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अध्यात्म बारहखड़ी
झूप त्यागि नर नाथ, वन उपवन गिरि सिर बसें । करें राबरी प्राथ, हाथ करें निरतांन ते ॥ २७ ॥
झूलै निज रस मांहि, सव छति है तुव पांहि सुरझेरा करि देव, उरझेरा हरि जग प्रभू ।
दै स्वांमी निज सेव, झेलि हमारी वीनती ॥ २९ ॥
तू ।
स्वरस विहारी देव भव झेरा तैं काहि प्रभु ॥ २८ ॥
झेरा मैं रस नांहि, नीरस झेरा जग सब रस तेरै मांहि निज गुन वेढि निकासि उरझै तो विनुजी, सुरझे तो करि जीव वृझे तोकौं पीव, तब आपौ जांनै झैं मात्रा मैं तू हि, झोल झाल तेरे झोक न गुन जु समूहि, जाग्रत रूप सदा तु ही ॥ ३२ ॥
नहीं ।
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इहै ।
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तू ॥ ३० ॥
छंद मोती दाम
नहीं कछु झोर न ही झकझोर, तु ही अति जोर हरै सब रोर । कहै प्रभु झोर पल्लंम जु नांम, नहीं जु पल्लम तु ही अभिराम ॥ ३३ ॥ नही कछु झौर तु ही अति दौर, हरै झकझौर तु ही जगमौर । तुझे तजि मूदि विषै सुख मांहि, रमैं नरकांपुर तात हि जाहि ॥ ३४ ॥ करै सठ झंपपात जु देव, तुझे तजि धारहि आंन जु सेव । नहीं प्रभु झंझह पौन जहां जु, नहीं कछु सीत न घांम तहा जु ॥ ३५ ॥ नहीं जलदान जहां तुव थान, नहीं वन ग्रांम नहीं ससि भांन । नहीं दिन रैनि जहां अति चैन, न नीच न ऊच नही जहाँ मैंन ॥ ३६ ॥
सर्व तुव झिंडह मांहि दयाल, जु लोक अलोक अनंत विसाल । तु ही जु रसाल सबै जगभाल, करै जु निहाल तु ही इक लाल ॥ ३७ ॥ - दोहा -
झः कहिये सिद्धांत मैं, नष्ट वस्तु कौ नांम ।
नष्ट जेहि तोहि न भजें, तू सपष्ट अभिराम ॥ ३८ ॥
इह ।
सही ॥ ३१ ॥