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अध्यात्म बारहखड़ी
पंगा अव्रत धारका, चरन रहित अविवेक। ते तेरे परसाद ते, पांवहि चरन विवेक॥१०९॥ तु ही पुंडरीकाक्ष है, प्रभु पंचत्व वितीत । ज्ञानानंद सु पिडं तृ, पंक रहित जगजीत ।। ११० ।। पंकज चरन जु मुनि भमर, सेवै तन मन लाय। पंथ प्रकासक एक त, पंथी भक्त निकाय।। १११ ॥ पंच महाव्रत धारका, इंद्रिय पंच निरोध । पंद्रह त्यागि प्रमाद जे, ध्यावहि चित्त विसोधि॥११२ ।। पंच अधिक प्रभु चालीसा, लख जोजन परमांन । सिद्ध सिला है सासती, सोहि तिहारौ थांन॥११३ ।। पंचास जु लक्षा कहे, कोडि उदधि परवांन । ऋषभ पछै इतनें दिननि, प्रगटे अजित सुजांन ।।११४॥ सुर्ग सोलमैं आय है, देविनि की उतकिष्ट । पंच अधिक पंचास पलि, तृ भासै जग इष्ट ।। ११५ ॥ पंच साठि प्रकती प्रभू, चौदह के हैं भेद। मिलि अठवीस तिसंणवै, नाम प्रकति अति खेद ॥ ११६ ।। तेरे एक न पाइए, प्रकति परै तू होय।
अविनासी आनंद मय, केवल रूप जु कोय।।११७ ।। पंच अधिक सत्तरि सहस, ताके आधे जोय। सर्व प्रमाद न तो विषै, निह प्रमाद न होय ॥ ११८ ।। पंच अधिक असी प्रक्रति, जरी जेवरी तुल्य। ते ह खपाय सुकेवली, सिद्ध जु हौंहि अतुल्य ॥११९ ।। पप्या पासि दु सुन्य है, अंतिम मात्रा जोहि। तू सब मात्रा मांहि है, चिनमात्रो प्रभु होहि ।। १२० ।।