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अध्यात्म बारहखड़ी
- शोक - प्रणवं प्रथमं वंदे, यज्जिनेंद्रैक शाशनं । सर्वाक्षर प्रजा यस्य, राजते श्रुति वर्द्धिनी ॥ १ ॥
- दहा - वंदौ श्री भगवान कौं, श्रीवल्लभ जो देव। श्रीधर श्रीपरणति धरे, प्रणव रूप अतिभेव॥२॥ प्रणवो प्राण वहै प्रभु, राजै श्रुति की आदि। प्रणव समान न और है, भगवत रूप अनादि ।।३।।
– चौपड़ी - ॐ कार परमरस रूप, ॐ कार सकल जगभूप। ॐ कार अखिल मत सार, ॐ कार निखिल ततधार ।।४।। ॐ कार सबै जपमूल, ॐ कार भवोदधि कूल। ॐ कार मयी जगदीश. ॐ कार सुअक्षर सीस॥५।। ॐ दरसी श्री भगवंत, ॐ परसी मुनिवर संत । ॐ ध्यायक श्रीपति स्वामी, ॐ ज्ञायक अंतरजांमी॥६॥ ॐ भासक श्री जिनदेव, ॐ विथरित गणधर देव। ॐ कार जिनागमसार, ॐ धारण मुनिवर धार ॥७।। ॐ कार महाअघनाश, ॐ कार सकल श्रुति भास। ॐ भेद न जानें मूढ, ॐ कार परमपद गूढ़ ।। ८॥
- छंद बेसरी - ॐ सम को मंत्र जु नाही, पंच परम पद याकै मांही। ॐ मंत्र जु भगवत रूपा, ॐ श्रुति संमृति को भूपा॥९॥ ॐ मृत्यु काल जे घ्यावे, ते उरध गति निश्चय पांर्वै। ॐ ध्यावत प्राण जु त्यागें, ते सदगति की मारग लागें ॥१०॥ ॐ अक्षर सीस विराजै, ॐ मय जिनवर धुनि गाजै। ॐ एकाक्षर मंत्र जु भाई, मेटि जु भवथिति शिवहँ मिलाई॥११ ।।