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अध्यात्म बारहखड़ी
नोकर्म रहितं शुद्धं, नौका तुल्यं भवांवुधौं । नंदितं नः प्रियं देवं, वर्दे देविंद्र वंदितं ॥३॥
- दोहा - नमो नमो वा देव कौं, चिदधन आनंद रूप। पाए पनि परमानपा, र जग भूप ॥ ४॥ नकारांक है ज्ञान को, नाम जु ग्रंथनि माहि। ज्ञान रूप ज्ञानी तुही, तो सम और जु नांहि ॥५॥ कहैं नकार निषेद कौं, पाप निषेदै तू हिं। विधि निषेद दोऊ कथन, भासै जगत प्रभू हि॥६॥ नय उपनय भास तु ही, अनय निवारक देव । नवधा मा प्रकाषिक, कही म क सेट ।। ६०.!!.... नव तत्त्वनि को कथक तू, नव दस जीव समास। भासै तू हि जु वीस नव, रतन त्रय प्ररकास॥८॥ नव अधिका प्रभु तीस हैं, ऊरध लोक निवास। दास न चाहैं नाथजी, चाहैं तेरौ पास॥९॥ नव अधिका प्रभु चालीस, नरक घाथद्धा होय। परै नरक मैं दुष्ट धी, भगति न धारै सोय॥१०॥ नव अधिका पच्चास नर, पदवी वेसठि होय । हुंडा तँ चउ नर घटे, पद घटियो नहि कोय ॥११॥ नव अधिका सठि सौ परें, बड़े पुरुष परवीन । त्रेसाठ इनमैं आयया, जिन मारग लवलीन॥१२ ।। नव अधिका सत्तरि प्रभू, ताके दूने नाथ। है इक सौ अट्ठावना, प्रकृति न तैरै साथ। १३ ।। नव अधिका अस्सी प्रभू, कह निवासी लोक। तु हि निवासी मोक्ष कौ, तो मैं सर्व जु थोक ।।१४।।