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अध्यात्म बारहखड़ी
न पुत्र न पौत्र न श्रांम न गांम, सुपुस्तक मांहि तु ही अभिराम । जु पुच्छ बिना तिरजच जिकेहि भजैं नहि तोहि जु मूढ तिकेहि ॥ ८४ ॥ वृथा करि फूलि धेरै जु गुमान, सु चूंटिहि जाय जु पुष्प समान । नहीं तुव दास करें प्रभु मांन, चहें न विमान गर्दै तुव ज्ञान ।। ८५ ।। नहीं पुनरुक्त जु तू हि कदापि, भजैं हि पुनर्पुन धीर अलापि । तु पुष्करसों निरलेप मुनीस, अकास तन इह नांम भनोस ॥ ८६ ॥ कहैं फुनि पुष्कर नाम तडाग, तु ही सर सौ तपहा रसभाग ।
तु
ही इक पूजि नही पर पूजि, महा अतिपूरव तु ही जगदूजि ॥ ८७ ॥ न पूत न नाति हि तू निजरूप, अपूरव पूरव तु जगभूप । तु ही परिपूरण पूरण ज्ञान, सुपूठि न देहु सुनौं भगवांन ॥ ८८ ॥ करौ प्रभु हौं अतिपूत जु कार, हरे हमरे गुन मोह अपार । सुरंचक दें करि इंद्रिय भोग, ठग्यो मुझको लखि मूरख लोग ॥ ८९ ॥ अ करि न्याव गुना धन द्याव, तु ही जगराव सुन्यौं अतिभाव | जु, पूछि तिहार हि द्वार महंत, तु ही जगपूजित नाथ अनंत ॥ १० ॥ हमारी ही देह महाहि मलीन, महा अति पूर्ति जु गंध अलीन। भजें तुव नाथ पुनीत जु होइ, करों अति पूत प्रभू तुम सोय ॥ ९१ ॥ तु ही इक प्रेष्ट जु और न कोइ, महा अति इष्ट सुअर्थ जु होय । महा इक प्रेषण तृ. हि दयाल, करें अति प्रेम मुनीस विसाल ॥ ९२ ॥ तु ही प्रभु प्रेम अपेम वितीत, तु भक्त जु वच्छल देव अतीत | कहैं प्रभु रुद्र हि प्रेत जु नाथ, जपें तु हि रुद्र सुगौरि हि साध ॥ ९३ ॥ तु पेहि देहि लोक अलोक, तु ही इक पेड़ धरें बहु थोक । लगे जग लोक सुपेट इलाज, भजें नहि मूह तुझें महराज ॥ ९४ ॥ सुपैठि रहे परपंचनि मांहि, जु पैसिहि मायक मैं सक नांहि । करें अति पैसुन्यता जगजीव तुझें नहि पावहि तू जग पीत्र ॥ ९५ ॥१ जुपै रहि भक्ति रसाधिक मांहि तिक्रे भव पार लह सक नाहि । लहैं नहि भक्ति सुपैमुनि धारि, सुदुष्ट स्वभाव महादुखकारि ॥ ९६ ॥