________________
अध्यात्म बारहखड़ी
१८३
निरलोभी निरवंधी गुरू, निर कंटिक निरआयुध धरू। निरमद निरुतर निरधन धनी, निरजरपति पूजें तजि मनी ।। ४० ॥ निराधार निःकिंचन देव, निरधारा आधार अछेव। निरागार निजरूप अभेव, निराकार निरलेप सुदेव॥४१॥ तू निष्टप्त कनक सम काय, तू निरविघन निरामय राय। निगम प्रकासक निगम स्वरूप, निरदोषी अति धर्म निरूप ॥४२ ।। निश्शेषामल शील निधांन, निधि अनंत धार भगवान। निरविकार निरवैर निराग, निसप्रेही निश्चय वडभाग ।। ४३ ।। निरविकलप मिरहिंसक निस्व, निस्तुष निरभ्य नायक विश्व। निरारंभ निहसल्य निकंप, तू हि निरंजन भजहि निलिंप॥ ४४ ।। कहैं निलिंप देव को नाम, तू देवनि को देव सुरांम। निसि दिनि ध्यां सोहि मुनिंद, निरखें बदन तिहारौ इंद॥ ४५ ॥ निश्चय अर व्यवहार प्रकास, निरनायक निरमायक भास । निरमायल निंर्दै श्रुति माहि, निवल तणौँ भीड़ी सक नांहि ॥४६ ।। निखिल उपाधि रहित निज रूप, निहपरमाद निरासय भूप । शुद्ध वुद्ध चिद्रूप अरूप, ननिभ निरमल सर्वग भूप॥४७॥ निभ कहिये जु तुल्य को नाम, तेरी तुल्य न कोई रांम। माया निसिहर तू दिनकरो, जमैं निसाकर तू तमहरो ।। ४८ ॥ काल निसाचर पीरै नाहि, तुव दासनि तैं सब दुख जाहि। नर्क निगोद कष्ट नहि लहँ, तेरे दास सुवासहि गहैं ॥४९ ।। नित्य निवास तु ही अनिवास, श्रीनिवास स्वामी अतिभास । तेरी प्रतिनिधि दूजो नहीं, निधि निधान अनिधन तू सही॥५०॥
– मंदाक्रांता छंद - नीरा दूरा, अतिगति तू ही, तोहि मूढा न लेबैं,
पावां तेरे, भंवर जु मुनी, नीरजां मांनि से।