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अध्यात्म बारहखड़ी
-- छप्पय -
मेन वै जल . आर, तू हि जानामृत धारा,
ताकी रहनि न ठीक, तू हि है नित्य विहारा। वह निपजांदै धांन, तू हि उपजावै ध्याना,
वह देहगो कदापि, तू हि निहकपट विग्याना। अति चपल दामिनी मेघ कै, तेरै कमला निश्चला,
प्रभु क्षणक चाप है जलद को, जान चाप तुव अतिबला ।। ५१।। मेर धरम की तू हि, मेर वांधै धरमनि कि,
मेचक भाव मलीन, मलिन परणति करमन कि। मेचकता नहि कोइ, शुद्ध तू बुद्ध महाअति,
जगत देव अतिभेव, परम तत्व जु तू जगपति । सकल मेदनी को जु नाथा, मैत्री प्रमुख जु भावना,
सव कहइ विमल अति अचल्न तू, भाव तिहारै पावना।। ५२॥ मैथुन है अतिनिद्य, ताहि त्या- तुव दासा,
मैंन कहावै काम, कामहर परम प्रकासा। मोह मल्ल को जीति, मोक्ष की पंथ जु तू ही,
मन मोहन तू देव, सर्वगत तू हि प्रभू ही। मोद स्वरूप अनादि अनिधन, अति प्रमोद भावो तु ही,
मोकौं जु तारि भव जलधि तै, नाव तू हि जगदीस ही॥५३॥
- सोरठा -- मोहे जीव अपार, मोह करम नैं नाथ जी। तू हि उतारै पार, पारंकर परतक्ष तू॥५४ ।। मोसे जीव अपार, कैसैं मैं तिरिहौं प्रभू। तू हि करै निसतार, मोसे पापनि को महा॥५५ ।। मौलि मुकट को नाम, मुकट जगत को तू सही। मौड सकल को राम, मौज न तेरी सी कहूं ॥५६॥