आसा मैं नाथ, भव नद में डूव्यो जु अनाथ ॥ २१ ॥
नभ सम शून्य ह्रिदै म जीव, तोहि न ध्यावै तू जग पीव । नभ प्रमांण तू अति विसतार, चेतनता कौ पुंज अपार ॥ २२ ॥ नत कहिये जो नम्रीभूत तोहि नवै मुनिवर अवधूत | तू न नवीन पुरातन नाथ, नमसकार तोकौ जगनाथ ॥ २३ ॥
नय नय अपुनें पुर मैं विभू, नहि नहि मेरे और जु प्रभू । नलिन समान अलिप्त जु तूहि, नरकांतक है तुहि प्रभूहि ॥ २४ ॥ नगर अनश्वर दायक देव, नश्वर तू नहि दें निज सेव । नर नायक नागर तू नाथ, नास हरन अति गुन गन साथ ॥ २५ ॥ नागपती गांवें गुन ग्राम, नाकपती नांवें सिर रांम । नाना दुखहर आनंदरास, नाटक भासक शुद्ध विलास ॥ २६ ॥