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अध्यात्य बारहखड़ी
ढंग तू पकरि भया ढंढ मति होय रहै
ढीचा ढीची तजि के विमोह ही सौं लरि रे। सवै तू उपाधि तजि, एक प्रभु ही कौं भजि,
मुनि मतमांहि रजि प्रभु पाय परि रे। ढंढता विनसि जाय ढंग तेरौ वंधि जाय,
पावै मोख द्वार भवसागर कौं तिरि रे। देह तौ तजी अनंत दोय को न कोयौ अंत अब जैसी करि पंच देहनि सौं मरि रे॥२०॥
- दोहा .ढः कहिये मात्रांतिकी, तू सव मात्रा मांहि ।
तेरी सी मात्रा प्रभु, तीन लोक मैं नांहि ॥ २१॥ अभयारा मारा एका सवैगा मैं ! ... .. .
- सवैया ३१ – ढरै नांहि ढात्यो कभी ढिग ही रहै सदीय
ढील नांहि जाकै कभी पारकर देव हैं। ढुकै मुनि मारग मैं तवै नाथ आवै हाथ
ढूंढ्यो नाहि पाइए जु तारकै अछेव है। ढेठि नाहि जाकै कोऊ देठि हरै ढेठिनि की।
दै प्रकास ढोक ताहि नाथ अति भेव है। ढौरी लावै साधुनि कौँ ढंढ नाहि पांव जाहि, ___ढः प्रभास शुद्ध भास गुण तें अभेव है॥२२॥
- दोहा - हरै ढंढता नादि की, पूरण तेरी ज्योति।
सो विभूति धन संपदा, संपति दौलति होति ॥२३॥ इति श्री ढकार संपूर्ण। आग णकार का व्याख्यान करै है।