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अध्यात्य बारहखड़ी
- दोहा ... गर्व हरै सव की प्रभू, जैसी तेरी शक्ति ।
सोई कमला लच्छिमी, भाषा दौलति व्यक्ति ।। ५६ ।। इति गकार संपूर्णं । आगैं घकार का व्याख्यान करै है।
- भोक - घटस्थमघट देवं, घाति चायाति वर्जितं । सर्व मात्रा मयं धीर, वीरं वंदे महोदयं ।।१॥
- दोहा - घर घर की सेवा करत, उपज्यो अति गतिखेद। अव तू अपनी टहल दै, लै निज मांहि अभेद ।।२।। घर घरणी मैं हम लगे, धन धरणी की चाहि। चाहि हमारी मेटि सब, बहु भरमावै काहि ।। ३ ।। घटि बधि तेरै कछु नही, तू घटि वधि तैं दूर। घट घट अंतर जामि तू, घटभेदी घटपूर ।। ४ ।। घन सम चिदधन तू सही, घन है बज्र सु नाम। कर्म पहार प्रभंज तू, अति कठिन जु अति धाम ॥५॥ घन भार्थं जन मेह की, तू है मेघ स्वरूप। अमृत झर लावै सदा, तपति हरन सुख रूप॥६॥ घरी घरी इह जाय है, बृथा जु मेरी आय । तेरी भक्ति विना विफल, भक्ति देहु जगराय ।।७।। घस्मर सूरिज नाम है, तू है त्रिभुवन सूर। भ्रांति निसाहर वोधकर, किरण अनंत प्रपूर ॥८॥ घटातीत घनपाल तू, घटरक्षक घनजीत । घट घट नायक अघट तू, घन प्रदेश जगजीत ।।९।।