________________
अध्यात्म बारहखड़ी
मौजी तो सम और, तीन लोक मैं नाहि को। करै करम कौ चौर, मौर्वी चाप न रोपनां ।। ५७ ।। मौनारद मुनीश, ध्यावें मंगल रूप तू। मंत्र मृरनी ईश, मंत्र न तंत्र न यंत्र नां ॥५८ ॥ मंगल कारी तृहि, मंता संता कंत तू। मंद न तूहि प्रभूहि, मंदमती तोहि न लखें।। ५९ ।। मंदिर गुन को ईस, सीस जगत को तू ही। मंगलीक जगदीस, मंडन त्रिभुवन को महा॥६०॥ मं. व्रत अनादि, खंडें अव्रत कौं तू ही। गुन मंडित तू, आदि, तो विना वादि सवै जगत ॥६१॥ मुंचि न मौकों नाथ, मंक्षु उधारौ भव थकी। जग जीवन अतिसाथ, अंजन मंजन रहित तू॥६२॥ मंद कषाई जीव, भक्ति भाव सोई लहै। तीन कषाय अतीव, धारै सो, तोहि न लहें ।। ६३ ।। मः कहिये श्रुति माहि, शिव को नाम प्रसिद्ध है। तो विनु और जु नाहि, शिव शंकर जग गुर तुही ।। ६४।। मः कहिये फुनि चंद, त्रिभुवन चंद मुनिंद तू। से इंद नरिंद, तोहि फनिदं मुनिंद हू।। ६५ ।। मः वेधा को नाम, तू ही विधाता विधि करै।
पूरब बंध जु राम, कादं तु औरैन को॥६६ ।। अथ बाग मात्रा एक कवित्त मैं।
- सबैबा . ३१ - महादेव महाराज, मारग प्रकास तू,
माया नै वितीत मिथ्या भाव ते रहित है। . मीन केतु जीति मुनि ध्यावे, तोहि मूल तही
मेदनी को नायक अनंतता सहित हैं।