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अध्यात्म बारहखड़ी
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- दोहा - तलवर ज्ञान विराग से, दंडै तस्कर मोह। तू राजा अति न्याय धर, काहू सौं नहि द्रोह ॥२१॥ त्रय गुण धारक देव तू, भेद त्रयोदस रूप। चारित भासै धीर तू, मुनितारक मुनिभूप ॥२२॥ जयवीसा विषया सर्व, भव सागर के मूल। सेया त्रयतीसा उदधि नरक भोग दुख थूल ॥ २३ ॥ तू हि प्रकासै नाथ जी, तेरे दास दयाल । समदिट्ठी त्रय चालिसा, प्रक्रति न वांधै लान॥२४॥ त्रय पंचास जु भाव है, क्रिया तरेपन होय। तू सव भासै लाल जी, शुद्ध स्वभाव जु कोय ॥२५ ।। पुरष तरेसठि उत्तमा, तू भासै जगदीस। तीर्थकर चक्री हली, हरि प्रतिहरि अवनीस ॥२६॥ कला बहतरि जगत की, इन” परै जु कोय । सुकला अनुभव की प्रभू, त्रय सत्तरमी होय ॥२७॥ त्रय अस्सी लख पूरवा, रिषभ रहे घर मांहि। पाछै मुनि अत धारि कैं, सिद्ध भये सक नाहि ।।२८। त्रय निवै प्रक्रती सवै, नाम कर्म की होय। तेरै प्रक्रति एक नां, प्रक्रति रहित तू सोय॥२९॥ त्रय सत वरषी होय कैं, नेमि भये मुनिराय। त्रय दस गुन वरषा गयें, पास वीर अतिगय॥३०॥ त्रय सत छत्तीसा प्रभू, मतिज्ञान के भेद। वय सत प्रेसठि मूढ धी, पाखंडी अति खेद ।। ३१॥ त्रय सत तीयालीस है, राजू लोक अनादि । घणाकार भासै तू ही, तो बिनु सरव जु वादि॥३२ ।।