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अध्यात्म बारहखड़ी
- छप्पय -- क्षुद्र पान को क्षीर, नीर हू तिन के घर को। कबहु न लेवौ जोग्य, काम नहि उत्तम नर कौ। काचौ दूध अजोगि, कवहु अचवें नहि भक्ता।
द्वै घटिका पहलीहि, उश्न करनौ हि प्रयुक्ता। भेड उष्टरी को न क्षीर, श्रुति वर्जित दास न ग्रहैं। तजि क्षुद्र भाव शुभ भाव धारे, दास दरस तसे चहें।। १८॥
___ - कुंडलिया छंद - तो मैं नाहि विभिन्नता, क्षुद्र न पार्दै तोहि,
क्षुद्र कर्म क्षुण जु किये, दै अनुभव रस मोहि । दै अनुभव रस मोहि, तू हि है देव अवस्त्रा,
झुरिकादिक नहि कोइ, रावर शस्त्र जु अस्त्रा। तोहि भज्यो नहि नाथ, ज्ञान वैराग्य न मोमैं, अव दै केवल भक्ति, भिन्नता नाहि वि तोमैं।। १९॥
- छंद - क्षुधा त्रिषाधिक दोषा नाही, क्षुल्लक भाव न तैर। क्षुत्रिट हर मुनिनि की तू ही, समता भाव जु प्रेरै॥२०॥ क्षुल्लक एलि उभै विधि भासै, एकादस पडिमा मैं। तू नहि क्षुल्लक एलिन मुनिवर, केवल सिद्ध दसा मैं।।२१।। क्षुत न जंभाई खास न सासा, देवनि के वुध भार्षे तू देवनि को देव जगत गुर, मुनि हिरदा मैं राखें।२२।।
मंत्राक्षर भासक तू ही, मंत्र मूरती देवा। क्षेत्रपती क्षेत्राधिप सांई, क्षेत्री क्षेत्र अछेवा॥ २३ ॥ क्षेत्रपाल क्षेत्रज्ञ गुसांई, सब क्षेत्रनि की जानैं। क्षेमकर क्षेमंधर स्वामी, तत्त्रातत्व वखांनै २४॥ क्ष्वेड कहावे विष की नांमा, विषधर तोहि जु ध्यावें। विषधर शंभू अर पारवती, तेरौ ही गुन गांवै।। २५ ॥