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अध्यात्मबार
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ढींचाढींच मचाय भूलि भी मैं परे, तोहि न ध्यांई नाथ पाप कर्मनि भरे।।९।।
- सवैया - ३१ - दीम सम गर्ने लच्छि ढीव की न कर पच्छि,
नारी कौं अलीन सम जांनि त्यागै जब ही। ढुकै मुनि मारग मैं दुकै महावत्तनि मैं,
दुकिवी स्वभावनि मैं लहै मोख तव ही। दुकनि न होय जाकी विष के प्रचार मांहि,
दुकि ढुकि चारित मैं छंडै पाप सब ही। दुलि दुलि साधुनि मैं, दुहिती मिष्टया गांध. . . .:. .
तवं जगफंद छुटै और नाहि ढव ही।।१०। अथ जीव संबोधन - दूकडी जु आवै काल सबै तजि जगजाल
प्रणव पुनीत मांहि द्रिष्टि धरि बाबरे। दूदै कहा माया की जु ढूंढि एक चेतन कौं,
चेतन मैं लीन होऊ त्यागि सव चाव रे। ढुकै तू विर्षे जु मांहि यामै कछू सिद्धि नाहि
ढूंढगे नाहि, पावै कहूं आप ही मैं दाव रे। ढूंढ्यो तू सवै जु लोक पायो नांहि सुख थोक,
अवै जगदीस भजि समझि उपाव रे।।११।। ढूंढि हूँदि विषै कौं जु पाए त अनंत खेद,
अव निज लीन होऊं वहै भति डावरे। ढूंढिवो उपाय तोकौं सिद्ध लोक जायवे को
शुद्ध रूप तू ही सब तजि उरझावरे। दूकडी लवधिकाल, पाय प्रभू जी कौं ध्याय
समकित रूप होय निज रस लावरे।