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अध्यात्म बारहखड़ी
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ढोल खोसि मोह को जु पकरि मरोरि
बांधिनिज रस छाकि, भया पूठि दै अकृत सौं। ढोकै मति मिथ्या देव मिथ्या गुर की न सेव
धरि जति क्षेत्र चूमै अति वा ६ ढोटा नाहि काहू को जू तू जु है अनादि सिद्ध,
सांई ही की जाति तू जु और नाहि भाव है। सांई कौं जु भूल्या ढोर वांधे नाहि इंद्री चोर,
हूवा तेरा भोर भया चूका तूहि दाव है। अवै सांई यादि करि सांई ही का ध्यान धरि
सांई ही बतावै तोहि छूटि का उपाव है। ढोटा नांहि काहू को हू ढोटा सव वाही के जु
वाकौं छांडि वावरे, करैगी कहा नाव है।।१७।। ढोहे ते अनंत ढंग ढंग तेरौ वंध्यो नाहि
अव सव त्यागि भया लेहु जिन सरनौं। दौरी मांहि आय जाहु दोरी तजि लोकनि की,
तबै ढोल पावै तू जु और नांहि करनौं । दौरी लै जु साधुनि की, ढीठि सव परी मेलि
झूठी ढेठि करै कहा आखरी तो मरनौं। ढंग तो विगरि गयो ढंढ सौ जु होय रहयो
जगत में राचि भया करें कहा भरनौं ॥ १८॥ ढंपै मति औगुन कौं गुरु के निकट जाय
सवै निज दोष भासि आलोचन करि रे। डंपि पर दोषनि कौं पर दोष जिन भासै
गुन ग्राही होहु भया कथनी तू हरि रे। कथनी कर तो एक हरि ही की करि सदा ।
- हरि ही कौं जपि अर हरि ही सौ अरि रे। एक जिन नाम विनु आंन जिन भासै भया ।
मौनी होय अंदर मैं जिन ही कौं धरि रे ।।१९।।