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अध्यात्म बारहखड़ी
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं ।
- सवैया - ३१ – झर लावै अमृत कौ जगत की जीवनि तृ,
झाल माल नांहि लाल काल हर देव तू। झिगति तू पार करै झीणी चरचा जु धेरै,
झुकै नांहि झूठ मांहि अतुल अभेव तू। झेरा नै निकासै ईस झै विभास तू अधीस
झोलझाल नांहि तेरै, अचल अछेव तू। झौरझार नाहि कोऊ झिंडा मांहि सर्व होऊ झः करै जु राग दोष, देहु निज सेव तू॥३९॥
- दोहा - नष्ट वस्तु को झः कहै, नष्ट कर रागादि। जैसी तेरी सेव दै, सरव गुननि की आदि ।। ४० ।। झगर समा झगरामई, भूति समा भवभूति ।
तेरी दौलति सासती, सत्ता अतुल विभूति ।। ४१ ।। इति झकार संपूर्ण । आगै अकार का व्याख्यान करै हैं।
- शोक - अकाराक्षर कर्तार, सर्वज्ञं सर्वकामदं। शिवं सनातनं शुद्ध, बुद्धं वंदे जगत्प्रियं ।।१।।
- छंद मोती दाम - अकार सुअक्षर मूढ जु नाम, नहीं हम से सठ और जु राम। तुझै जु विसारि रचे भव मांहि, कछू सुधि आतम की प्रभु नाहि॥२॥ अकार जु नाम विषै परसिद्ध, सुइंद्रिनि के रस मांहि जु गिद्ध। लहैं नहि भक्ति जु ते मतिहीन, विधै सम पाप न और जु लीन ।।३।।