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अध्यात्म बारहखड़ा . . . . . . ... ... .
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निभी इह पैज तिहार सदाहि, जु ले सरनौँ तुम यो शिव ताहि। सुपोथिनि मांहि तुम्हारि ही कित्ति, तु ही गुन पोषक है अति सत्ति॥९७ ।। कहै तु हि प्रोषध युक्त उपास, धरै प्रभु पोसह ध्यांबहि दास। जिके नर पोहि इंद्रिय स्वाद, तिके नहि पांवहि भक्ति प्रसाद ।। ९८॥ मुनीसर पोस जु माधनि मास, रहैं तटिनी तट भोग उदास । सुग्रीषम मांहि रहैं गिरसीस, सुचातुरमासहि वृक्ष तलीस ॥ ९९ ॥ करे तप तोहि जपे अघनासि, लहैं पद केवल ज्ञान विलामि । विना तुव भक्ति तपा फल नून, महातप तेज तु ही हि अनून ।। १०० ।। तु ही अति पोरिस पोषन हार, सुनौं इक बात भवोदधितार। जु पोट महा दुरगंध तनीहि, धरी हमरै सिरि बसि वनीहि ।। १०१।। महा सठ मोह न छोडहि पिंड, भमावहि लोक पहैं जु अखंड । तु ही हमरौ करि ऊपर नाथ, करे निरबंधन दै निज साथ ।। १०२॥ तु ही इक पौरिघ रूप अथाह, तु ही प्रभु पौरव नागर नाह। भ® तुव पौरि सुरासुर सर्व, भ0 नरनाथ तजे सहु गर्व ।। १०३ ।। नहीं प्रभु पौरि न खाइ हिं कोट, न साथ न संग न आंन दपोट। सर्व धर तूहि सवै हि विनीत, अजीत सजीत अभीत अतीत॥१०४॥
सारठा - पौलोमी को नाथ, अर पौलोमी तुव रटैं। तृ ही अति गुन साथ, पौत्र न पुत्र न नारि नां॥१०५ ।। इंद्राणी को नाम, पौलोमी पंडित कहै । जपैं निरंतर धाम, तेरों पौलोमी सदा॥१०६ ।। खीण भयो अति नाध, रोगी नादि जु काल को। तृ अनंत वड़ हाथ, पौष्टिक भाव सु दे मुझें ।। १०७ ।।
दोह। - पंजर नाम शरीर कों, तेरै पंजर नाहि। पंच शरीरनि से रहित, चिदघन गुन तन मांहि ।।१०८।।