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अध्यात्म बारहखड़ी
ढरै भव्य को वोर अभव्यनि परि नही, __ढव तेरौं ही साच और ढव झूठ ही। ढलक्यो नहि इंह चित्त रावरी भगति मैं, ___ताः रूलियौ देव अनंती अगति मैं ॥ ३ ॥ ढकै दोष जो कोय पराये धर्मधी, ___ सो पावै तुव भक्ति, त्यागि सहु भर्मधी। ढाल जगत की तू हि दया की पूंज है,
परम पुनीत क्रिपाल गुनैनि की कुंज है॥४॥ ढाक पत्र सम चंद सूर तो देखतां,
रंक सवै नर देव नाथ तो पेखतां ।
ढादिस बांधि मुनिंद, पंथ तेरो गहैं, ... हाढिसीक विनु देव दासभाव न लहैं ।। ५ ।। * : ढांण चूक ए जीव भक्ति ढांण न लहैं,
तू हि बतावै ढांण तोहि मुनि जन चहैं। मैं 2. ढाहे तैं प्रभु कोट अविद्या के सवै,
भाजि गये सब कर्म भर्म भै करि तवै॥६॥ : ढाहैगौ प्रभु तूहि हमारे बंधनां,
तेरै सपरस नांहि नही रस गंध नां। ढाहा तोड वहै जु नदी आसातणी, ___ तु ही उतारै पार और कोई न धणीं ॥७॥ . डायो ढहै न मोह तो विना नाथजी,
दाप्यो ढपै न त हि महा गुणसाथ जी। ढारयो दरै जु नांहि, आप ही तू ढरे,
भव थिति आवै नीड आपनौं जब करै॥८॥ ढिग ही रहै जु नाथ मूढ जानें नहीं,
दीले आतम काज करन कौं सठ सही।