________________
१८२
अध्यात्म बारहखड़ी
नारायण, नारद को नाथ, नाव तु ही तारे भव पाथ। नांव तिहारे जे नर जपें, तिनके पाप करम सहु खपैं ॥ २७ ॥ नाग काल दासैं नहि इसे कर्म नाग दारौं लखि नसें । नाग करम कौं नाहर तुही, नाग काल कौं गरड जु सही ॥ २८ ॥ न्यायशास्त्र कृत स्वामी तू हि धर्मशास्त्र भासै जु समूहि । नाक लोक दायक तू ईस, शिवदायक तू है जगदीस ॥ २९ ॥ नागकुमारादिक सव देव, तेरी सर्व हि धारें सेव । नाना रूप एक भगवान, नाटक चेटक एक न आंन ॥ ३० ॥ नाटसाल जाकै नहि कोय, जाके सिर परि तू प्रभु हो । न्याति पांति नाता तजि मुनी, तांता जोरें तोसौं गुनी ॥ ३१ ॥ नाद वेद को भासक तु ही, नाद विंद को भेद जु कही । नासाग्र जु धरि दृष्टि मुनीस, तोहि भजैं तू है अवनीस ॥ ३२ ॥ नास्तिक जाहि न पां मूढ, तू है अस्ति नास्ति अति गुढ । नाल लगे तेरै जो कोय, ताहि उधारै तू प्रभु सोय ॥ ३३ ॥ नाहर हू तोकौं भजि देव, भये दयाल ज्ञान रस बेव । निरमांनी निरवांनी नाथ, निरद्वंदी निरमोही साथ ॥ ३४ ॥ निराबाध निकलंक दयाल, निहकल निरमल अति गुन पाल । निरुकति निरुपम निर्गुण तुही, गुणी गुणातम गुणयति सही ॥ ३५ ॥ निरुपद्रव तू है निरमुक्त, नित्य निरंतर देव विरक्त । नित्यानित्य कहै सव तूहि, द्वयवादी है तूहि प्रभुहि ॥ ३६ ॥ निर्निमेष निरनिमित अपार, निद्रारहित निजाश्रित तार। तत्व निलीन निखिल दुखहार, करइ जु निरनय तत्व विचार ॥ ३७ ॥ निमित्त उपादाना सव कहें, तोकौं ध्याय निराकुल रहे। निराहार निःक्रिय निरग्रंथ, निराभर्ण देवै निज पंथ ॥ ३८ ॥ हाँ निकृष्ट दुष्ट जु पापिष्ट, तोहि विसारि गहे जु अनिष्ट । तू ही तारें दे निज बोध, तो खिनु कौंन करें प्रतिवोध ॥ ३९ ॥