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अध्यात्म बारहखड़ी
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घट पट ज्ञायक गुन सुतन, है घनस्याम अधीस | तू घट भिन्न अभिन्न है, घन स्वामी अवनीस ॥ १० ॥ घर घरनीं तजि मुनिवरा, जपैं तोहि निज रूप । घर घर को मरमी तुही, अघट अघाट अनूप ॥ ११ ॥ घातरहित तू घाति हर रहित अघाति अछेव । अरिउट मैं ति करै तुम सेव ॥ १२ ॥ कालवसू या जगत मैं, हम जु हैं रहे घांघ । घांघपणों प्रभु दूरि करि तू अति सुख की थांघ ॥ १३ ॥ घा कहिये सिद्धांत मैं, नांव किंकणी ख्यात । किंकणि सम वाचालता, मेदि मन दे तात ॥ १४ ॥ घायल हैं हम मोह के, घाव लगे अति जोर। निज औषद दै घावभरि तूहि मोह मद मोर ।। १५ ।। घास फूस सम जग विभव, हम नहि चाहें याहि । कण रूपा निज भक्ति दें, और नहि कछु घां तेरी चोघै प्रभो, वह द्रिष्टि दै औरें घां को चौधिवाँ, तू छूडाय घित्यौ भरम के घेर हूं, तू छूडाय जगदेव । छूटि भरम तैं मैं सही, करि हौं तेरी सेव ॥ १८ ॥ घिण घिणावण इह जु तन, यांमैं वास न इष्ट । तन धरिवौ हमरौ जु हरि, र्दै निजवास प्रतिष्ट ॥ १९ ॥
चाहि ॥ १६ ॥
नाथ ।
वडहाथ ॥ १७ ॥
ति दधि खीर सु ईखरस, लवण आदि बहु स्वाद । तेरी भक्ति समान रस, और नहीं अति स्वाद ॥ २० ॥ चर्म पतित नहि लीन।
भखें न दास अलीन ॥ २९ ॥
घी जल तेल इत्यादि ए, भाषै तेरौ श्रुति इहै, घीया तेला आदि दे, जे वहु बीजा तेन भाखेँ दासा कभी, श्रुति वर्जित अप्रशस्त ।। २२ ।।
बस्तु |