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अध्यात्म बारहखड़ी
सदा जु पासनाथ जो, रहै नजीक नाथ जो, महा सुवीरनाथ जो, अतिंत धीर नाथ जो। सदाजु बर्द्धमांन जो, नहीं जु हीयमांन जो, मतिकरो गतिंकरो, जु सन्मती अमांन जो॥१३२॥ इत्यादि अनंत नाम, देव वीतराग जो, पुनीत है. अनंत धांम, वाहि सौं जु लाग जो। महा विदेह खेतरी, अखेतरी अनेक जो, अनादि है अनंत रूप, तीर्थनाथ एक जो।।१३३। नमो नमो जु अर्ह सिद्ध केवली निरंजना, गणाधिपा श्रुताधिपा, व्रताधिपा अरंजना। सरंजना सबै ज लोक, भारती जिनोद्भवा, मुझे जु देहु शुद्ध तत्त्व, ईश्वरी मुखोद्भवा ॥१३४ ।।
- दोहा - सर्वग के मुख से भई सदा सारदा देवि । वहै ईश्वरी भारती सुर नर मुनि जन सेवि।। १३५ ।। अक्षर जो न क्षरै कभी, प्रभू अक्षरातीत। सोई अक्षर वांवनी प्रकट करै जग जीत ।।१३६॥ तेतीसौं विंजन कहै, सुर चौदा सब होय । जिह्वा मूली पुलतअर, गज कुंभाकृति जोय ।। १३७।। अनुस्वारो जु विसर्ग है, ए सब बांवन अंक । संयोगी द्वित अक्षरा, सब को प्रगट शिवांक ।। १३८॥ सब अक्षर के आदि ही, राजै प्रणव स्वरूप । ॐकार अपार प्रभु, आपै आप अनूप ।। १३९॥ सो अक्षर नहि और है, अक्षर रूप सुआप । ताते ॐ आप है, हरै सकल संताप ।। १४० ।। देव शास्त्र गुरु की कृपा, तातें आनंद पूत ।
भाषै अक्षर बांवनी, नमि जिन मुनि जिन सूत ।। १४१॥ आगै प्रणव स्वरूप भगवान कौं नमस्कार करि, अध्यात्म बारखड़ी आरंभियै है॥६॥