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अध्यात्म बारहखड़ी
- बांटक छंद - तन तैं मन अति दूर तुही, तमनासक तूहि प्रकास कही। तफ्नीय समान अमांन सदा, तुव तुल्य न तप्त सुवर्ण कदा॥९॥ प्रभु तत्व सुरुप अरूप महा, तप भेद सर्व प्रभु ते हि कदा। प्रभु तथ्य निरूपक है परमा, तपधारि भनें धरि के धरमा ॥१०॥ तरणो जु तुही अर तारण तू, तप सागर आगर कारण तू। प्रभु तूहि तटस्थ जु स्वस्थ सदा, तुझाौं नहि छांडहि दास कदा ।। ११॥ तलफौं अति नाथ विना तुझा हूं, दरसन्न जु देहु न और चहुं। इह सुक्क तडाग समान भवो, गुन सिंधु तुही जगदीस सिवो ।। १२ ।। तटिनी तट सीत जु काल है, तप काल मह गिर सीस हैं। तरु के तलि चातुरमास महैं, जु हैं मुनिराय सु तोहि चहैं ।।१३॥ तब ही उधरै भव सागर तैं, इह जीव महा दुख आगर तैं। जव तू हि कृपा करि हाथ गहै, प्रभु आधि न व्याधि उपाधि रहै।१४ ॥ तकि तू हि रहयो सव कौ प्रभु जी, नहि कोइ तकै तुझ कौं विभुजी। तकिवौ प्रभु तेरह होय जौ, तजि भ्रांति मनां सुध होय तवे ।। १५ ।। तजियो नहिं जाय सुवल्लभ तू, भजियो नहि जाय सुदुल्लभ तू। तजिया सव तैहि विभाव प्रभू, गहिया गुण रासि सवै हि विभू।। १६ ॥ तनु पंचक मैं निरवर्त्त तुही, अविनश्वर ईश्वर धीर सही। हुय तद्भव मुक्त तु. हि भजे, भरमैं भव मैं प्रभु तोहि तर्जें।। १७॥ तरु सौ फल छाय जु दाय तुही, तरु ज्ञान विना तुव ज्ञान सही। तलि तेरहि लोक सबै जु वसैं, भव भक्तिहि ले तुव मांहि धसैं॥१८॥ इहु तस्कर मोह जु ज्ञान हरे, तुव दासनि तँ इह चोर डरै। प्रभु मोह हरै तुहि ज्ञान सु दे, नहि ज्ञान थकी भव भ्रांति कदे ॥ १९॥ तुव दास क्रिया अर ज्ञान मई, अति ही सुदयाल सुबुद्धि भई। तरकारि हरी नहि दास भई, सव त्यागि सवाद जु धर्म रखें ।। २० ।।