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अध्यात्म बारहखड़ी
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सवैया
क्षांत प्रशांत सुदांत तुही प्रभु, कांत अपार सुक्षायक दाता। क्षांति प्रकाशक भासक ज्ञान सुक्षायक सम्धक रूप उदाता । क्षांम नही तु हि क्षाम कहैं कृश, तू अति पुष्ट प्रवीन प्रमाता । क्षार समुद्र सुआदि अनेक, पयोनिधि भासइ तूहि विख्याता ॥१३॥ क्षालन हार सवै अधको तु हि, तोहि प्रक्षालन हार न कोई। क्षार पयोधि समांन इहै भव, तू गुन सागर अमृत सोई। क्षिष्ट परे सह कर्म कलंक तिहारहि दासनि पैं वल खोई। क्षिप्त किये परभाव विभाव सुदासनि के परपंच न होई॥१४॥
- छप्पय ... क्षिषु हिंसायां नाथ, भासई पंडित लोका। हिंसासम नहि पाप, ए हि सव अघ को थोका। हिंसक लहइ न भक्ति, जीव रक्षक तुव दासा ।
दया समान न धर्म, भाषई केवलि भासा। क्षीण कलंक प्रक्षीण बंधा, क्षीर समुद्र प्रसिद्ध कर। क्षीर श्राविणी ऋद्धि धारा, ध्यां3 तोहि मुनिंद वर।। १५ ।।
क्षीयमाण नहि तू हि, वीर तू वर्द्ध जु माना। क्षीण शरीर न होय, पुष्ट तू सुख तन ज्ञाना। क्षीरादिक रस त्याग, तपधरा तपसी ध्यावें।
क्षीरोपम तू विमल, विमल है मुनि जन पावें। क्षीर नीर यौँ जीव जड़ कौं भेद भाव लखि योगिया। लहि ब्रह्म ज्ञान तोकौं लखें, अनुभव रस के भोगिया ॥१६॥
- दोहा -
ज्ञान क्रिया करुणानिको, तेरी भक्ति निदान । तेरे भक्त न आदरै, वस्तु अखांन अपांन ॥१७॥