________________
१४८
अध्यात्म बारहखड़ी
ढेठि तजि जीव की सुढेठी तू अनादि ही को,
ढेठि विनु त्यागें भया पावै नांहि भाव रे॥१२ ।। ढेढ घर सम देह भत्यो दुरगंध सौं जु।
हाड मांस चांम रोम कुथिति को पुंज है।। उदधि के जलसौं पखालैं तऊ शुद्ध नाहि,
असुचि को सागर जो पापनि को कुंज है। ब्रह्म होय हेढ सौं मिलाप राखै कौंन बात।
छुयें पाप लागै जाकौं दोषनि को भुंज है। तू तो सठ ब्रह्म भया वेदनि सौं हित राख्ने इहै नांहि ब्रह्मता सुमारै कहा गुंज है ॥१३॥
- सोरठा - हैं इह अष्टम मात्रा, सब मात्रा मैं देव। जो ताकौं ध्याय सुपात्र, तातै भव भरमण मिटै॥१४॥
- सवैया - ३१ - ढोर होय रहयो कहा नैंक तौ विचार करि
ढोलि मिथ्या मद कौं जु वावरौ तुझे कियो। ज़ान को वजाय ढ़ोल निज पर वल तोलि
भगति मति लहि गाढी करि के हियाँ। करमनि को वंस खोय निज रस अंस जोय,
वांधि सत्र गगदिक कष्ट वन ही दियो। होकि ढोकि प्रभु जी कौ ढोरी लाव जिन ही सौं
ढोक दें जु वारंवार बांछै जो प्रभू लियो ।। १५ ।। दोकि परमेशुर कौं ढोरी लाव साधुनि सौं,
ढोरी लाव दांन सील जप तप व्रत मौं। ढोलै जिन दया रस भरि ज्ञान सीसे मांहि
ढोरता जु छांडि सब रूखौ कै अव्रत सौं।